फ़िक़्ह के चार आधार

फ़िक़्ह के चार आधार

हमारी फ़िक़्ह के चार मनाबे हैं।

1- क़ुरआने करीम , अल्लाह की यह किताब इस्लामी मआरिफ़ व अहकाम की

असली सनद है।

2- पैग़म्बरे इस्लाम (स.) व आइम्मा-ए-मासूमीन अलैहिम अस्साम की सीरत।

3- उलमा व फ़ुक़्हा का वह इजमा व इत्तेफ़ाक़ जो मासूमीन अलैहिमुस्सलाम की नज़र को ज़ाहिर करता हो।

4- अक़्ली दलील और अक़्ली दलील से हमारी मुराह दलीले अक़्ली क़तई है न कि दलीले अक़्ले ज़न्नी क्योँ कि दलीले अक़्ली ज़न्नी जैसे क़ियास, इस्तेहसान वग़ैरह फ़िक़ही मसाइल में हमारे यहाँ क़ाबिले क़ुबूल नही है। इसी वजह से हमारे यहाँ कोई भी फ़क़्ही किसी ऐसे मस्ले में जिसके लिए क़ुरआन व सीरत में कोई सरीह हुक्म मौजूद न हो अगर अपने गुमान में किसी मसलहत को पाता है तो उसको अल्लाह के हुकम के उनवान बयान नही कर सकता । इसी तरह से क़ियास व इसी की तरह की दूसरी ज़न्नी दलीलों के ज़रिये शरई अहकाम को समझना हमारे यहाँ जाइज़ नही है। लेकिन वह मवारिद जहाँ इंसान को यक़ीन पैदा हो जाये जैसे ज़ुल्म, झूट, चोरी व ख़यानत के बुरे होने का यक़ीन, अक़्ल का यह हुक्म मोतबर है व “कुल्लु मा हकमा बिहि अलअक़्लु हकमा बिहि अश शरओ ” के तहत हुक्मे शरीअत को बयान करने वाला है।

हक़ीक़त यह है कि हमारे पास मुकल्लेफ़ीन के मोरिदे नियाज़ इबादी , सियासी, इक़्तेसादी व इज्तेमाई अहकाम को हल करने के लिए पैग़म्बरे इस्लाम(स.) व आइम्मा-ए- मासूमीन अलैहिम अस्सलाम की फ़रवान अहादीस मौजूद है जिस की बिना पर हम को ज़न्नी दलीलों की पनाह लेने की ज़रूरत पेश नही आती। यहाँ तक कि “मसाइले मुस्तहद्दिसा” (वह नये मसाइल जो ज़माने के गुज़रने के साथ साथ इंसान की ज़िन्दगी में दाख़िल हुए) के लिए भी किताब व सुन्नत में उसूल व क़ुल्लियात बयान हुए हैं जो हम को इस तरह के ज़न्नी दलाइल के तवस्सुल से बेज़ार कर देते हैं। यानी इन अहकामे कुल्लियात की तरफ़ रुजूअ करने से नये मसाइल भी हल हो जाते हैं ।

नोट - इस छोटी सी किताब में इस बात को तौज़ीह के साथ बयान नही किया जा सकता। इस मसले को समझने के लिए किताब “मसाइलुल मस्तुहद्दिसा” को देखें। हम ने इस किताब में इस बात को रौशन तौर पर बयान किया है।
64- इजतेहाद का दरवाज़ा हमेशा खुला हुआ है।

हमारा मानना है कि शरीअत के तमाम मसाइल के लिए इजतेहाद का दरवाज़ा खुला हुआ है और सभी साहिबे नज़र फ़कीह ऊपर बयान किये गये चार मनाबों से अल्लाह के अहकाम को इस्तंबात कर के उन लोगों के हवाले कर सकते हैं जो अहकामे इलाही के इसतंबात की क़ुदरत नही रखते। चाहे इन के नज़रिये पुराने फ़क़ीहों से मुताफ़ावित ही क्योँ न हो। हमारा अक़ीदह है कि जो अफ़राद फ़िक़्ह में साहिबे नज़र नही है उनको चाहिए कि किसी ज़िन्दा फ़क़ीही तक़लीद करे ऐसे ज़िन्दा फ़क़ीह की जो ज़मान व मकान के मसाइल से आगाह हो । फ़क़ीह की तरफ़ गैरे फ़क़ीही का रुजूअ करना हमरे नज़दीक बदीहीयात में से है। हम इन फ़क़ीहों को “मरआ-ए- तक़लीद ” कहते हैं। हमरे नज़दीक इबतदाई तौर पर किसी मुर्दा फ़क़ीह की तक़लीद भी जाइज़ नही है। अवाम के लिए ज़रूरी है कि वह किसी ज़िन्दा फ़क़ीह की तक़लीद करें ताकि फ़िक़्ह हमेशा हरकत में रहे और तकामुल की मंज़िले तैय करती
रहे।