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नमाज़ का फ़लसफ़ा

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नमाज़ अल्लाह की याद है।
अल्लाह ने हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम से फ़रमाया कि मेरी याद के लिए नमाज़ क़ाइम करो।
 
एक मख़सूस तरीक़े से अल्लाह की याद जिसमे इंसान के बदन के सर से पैर तक के तमाम हिस्से शामिल होते हैं।वज़ू के वक़्त सर का भी मसाह करते हैं और पैरों का भी, सजदे मे पेशानी भी ज़मीन पर रखी जाती है और पैरों के अंगूठे भी। नमाज़ मे ज़बान भी हरकत करती है और दिल भी उसकी याद मे मशग़ूल रहता है। नमाज़ मे आँखे सजदह गाह की तरफ़ रहती हैं तो रुकू की हालत मे कमर भी झूकी रहती है। अल्लाहो अकबर कहते वक़्त दोनों हाथ ऊपर की तरफ़ उठ ही जाते हैं। इस तरह से बदन के तमाम हिस्से किसी न किसी हालत मे अल्लाह की याद मे मशग़ूल रहते हैं।
27- नमाज़ और अल्लाह का शुक्र
नमाज़ के राज़ो मे से एक राज़ अल्लाह की नेअमतों का शुक्रियाअदा करना भी है। जैसे कि क़ुरआन मे ज़िक्र हुआ है कि उस अल्लाह की इबादत करो जिसने तुमको और तुम्हारे बाप दादा को पैदा किया।अल्लाह की नेअमतों का शुक्रिया अदा करना बड़ी अहमियत रखता है। सूरए कौसर मे इरशाद होता है कि हमने तुम को कौसर अता किया लिहाज़ा अपने रब की नमाज़ पढ़ा करो। यानी हमने जो नेअमत तुमको दी है तुम उसके शुक्राने के तौर पर नमाज़ पढ़ा करो। नमाज़ शुक्र अदा करने का एक अच्छा तरीक़ा है। यह एक ऐसा तरीक़ा है जिसका हुक्म खुद अल्लाह ने दिया है। तमाम नबियों और वलीयों ने इस तरीक़े पर अमल किया है। नमाज़ शुक्रिये का एक ऐसा तरीक़ा है जिस मे ज़बान और अमल दोनो के ज़रिया शुक्रिया अदा किया जाता है।
28- नमाज़ और क़ियामत
क़ियामत के बारे मे लोगों के अलग अलग ख़यालात हैं।
क- कुछ क़ियामत के बारे मे शक करते हैं जैसे कि क़ुरआन ने कहा
अगर तुम क़ियामत के बारे मे शक करते हो।
ख- कुछ लोग क़ियामत के बारे मे गुमान रखते हैं जैसे कि क़ुरआन
ने कहा है कि वह लोग गुमान करते हैं कि अल्लाह से मुलाक़ात
करेंगे।
ग- कुछ लोग क़ियामत पर यक़ीन रखते हैं जैसे कि क़ुरआन ने कहा है कि वह क़ियामत पर यक़ीन रखते हैं।
घ- कुछ लोग क़ियामत का इंकार करते हैं जैसे कि क़ुरआन ने कहा है कि (वह लोग कहते है कि) हम क़ियामत के दिन को झुटलाते हैं।
ङ- कुछ लोग क़ियामत पर ईमान रखते हैं मगर उसे भूल जाते हैं जैसे कि क़ुरआन ने कहा है कि वह क़ियामत के दिन को भूल गये हैं।
क़ुरआन ने शक करने वालों के शक को दूर करने के लिए दलीलें दी हैं। क़ियामत का इंकार करने वालों से सवाल किया है कि बताओ तुम्हारे मना करने की दलील क्या है? और भूल जाने वालों को बार बार तंबीह की है ताकि वह क़ियामत को न भूलें। और क़ियामत पर यक़ीन रखने वालों की तारीफ़ की है।
नमाज़ शक को दूर करती है और ग़फ़लत को याद मे बदल देती है। क्योँकि नमाज़ मे इंसान 24 घँटे मे कम से कम 10 बार अपनी ज़बान से अल्लाह को मालिकि यौवमिद्दीन(क़ियामत के दिन का मालिक) कह कर क़ियामत को याद करता है।
29- नमाज़ और सिराते मुस्तक़ीम
हम हर रोज़ नमाज़ मे अल्लाह से सिराते मुस्तक़ीम पर गामज़न रहने की दुआ करते हैं। इंसान को हर वक़्त एक नयी फ़िक्र लाहक़ होती है। दोस्त दुशमन, अपने पराये, सरकशी पर आमादा अफ़राद, और शैतानी वसवसे पैदा करने वाले लोग, नसीहत, शौक़, खौफ़, वहशत, और परोपैगंडे के तरीक़ो से काम लेकर इंसान के सामने एक से एक नये रास्ते पेश करते हैं।और इस तरह मंसूबा बनाते हैं कि अगर इंसान को अल्लाह की तरफ़ से मदद ना मिले तो हवाओ हवस के इन रास्तो मे उलझ कर रह जाये। और मुखतलिफ़ तरीक़ो के बीच उलझन का शिकार होकर सिराते मुस्तकीम से भटक जाये।
ऐहदि नस्सिरातल मुस्तक़ीम यानी हमको सिराते मुस्तक़ीम(सीधे रास्ते पर) पर बाक़ी रख।
सिराते मुसतक़ीम यानी
1- वह रास्ता जो अल्लाह के वलीयों का रास्ता है।
2- वह रास्ता जो हर तरह के खतरे और कजी से पाक है।
3- वह रास्ता जो हमसे मुहब्बत करने वाले का बनाया हुआ है।
4- वह रास्ता जो हमारी ज़रूरतों के जानने वाले ने बनाया है।
5- वह रास्ता जो जन्नत से मिलाता है।
6- वह रास्ता जो फ़ितरी है।
7- वह रास्ता कि अगर उस पर चलते हुए मर जायें तो शहीद कहलाऐं।
8- वह रास्ता जो आलमे बाला से वाबस्ता और हमारे इल्म से दूर है।
9- वह रास्ता जिस पर चल कर इंसान को शक नही होता।
10-वह रास्ता जिस पर चलने के बाद इंसान शरमिन्दा नही होता।
11-वह रास्ता जो तमाम रास्तों से ज़्यादा आसान, नज़दीक, रोशन और साफ़ है।
12-वह रास्ता जो नबियों, शहीदों, सच्चे और नेक लोगों का रास्ता है।
यही तमाम चीज़े सिराते मुस्तक़ीम की निशानियाँ हैं। जिनका पहचानना बहुत मुशकिल काम है।इस पर चलने और बाक़ी रहने के लिए हमेशा अल्लाह से मदद माँगनी चाहिए।
30- नमाज़ शैतानो से जंग है
हम सब लफ़्ज़े महराब को बहुत अच्छी तरह जानते हैं। यह लफ़्ज़ क़ुरआन मे जनाबे ज़िक्रिया अलैहिस्सलाम की नमाज़ के बारे मे इस्तेमाल हुआ है। (सूरए आले इमरान आयत न. 38, 39) यहाँ पर नमाज़ मे खड़े होने को महराब मे क़ियाम से ताबीर किया गया है। महराब का मअना जंग की जगह है। लिहाज़ा महराबे नमाज़ मे क़ियाम और नमाज़ शैतान से जंग है।
31- महराब जंग की जगह
अगर इंसान दिन मे कई बार किसी ऐसी जगह पर जाये जिसका नाम ही मैदाने जंग हो, जहाँ पर शैतानों, शहवतो, ताग़ूतों, सरकशों और हवस से जंग होती हो तो इस ताबीर का इस्तेमाल एक फ़र्द या पूरे समाज की ज़िंदगी मे कितना ज़्यादा मोस्सिर होना चाहिए।
इस बात को नज़र अन्दाज़ करते हुए कि आज के ज़माने मे ग़लत रस्मो रिवाज की बिना पर इन महराबों को दुल्हन के कमरों से भी ज़्यादा सजाया जाने लगा है।इन ज़रो जवाहिर और फूल पत्तियों की नक़्क़ाशी ने तो मामले को बिल्कुल बदल दिया है। यानी महराब को शैतान के भागने की जगह के बजाए, उसके पंजे जमाने की जगह बना दिया जाता है।
एक दिन पैगम्बरे इस्लाम (स.) ने हज़रत ज़हरा सलामुल्लाह अलैह से फ़रमाया कि इस पर्दे को मेरी नज़रो के सामने से हटा दो। क्योंकि इस पर बेल बूटे बने हैं जो नमाज़ की हालत मे मेरी तवज्जुह को अपनी तरफ़ खीँच सकते हैं।
लेकिन आज हम महराब को संगे मरमर और नक़्क़ाशी से सजाने के लिए एक बड़ी रक़म खर्च करते हैं। पता नही कि हम मज़हबी रसूम और मेमारी के हुनर के नाम पर असल इस्लाम से क्यों दूर होते जा रहे हैं? इस्लाम को जितनी ज़्यादा गहराई के साथ बग़ैर किसी तसन्नो के पहचनवाया जायेगा उतना ही ज़यादा कारगर साबित होगा। सोचिये कि हम इन तमाम सजावटों के ज़रिये कितने लोगों को नमाज़ी बनाने मे कामयाब हुए। अगर मस्जिद की सजावट पर खर्च होने वाली रक़म को दूसरी अहम बुन्यादी ज़रूरतों को पूरा करने मे खर्च किया जाये तो बहुतसे लोग मस्जिद और नमाज़ की तरफ़ मुतवज्जाह होंगे।
32-सुस्त लोग भी शामिल हो जाते हैं
इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम ने नमाज़े जमाअत के फ़लसफ़े को ब्यान करते हुए फ़रमाया कि “नमाज़े जमाअत का एक असर यह भी है कि इससे सुस्त लोगों मे भी शौक़ पैदा होता है और वह भी साथ मे शामिल हो जाते हैं।” मिसाल के तौर पर जब हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम का नाम आता है तो आपके मुहिब ऐहतराम के लिए खड़े हो जाते हैं। इनको खड़े होता देख कर सुस्त लोग भी ऐहतरामन खड़े हो जाते हैं।इस तरह इससे सुस्त लोगों मे भी शौक़ पैदा होता है।
33- हज़रत मूसा अलै. को सबसे पहले नमाज़ का हुक्म दिया गया
हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम अपनी बीवी के साथ जारहे थे। उन्होने अचानक एक तरफ आग देखी तो अपनी बीवी से कहा कि मैं जाकर तापने के लिए आग लाता हूँ। जनाबे मूसा अलैहिस्सलाम आग की तरफ़ बढ़े तो आवाज़ आई मूसा मै तुम्हारा अल्लाह हूँ और मेरे अलावा कोई माबूद नही है। मेरी इबादत करो और मेरी याद के लिए नमाज़ क़ाइम करो। (क़ुरआने करीम के सूरए ताहा की आयत न.14) यानी तौहीद के बाद सबसे पहले नमाज़ का हुक्म दिया गया। यहाँ से यह बात समझ मे आती है कि तौहीद और नमाज़ के बीच बहुत क़रीबी और गहरा ताल्लुक़ है। तौहीद का अक़ीदा हमको नमाज़ की तरफ़ ले जाता है।और नमाज़ हमारी यगाना परस्ती की रूह को ज़िंदा करती है। हम नमाज़ की हर रकत मे दोनो सूरों के बाद,हर रुकूअ से पहले और बाद में हर सूजदे से पहले और बाद में, नमाज़ के शुरू मे और बाद मे अल्लाहु अकबर कहते हैं जो मुस्तहब है।हालते नमाज़ मे दिल की गहराईयों के साथ बार बार अल्लाहु अकबर कहना रुकूअ और सजदे की हालत मे अल्लाह का ज़िक्र करना, और तीसरी व चौथी रकत मे तस्बीहाते अरबा पढ़ते हुए ला इलाहा इल्लल्लाह कहना, यह तमाम क़ौल अक़ीदा-ए-तौहीद को चमकाते हैं।
34- नमाज़ को छोड़ना तबाही का सबब बनता है
क़ुरआने करीम के सूरए मरियम की 59वी आयत मे इरशाद होता है कि नबीयों के बाद कुछ लोग उनके जानशीन बने उन्होने नमाज़ को छोड़ दिया और शहवत परस्ती मे लग गये।
इस आयत मे इस बात की तरफ़ इशारा किया गया है कि उन्होने पहले नमाज़ को छोड़ा और बाद मे शहवत परस्त बन गये। नमाज़ एक ऐसी रस्सी है जो बंदे को अल्लाह से मिलाए रखती है। अगर यह रस्सी टूट जाये तो तबाही के ग़ार मे गिरना यक़ीनी है। ठीक इसी तरह जैसे तस्बीह का धागा टूट जाने पर दाने बिखर जाते हैं और बहुत से गुम हो जाते हैं।
35- तमाम अदयान की इबादत गाहों की हिफ़ाज़त ज़रूरी है
क़ुरआने करीम के सूरए हज की 40वी आयत मे इरशाद होता है कि अगर इंक़िलाबी मोमेनीन अपने हाथों मे हथियार लेकर फ़साद फैलाने वालों और तफ़रक़ा डालने वालों से जंग न करें, और उन्हें न मारे तो ईसाइयों, यहूदीयों और मुसलमानो की तमाम इबादतगाहें वीरान हो जायें।
अगर अल्लाह इन लोगों को एक दूसरे से दफ़ ना करता तो दैर, कलीसा, कनीसा और मस्जिदें जिन मे कसरत के साथ अल्लाह का ज़िक्र होता है कब की वीरान होगईं होतीं। बहर हाल अगर इबादत गाहों की हिफ़ाज़त के लिए खून भी देना पड़े तो इनकी हिफ़ाज़त करनी चाहिए।
दैर--- आबादी से बाहर बनाई जाने वाली इबादतगाह जिसमे बैठ कर ज़ाहिद लोग इबादत करते हैं।
कलीसा--- ईसाइयों की इबादतगाह
कनीसा---- यहूदीयों की इबादतगाह और यह इबरानी ज़बान के सिलवसा लफ़्ज़ का अर्बी तरजमा है।
मस्जिद----मुसलमानो की इबादतगाह
36- तहारत और दिल की सलामती
जिस तरह इस्लाम मे नमाज़ पढ़ने के लिए वज़ू, ग़ुस्ल या तयम्मुम जैसी ज़ाहिरी तहारत ज़रूरी है। इसी तरह नमाज़ की क़बूलियत के लिए दिल की तहारत की भी ज़रूरत है। क़ुरआन ने बार बार दिल की पाकीज़गी की तरफ़ इशारा किया है। कभी इस तरह कहा कि फ़क़त क़लबे सलीम अल्लाह के नज़दीक अहमियत रखता है।
इसी लिए इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि “क़लबे सलीम उस क़ल्ब को कहते हैं जिसमे शक और शिर्क ना पाया जाता हो।”
हदीस मे मिलता है “कि अल्लाह तुम्हारे जिस्मों पर नही बल्कि तुम्हारी रूह पर नज़र रखता है।”
क़ुरआन की तरह नमाज़ मे भी ज़ाहिर और बातिन दोनो पहलु पाये जाते हैं। नमाज़ की हालत मे हम जो अमल अंजाम देते हैं अगर वह सही हो तो यह नमाज़ का ज़ाहिरी पहलु है। और यहीँ से इंसान की बातिनी परवाज़(उड़ान) शुरू होती है।
वह नमाज़ जो मारफ़त व मुहब्बत की बुनियाद पर क़ाइम हो।
वह नमाज़ जो खुलूस के साथ क़ाइम की जाये।
वह नमाज़ जो खुज़ुअ व खुशुअ के साथ पढ़ी जाये।
वह नमाज़ जिसमे रिया (दिखावा) ग़रूर व तकब्बुर शामिल न हो।
वह नमाज़ जो ज़िन्दगी को बनाये और हरकत पैदा करे।
वह नमाज़ जिसमे दिल हवाओ हवस और दूसरी तमाम बुराईयों से पाक हो।
वह नमाज़ जिसका अक्स मेरे दिमाग़ मे बना है। जिसको मैंने लिखा और ब्यान किया है। लेकिन अपनी पूरी उम्र मे ऐसी एक रकत नमाज़ पढ़ने की सलाहिय्यत पैदा न कर सका।(मुसन्निफ़)

 

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