अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क

हज़रत आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली हुसैनी सीसतानी

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पैदाईश

हज़रत आयतुल्लाहिल उज़मा सीसतानी 9 रबीउल अव्वल सन् 1349 हिजरी क़मरी में मुक़द्दस शहर मशहद में पैदा हुए। आपके वालिद ने आपने जद के नाम पर आपका नाम अली रखा। आपके वालिदे मोहतरम का नाम सैयद मुहम्मद बाक़िर और दादा का नाम सैयद अली है, वह बहुत बड़े आलिम व ज़ाहिद थे। उनके ज़िन्दगीनामे को मरहूम आग़ा बुज़ुर्ग तेहरानी ने तबक़ाते आलामे शिया नामी किताब के चौथे हिस्से में पेज नम्बर 1432 पर ज़िक्र किया है। वह लिखते हैं कि वह नजफ़े अशरफ़ में मौला अली निहावंदी और सामर्रा में मुजद्ददे शिराज़ी के शागिर्दों में थे, और बाद में वह मरहूम सैयद इस्माईल सदर के ख़ास में शागिर्दों में रहे। सन् 1308 के क़रीब मशहदे मुक़द्दस लौट आये और वहीं सुकूनत इख़्तियार कर ली। मरहूम शेख़ मुहम्मद रज़ा आले यासीन उनके ख़ास शागिर्दों में से हैं।

आपके ख़ानदान का ताल्लुक़ हुसैनी सादात से हैं, यह ख़ानदान सफ़वी दौर में इस्फ़हान में रहता था। जब आपके परदादा सैयद मुहम्मद को, सुलतान हुसैन सफ़वी ने सीस्तान में शेख़ुल इस्लाम के मनसब पर मुऐयन किया तो वह अपने घर वालों के साथ वहाँ मुन्तक़िल हो गये और वहीँ रहने लगे।

सैयद मुहम्मद के पोते, सैयद अली, जो आपके दादा हैं, वह पहले शख़्स हैं जिन्होंने शहरे मुक़द्दस मशहद की तरफ़ हिजरत की और वहाँ मरहूम मुहम्मद बाक़िर सब्ज़वारी के मदर्से में रहने लगे। बाद में वह, आला तालीम हासिल करने के लिए वहाँ से नजफ़े अशरफ़ चले गये।

आपने पाँच साल की उम्र में अपनी तालीम का आग़ाज़ क़ुरआने करीम की तालीम से किया फिर लिखना पढ़ना सीखने के लिए दारुत्तालीम नामी एक दीनी मदर्से में दाख़िला लिया। उसी दौरान, आपने उस्ताद मिर्ज़ा अली आग़ा ज़ालिम से किताबत सीखी।

सन् 1360 हिजरी में अपने वालिदे बुज़ुर्गवार के हुक्म से दीनी तालीम शुरु की और अरबी अदबी की कुछ किताबें जैसे शरहे अलफ़िया इब्ने मालिक, मुग़नी इब्ने हिशाम, मुतव्वले ताफ़ताज़ानी, मक़ामाते हरीरी और शरहे निज़ाम, मरहूम अदीब नैशापूरी और दूसरे उस्तादों से पढ़ी और शरहे लूमआ व क़वानीन मरहूम सैयद अहमद यज़दी जो निहन्ग से मशहूर थे, पढ़ी। मकासिब व रसाइल और किफ़ाया जैसी किताबें जलीलुल क़द्र आलिमे दीन शेख़ हाशिम क़ज़वीनी से पढ़ी।

फ़लसफ़े की कुछ किताबें जैसे मनज़ूम ए सब्ज़वारी व शरहे इशराक़ व असफ़ार उस्ताद आयसी से पढ़ी और शवारिकुल इलहाम शेख़ मुजतबा क़ज़वीनी के पास पढ़ी। मोसूफ़ ने अल्लामा मुहक़्क़िक़ मिर्ज़ा महदी इस्फ़हानी मुतवफ़्फ़ी सन् 1365 हिजरी, से से बहुत ज़्यादा कस्बे फ़ैज़ किया। इसी तरह मिर्ज़ा महदी आशतियानी और मिर्ज़ा हाशिम क़ज़वीनी से भी काफ़ी इस्तेफ़ादा किया। मुक़द्देमाती व सतही तालीम से फ़ारिग़ होने के बाद, कुछ उस्तादों के पास उलूमे अक़्लिया और मआरिफ़ इलाहिया सीख़ने में मशग़ूल हो गये। उसके बाद सन् 1368 हिजरी में मशहदे मुक़द्दस से शहरे क़ुम की तरफ़ हिजरत की और बुज़ुर्ग मरजए तक़लीद आयतुल्लाहिल उज़मा बुरुजर्दी के फ़िक्ह व उसूले के दर्से ख़ारिज में शरीक होकर इल्मी फ़ायदा उठाया। मोसूफ़ ने उनकी फ़िक्ही बसारत, ख़सूसन इल्मे रिजाल व हदीस से बहुत ज़्यादा कस्बे फ़ैज़ किया। इसी तरह मोसूफ़ ने फ़क़ीह व आलिमे फ़ाज़िल सैयद हुज्जत कोहकमरई और उस ज़माने के दूसरे मशहूर उलामा के दर्सों में भी शिरकत की।

मोसूफ़ ने क़ुम के क़याम के दौरान मरहूम सैयद अली बहबहानी (जो अहवाज़ के जलीलुल क़द्र आलिमे दीन और मरस ए मुहक़्क़िक़ शेख़ हादी तेहरानी के ताबेईन में से थे) से किबले के मसाइल के सिलसिले में काफ़ी ख़तो किताबत की। आप अपने खतों में मरहूम मुहक़्क़िक़ तेहरानी के नज़रियों पर एतेराज़ किया करते थे और मरहूम बहबहानी अपने उस्ताद का दिफ़ाअ करते थे। यह सिलसिला एक मुद्दत तक चलता रहा यहाँ तक कि मरहूम बहबहानी ने आपको शुक्रिये का एक ख़त लिखा और आपकी काफ़ी तारीफ़े कीं और यह तय पाया कि बक़िया बहस मशहद में मुलाक़ात के मौक़े पर होगी।

सन् 1371 हिजरी में आपने क़ुम से नजफ़े अशरफ़ का सफ़र किया और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के चेहलुम के दिन कर्बला में वारिद हुए और फिर वहाँ से नजफ़ चले गये। नजफ़ पहुँच कर मदर्स ए बुख़ाराई में क़ियाम किया और आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ूई, शेख़ हुसैन हिल्ली जैसे बुज़ुर्ग मराज ए कराम के फ़िकह व उसूल के दर्सों में शिरकत की। इसी तरह मोसूफ़ आयतुल्लाह हकीम और आयतुल्लाह शाहरूदी जैसे बुज़ुर्गों उलमा के दर्स में भी शरीक हुए।

जब सन् 1380 हिजरी में आपने मुस्तक़िल क़ियाम की नियत से अपने वतन मशहद वापस जाने का इरादा किया तो उस वक़्त आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ूई और शेख़ हुसैन हिल्ली ने आपको इजाज़ ए इजतेहाद लिख कर दिया। इसी तरह मशहूर मुहद्दिस आग़ा बुज़ुर्ग तेहरानी ने रिजाल और हदीस में आपके तबह्हुर इल्मी की कतबी तसदीक़ की।

सन् 1381 हिजरी में आप दोबारा नजफ़ गये और आपने वहाँ शेख़ अंसारी की किताब मकासिब से फ़िक़्ह का दर्से ख़ारिज कहना शुरु कर दिया और उसके बाद शरहे उरवतुल वुसक़ा से किताबे तहारत और सलात की तदरीस की और जब सन् 1418 हिजरी में किताबे सौम तमाम हो गई तो आपने किताबुल ऐतेकाफ़ का दर्स शुरु कर दिया।

इसी तरह इस अर्से में आपने मुख़्तलिफ़ मौज़ूओं जैसे किताबुल क़ज़ा, किताबर रिबा, क़ाएद ए इल्ज़ाम, क़ाएद ए त़कैय्या वग़ैरह पर फ़िक़्ही बहस की। इसी तरह आपने उस दौरान इल्मे रिजाल पर भी बहस की जिसमें इब्ने अबी उमैर की मुरसला रिवायतों के ऐतेबार पर बहस हुई और शरहे मशीख़ातुत तहज़ीब वग़ैरह का दर्स भी जारी रहा।

सन् 1384 हिजरी में शाबान के महीने से आपने इल्मे उसूल का दर्स देना शुरु किया और आपके दर्से ख़ारिज का तीसरा दौरा सन् 1411 हिजरी के शाबान माह में तमाम हुआ। सन् 1397 हिजरी से आज तक के आपके फ़िक़्ह व उसूल के तमाम दर्सों के ओडियों कैसेट मौजूद हैं। आजकल आपका (शाबान 1423 हिजरी) शरहे उरवतुल वुसक़ा की किताबुज़ ज़कात का दर्से ख़ारिज चल रहा हैं।
इल्मी कारनामे

हज़रत आयतुल्लाहिल उज़मा सीसतानी (दामत बरकातुह) हमेशा अपने उस्तादों के दर्सों में अपनी बेपनाह ज़हानत व सलाहियतों का सुबूत दिया करते थे और हमेशा ही तमाम शागिर्दों में मुमताज़ रहते थे। आप, अपने इल्मी ऐतराज़ों, हज़ूरे ज़हन, तहक़ीक़, फ़िक़्ह व रिजाल के मसाइल के मुताले, दायमी इल्मी काविशों और मुख़्तलिफ़ इल्मी मैदानों के नज़रियों से आशनाई के बल बूते पर हौज़े में अपनी महारत का सुबूत पेश करते रहते थे। क़ाबिले ज़िक्र बात यह है कि आपके और शहीद सद्र (क़ुद्दसा सिर्रहु) के दरमियान इल्मी कारनामों के सिलसिले में हमेशा मुक़ाबला रहता था। इस बात का अंदाज़ा आपके दोनो उस्तादों, आयतुल्लाह ख़ूई (रिज़वानुल्लाह तआला अलैह) और अल्लामा हुसैन हिल्ली (क़ुद्दसा सिर्रहु) के इजाज़ए इज्तेहाद से लगाया जा सकता है। यह बात भी मशहूर है कि आयतुल्लाह ख़ूई (क़ुद्दसा सिर्रहु) ने आयतुल्लाहिल उज़मा सीसतानी (दामा ज़िल्लहु) और आयतुल्लाह शेख़ अली फ़लसफ़ी (जो कि मशहद के मशहूर उलामा में से हैं) के अलावा अपने शागिर्दों में से किसी को भी कतबी इजाज़ा नही दिया। इसी तरह अपने ज़माने के शैख़ुल मुहद्देसीन अल्लामा आग़ा बुज़ुर्ग तेहरानी ने आपके लिए सन् 1380 हिजरी क़मरी में जो इजाज़ा लिखा है उसमें आपकी महारत और इल्मे रिजाल व हदीस में आपकी दरायत को काफ़ी सराहा है। आग़ा बुज़ुर्ग तेहरानी ने आपके लिए यह उस वक़्त लिखा था जब मोसूफ़ की उम्र सिर्फ़ 31 साल थी।
तालीफात

तक़रीबन 24 साल पहले, आपने फ़िक़्ह, उसूल व रिजाल का दर्से ख़ारिज कहना शुरु किया और इस तरह मकासिब की किताबुत तहारत, सलात, क़ज़ा, ख़ुमुस, और दूसरे क़वाएद फ़िक़ही जैसे रिबा, तक़ैय्या और क़ाएद ए इल्ज़ाम को पूरा किया। आप उसूल की तदरीस के तीन दौरे ख़त्म कर चुके हैं, जिसमें की कुछ बहसें जैसे उसूले इल्मी, तअदुल व तराजीह हैं और कुछ फ़िक़्ही बहसें हैं जैसे अबवाबे नमाज़ और क़ाएद ए तक़ैय्या व इल्ज़ाम छपने के लिए तैयार है। कुछ मशहूर उलामा जो ख़ुद भी दर्से खारिज कहते हैं, आपके दर्से ख़ारिज में शिरकत करते हैं जैसे अल्लामा शेख़ महदी मरवारीद, अल्लामा सैयद मुर्तज़ा मेहरी, अल्लामा सैयद हुसैन हबीब हुसैनियान, सैयद मुर्तज़ा इस्फ़ाहानी, अल्लामा सैयद अहमद मददी, अल्लामा शेख़ बाक़िर ईरवानी और हौज़ ए इल्मिया के कुछ दूसरे उस्ताद आपकी बहसों पर तहक़ीक़ करते हैं। हज़रत आयतुल्लाहिल उज़मा सीसतानी, दर्स देने के साथ साथ कुछ अहम किताबों और रिसालों की तसनीफ़ व तालीफ़ भी है। इसी तरह आप, अपने कुछ उस्तादों की तमाम तक़रीरात को भी तालीफ़ कर चुके हैं।
दर्स व बहस का तरीक़ा

आपके दर्स देने का तरीक़ा हौज़े के दूसरे उस्तादों और दर्से ख़ारिज कहने वालों से अलग है जैसे, आपके उसूल के दर्स की ख़ुसूसीयत ज़ैल में बयान की जा रही हैं:

1. बहस की तारीख़ का ज़िक्र, उसूल की मारेफ़त और उसकी बुनियादी चीज़ें, जो शायद एक फ़लसफ़ी मसला हो जैसे सुहूलत व आसानी और उसके तरकीबात या अक़ीदती व सियासी, जैसे तआदुल व तराजीह की बहस, जिसमें आपने बयान किया है कि हदीसों का इख़्तिलाफ़, उस ज़माने के फ़िक्री व अकाइदी झगड़ों व कशमकशों और इमामों (अ) के ज़मानों के सियासी हालात का नतीजा था। इस बारे में थोड़ी सी तारीख़ी मालूमात भी हमें इस मसले के अफकार व नज़रियों के हक़ीक़ी पहलूओं तक पहुँचा देती हैं।

2. हौज़वी व जदीद फ़िक्र का संगम, किताबे किफ़ाया के मुअल्लिफ़ ने मआनी अलफ़ाज़ की बहस के ज़िम्न में मआनी ए अलफ़ाज़ के बारे में अपने नज़रियात को जदीद फ़लसफ़ी नजरिये के तहत, जिसका नाम “नज़रिय ए तकस्सुरे इदराकी” है और जो इंसानी ज़हन की इस्तेदाद व ख़ल्लाक़ियत पर मबनी है, बयान किया है। इसका मतलब यह है कि मुमकिन है कि इंसान का ज़हन एक बात को दो अलग अलग शक़्लों में तसव्वुर कर सकता है: एक को मुस्तक़िल तौर पर दिक़्क़त व वज़ाहत के साथ उसे इस्म कहा जाता है और दूसरे को ग़ैरे मुस्तक़िल तौर पर किसी दूसरी चीज़ की मदद से उसे हर्फ़ कहते हैं। और जब ‘’मुशतक़’’ की बहस शुरु करते हैं तो आप ज़मान को उस फ़लसफ़े की नज़र से देखते हैं जो मग़रिबी दुनिया में राइज है और इस बारे में भी इज़हारे ख़्याल करते हैं कि ज़मान को मकान से रौशनी व अंधेरों के लिहाज़ से अलग किया जाना चाहिए। सिग़ा ए अम्र और तजर्री की बहस में सोशियालाजिस्टस के नज़रियों को ज़िक्र करते हैं। बंदें की सज़ा का मेयार अल्लाह की नाफ़रमानी है और यह हालत पुराने इँसानी समाज की तबक़ेबंदी व तक़सीमबंदी पर है जिसमें आक़ा, ग़ुलाम, बड़े, छोटे....... का फ़र्क़ पाया जाता था। दर हक़ीक़त यह नज़रिया पुराने समाज के बाक़ियात में से है जो तबक़ाती निज़ाम पर मबनी था न कि उस क़ानूनी निज़ाम पर जिसमें आम इँसान के फ़ायदों की बात की जाती है।

3. उन उसूल का ऐहतेमाम जो सिर्फ़ फ़िक्ह से मरबूत हैं, लिहाज़ा एक तालिबे इल्म भी उलमा की दक़ीक़ और पेचीदी फ़िक़्ही बहसों को, जिनका कोई इल्मी व फ़िक्री नतीजा नही होता, देख सकता है जैसे वह बहसें जो वज़अ के बारे में की जाती हैं कि क्या वज़अ एक अम्रे तकवीनी है या ऐतेबारी, या एक ऐसा अम्र है जो तअह्हुद व तख़सीस से मुतअल्लिक़ है, या वह बहसें जो इल्म के मौज़ू और इल्म के मौज़ू की तारीफ़ के ज़ाती अवारिज़ और उस जैसी कुछ दूसरी चीज़े बयान करते हैं। लेकिन जो कुछ आयतुल्लाहिल उज़मा सीसतानी के दर्सों में देखने में आता है वह मोहकम व मज़बूत इल्मी मबना को हासिल करने के लिए सख़्त मेहनत व ज़हमत है ख़ास कर रविशे इस्तम्बात की उसूली बहसें, जैसे उसूले अमली, तआदुल व तराजीह, आम व ख़ास वग़ैरह के मुतल्लिक़ जो बहसें है।

4. नयापन: हौज़े के बहुत से उस्तादों में तख़लीक़ का फ़न नही पाया जाता है। लिहाज़ा वहहमेशा यह कोशिश करते है कि किसी किताब या रिसाले पर तालिक़ा या हाशिया लिखे, बजाए इसके कि उस पर बहस करें, लिहाज़ा हम देखते है कि इस तरह के उस्ताद सिर्फ़ मौजूदा उस्तादों के नज़रियों पर बहस करते हैं और उनमें से किसी एक का इंतेख़ाब करके ख़ुद को ‘फ़ा तअम्मल’ या ‘फ़फ़हम’ या ‘इस इशकाल पर दो इशकाल वारिद होते हैं’ और ‘इन दो इशकालों में ग़ौर करना चाहिए’ जैसी इबारतों में मशग़ूल कर लेते हैं।

5. मुशरिकों के साथ निकाह जायज़ है: आयतुल्लाह सीसतानी इस क़ायदे को जिसे क़ायद ए ‘तज़ाहुम’ कहते हैं और जिसे फ़ुक़हा व उसूलीयीन सिर्फ़ एक अक़्ली ओक़ालाई क़ायदा मानते हैं, क़ायद ए इज़तेरार के ज़िम्न में जो एक शरई क़ायदा है और जिसके बारे में बहुत सी नुसुस का ज़िक्र हुआ है, जैसे (हर वह चीज़ जिसे अल्लाह ने हराम किया है, उसे ही मुज़तर के लिए हलाल किया है) को हलाल जानते हैं। लिहाज़ा क़ायद ए इज़तेरार अस्ल में वही क़ायद ए तज़ाहुम है। या यह कि फ़ुक्हा व उसूलीयीन बहुत से क़ायदों को फ़ुज़ूल में तूल देते हैं जैसे जो कुछ क़ायदए ‘ला तुआद’ में देखने में आता है कि फ़ौक़हा उसे नस्स की वजह से नमाज़ से मख़सूस मानते हैं जबकि आयतुल्लाह सीसतानी इस हदीस ’ला तुआदुस सलात इल्ला मिन ख़मसा’ को मिसदाक़े कुबरा मानते हैं जो नमाज़ और बहुत से मुख़्तलिफ़ वाजिबात को शामिल है। और यह कुबरा रिवायत के आख़िर में मौजूद है ’वला तनकुज़ु सुन्नतिल फ़रीज़ा’ लिहाज़ा जो कुछ मुसल्लम है वह यह है कि नमाज़ में भी और उसके अलावा में भी वाजिबात सुन्नत पर तरजीह रखते हैं, जैसे तरजीहे वक़्त व क़िबला, इसलिए कि वक़्त व क़िबला वाजिबात में से हैं न कि सुन्नत से।

6. समाजी नज़रियात: कुछ फ़ुक़्हा ऐसे हैं जो मत्न का तहतुल लफ़्ज़ी तर्जुमा करते हैं या दूसरे लफ़्ज़ों में यह कि ख़ुद को मत्न के हुरूफ़ का पाबंद बना लेते हैं इसके बग़ैर कि इससे आगे बढ़ कर उसके वसीअ माअना को बयान करें। कुछ दूसरे फ़ुक़्हा उन हालात पर बहस करते हैं जिसमें वह मत्न कहा गया है ताकि उन बातों से आगाह हो सकें जिनकी वजह से उस मत्न पर असर हुआ है। जैसे, अगर पैग़म्बरे इस्लाम (स) की उस हदीस पर ग़ौर व फ़िक्र करें जिसमें आपने (ख़ैबर की जंग में) पालतू गधे के गोश्त को हराम क़रार दिया है। हम देखते हैं कि कुछ फ़ुक़्हा उस हदीस के एक एक हर्फ़ पर अमल करते हैं यानी यह कि उस हदीस के मुताबिक़ पालतू गधे के गोश्त को हराम क़रार देते हैं, जबकि हमें उन हालात पर भी तवज्जो देनी चाहिए जिनमें यह हदीस बयान हुई है ताकि पैग़म्बरे इस्लाम(स) के इस हदीस को बयान करने के असली और बुनियादी मक़सद तक पहुचा जा सके। और वह यह है कि ख़ैबर के यहूदियों के साथ जंग में हथियार और फ़ौजी साज़ व सामान की सख़्त ज़रूरत थी जबकि उस ज़माने में जिसमें मुसलमानों के हालात अच्छे नही थे और असलहा को ढोने के लिए चारपायों के अलावा कोई ज़रिया नही था। इसलिए हम इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि इस हदीस से मुराद एक हुकूमती पाबंदी थी जिसमें एक ऐसी मसलहत थी जिसकी उन दिनो ज़रूरत थी, इस लिए इस तरह का हुक्म सादिर हुआ। लिहाज़ा इस हदीस को हुक्म या हलाल व हराम के तौर पर नही लेना चाहिए।

7. इस्तम्बात में इल्म व दरायत का होना: आयतुल्लाहिल उज़मा सीसतानी का मानना है कि एक फ़क़ीह को अरबी ज़बान, ग्रामर, अरबी नस्र व अशआर और हक़ीक़त व मजाज़ के इस्तेमाल से मुकम्मल तौर पर आगाह होना चाहिए ताकि मतन को मौज़ू के एतेबार से समझ सके। इसी तरह से अहले बैत (अ) और उनके रावियों की हदीसों पर पूरी तरह से तसल्लुत होना चाहिए इसलिए कि इल्मे रिजाल की मारेफ़त हर मुजतहिद के लिए वाजिब व ज़रूरी है। इसी तरह आपके कुछ नज़रिये ऐसे हैं जो मुनहसिर बे फ़र्द हैं और मशहूर से काफ़ी मुख़तलिफ़ हैं। जैसे आप दूसरों की बनिसबत इब्ने ग़ज़ाइरी के मसले पर उनकी मलामत पर यक़ीन नही रखते, ना हद से ज़्यादा तौहीन पर, ना उनकी किताब की निसबत उनसे साबित न होने पर, इन बातों में आपकी राय मशहूर से मुख़ालिफ़ है। आप की नज़र में वह किताब इब्ने ग़ज़ाइरी की ही है और ग़ज़ाइरी, नज्जाशी व शेख़ वग़ैरह से ज़्यादा काबिले एतेमाद हैं। आपका यह भी मानना है कि रावी की शख़्सीयत को मुऐयन करने और उसकी ताईद के लिए, ताकि हदीस को मुसनद या मुरसल क़रार दिया जा सके, इसके लिए तबक़ात की रविश पर एतेमाद करना चाहिए। यह मरहूम आयतुल्लाह बुरुजर्दी की रविश थी। आपका यह भी मानना है कि फ़क़ीह को हदीस की किताबों, नुस्ख़ों के इख्तेलाफ़, हदीस को सही समझने के लिहाज़ से मुअल्लिफ़ के हालात और तालीफ़ की रविश से आगाही ज़रूरी है जिसे उस मुअल्लिफ़ या रावी ने अपनाया है। जैसे हज़रत अयतुल्लाहिल उज़मा सीसतानी इस बात को क़बूल नही करते कि शेख़ सदूक़ हदीसों व रिवायतों को नक़्ल करने में दूसरों से ज़्यादा दिक़्क़त करते थे, बल्कि शेख़ सदूक़ को किताबों और क़रीनों की वजह से एक अमीन और क़ाबिले ऐतेमाद नाक़िले हदीस मानते हैं। जबकि आपने और शहीद सद्र ने इस बारे में काफ़ी मेहनत व ज़हमत की हैं और हमेशा ख़ल्लाक़ियत का सुबूत देते रहे हैं। और जब आयतुल्लाह सीसतानी ‘तआदुल’ व ‘तग़यीर’ की बहस में वारिद होते हैं तो इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि इस बहस का राज़ अहादीस के इख़्तेलाफ़ में पोशिदा है। लिहाज़ा अगर हम मुतूने शरई के इख़्तेलाफ़ की वजहों पर बहस करें तो यह बड़ी और हल न होने वाली मुशकिल भी हल हो सकती है और हम देखेगें कि ‘तरजीह’ व ‘तग़यीर’ की रिवायतों से, जिसे साहिबे किफ़ाया इस्तेहबाब पर हम्ल करते हैं, हम बेनियाज़ हो जाते हैं। शहीद सद्र ने भी इस बारे में बहस की है लेकिन तारीख़ी व हदीसी शवाहिद को बुनियाद न बनाकर सिर्फ़ अक़्ल को बुनियाद बनाया है और हल्ले इख़्तेलाफ़ के लिए अहम क़ायदों को पेश किया है।

8. मुख़्तलिफ़ मकतबों के दरमियान मुक़ायसा: हम सब जानते हैं कि अक्सर असातेज़ा एक मकतब या अक़ीदे को नज़र में रखकर किसी मौज़ू की तहक़ीक़ या मुतालआ करते हैं, लेकिन आयतुल्लाह सीसतानी ऐसा नही करते, मसलन जब वह किसी मौज़ू पर तहक़ीक़ करते हैं तो हौज़ ए मशहद व क़ुम व नजफ़े अशरफ़ के दरमियान मुक़ायसा करते हैं। वह मिर्ज़ा महदी इसफ़हानी (क़ुद्दसा सिर्रहु)- जो मशहद के एक मशहूर आलिम है, आयतुल्लाह बुरुजर्दी, जो क़ुम के हौज़े की फ़िक्र की बुनियाद हैं, इसी तरह हौज़ ए इल्मिया नजफ़ के मशहूर मुहक़्क़िक़ो आयतुल्लाह ख़ूई और शेख़ हुसैन हिल्ली जैसे बुज़ुर्गो के नज़रियों को एक साथ बयान करते हैं। हक़ीक़तन इस तरह से किसी मौज़ू पर बहस करने से उसके सारे गोशे और नुक्ते हमारे सामने अच्छी तरह वाज़ेह होजाते हैं। इसके अलावा आपकी फ़िक़्ही रविश में भी चंद ख़ूबियाँ पाई जाती हैं जो हस्बे ज़ैल हैं:

1. फ़िक़्हे शिया और इस्लाम के दूसरे मज़ाहिब की फ़िक़्हो के दरमियान मुक़ायसा, इसलिए कि इस ज़माने में अहले सुन्नत के फ़िक़्ही अफ़कार से आगाह होना ज़रूरी है, जैसे मौता ए मालिक और ख़राजे अबू युसुफ़ और उस जैसी दूसरी किताबों से, ताकि किसी हदीस को बयान करने के आईम्मा के मक़सद और उसके बारे में अहले सुन्नत के नज़रिये को समझा जा सके।

2. कुछ फ़िक़्ही बहसों में, दौरे हाज़िर के क़ानूनों का सहारा लेना जैसे किताबे बैअ व ख़यारात की तहक़ीक़ के वक़्त, कुछ फ़िक़्ही मुनासिबतों की वजह से इराक़, मिस्र, फ्राँस की हुकूमतों के क़ानून पर निगाह रखना। क्योंकि इस ज़माने के क़ानूनों के उसलूब को पहचानने से इंसान को बहुत से तजरुबे हासिल होते हैं, जिससे फ़िक़्ही क़वाइद पर तहक़ीक़, उस तर्ज़ें फ़िक्र को बढ़ाने और उससे मुताबेक़त करने पर तमाम अहम नुक्ते रौशन हो जायें।

3. हमारे अक्सर उलामा उन फ़िक़्ही क़वाइद पर, जो बुज़ुर्गों से हम तक पहुँचे है, कोई रद्द व बदल नही करते हैं। जबकि हम देखते हैं कि आयतुल्लाह सीसतानी की यही कोशिश होती है कि फ़िक्ही क़वाइद में तबदीली लाई जाये। जैसे क़ायद ए ‘इल्ज़ाम’ के बारे में, जिसे कुछ फ़ुक़्हा क़ायद ए ‘मसलहत’ के तौर पर भी जानते हैं, इसकी बुनियाद पर मुसलमानों को यह हक़ है कि अपने ज़ाती फ़ायदों के लिए, कभी किसी दूसरे इस्लामी मसलक से, चाहे वह उसके असली मसलक के मुख़ालिफ़ हो, की इत्तेबा कर सकते हैं। लेकिन आयतुल्लाह सीसतानी इसको क़बूल नही करते हैं। बल्कि उनके नज़दीक हर मज़हब का एहतेराम, उसके क़वानीन और दूसरे मज़हब से ज़्यादा लायक़े एहतेराम और ज़्यादा ज़रूरी हैं। जैसे यह क़ायदा ‘ले कुल्ले क़ैमिन निकाह’ यानी हर मज़हब में निकाह और शादी की अपनी मख़सूस रस्में होती हैं।
आयतुल्लाह सीसतानी की शख़्सियत की ख़ुसूसियात

आपसे मिलने जुलने वाले हज़रात जल्दी ही आपकी मुमताज़ और आईडियल शख़्सीयत को समझ जाते हैं। आपकी शख़्सीयत की इन ही ख़ूबियों ने आपको एक मुकम्मल नमून ए अमल और आलिमें रब्बानी बना दिया है। आपके फ़ज़ाइल और अख़लाक़ के कुछ नमूने जिनका मैंने नज़दीक से मुशाहिदा किया है, उन्हें मैं यहाँ बयान करना चाहता हूँ:

1. दूसरों की राय का एहतेराम: चूँकि आप इल्म के शैदाई हैं और मारेफ़त व हक़ाइक़ तक पहुँचने की चाहत रखते हैं, लिहाज़ा हमेशा दूसरों की राय का एहतेराम करते हैं। किताब हमेशा हाथ में होती है और कभी मुतालए. तहक़ीक़, बहस और दूसरों उलामा के नज़रियात को नज़र अंदाज़ नही करते। यही वजह है कि कभी आप उन उलामा के नज़रियात को भी जो मशहूर नही है, पढ़ते हैं और उन पर तहक़ीक़ भी करते हैं। यह बात इस चीज़ की निशानी है कि आयतुल्लाह सीसतानी दूसरों की राय के लिए ख़ास तवज्जो और एहतेराम के क़ायल हैं।

2. अदब और मुहावेराती नज़ाकतें: जैसा कि सभी जानते हैं कि तलबा के दरमियान जो मुबाहिसे होते हैं या एक तालिबे इल्म और उस्ताद के दरमियान जो मुबाहिसे होते हैं, ख़ास तौर पर हौज़ ए नजफ़ में, वह निहायत सख़्त व गर्मजोशी में होते हैं। कभी यह चीज़ तलबा के लिए मुफ़ीद होती है लेकिन इसके बावजूद बहस व गुफ़्तगू में हमेशा सख़्ती व गर्मी का होना सही रविश नही है। यह हरगिज़ किसी सही इल्मी मक़सद तक नही पहुँचाती, वक़्त की बर्बादी के अलावा तलबा से मुज़ाकेरे के जज़्बे को भी ख़त्म कर देती है। दूसरी तरफ़, आयतुल्लाह सीसतानी अपने शागिर्दों को जो दर्स देते हैं या उनसे बहस करते हैं उसकी बुनियाद एक दूसरे के इज़्ज़त व एहतेराम पर होती है। अगरचे उनके सामने जो बहसें होती हैं वह कमज़ोर और बे बुनियाद ही क्यों न हो। आपकी एक दूसरी ख़ूबी यह है कि आप अपने शागिर्दों को जो जवाब देते हैं, उसको दोहराते हैं, ताकि वह उस बात को अच्छी तरह समझ ले। लेकिन अगर सवाल करने वाला अपने नज़रिये के बारे में ज़िद करता है तो आप ख़ामोश रहने को पसंद करते हैं।

3. तरबीयत: तदरीस करना, पैसा कमाने का ज़रिया या कोई ऐसी ज़िम्मेदारी नही है जो उस्ताद को उसे अंजाम देने पर मजबूर करती हो। बल्कि एक अच्छे और मेहरबान और शफ़ीक़ उस्ताद की यह कोशिश होनी चाहिए कि वह अपने शागिर्दों की अच्छी तरबीयत करे और उन्हे ऐसे बुलंद इल्मी मक़ाम और मंज़िल तक पहुँचाये जहाँ से तरक़्क़ी के मौक़े हमेशा फ़राहम हों। इस लिए मुहब्बत इन सारी बातों का लाज़िमा है, इससे क़ते नज़रकि हर जगह पर हमेशा ही कुछ लापरवाह और ग़ैर ज़िम्मेदार लोग पाये जाते हैं, लेकिन ऐसे लोगों के पहलुओं में ऐसे उस्ताद भी पाये जाते हैं जो मुख़्लिस, हमदर्द, मेहरबान व समझदार होते है और जिनका असली मक़सद पढ़ने पढ़ाने की ज़िम्मेदारियों को अच्छे तरीक़े से अदा करना है। यहँ पर यह बात भी क़ाबिले ज़िक्र है कि आयतुल्लाह हक़ीम और आयतुल्लाह ख़ूई हमेशा बेहतरीन अख़लाक़ का नमूना रहे हैं और जो कुछ मैंने आयतुल्लाह सीसतानी की ज़िन्दगी में देखा और जिसका मैं गवाह हूँ वह वही उनके उस्तादों वाला अख़लाक़ था। वह हमेशा अपने शागिर्दों से तक़ाज़ा किया करते हैं कि दर्स खत्म हो जाने के बाद उनसे सवाल करें। हज़रत आयतुल्लाह सीसतानी हमेशा अपने शागिर्दों से कहते हैं कि अपने उस्तादों और उलामा का एहतेराम करो और बहस और सवाल के वक़्त उनके साथ निहायत अदब से पेश आओ। वह हमेशा अपने उस्तादों और उनके बुलंद किरदार के क़िस्से सुनाते रहते हैं।

4. तक़वा व परहेज़गारी: नजफ़ के कुछ उलामा ख़ुद को झगड़ों और शिकायतों से दूर रखते हैं, लेकिन कुछ लोग उसे हक़ीक़त से बचना और उससे फ़रार करना या उसे डर और कमज़ोरी समझते है। लेकिन अगर इस मसले को दूसरे नुक़त ए नज़र से देखा जाये तो हम देखते है कि यह एक मुसबत अम्र है बल्कि बहुत सी जगहों पर ज़रूरी और मुहिम है। अब अगर वही उलामा एहसास करें कि उम्मते इस्लामी या हौज़ा, किसी हैजान पैदा करने वाली चीज़ या किसी इस्लामी मसले में इबहाम की वजह से, किसी ख़तरे में पड़ गया है तो यक़ीनन वह मैदान में कूद पड़ेगें। क्योंकि वह अच्छी तरह जानते हैं कि हर आलिम को सख़्त और हस्सास मौक़ों पर अपने इल्म का इज़हार करना चाहिए। एक अहम नुक्ता जिसे यहा पर ज़हन में रखना ज़रूरी है, वह यह है कि आयतुल्लाह सीसतानी फ़ितनों और बलवों के मौक़ों पर हमेशा ख़ामोश रहते थे। जैसे जब आयतुल्लाह बुरुजर्दी और आयतुल्लाह हकीम के इंतेक़ाल के बाद, मक़ाम व मंसब तक पहुँचने के लिए मुक़ाबला शुरू होने लगा और हरकोई अपने शख़सियतको उभारने के चक्कर में पड़ गया, तब भी आयतुल्लाह सीसतानी उसी तरह से अपनी साबित सियासत पर अमल करते रहे और कभी भी दुनयावी लज़्ज़तों, हाकमियत और ओहदे व मक़ाम को अपना मक़सद नही बनाया।

5. फ़िक्री आसार: हज़रत आयतुल्लाह सीसतानी सिर्फ़ एक फ़क़ीह नही हैं बल्कि आप एक निहायत ज़हीन इंसान है और इक़तेसादी व सियासी मैदान में भी अपकी गहरी नज़र है। समाजी निज़ाम और सिस्टम पर भी आपके बहुत अहम नज़रिये पाये जाते हैं और आप हमेशा इस्लामी समाज के हालात से आगाह व बाख़बर रहते हैं।

क़ाबिले ज़िक्र है कि जब आप 29 रबी उस सानी 1409 को अपने उस्ताद आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अबूल क़ासिम ख़ूई की अयादत के लिए गये तो आपके उस्ताद ने चाहा कि आप उनकी जगह पर मस्जिदे ख़ज़रा में इमामत की ज़िम्मेदारी निभाये तो आपने क़बूल नही किया मगर जब उस्तादे मोहतरम ने इसरार किया और फ़रमाया: “काश मैं तुम्हे उसी तरह जिस तरह मरहूम हाज आग़ा हुसैन क़ुम्मी ने हुक्म किया था, हुक्म कर सकता तो तुम्हे क़बूल करने पर मजबूर कर देता।” तो आप उस ज़िम्मेदारी को निभाने पर तैयार हुए।

लेकिन आपने चंद रोज़ मोहलत माँगी और उसके बाद 5 जमादिल अव्वल 1409 में इमामत की ज़िम्मेदारी क़बूल फ़रमायी और इस फ़रीज़े को 1414 हिजरी के ज़िल्हिज्जा माह के आख़िरी जुमे तक अंजाम दिया। उसके बाद यह मस्जिद बंद कर दी गई और यह सिलसिला क़ता हो गया।

आप फ़रीज़ा ए हज की अदाएगी के लिए सन् 1384 हिजरी में बैतुल्लाहिल हराम गये और उसके बाद दो बार 1404 और 1405 हिजरी में भी बैतुल्लाहिल हराम की ज़्यारत से मुशर्रफ़ हुए।
आपकी मरजियत:

हौज़ ए इल्मिया नजफ़े अशरफ़ के कुछ उलामा नक़्ल करते हैं कि कुछ उलामा व फ़ुज़ला ने आयतुल्लाह सैयद नसरूल्लाह मुसतन्बित के इंतेक़ाल के बाद आयतुल्लाह ख़ूई से चाहा कि आप जानशीन के इन्तेख़ाब के लिए जिसमें मरजियत की सलाहियत पाई जाती हो कुछ शर्तें मुऐयन फऱमा दें तो आपने आयतुल्लाह सीसतानी को उनके इल्म, परहेज़गारी और मज़बूत नज़रियात की वजह से, इंतेख़ाब किया। शुरु में आप आयतुल्लाह ख़ूई की मेहराब में नमाज़ पढ़ाया करते थे फिर आप उनके रिसाले पर बहस करने लगे और उस पर तालिक़ा लगाया। आयतुल्लाह ख़ूई के इन्तेक़ाल के बाद उनके तशी ए जनाज़े में शरीक होने और उनके ज़नाज़े पर नमाज़ पढ़ने वालों में आप भी थे। आयतुल्लाह ख़ूई के बाद हौज़ ए नजफ़ की मरजियत की बागडोर आपके हाथों में आ गयी। और आपने इजाज़े देने, शहरिया तक़सीम करने और मस्जिदे ख़ज़रा में आयतुल्लाह ख़ूई के मिम्बर से तदरीस का काम शुरू कर दिया। इस तरह आयतुल्लाह सीसतानी ने इराक़, ख़लीजी मुमालिक, हिन्दुस्तान और अफ़्रीक़ा वग़ैरह में जवान तबक़े में मशहूर हो गये।

हज़रत आयतुल्लाहिल उज़मा सीसतानी एक जाने माने और बड़े आलिम हैं जिनकी मरजियत मशहूर है और एक बड़ी तादाद में अहले इल्म हज़रात और हौज़ ए इल्मिया क़ुम व नजफ़ के उस्ताद आपके आलम होने की गवाही देते हैं।

आख़िर में अल्लाह तअला से दुआ करते है कि उनके साये को मुसलमानों के सरों पर बाक़ी रखे।

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