अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क

अरफ़ा, दुआ और इबादत का दिन

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दुआ इबादत की रूह है। जो इबादत दुआ के साथ होती है वह प्रेम और परिज्ञान को उपहार स्वरूप लाती है। दुआ ऐसी आत्मिक स्थिति है कि जो इंसान और उसके जन्मदाता के बीच मोहब्बत एवं लगाव पैदा करती है। दुआ से जीवन के प्रति सकारात्मक सोच पैदा होती है। पैग़म्बरे इस्लाम (स) फ़रमाते हैं, सर्वश्रेष्ठ इंसान वह है कि जो इबादत और दुआ से लगाव रखता हो।
विभिन्न परिस्थितियों और स्थानों के दृष्टिगत दुआ और इबादत का महत्व भी भिन्न होता है। जैसे कि मस्जिदों, उपासना स्थलों और काबे की दिशा में दुआ और इबादत का महत्व कुछ और ही है। उचित समय भी दुआ के क़बूल होने का एक महत्वपूर्ण कारण है। कुछ ऐसे दिन होते हैं कि जब ईश्वर से हमारा प्राकृतिक प्रेम जागरुक होता है, जिससे हमारे अस्तित्व में आध्यात्म की ज्योति जागती है। अरफ़े का दिन दुआ और इबादत के लिए कुछ ख़ास दिनों में से एक है, विशेषकर जब उस दिन अरफ़ात के मैदान में हों।
हज के अविस्मरणीय संस्कारों में से एक अरफ़ात के मैदान में ठहर कर ईश्वर की उपासना करना भी है। ज़िलहिज्ज महीने की 9 तारीख़ को हाजियों को सुर्योदय से सूर्यास्त तक अरफ़ात के मैदान में ठहरना होता है। अरफ़ात पवित्र नगर मक्का से 21 किलोमीटर दूर जबलुर्रहमा नामक पहाड़ के आंचल में एक मरूस्थलीय क्षेत्र है। ऐसा विशाल मैदान जहां इन्सान सांसारिक व भौतक चीज़ों को भूल जाता है। अरफ़ात शब्द की उत्पत्ति मारेफ़त शब्द से है जिसका अर्थ होता है ईश्वर की पहचान और अरफ़ा का दिन मनुष्य के लिए परिपूर्णतः के चरण तय करने की पृष्ठिभूमि तय्यार करने का सर्वश्रेष्ठ अवसर है। इन्सान पापों से प्रायश्चित और प्रार्थना द्वारा पापों और बुरे विचारों से पाक हो जाता है और कृपालु ईश्वर की ओर पलायन करता है।
पूरे इतिहास में ऐसे महान लोग गुज़रे हैं जिन्होंने अरफ़ात के मैदान में ईश्वर की इबादत की और अपने पापों की स्वीकारोक्ति की है। इतिहास में है कि हज़रत आदम अलैहिस्सलाम और हज़रत हव्वा ने पृथ्वी पर उतरने के बाद अरफ़ात के मैदान में एक दूसरे को पहचाना और अपनी ग़लती को स्वीकार किया। जी हां अरफ़े का दिन पापों की स्वीकारोक्ति, उनसे प्रायश्चित और ईश्वर की कृपा की आशा करने का दिन है।
अरफ़ा वह दिन है कि जब ईश्वर अपने बंदों का इबादत और उपासना के लिए आहवान करता है, इस दिन ईश्वरीय कृपा और दया धरती पर फैली हुई होती है और शैतान अपमानित हो जाता है।
पैग़म्बरे इस्लाम (स) फ़रमाते हैं: हे लोगो, क्या मैं तुम्हें कोई शुभ सूचना दूं? लोगो ने कहा हां, हे ईश्वरीय दूत। आप ने फ़रमाया, जब इस दिन सूर्यास्त होता है, ईश्वर फ़रिश्तों के सामने अरफ़ात में ठहरने वालों पर गर्व करता है और कहता है, मेरे फ़रिश्तो मेरे बंदों को देखो कि जो धरती के कोने कोने से बिखरे हुए और धूल में अटे हुए बालों के साथ मेरी ओर आए हैं, क्या तुम जानते हो वे क्या चाहते हैं? फ़रिश्ते कहते हैं, हे ईश्वर तुझ से अपने पापों के लिए क्षमा मांगते हैं। ईश्वर कहता है, मैं तुम्हें साक्षी बनाता हूं, मैंने इन्हें क्षमा कर दिया है। अतः (हे हाजियों) जिस स्थान पर तुम ठहरे हो वहां से क्षमा प्राप्त किए हुए एवं पवित्र होकर वापस लौट जाओ।
अरफ़े का दिन इबादत और प्रार्थना का दिन है। विशेष रूप से उन लोगों के लिए जिन्हें हज करने और अरफ़ात के मरूस्थलीय मैदान में उपस्थित होने का सुअवसर मिला है। अरफ़ात की वादी में हाजी, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की इस दिन की विशेष दुआ पढ़ते हैं। मानो किसी विशाल समारोह का आयोजन है, जिसमें ईश्वर के बंदे जीवन एवं ब्रह्मांड के रहस्यों को प्राप्त करना चाहते हैं और ईश्वर से निकट होने के लिए एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते हैं। अरफ़ात के ईश्वरीय एवं आध्यात्मिक वातावरण में हृद्य कांप उठते हैं और आँखों से आंसू बहने लगते हैं। हाजी पवित्र हृदयों एवं एक तरह के वस्त्र धारण किए हुए हाथों को ऊपर उठाते हैं और गिड़गिड़ाते हैं: हे ईश्वर हम तेरी प्रशंसा करते हैं कि तूने अपनी संपूर्ण शक्ति से हमें पैदा किया, अपनी कृपा और अनुकंपा से तूने मुझे सर्वश्रेष्ठ प्राणी बनाया, हालांकि तुझे मेरी कोई आवश्यकता नहीं थी, हे ईश्वर इस दोपहर में जो कुछ तू अपने बंदों को भलाई प्रदान करे और उनका कल्याण करे हमें भी उसमें शामिल रख, हे ईश्वर हमें वंचित नहीं रखना और अपनी असीम कृपा से हमें दूर न कर, हे ईश्वर जब भी जीवन अपनी समस्त व्यापकता के साथ मेरे लिए तंग हो जाता है तो तू मेरा सहारा होता है, यदि तेरी कृपा नहीं होगी तो निःसंदेह मैं नष्ट हो जाऊंगा, हे ईश्वर तू अपने पवित्र और हलाल माल से मुझे व्यापक आजीविका प्रदान कर और स्वास्थ्य एवं शांति प्रदान कर और भय एवं डर के समय मुझे साहस दे।
अरफ़ात की वादी इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की इस दिन की विशेष दुआ की याद अपने दामन में समेटे हुए है। अरफ़े के दिन इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम अपने बेटों, परिजनों और साथियों के एक समूह के साथ ऐसी स्थिति में अपने ख़ेमे से बाहर आए कि उनके चेहरे से विनम्रता व शिष्टता का भाव प्रकट था। उसके बाद इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम जबलुर्रहमा नामक पहाड़ के बाएं छोर पर खड़े हो गए और काबे की ओर मुंह करके अपने हाथों को इस प्रकार चेहरे तक उठाया जैसे कोई निर्धन खाना मांगने के लिए हाथ उठाता है और फिर अरफ़े के दिन की विशेष दुआ पढ़ना शुरु की। यह दुआ शुद्ध एकेश्वरवाद और ईश्वर से क्षमा याचना जैसे विषयों से संपन्न है।
वास्तव में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने दुआए अरफ़ा द्वारा अनेक नैतिक एवं प्रशैक्षिक बिंदुओं का हमें पाठ दिया है। इस मूल्यवान दुआ में जगह जगह पर नैतिकता के उच्च अर्थ निहित हैं। कभी इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ईश्वरीय अनुकंपाओं का उल्लेख करते हैं, कभी ईश्वर से आत्मसम्मान की दुआ मांगते हैं और कभी कर्म में निष्ठा की प्रार्थना करते हैं।
दुआए अरफ़ा में अन्य भाग ऐसे भी हैं कि जो केवल ईश्वर से बातचीत, प्रेम और उसकी प्रशंसा पर आधारित हैं। यह दुआ इस बात को दर्शाती है कि दुआ का अर्थ केवल ईश्वर से मांगना ही नहीं है, बल्कि अपने प्रेमी ईश्वर से बातचीत वह भी एक ज़रूरतमंद एवं असहाय बंदे की ओर से, काफ़ी दिलचस्प एवं मनमोहक हो सकती है और उसे आत्मिक प्रसन्नता एवं मानसिक शांति प्रदान कर सकती है।
अरफ़े के दिन विशेष उपासना एवं इबादत का उल्लेख किया गया है, रोज़ा रखना, ग़ुस्ल करना अर्थात विशेष स्नान करना, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की दुआ का पढ़ना, नमाज़े अस्र के बाद दो रकत नमाज़ का पढ़ना, इसके अलावा चार रकत नमाज़ पढ़ना और दुआ करना विशेष रूप से दुआए इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम।
जाबिर इब्ने अब्दुल्लाह अंसारी से रिवायत है कि पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमाया, अरफ़े के दिन मैदाने अरफ़ा की ओर चलते ही मैदाने अरफ़ा में एकत्रित होने वालों पर ईश्वर की कृपा शुरू हो जाती है। उस समय शैतान अपने सिर पर ख़ाक डालता है, रोता पीटता है, दूसरे शैतान उसके चारो ओर इकट्ठे हो जाते हैं और कहते हैं, तुझे क्या हो गया है? वह कहता है कि जिन लोगों को मैंने 60 और 70 वर्षों तक (पापों में लिप्त करके) नष्ट किया, पलक झपकते ही उन्हें क्षमा कर दिया गया। इसी प्रकार पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमाया, जो कोई अरफ़े के दिन अपने कान, आँखे और ज़बान पर निंयत्रण रखेगा, ईश्वर उसे अरफ़े से दूसरे अरफ़े के दिन तक सुरक्षित रखेगा।
अरफ़ात में जैसे जैसे सूर्यास्त होता है, धीरे धीरे हाजियों के क़दम मशअर की ओर बढ़ने लगते हैं, मशअर भी ज्ञान प्राप्ति एवं जागरुकता की सरज़मीन है। मशअर चिंतन मनन का दूसरा पड़ाव है, यहां हाजी कल के लिए स्वयं को तैयार करते हैं ताकि मिना में शैतान से प्रतिकात्मक युद्ध करें। रात को ईश्वर की उपासना और प्रार्थना में गुज़ारते हैं और 10 ज़िलहिज्जा की सुबह सफ़ैद वस्त्र धारण किए हाजियों का विशाल समूह सुबह की नमाज़ अदा करता है और मिना की ओर चल पड़ता है। 10 जिलहिज्जा, बलिदान एवं भलाई की ईद है।

 

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