अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क

शिया परिभाषा की उत्पत्ति

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अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली (अ.) का अनुसरण, आपको दूसरे अस्हाबे पैग़म्बर से सर्वोत्तम व सर्वश्रेष्ठ स्वीकार करने और आपसे प्यार व स्नेह का अभिव्यक्ति करने वाले मुसलमानों को शिया कहे जाने का इतिहास बहुत प्राचीन है इसका सम्बंध अहदे रिसालत अर्थात इस्लामी ईशदूत के युग से है। शिया व सुन्नी मुहद्देसीन ने पैग़म्बर से जो हदीसें इस बारे में नक़्ल की हैं उनसे स्पष्ट रूप से यह पता चलता है कि हज़रत अली (अ.) के अनुगामी और चाहने वालों को स्वंय रसूले इस्लाम ने शिया फ़रमाया है । जलालुद्दीन सिव्ती ने आयत
ان الذين آمنوا و عملوا الصالحات اولئك هم خير البريّة
की व्याख्या में जाबिर इब्ने अब्दुल्लाहे अंसारी और अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास से पैग़म्बरे अकरम की रिवायतें नक़्ल की हैं कि आपने हज़रत अली (अ.) की ओर इशारा करके फ़रमायाः यह और उनके शिया महाप्रलय के दिन सफल होंगे।
والذى نفسى بيده انّ هذا و شيعته هم الفائزون يوم القيامة
इब्ने असीर ने हज़रत रसूले इस्लाम (स.) से रिवायत की है कि उन्होंने हज़रत अली (अ.) को सम्बोधित करके कहाः
ستقدّم على اللّه انت و شيعتك راضين مرضيين، و يقدم عليه عدوّك غضبانا مقمحين
तुम और तुम्हारे शिया महाप्रलय के दिन ईश्वर की सेवा में इस अवस्था में प्रविष्ठ होगे कि ईश्वर उन से संतुष्ट वह ईश्वर से संतुष्ट और तुम्हारे शत्रु महाप्रलय के दिन दुख व लज्जा के साथ ईश्वर की बारगाह में उपस्थित होंगे।
ऐसी ही रिवायत शबलंजी ने भी अपनी किताब नूरुल-अबसार में उल्लेख की है।
सिव्ती ने एक और रिवायत इब्ने मुर्दवैह के माध्यम से हज़रत अली (अ.) से नक़्ल की है कि पैग़म्बरे अकरम (स.) ने हज़रत अली (अ.) से फ़रमायाः इस आयत
انّ الذين آمنوا و عملوا الصالحات اولئك هم خير البريّة
से मुराद तुम और तुम्हारे शिया हैं। मेरे और तुम्हारे वचन का स्थान हौज़े कौसर है जब उम्मतें संख्यान के लिए लाई जाएंगी और तुम प्रसन्न तथा प्रतिष्ठित व सफल होगे।
انت و شيعتك و موعدي و موعدكم الحوض اذا جاءك الامم للحساب تدعون غرّا محجّلين
इब्ने हजर, उम्मे सलमा से रिवायत करते हैं कि उम्मे सलमा ने कहाः रसूले अकरम (स.) मेरे पास थे, हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (अ.) और उनके बाद हज़रत अली (अ.) पैग़म्बर की सेवा में आए पैग़म्बर ने हज़रत अली से सम्बोधित होकर कहाः
يا علي انت و اصحابك في الجنّة، انت و شيعتك في الجنّة
ख़तीबे ख़्वारज़मी अपनी किताब अल-मनाक़िब में हज़रत अली इब्ने अबी तालिब (अ.) से रिवायत करते हैं कि जब रसूले इस्लाम (स.) को मेराज हुई और आप स्वर्ग में प्रविष्ठ हुए तो वहाँ आपने एक पेड़ देखा जिसे विभिन्न प्रकार की आभूषणों से सुसज्जित किया गया था। पैग़म्बर (स.) ने जिबरईल से प्रश्न किया कि यह पेड़ किसके लिए है जिबरईल ने उत्तर दियाः आपके चचेरे भाई अली इब्ने अबी तालिब की सम्पत्ति है। जब ईश्वर स्वर्गवासियों को स्वर्ग में प्रविष्ठ करेगा तो अली के शिया को इस पेड़ के निकट लाया जाएगा और वह लोग इस पेड़ के अलंकार व श्रंगार से लाभांवित होंगे उस समय एक नादकर्ता आवाज़ देगा कि यह लोग अली इब्ने अबी तालिब (अ.) के शिया हैं उन्हों ने संसार में दुखों पर संतोष किया था अब उसके प्रतिफल में उन्हें यह उपहार दिए गए हैं ।
उन्हों ने दूसरे स्थान पर जाबिर से रिवायत की है कि हम लोग पैग़म्बर की सेवा में उपस्थित थे कि इतने में अली (अ.) प्रविष्ठ होते हैं पैग़म्बर (स.) ने हम लोगों को सम्बोधित करके कहाः (أتاكم اخى) फिर काबे की ओर मुड़ कर फ़रमायाः
ان هذا و شيعته هم الفائزون يوم القيامة
ईश्वर की सौगंध यह (अली) और उनके अनुगामी ही महाप्रलय के दिन सफल होने वाले हैं।
अहले सुन्नत की किताबों में इस बारे में दूसरी रिवायतें भी मौजूद हैं जिनका उल्लेख करना चर्चा के दीर्घ होने का कारण होगा अतः केवल उल्लिखित रिवायतें ही हमारे प्रयोजन को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं।
उल्लिखित हदीसों से उत्तम रूप से यह स्पष्ट हो जाता है कि अली (अ.) के चाहने वालों और उनका अनुसरण करने वालों को सबसे पहले पैग़म्बर अकरम (स.) ने ही शिया कहा है। चूँकि यह परिभाषा इस्लामी ईशदूत के युग में प्रसिद्ध हो चुकी थी अतः पैग़म्बर के बाद भी प्रचारित रही। अतः मसऊदी ने सक़ीफ़ा से सम्बंधित घटनाओं का उल्लेख करते हुए लिखा है कि सक़ीफ़ा में अबू बक्र की बैअत का मामला समाप्त होने के बाद इमाम अली (अ.) और आपके कुछ शिया उनके घर में जमा हो गए।
अमीरूल मोमिनीन हज़रत अली (अ.) जमल के युद्ध के बारे में फ़रमाते हैः जमल वालों ने बसरा में मेरे शियों पर आक्रमण कर दिया कुछ को छल कपट से शहीद कर दिया और कुछ उनके साथ मुक़ाबिले के लिए उठ खड़े हुए। और अनंततः शहीद हो गए।
وثبوا على شيعتي، فقتلوا طائفة منهم غدراً، و طائفة عضّوا على اسيافهم، فضاربوا بها حتّى لقوا اللّه صادقين
राफ़ेज़ा की परिभाषा
मिलल व नहेल और अक़ाएद व तफ़सीर आदि की किताबों में कभी कभी शियों की व्यंजना राफ़ेज़ा से की जाती है अतः इस परिभाषा के संदर्भ में कुछ महत्वपूर्ण बातों का स्पष्टीकरण आवश्यक है।
शिया की तरह राफ़ेज़ा की परिभाषा के भी विभिन्न अर्थ हैं ।इमाम शाफ़ेई की जिन पंक्तियों का वर्णन हमने किया है उनमें हज़रत अली (अ.) की श्रेष्ठता के विश्वास तथा आप और आपके परिवार से प्यार अभिव्यक्ति के अर्थ में शिया को ही राफ़ेज़ा कहा गया है। कभी राफ़ेज़ा से मुराद शिया इसना अशरी लिया जाता है जैसा कि अश्अरी ने राफ़ेज़ा को इमामिया का समानार्थ बताया है और उसकी व्याख्या करते हुए कहा है कि राफ़ेज़ा का मतलब अली (अ.) की ख़िलाफ़त पर नस (अर्थात ईश्वर के आदेशानुसार पैग़म्बर द्वारा आपको कथित एंव लिखित रूप से ख़िलाफ़त के लिए नियुक्त किया जाना) का विश्वासी होना है।
अब्दुल क़ाहिर बग़दादी ने एक क़दम आगे बढ़ाते हुए ग़ालियों को भी राफ़िज़ीयों का एक समुदाय बताया है। वास्तव में अब्दुल क़ाहिर ने शिया के स्थान पर राफ़ेज़ा, शब्द का ही उपयोग किया है और उनके तीन गुट, ग़ुलाते कीसानिया, इमामिया और ज़ैदिया बयाना किए हैं ।
कुछ हदीसों और इतिहासिक स्रोंतों से यह पता चलता है कि बनी उमय्या के युग में अहलेबैत के शत्रु, शियों के प्रति अपनी शत्रुता व दुशमनी के अभिव्यक्ति के लिए उन्हें राफ़िज़ी कहा करते थे और राफ़िज़ी होने को क्षमा न करने योग्य अर्थात अक्षम्य अपराध मानते थे उनकी दृष्टि में जो राफ़िज़ी हो वह मृत्युदण्ड का पात्र था। एक हदीस के अनुसार अबू बसीर ने इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम से कहाः मेरी जान आप पर क़ुरबान, हमें ऐसा नाम और उपाधि दे दिया गया है जिस उपाधि द्वारा शासक हमारा ख़ून बहाने और सम्पत्ति नष्टकरने तथा हमें दुख एंव यातनाएं देने को वैध समझते हैं इमाम ने प्रश्न किया कि वह उपाधि किया है? अबू बसीर ने उत्तर दियाः हमें राफ़िज़ी कहते हैं। इमाम ने अबू बसीर को सांत्वना देते हुए कहाः फ़िरऔन के सत्तर सैनिक फ़िरऔन को छोड़ कर जनाब मूसा (अ.) के साथ हो गए मूसा (अ.) की क़ौम में से कोई व्यक्ति भी उन सत्तर लोग की तरह हारून से प्यार नहीं करता था और इन लोगों को मूसा (अ.) की क़ौम में राफ़िज़ी कहा जाता था।
इस रिवायत से कुछ परिणाम प्राप्त होते हैं :
1. उस युग में भी शियों को राफ़िज़ी कहा जाता था।
2. सामान्य रूप से अमवी शासक ही राफ़िज़ी कहा करते थे और उसका उद्देश्य इसी बहाने शियों पर अत्याचार करना था।
3. शियों को राफ़िज़ी कहने का कारण यह था कि शिया हज़रत अली (अ.) से प्यार अभिव्यक्ति करते थे आपकी प्रमुखता व श्रेष्ठता का उल्लेख करते और आपको दूसरों से सर्वोत्तम व सर्वश्रेष्ठ स्वीकार करते थे हालांकि अमवी शासक की दृष्टि में हज़रत अली (अ.) से प्यार का अभिव्यक्ति और आपकी प्रमुखता व श्रेष्ठता का उल्लेख, अपराध था।
4. यद्धपि अहलेबैत (अ.) के शत्रुओं और शियों के विरोधियों की दृष्टि में राफ़िज़ी होना नापसंदीदा और निंदनीय था परन्तु अइम्मा-ए-अहलेबैत (अ.) की दृष्टि में यही नाम पसंदीदा और प्रसंशनीय है।
उल्लिखित रिवायत के दृष्टिगत शियों को राफ़िज़ी कहे जाने का कारण और राफ़िज़ी कहने का आरम्भ किस ने किया, जैसे प्रश्नों में शंका व्यक्त की गई है इसलिए कि कुछ इतिहासकारों के अनुसार जब ज़ैद इब्ने अली इब्ने हुसैन (अ.) ने कूफ़ा में आंदोलन किया तो आरम्भ में कूफ़े के लोगों ने उनकी भक्ति प्रतिज्ञा कर ली परन्तु फिर भक्ति प्रतिज्ञा करने वालों ने पहले दो ख़लीफ़ाओं के बारे में जनाबे ज़ैद का दृष्टिकोण पता करना चाहा तो जनाबे ज़ैद ने उपकार के साथ पहले दो ख़लीफ़ाओं का वर्णन किया और उनसे बराअत अर्थात क्रुद्धता दूरी का अभिव्यक्ति नहीं किया अतः कूफ़ेवासियों ने ज़ैद का साथ छोड़ दिया और भक्ति प्रतिज्ञा का पालन नहीं किया तो ज़ैद ने उन्हें राफ़ेज़ा कहा।
उपरोक्त रिवायत के अनुसार राफ़िज़ी की परिभाषा, ज़ैद के आंदोलन से पहले भी प्रसिद्धि पा चुकी थी और अमवी शासक उसे शियों के लिए उपयोग करते थे।
इतिहासिक स्रोंतों व सूचनाओं में मनन चिंतन व विचार विमर्श से यह परिणाम निकलता है कि राफ़िज़ी इससे पहले कि धार्मिक परिभाषा हो राजनीतिक परिभाषा है और जिसका अर्थ शासक या शासन प्रणाली का विरोध करने वाले लोग होते हैं चाहे उस शासन की नींव सत्य पर हो या असत्य पर। अतः जमल के युद्ध के बाद मुआविया ने अम्र इब्ने आस के नाम एक पत्र लिखा जिसमें हज़रत अली (अ.) के विरूद्ध विद्रोह करने वालों को मुआविया ने राफ़ेज़ा कहा है।
قد سقط الينا مروان بن الحكم في رافضة اهل البصرة
इस आधार पर चूँकि शिया सदैव बनी उमय्या के अत्याचारी शासनों के विरूद्ध धर्मयुद्ध में व्यस्त रहे अतः उन्हें राफ़िज़ी कहा गया और फिर जब इस बहाने से शियों को कुचलने का मार्ग समतल हो गया तो उसे धार्मिक रंग दे दिया गया और रफ़्ज़ को खुल्फ़ा के बारे में शिया विश्वास से जोड़ दिया गया। इतिहासिक दृष्टि से ज़ैद इब्ने अली की कहानी अगर सही हो तब भी दूसरे सक्ष्यों व प्रमाणों की रौशनी में सम्भवतः यही परिणाम निकाला जा सकता है कि इन परिस्थितियों में ऐसा प्रश्न करना और भक्ति प्रतिज्ञा करने वालों का साथ छोड़ देना, वास्तव में अमवियों का षड़यंत्र था ताकि ज़ैद इब्ने अली के आंदोलन को पराजय का मुँह देखना पड़े।
शिया समुदाय
मिलल व नहेल की किताबों में शिया समुदाय के बहुत से संप्रदाय बयान किए जाते हैं जैसा कि अश्अरी ने शियों को पहले तीन गुटों ग़ालिया, राफ़ेज़ा और ज़ैदिया पर विभाजित करने के बाद ग़ालियों के 15, राफ़िज़ीयों के 24 और ज़ैदियों के छः समुदाय बयान किए हैं। मिलल व नहेल के दूसरे लेखकों ने भी शियों के अनेक संप्रदायों का उल्लेख किया है परन्तु निम्नलिखित प्वाइंट्स पर मनन चिंतन करने से इन कथनों का असत्य होना स्पष्ट हो जाता है ।
1. ग़ालियों को शिया कहना स्वीकार योग्य नहीं है इसलिए कि ग़ाली अहले अहलेबैत (अ.) के ईश्वरत्व या प्रतिपालन व पालनक्रिया के स्वीकारकर्ता हैं और ऐसा विश्वास नास्तिकता व अनेकेश्वरवाद का कारण है इसी लिए अइम्मा-ए-मासूमीन (अ.) ने ग़ुलू अर्थात सीमोल्लंघन करने वालों को काफ़िर कहा है और कठोरता के साथ उनसे अभिव्यक्ति दूरी व क्रुद्धता का अभिव्यक्ति किया है। शिया विद्धान भी ग़ुलात को काफ़िर कहते हैं और उन्हें इस्लाम से ख़ारिज समुदाय बताते हैं। इस बारे में शेख़ मुफ़ीद (र.ह.) फ़रमाते हैः
ग़ुलात इस्लाम का लबादा ओढ़े ऐसे लोगों का गुट है जो अमीरुल मोमिनीन (अ.) और दूसरे अइम्मा-ए-ताहेरीन (अ.) के ईश्वरत्व या ईशदौत्य के स्वीकारकर्ता है अइम्मा-ए-मासूमीन (अ.) ने उन्हें काफ़िर और इस्लाम से ख़ारिज बताया है।
मिलल व नहेल के कुछ लेखकों ने इस ओर ध्यान दिया है और ग़ुलात के संप्रदायों को अलग अध्याय में "इस्लाम से सम्बंधित समुदाय" के अंतर्गत वर्णन किया है अतः बग़दादी और इसफराइनी ने ऐसा ही किया है ।
2. किसी भी धर्म से खंडित होने का आधार उस धर्म के मौलिक सिद्धांत व अक़ाएद होते हैं चूँकि तशय्यो का सबसे महत्वपूर्ण और मौलिक सिद्धांत जो उसे दूसरे समुदायों पर श्रेष्ठता प्रदान करता है और उसे उनसे अलग करता है और जिसे शिया समुदाय की प्रधानता के रूप में देखा जाता है वह इमामत है। अतः इमामत को ही विभाजन और अलग समुदाय होने का आधार होना चाहिए, दूसरे सिद्धांतों में मतभेद को शिया समुदाय की पहचान का आधार नहीं बनाना चाहिए इस आधार पर हेशामियः, यूनेसीयः, नोमानियः आदि संप्रदायों को शिया संप्रदायों के अंतर्गत वर्णन करना (जैसा कि मिलल व नहेल की कुछ किताबों में वर्णित है) सही नहीं है।
3. इमामत के मुद्दे के कारण आस्तित्व में आने वाले अनेक व विभिन्न समुदाय जिनका उल्लेख मिलल व नहेल की किताबों में किया गया है, समाप्त हो चुके हैं और उनकी जीवन अवधि बहुत कम थी और आज उन्हें केवल इतिहास के पृष्ठों में मौजूद संप्रदायों के रूप में ही देखा जा सकता है। उदाहरण स्वरूप मिलल व नहेल और इतिहास की किताबों में इमाम हसन असकरी (अ.) की शहादत के बाद शियों के चौदह गुटों का वर्णन मौजूद है, इन संप्रदायों में से आज किसी समुदाय का नाम व निशान तक मौजूद नहीं है। अगर यह मान लिया जाए कि यह समुदाय वास्तव में रहे भी होंगे तो आज तथापि पूर्ण रूप से समाप्त हो चुके हैं। मिलल व नहेल की किताबों में वर्णित शिया संप्रदायों की ओर इशारा करने के बाद प्रसिद्ध गवेषक शेख़ तूसी (र.ह) फ़रमाते हैः
यह वह मतभेद हैं जो शियों के बारे में बयान किए गए हैं परन्तु इनमें से अधिकांश मतभेद ऐसे हैं जिनका विश्वासपात्र किताबों में उल्लेख नहीं है और इनमें से कुछ समुदाय जैसे ग़ुलात और बातेनीयः गुट, इस्लाम से ख़ारिज हैं।
अल्लामा तबातबाई (र.ह) भी कीसानियः, ज़ैदियः, इस्मालियः, फ़तहियः और वाक़ेफ़ीयः जैसे संप्रदायों का उल्लेख करने के बाद फ़रमाते हैः आठवें इमाम (अ.) के बाद से बारहवें इमाम तक जो अधिकांश शियों के निकट महदी-ए-मौऊद हैं, शियों में कोई उल्लेखनीय विभाजन नहीं हुआ और न कोई समुदाय आस्तित्व में आया अगर समुदाय के रूप में कोई विभाजन हुआ भी तो वह अधिक दिनों तक बाक़ी न रह सका और स्वंय दम तोड़ गया जैसे कि इमाम अली तक़ी (अ.) के पुत्र जाफ़र ने अपने भाई इमाम हसन असकरी (अ.) की शहादत के बाद इमामत का दावा किया और कुछ लोग उनके गिर्द जमा हो गए परन्तु कुछ ही दिनों के बाद छिन्न भिन्न हो गए और जाफ़रे कज़्ज़ाब ने भी अपने दावे पर हठ से काम नहीं लिया। इसी प्रकार शिया विद्वानों व बुद्धिजीवियों के मध्य ज्ञानात्मक और धर्मशास्त्र से सम्बंधित समस्याएं तथा दूसरे मतभेद पाए जाते हैं परन्तु इन मतभेदों को धर्म के विभाजन या समुदाय बनने के रूप में नही देखना चाहिए।
उल्लिखित बातों के दृष्टिगत कहा जा सकता है कि शियों के महत्वपूर्ण समुदाय जो जीवित हैं और हमारे युग में भी जिनके मानने वाले मौजूद हैं, वह केवल तीन समुदाय हैः
1.इसना अशरी (इमामिया) 2.ज़ैदिया 3.इस्मालिया। परन्तु इमामत के नाम पर आस्तित्व में आने वाले कीसानियः, नाऊसियः, फ़तहियः और वाक़ेफ़ीयः जैसे समुदाय संपूर्ण रूप से समाप्त हो चुके हैं और वर्तमान युग में उनका नाम व निशान भी बाक़ी नहीं है।
उल्लिखित तीनों शिया समुदाय अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली (अ.), इमाम हसन (अ.) और इमाम हुसैन (अ.) की इमामत पर सहमत हैं और उन्हें मासूम अर्थात निर्दोष इमाम और ईश्वर व पैग़म्बर की ओर से निर्वाचित मानते हैं। परन्तु ज़ैदियः समुदाय, इमाम हुसैन (अ.) के बाद हसन इब्ने हसन (हसने मुसन्ना) और उनके बाद ज़ैद इब्ने अली (अ.) की इमामत का स्वीकारकर्ता है और इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.) व बाक़ी अइम्मा-ए-मासूमीन (अ.) की इमामत को स्वीकार नहीं करता। इसी प्रकार इस्मालियः समुदाय भी इमाम जाफ़र सादिक़ (अ.) के बाद इमाम मूसा काज़िम (अ.) और आपके बाद दूसरे अइम्मा (अ.) की इमामत का विश्वासी नहीं है।
हमारी किताब का विषय शिया इसना अशरी समुदाय है जो समस्त बारह इमामों की इमामत को स्वीकार करता है

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