महिला जगत-1


नि:सन्देह पारिवारिक ढ़ाँच में माता की भूमिका सबसे प्रमुख होती है। वही अपनी उछेश्यपूर्ण गतिविधियों एवं नियमों पर आधारित प्रबन्ध दारा परिवार को कल्याण की ओर उन्मुख कर सकती हैं। यदी परिवार के ढ़ाँचे की तुलना मनुष्य के शरीर से करें तो बिना आतिश्योक्ति के कहा जा सकता है कि महिला परिवार की नाड़ी और उसकी धड़कन है। उसमें दाइत्वों का आभास और योग्यताएँ परिवार के अन्य सदस्यों को भी व्यक्तिगत और सामाजिक गतिविधियों में सफलता के शिखर पर पहुंचा सकती हैं।

हमारे समाज की परिश्रमी तथा त्यागी महिलाओं ने सदैव और हर परिस्थिति में प्रयास किया है कि विभिन्न प्रकार की ज़िम्मेदारियों का भार बिना तनिक आपत्ति के अपने कँधों पर उठा लें ताकि परिवार के अन्य सदस्य कम ज़िम्मेदारियों के साथ शान्तिपूर्ण जीवन व्यतीत करें। रोचक बात तो ये है कि परिवार के अन्य सदसयों को इन भारी दाइत्वों का आभास तक नहीं होता। अलबत्ता उस समय तक कि जब तक किसी कारण वश उनके कँधे पर इसका बोझ न पड़ जाए। हमारे समाज में महिलाओं को दाइत्व बोध इतना अधिक होता हैं कि बीमारी की हालत में भी घर के अधिक से अधिक कार्यों को स्वँम ही करने का प्रयास करती हैं। यही कारण है कि जब किसी बीमारी के कारण  माता अस्पताल में भर्ती होने का बिस्तर पर लेटे रहने के लिए विवश होती है तो पूरे परिवार को अनगिनत समस्याओं से जूझना पड़ता है। तब कहीं जाकर पिता और बच्चों को पता चलता है कि मां ने अपने कँधों पर कितनी भारी ज़िम्मेदारियाँ उढा रखी हैं।

हमें ये स्वीकार करना चाहिए कि यदि महिला परिवार में कार्य करने और सब की सेवा करने वाला एक रोबोट भी हो, तो भी उसे देख-भाल की आवश्यकता है। वास्तव में जीवन का अर्थ ही यही है कि कभी स्बस्थ और कभी रोगी। हमें ये आशा नहीं रखनी चाहिए कि महिला को जो अकेले ही जीवन के सभी मामलों की ज़िम्मेदारी अपने कँधों पर उठाए रखती है और हर दशा में परिवार के सभी सदस्यों की देख-भाल करती है,किसी भी प्रकार का समर्थन या देख-भाल की आवश्यकता नहीं होना चाहये परिवारिक जीवन केवल एक व्यक्ति पर निर्भर नहीं रह सकता, बल्कि परिवार के सभी सदस्यों को एक दूसरे का ध्यान रूखना चाहिए। घर वो स्थान है जहां "हमसे क्या मतलब जो होता है होता रहे " जैसे वाक्यों का कोई स्थान नहीं होना चाहिए।

घर गृहस्ती के कार्य ऐसे हैं जिनमें कभी छुट्टी नहीं होती इनमें अवकाश और आराम का कोई स्थान नहीं है। बच्चों की देख-भाल और घर के कामों से महिलाओं के लिए कोई समय बाक़ी नहीं बचता कि वो अपने बारे में भी कुछ सोचें।
महिलाएं प्राय: घर के कार्यों को प्राथमिकता देती हैं। इसी लिए यदि उनसे पूछा जाए कि आप के पास अपने घर के लिए कितना समय होता है तो उनके पास इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं होता है। महिलाओं की अधिकांश शारीरिक एवं मानसिक परेशानियों का कारण आवश्यकता से अधिक त्याग और बच्चों तथा घर वालों की देख भाल में क्षमता से अधिक काम करना है। जबकि एक स्वस्थ परिवार केवल मां के स्वस्थ रहने पर ही संभव है।

यदि परिवार में क़ानून लागू हों और निर्रथक सहानुमूति के स्थान पर सुव्यवस्थित नियम तो परिवार के सभी सदस्यों के बीच सन्तुलन बना रहता है। ऐसा सन्तुलन परिवार के सभी सदस्यों की सहकारिता द्वारा प्राप्त होता है।

इसके लिए आवश्यक है कि घर के सभी कार्यों को अकेले ही न करे और हर सदस्य की योग्यता तथा क्षमता के आधार पर उससे काम लें। यधपि ५ वर्ष के बच्चे में खाना बनाने की क्षमता नहीं होतो परन्तु वो खाने के बाद प्लेटों को उठाकर रसोई तक ले जाने में सहायता अवश्य कर सकता है। स्पष्ट है कि पति और बड़े बच्चे अन्य मूल कार्यों में सहायता कर सकते हैं। इसके कुछ मूलभूत लाभ हैं।
पहला ये कि पति और बच्चों को इसका आभास होता है कि जिन कार्यों को वो कोई महत्व नहीं देते वो कितने काठिन और समय लेने वाले हैं। इसलिए उनके मन में माता के कार्यों का महत्व अधिक बढ़ जाता है।

दूसरे ये कि यदि युक्तियों दारा विभिन्न प्रकार के दाइत्वों का भार माँ के कंधों से कम किया जाए तो समय से पूर्व उत्पन्न होने वाली उसकी कमज़ोरी और बुढ़ापे को रोका जा सकता है।
तीसरे ये कि कर्तव्यों और कार्यों को विभाजित करके यदि माता को उसकी रुचि के कार्यों के लिए समय दिया जाए तो वो बेहतर रुप से घर के काम कर सकती है चोथी और अत्यन्त महत्वपूर्ण बात ये है कि गृहस्तथी के कामों को सीख कर बच्चे आवश्यकता पड़ने पर अपने कार्यों को स्वँम करने के योग्य हो जाते हैं।

हमने कई बार देखा है कि जिन बच्चों को घर के थोड़े बहुत काम सिखा दिए जाते हैं उनको यदि कभी अकेले रहना पड़ता है जैसे पढ़ने के लिए किसी दूसरे शहर जाना पड़ता है, तो उन्हें कम समस्याओं का सामना करना पड़ता है। वो एक अपरिचित स्थान पर जाकर स्वँय को सँभालने की क्षमता रखते हैं।
इसके विपरित जो बच्चे हद से अधिक माँ पर निर्भर रहे होते हैं, और अपना कार्य केवल पढ़ना- लिखना समझते हैं, उन्हें कहीं बाहर जाकर अत्यधिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। उन्हें सदैव इस बात की प्रतीक्षा रहती है कि कोई दूसरा आकर उनके सारे काम कर दे।

अन्त में हम यही कहेंगे कि माताओं को भी थकन या बेकारी के समय दूसरे लोगों की भँति ही सहानुमूति प्रेम एवं स्नेह की आवश्यकता होती है ताकि वो अपनी शक्ति और मनोबल को फिर से प्राप्त कर सकें। हमें अपने कर्तव्यों को भी समझना चाहिए और उसकी देख भाल भली भँति करनी चाहिए जो अपने पूरे जीवन पति और बच्चों की देखरेख करने नहीं थकती और बिना किसी पारितोषिक की आशा के दिन रात सबकी सेवा में लगी रहती है।