अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क

आयतुल्लाह शहीद मुहम्मद बाक़िरुस सद्र 1

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दीने इस्लाम की ताकत का एक रास्ता इत्तेहाद व एकता और इस आरज़ू के मुहक्किक़ होने में जिन उलमा व दानिशवरों नें मोवस्सर किरदार अदा किया और उम्मते इस्लामी की इस्लाह की सई व कोशिश की है उनका तआरूफ़ कराना है।

असरे हाज़िर में दुश्मनाने इस्लाम के सक़ाफ़ती व ऐतेक़ादी हमलों के मुक़ाबले में सुकूत इस्लाम को हर ज़माने से ज़्यादा नुक़सान पहुचा रहा है जिस तरह गुज़िश्ता अदवार में इस्लामी हुकूमतों के सरबराहों की नालाऐक़ी और मज़हबी इख़्तेलाफ़ात को हवा देने की वजह से हम बहुत से गरां क़द्र और क़ीमती इस्लामी आसार को खो चुके हैं और अरसे से अपने फिक्री व फ़न्नी सरमायों को बेबुनियाद इख़्तेलाफ़ात की नज़्र करते आये हैं।

दीने इस्लाम अपने तमाम तर सरमायों और बेनज़ीर अर्ज़िशों के बावजूद कभी भी ऐसा मौक़ा नहीं पा सका की मुसलमानों के दरमीयान कमा हक्क़हू और शाईस्ता तौर से अपनी आरज़ुओं को पूरा कर सके अब वक्त आ पहुचा है कि हम इस्लाम पर हक़ीकत की ऐनक लगा कर नज़र करें और सदरे इस्लाम के इख़्लास व ईमान पर दोबारा नज़र ड़ाल कर इस्लामी मज़ाहिब के गुनागूँ मुश्तरेकात को अपना नस्बुल ऐन क़रार दें ताक़ि एक बार फिर मुत्तहिद कवी और ताकत वर इस्लाम की तस्वीर पेश कर सकें।

इस मक़सद तक रसाई के लिऐ मुतअद्दिद अवामिल की फ़राहमी ज़रूरी है। जिनमें से एक आमिल इस्लामी मुल्कों के उलमा और इल्मी शख़्सियात का तआरुफ़ सरे दस्त हम दो मुसलमान दानिशवरों का तआरुफ़ पेश कर रहे हैं। जिन्होंने इस्लामी मज़ाहिब को एक दूसरे से क़रीब करने मुसलमानों को मुत्तहिद करने और ऊम्मते इस्लामी को बेदार करने में बड़ा अहम किरदार किया है।

 

मुक़द्दिमा

वला तहसबन्नल लज़ीना क़ोतेलू फ़ी सबी लिल्लाहे अमवाता बल अहयाउन इन्द रब्बेहिम युर्ज़क़ून (सुर ए आले इमरान आयत 169)

और जिन लोगों को राहे खुदा में कत्ल कर दिया गया हैं तुम उन्हें मुर्दा न समझो बल्कि वह ज़िन्दा हैं और अपने परवरदिगार के पास से रिज़्क़ पाते हैं।

तारिख़ के वसीअ दामन में कुछ ऐसे बुज़ुर्ग और रौशन ख्याल इन्सान मौजूद रहे हैं जिनकी सादिक़ाना कोशिशों का उनके मक़ीमो मर्तबे के लायक़ तआरुफ़ नहीं हो सका है जिन्होंने कल्म ए इस्लाम की सर बुलन्दी की राह में और मुसलमान कौम के दरमियान इत्तेहाद व यकजहती की ख़ातिर बड़ी मुख़्लेसाना कोशिशें कीं और उस राह में अपनी जान का नज़राना भी पेश कर दिया।

आयतुल्लाह शहीद सैय्यद मुहम्मद बाक़िरुस सद्र उन्ही बुज़ुर्ग शख्सियात में से एक हैं जिनकी कोशिशों और बुनियादी अफ़कार व नज़रियात को इस्लामी मुआशरों में कम पहचाना गया और उनकी मुजाहिदाना ज़िन्दगी के हक़ायक़ व वाकेयात से कमतर रू शनास कराया गया है। उन्होंने आगाज़े हयात से ही अपने आपको इस्लाम के बुनियादी अफ़कार के देफाअ के लिए वक़्फ़ कर दिया था और इराक की बअस पार्टी के सर फिरे हुक्मरानों का खौफ़ अपने ऊपर तारी नहीं होने दिया। अपनी ज़बान व कलम के ज़रीए इल्हादी व इन्हेराफ़ी अफ़कार के सामने जेहाद व मुबारज़े का अलम लहरा दिया और दीनदार मुसलमानों और नई नस्ल से अपने साथ तआऊन की अपील की।

ये मुख़्तसर तहलील नस्ले पैग़म्बरे अकरम सल्लल्लाहो अलेहे व आले ही वसल्लम के इस मुजाहिद की हयात का एक मुख़्तसर तआरुफ़ है जिसने मुख़्तलिफ़ मैदानों में बड़ा कारसाज़ किरदार अदा किया और ज़बान व कलम की कुदरत व ताक़त से भरपूर फाएदा उठा कर इस्लामी अक़दार के उसूल को तमाम ऐतेकादी, मुआशरती, सेयासी मराहील में पेश करने में अपनी हमे तन कोशिशों से दरेग़ न किया। अगरचे मुख्तसर उम्र के मालिक हुए और अपने तमाम दीनी व सेयासी मक़ासिद को हासिल न कर सके लेकिन बजा तौर पर कहने दीजिये कि इस्लाम के तईं आप की 47 साला ज़िन्दगी की ख़िदमात ना क़ाबिले फरामोश हैं, खास तौर पर जब आपने मर्जेईयत की दहलीज़ पर कदम रखा और भरपूर तरीके से उम्मते इस्लामी की कलमरो की हिफाज़त का बीड़ा उठाया और दीनी साख़्त व शिनाख्त को तमाम इस्लामी सरज़मीनों पर फैला दिया क़ाबिले ज़िक्र ये है कि इस मुक़ाबले में ऐसे मनाबे व मआख़ज़ से इस्तेफादा किया गया है कि जिसके लिखने वाले आपके शागिर्द थे, और जो नज़दीक से उनके बहुत से हालात व वाकेयात के शाहिद रहे हैं।

 

ख़ानदाने सद्र और उसकी नुमायाँ शख्सियात

शहीद सद्र के आबा व अजदाद दो सदी से ज़्यादा ज़माने तक लेबनान, सीरिया व ईराक जैसे मुल्कों में इन्सानों के लिऐ मशअले हिदायत और दीनी सरपरस्ती के मरकज़ रहे हैं और इस तूलानी ज़माने में बहुत से अल्काब जैसे आले अबी सुबहा, आले हुसैन अलक़तई, आले अब्दुल्लाह, आले अबिल हसन, आले शरफ़ुद्दीन, और आख़िर में आले सद्र से मशहूर रहे हैं, आले सद्र की निस्बत जो इस ख़ानदान का आख़िरी सिलसिले सदरुद्दीन सद्र (मुतवफ्फी 1264) तक पहुँचती है जिनकी औलाद आले सद्र कहलाती है सैय्यद सदरुद्दीन जबले आमिल के क़रीये, मारके में 1192 हिजरी क़मरी में पैदा हुए और चार साल की उम्र में अपने बाप सैय्यद सालेह के हमराह नजफ़े अशरफ तशरीफ लाये और फिर काज़मैन गये और वहाँ से ईस्फ़हान आये फिर दोबारा नजफे अशरफय पलट गऐ और वहाँ सन 1264 हिजरी में वफ़ात पा गये और रौज़ए इमाम अली अलैहिस्सलाम के मग़रेबी सहन में बाबे सुल्तानी के क़रीब सुपुर्दे खाक़ किऐ गऐ, आप का शुमार बुज़ुर्ग तरीन शिया उलामा में होता है, बचपन से ही उलूमे इस्लामी की तहसील में बेपनाह शौक रखते थे, कहा जाता है कि सात साल की उम्र में आपने किताबे क़तरुन निदा पर तअलीका लगाया और आपका ब्यान खुद ये नक्ल हुआ है कि सन 1205 हिजरी में यानी 12 साल के सिन में उस्ताद आक़ाए बहबहानी के दर्से ख़ारिज में शरीक होते थे और सिन्ने बुलूग़ को पहुँचने से पहले ही दर्ज ए इजतेहाद पर फायज़ हो गए और अल्लामा सैय्यद अली तबॉतबाई साहिबे रियाज़ुल मसायल (शरहे कबीर) के दस्ते मुबारक से इजतेहाद की गवाही हासिल कर ली (हुसैनी हायेरी 1375 सफ़हा 116 और 17)।

इस ख़ानदान की दूसरी बड़ी शख्सीयत जनाब सैय्यद इस्माईस सद्र (मोतवफ्फी 1338 हिजरी) की है आप भी पेदरे बुज़ुर्गवार सैय्यद सदरूद्दीन की तरह दीनी मरजईयत के ओहदे पर फायज़ थे आप सन 1264 हिजरी में अपने पेदरे बुज़ुर्गवार की रेहलत के बाद अपने भाई सैय्यद मुहम्मद अली सद्र मअरुफ बे (आका मुजतहिद) के ज़ेरे तरबीयत रहे यहाँ तक कि सिन्ने बुलूग़ को पहुँच गऐ आप इस्फ़हान में रहते थे सन 1280 हिजरी में यानी 22 साल की ऊम्र में नजफ़े अशरफ हिजरत कर गऐ और वहाँ उस्तादे आज़म शैख मुरतज़ा अंसारी (मुत्वफ्फी सन 1280 हिजरी) को हुज़ूर में फिक्ह व उसूल की तअलीम हासिल करने पहुँचे लेकिन जिस वक्त आप करबला पहुँचे तो शैख अंसारी का इंतेक़ाल हो चुका था लिहाज़ा आप करबला से नजफ़ पहुँच कर दूसरे नामी असातीद की शागिर्दी में तअलिम हासिल करके शिया उलमा की सफ़हे अव्वल में शुमार होने लगे और फिक़्ह व उसूल में तजुर्बा और दीनी मरजईयत के मुक़ाम तक रसाई के अलावा अपने ज़माने के अक़्ली उलूम जैसे कलाम, फ़लसफ़ा, रियाज़ियात, हिन्दसह, हैयत और क़दीम नुजूम से भी बहरामंद हुए (नोअमानी, 1424 क़मरी, जिल्द 1, सफ्हा 32)।

तालीमी दौर के आपके आख़िरी उस्ताद जनाब मज्द शिराज़ी उलमा मिर्ज़ा मोहम्मद हसन थे। सैय्यद इस्माईल आपके ख़ास शागिर्दों में शुमार होते थे। बाद में जब मिर्ज़ा ए शिराज़ी सामर्रा तशरीफ ले गए तो आप नजफ़े अशरफ में ही रहे और फिर पन्द्रह शाबान सन 1309 हिजरी को हज़रते ईमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के रौज़ए अक़्दस की ज़ियारत के क़स्द से करबला रवाना हुए आप करबला ही में थे कि एक खत मिर्ज़ा ए शिराज़ी की जानिब से आपको मौसूल हुआ जिसमे आपके ऊस्ताद ने आपको हुक्म दिया था कि बगैर किसी तअम्मुल और सुस्ती के फौरन सामर्रा के लिये रवाना हो जाये। सैय्यद ईस्माईल ने भी उस्ताद की आवाज़ पर लब्बैक कहते हुऐ सामर्रा की तरफ़ सफ़र किया और उस्ताद की सिफारिश के मुताबिक सामर्रा को अपना वतन व मस्कन क़रार दिया और मिर्ज़ा ए शिराज़ी की वफ़ात के बाद शिया मरजईयत की ज़िम्मेदारी आपके काँधों पर आई। (हुसैनी हायरी गुज़श्ता हवाला सफहा 22)।

सैय्यद इस्माईल कुछ वजहों के बाइस सामर्रा से करबला मुन्तकिल हो गए और उम्र के आख़िरी अय्याम में ईलाज की ग़रज़ से काज़मैन चले गऐ। आपने सन 1338 हिजरी में काज़मैन में वफ़ात पाई और अपने पेदरे बुज़ुर्गवार सैय्यद सदरुद्दीन सद्र के जवार में अपने ख़ानदानी मक़बरे मे सुपुर्दे खाक किये गए। (गुज़श्ता हवाला, सफ़हा 23)

इस ख़ानदान की एक और बुज़र्ग शख्सीयत मरहूम सैय्यद हैदर सद्र (मुतवफ्फी 1256 हिजरी) फ़रज़न्द सैय्यद इस्माईल सद्र और शहीद सैय्यद बाक़िरूस सद्र के पेदरे बुज़ुर्गवार थे सैय्यद हैदर अपने ज़माने के यगाना इंसान और ज़ोहद व तक़्वा का मज़हर थे आपने सन 1309 हिजरी मे सामर्रा में आँखें खोंलीं और 27 जमादिस्सानी 1356 हिजरी काज़मैन में वफ़ात पाई और अपने ख़ानदानी मक़बरे में दफ़्न हुए, आपने बचपने में सन 1313 हिजरी में अपने पेदरे बुज़ुर्गवार के साथ करबला हिजरत की और इब्तेदाई दरुस वहाँ के चन्द असातीद से हासिल किए फिर अपने पेदरे बुज़ुर्गवार सैय्यद इस्माईल के दर्से खारिज में और करबला में हुसैन फेशारकी और मरहूम शैख़ अब्दुल करीम हायरी यज़दी (मुत्वफ्फी 1355 हिजरी) के जलसाते दर्स में शरीक हुए और रफ़ता रफ़ता जवानी के आलम में ही हौज़ ए इल्मिया के नामवर उलमा में शुमार होने लगे सैय्यद हैदर के दो बेटे और एक बेटी थी,

1. आयतुल्लाह सैय्यद ईस्माईल हैदर

2. शहीद सैय्यद मोहम्मद बाक़िरुस सद्र

3. शहीदा आमिना सद्र मारुफ़ बिन्तुल हुदा (नोअमानी, 1426, जिल्द 1, सफहा 37,).

शहीद सैय्यद मोहम्मद बाकिरुस सद्र की माँ, मरहूम आयतुल्लाह शेख़ अब्दुल हुसैन आले यासीन की बेटी थीं, जो खुद भी अपने ज़माने की बुज़ुर्ग फ़क़ीहा थीं इस मायनाज़ खातून ने तुलानी उम्र और अपने दो फ़रज़न्द (शहीद बाकिरुस सद्र और उनकी बहन शहीदा बिन्तुल हुदा) की जानसोज़ हादस ए शहादत का मुशाहिदा करने के बाद रबिउस्सानी सन 1407 हिजरी में दावते हक़ को लब्बैक कही। (हुसैनी हायरी, गुज़श्ता हवाला, सफहा 32)

 

शहीद सद्र की वेलादत और बचपन

शहीद सैय्यद मोहम्मद बाक़िरुस सद्र ने 5 ज़िलकअदा 1353 हिजरी शहरे काज़मैन में आखें खोलीं, आपके पेदरे बुज़ुर्गवार सैय्यद हैदर मराजे तक़लीद में से थे जिनका सिलसिल ए नस्ब हज़रते इमामे मूसा काज़िम अलौहिस्सलाम से मिलता है उस ख़ानदान की ख़ुसूसियात में से एक यह है कि सबके सब अपने जमाने के उलमा व फ़ोक़हा के ज़ुमरे में शामिल थे और यह वो ख़ुसूसियत है जो एक ही ख़ानदान के तमाम अफ़राद में कमतर पाई जाती है। (नोअमानी गुज़श्ता हवाले, सफहा 47)

आप अपने आलिम बाप की रेहलत के बाद अपनी पाकदामन माँ और बड़े भाई सैय्यद इस्माईल सद्र के ज़ेरे तरबीयत परवान चढ़े कमसीनी से ही आपके अंदर ज़कावत व ज़ेहानत के आसार नुमायाँ थे आपने अपने इब्तेदाई दुरुस काज़मैन मदरस ए (मुन्तदन नश्र) में हासिल किये और आपके जिगरी दोस्त मरहूम मोहम्मद अली ख़लीली के बक़ौल जिन्होंने आपके हमराह एक ही मदरसे में तलिम हासिल की थी आपकी ज़ेहनियत व खुश अख्लाकी सबब बनी कि मदरसे के तमाम छोटे बड़े तलबा आपकी तरफ़ माएल हों और आपकी रफ्तारो किरदार को ज़ेरे नज़र रखते थे, इसी तरह असातीद भी आपका ऐहतेराम किया करते थे मदरसे के तमाम तलबा जानते थे कि आप बड़े ज़हीन हैं और मदरसे के दुरुस में अपने हमसिन व साल लड़कों से आगे आगे रहते हैं। यही वजह है कि मदरसे के असातीद हमेशा आपको बेहतरीन और मेहनती, बा अदब तालीबे इल्म के उनवान से दूसरे तलबा के सामने रू शनाश कराते थे। (हुसैनी हायरी, गुज़श्ता हवाला, सफ़हा 36)

एक अहम सबब जो आपके लिए लोगों के दर्मियान शोहरत पाने का ज़मीना फ़राहम कर गया और आपकी अज़मत और शेनाख्त का दायरा मदरसे की चहारदीवारी से निकल कर लोगो के दरमियान वुसअत पा गया वह अज़ादारी ए इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के प्रोग्रामों में आपकी तकरीरें और शेर ख्वानी थी, शहीद सद्र इब्तेदा ए तहसील से ही हज़रत इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम के सहने मोतहर में नस्ब मिम्बर पर तशरीफ लेजा कर ख़ुतबा दिया करते थे आपका दिल आवेज़ बयान जो बगैर किसी लुकनत के ज़ुबान पर जारी हो जाता था सबको हैरत में गर्क़ कर देता था और तअज्जुब खेज़ अम्र ये है कि आप इन मतालिब को मदरसे और हरमे काज़मी के रास्ते के दरमियान रास्ते में आमादा कर लिया करते थे। ( गुज़श्ता हवाला, सफ़हा 37).

शहीद सद्र फिक्री मतालिब के फ़हमो हज़्म में अपने हम कलासों से इस कदर आगे थे कि इन्टरवल के टाईम में जिन बाज़ मतालिब को वह अपने दोस्तों से नक़्ल करते थे वह उनके लिये नया होता था आप ग़ैर दर्सी किताबों के मोतलए के बाद जब फ़लसफी और जदीद मबाहिस पर मुश्तमिल ऐसे ऐसे बयानात दोस्तों के दरमियान नक़्ल करते थे कि आपके अहबाब पहली बार इस तरह के कलेमात आपसे सुनते थे और उनके मुसन्नेफ़ीन से पहली बार आशना होते थे शहीद सद्र कमसिनी में भी इस क़दर पुरवकार और बा हैबत थे कि आपके एक उस्ताद जिनका नाम (अबू बरा) था कहते हैं (जब भी वह अपने असातीद से बात करते थे तो सर को झुका कर और नज़रों को नीचा करके बात करते थे मैं उन्हें एक पाक और बेगुनाह बच्चे के बाइस दोस्त रखता था और दूसरी जानिब एक बुज़ुर्गवार शख्सियत की हैसियत से दोस्त देखता था और उनका ऐहतेराम करता था क्योंकि वह इल्मो दानिश और मारेफ़त से लबरेज़ थे यहाँ तक कि एक दिन मुझ से नहीं रहा गया और मैं ने उनसे कहा कि मैं उस दिन के इन्तेज़ार में हूँ कि आप के चश्म ए इल्मो दानिश से सैराब हो जाऊँ और आपके अफ़कारो आरा की रौशनी में रास्ता चल सकूँ लेकिन उन्होंने नेहायत अदब और ऐहतेराम और शर्मसारी के साथ जवाब दिया। उस्ताद आप मुझे माफ़ फरमाएं मैं मुसलसल आपका शागिर्द और इन मदरसे के बाहर उन बुज़ुर्ग का शागिर्द हूँ जिसने मुझे दर्स दिया है। (गुज़श्ता हवाला, सफ़हा 46)

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