नहजुल बलाग़ा में इमाम अली के विचार 12

हज़रत अली (अ) के दृष्टिकोण में एकता एवं एकजुटता

इस्लाम में एकता एवं एकजुटता पर विशेष बल दिया गया है। क़ुराने मजीद के सूरए आले इमरान की 103वीं आयत में उल्लेख है कि “तुम सब अल्लाह की रस्सी को मज़बूती से थाम लो और तितर बितर न हो और अल्लाह की अनुकंपा को याद करो जब तुम एक दूसरे के दुश्मन थे और उसने तुम्हारे दिलों में प्रेम डाला और उसकी अनुकंपा की कृपा से तुम एक दूसरे के भाई बन गए।” पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने भी अपनी उम्मत अर्थात अपने अनुयाईयों की एकता पर बहुत बल दिया है। पैग़म्बरे इस्लाम (स) के मदीने पलायन करने से पहले मदीने के दो क़बीलों औस एवं ख़ज़रज के बीच वर्षों से दुश्मनी और लड़ाई थी। पैग़म्बेर इस्लाम (स) ने इन दोनों क़बीलों के बीच समझौता कराया और उन्हें एकजुट किया, इस प्रकार समाज में भाईचारे और प्रेम को बढ़ावा दिया। मदीने में इस्लामी शासन की स्थापना के बाद पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने जो पहला क़दम उठाया वह मुसलमानों के बीच एकता की स्थापना थी। हज़रत ने मक्के से पलायन करके मदीने पहुंचने वाले मुसलमानों और मदीने के मूल निवासियों के बीच बंधुता का समझौता कराया। पैग़म्बरे इस्लाम (स) का यह क़दम इतना प्रभावी था कि मदीने के निवासी अपने मक्के से आने वाले अपने प्रवासी भाईयों को अपनी संपत्ति और घर-बार में भागीदार समझने लगे।


हज़रत अली कि जिन्होंने क़ुरान की सर्वोच्च शिक्षाओं की रोशनी में शिक्षा दीक्षा प्राप्त की और पैग़म्बरे इस्लाम (स) के सबसे दक्ष शिष्यों में से हैं, पैग़म्बरे इस्लाम (स) के ईश्वरीय दूत बनने की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि लोगों के बीच प्रेम एवं बंधुत्व की स्थापना मानते हैं। वे नहजुल बलाग़ा के पहले ख़ुतबे में फ़रमाते हैं, अल्लाह ने मोहम्मद (स) को अपना दूत बनाया ताकि वह अपने वादे को पूरा करे और पैग़म्बरी के द्वार को बंद कर दे। समस्त ईश्वरीय दूतों से उनकी पैग़म्बरी का वचन लिया था। उनकी पैग़म्बरी की निशानियां स्पष्ट और उनका जन्म बरकत वाला था। उस समय लोग विभिन्न प्रकार के धर्मों का पालन करते थे। उनकी इच्छाएं बेलगाम थीं और वे ख़ुद बिखरे हुए थे। कुछ ऐसे थे कि जो ईश्वर को प्राणियों एवं जीव जन्तुओं से उपमा देते थे। कुछ नास्तिक थे और कुछ अन्य एक ईश्वर के अतिरिक्त दूसरे ख़ुदाओं को मानते थे, लेकिन ईश्वर ने अपने पैग़म्बर की बरकत से उन्हें पथभ्रष्टता से बचाया और अज्ञानता से मुक्ति प्रदान की।  

 
दुर्भाग्यवश पैग़म्बरे इस्लाम (स) के स्वर्गवास के बाद मुसलमानों के बीच उनके उत्तराधिकारी को लेकर मतभेद पैदा हो गए। उस काल में कि जो अभी अज्ञानता के काल से बहुत दूर नहीं हुआ था और अभी लोगों के मन में उस काल के मूल्य एवं रीति रिवाज बाक़ी थे, इस्लाम एवं इस्लामी समाज को गंभीर ख़तरा उत्पन्न हो गया। ऐसी परिस्थितियों में हज़रत अली (अ) ने कि जो पैग़म्बरे इस्लाम के बाद इस्लाम की सबसे महत्वपूर्ण हस्ती थे, लोगों से एकता का आहवान किया। हज़रत अली (अ) ईश्वर और पैग़म्बरे इस्लाम की ओर से पैग़म्बर के बाद उम्मत के नेतृत्व के लिए चुने गए थे, लेकिन इसके बावजूद कि लोगों के नेतृत्व के उनके अधिकार की उपेक्षा की गई, धर्म और उसके मूल्यों की सुरक्षा के कारण उन्होंने ख़ामोश रहना बेहतर समझा। हज़रत अली (अ) की नज़र में इस्लामी समाज की एकता को समस्त चीज़ों यहां तक कि उसके नेतृत्व पर भी वरीयता प्राप्त है।

 
मालिके अश्तर को मिस्र का गवर्नर बनाने के बाद, हज़रत अली (अ) वर्ष 38वीं हिजरी में मालिके अश्तर के हाथ भेजे गए पत्र में कि जिसे मिस्र की जनता के नाम लिखा गया था उल्लेख करते हैं कि, इस्लाम की सुरक्षा के लिए मैंने टकराव के हर क़दम से परहेज़ किया ताकि लोग धर्म से पलट न जाएं और मोहम्मद (स) का धर्म मिट न जाए। मुझे इस बात की चिंता थी कि अगर मुसलमानों के बीच एकता के लिए प्रयास नहीं करूं तो कोई ऐसी समस्या आए कि जिसका दुख और दर्द मेरे लिए कुछ दिन के शासन से बड़ा हो कि जो शीघ्र ही मृगतृष्णा की भांति समाप्त हो जाए। उसके बाद इन घटनाओं से मुक़ाबले किए उठा और मैंने मुसलमानों की सहायता की ताकि असत्य मिट जाए और इस्लामी समाज में शांति पलट आए।

 
हज़रत अली (अ) इस्लामी समाज की परिस्थितियों से अच्छी तरह अवगत थे, और जानते थे कि मुस्लिम समुदाय में फूट पड़ने के क्या परिणाम होंगे? पैग़म्बरे इस्लाम (स) के बाद हज़रत अली (अ) ने जो नीति अपनाई वह उनकी नज़र में इस्लाम और मुस्लिम समुदाय की एकता के महत्व को दर्शाती है। इतिहास में उल्लेख है कि इस्लाम का कट्टर दुश्मन अबू सुफ़ियान कि जो स्पष्ट रूप से इस्लाम स्वीकार कर चुका था, जब उसने मुसलमानों के बीच मतभेद देखे तो हज़रत अली (अ) के पास आया और उन्हें प्रस्ताव दिया कि आप अपना हाथ बढ़ाईए ताकि मैं बैयत अर्थात आपका नेतृत्व स्वीकार करूं, इसलिए कि अगर मैं आपकी बैयत कर लूंगा तो अब्दे मनाफ़ की संतान में से कोई भी आपका विरोध नहीं करेगा, और अगर अब्दे की संतान आपकी बैयत कर लेगी तो क़ुरैश में से कोई आपकी बैयत से इनकार नहीं करेगा और समस्त अरब आपको अपने शासक के रूप में स्वीकार कर लेंगे। लेकिन हज़रत अली (अ) ने उसे जवाब दिया कि तू अभी भी इस्लाम का दुश्मन है। दिलचस्प बात यह है कि हज़रत अली (अ) और उनके साथियों की भावनाओं को भड़काने के लिए अबू सुफ़ियान ने इस प्रकार के शेर पढ़े, अपने निश्चित अधिकारों के हनन पर तुम्हें ख़ामोश नहीं बैठना चाहिए... हज़रत अली (अ) अबू सुफ़ियान के मुसलमानों के बीच फूट डालने और इस्लाम के पौदे को जड़ से उखाड़ने फेंकने की साज़िश से भलिभांति अवगत थे। इमाम (अ) ने उसके प्रस्ताव को रद्द कर दिया और लोगों से एकता का आहवान किया। और कहा, हे लोगों, षडयंत्रों की मौजों को मुक्ति की नाव से मिटा डालो और मतभेदों से बचो और अंहकार के ताज को ज़मीन पर रख दो।


वास्तव में हज़रत अली (अ) उन दुश्मनों के मुक़ाबले में डट गए जो इस्लाम का विनाश करना चाहते थे वे दृढ़ता से खड़े हो गए और उन्होंने दुश्मनों को इस्लाम में फूट डालने और उसे क्षति पहुंचाने की अनुमति नहीं दी।


पैग़म्बरे इस्लाम (स) के बाद, हज़रत अली (अ) को इस्लाम में एकता का सबसे बड़ा ध्वजवाहक कहा जा सकता है। उमर बिन ख़त्ताब की हत्या के बाद, ख़लीफ़ा के चयन के लिए बनी 6 सदस्यों वाली समिति में एक बार फिर लोगों ने ख़िलाफ़त अर्थात पैग़म्बरे इस्लाम का उत्तराधिकारी चयन करने में अन्याय से काम लिया, लेकिन हज़रत ने इसी प्रकार एकता के लिए बलिदान दिया। वे फ़रमाते थे कि तुम जानते ही हो मैं ख़िलाफ़त के लिए सबसे योग्य व्यक्ति हूं। ईश्वर की सौगंध यद्यपि नेतृत्व मेरा अधिकार है और उसे मुझसे छीन लेना मेरे साथ अत्याचार है, लेकिन जब तक मुसलमानों के काम आगे बढ़ते रहेंगे और केवल मेरे साथ अत्याचार होता रहेगा तो मैं विरोध नहीं करूंगा।


हज़रत अली (अ) के मुताबिक़, एकता का अर्थ क़ुरान और पैग़म्बरे इस्लाम (स) की शैली का अनुसरण है। हज़रत अली (अ) के यद्यपि कुछ दूसरे लोगों से मतभेद थे और वे उनकी कार्यशैली के विरोधी थे लेकिन मुसलमानों की एकता को बहुत महत्व देते थे, इसीलिए उन्होंने अपने निश्चित अधिकार को मुसलमानों की एकता पर क़ुर्बान कर दिया। जैसा कि अबू मूसा अशरी के पत्र के जवाब में लिखते हैं, इस्लामी जगत में मोहम्मद (स) की उम्मत की एकता के लिए कोई भी व्यक्ति मुझसे अधिक हितैशी नहीं है। मैं इसके इनाम और अच्छे परिणाम की इच्छा ईश्वर से करता हूं।


अंत में इस बिंदु की ओर इशारा करना चाहते हैं कि हज़रत अली (अ) ने इस्लामी इतिहास के उस बहुत ही संवेदशील समय में जो निर्णय लिया, उससे समस्त मुसलमानों को यह पाठ मिला कि इस्लामी जगत में एकता की सुरक्षा मुसलमानों की सबसे अहम ज़िम्मेदारी है। हज़रत अली (अ) ने इस्लामी संयुक्तताओं का उल्लेख किया और कहा कि सबका ईश्वर, पैग़म्बर और क़ुरान एक ही है। उन्होंने इस्लामी उम्मत की एकता को ईश्वरीय मूल्यवान अनुकंपाओं में से एक बताया। उन्होंने इस्लामी जगत में एकता की सुरक्षा करके इस्लाम को मिटने से बचा लिया। हज़रत अली (अ) नजुल बलाग़ा के 18वें ख़ुतबे में इस प्रकार उल्लेख करते हैं कि अगर एक उम्मत में सब एक ही ईश्वर की उपासना करते हैं और एक ही पैग़म्बर का अनुसरण करते हैं और उनकी पवित्र धार्मिक किताब भी एक है, तो फिर क्यों आपस में मतभेद रखते हैं। मुसलमानों को अपने संयुक्त विश्वासों के आधार पर इस्लामी उम्मत के कल्याण के लिए प्रयास करने चाहिएं और विभाजन से बचना चाहिए। नहजुल बलाग़ा के 192वें ख़ुतबे में उल्लेख है कि गत उम्मतों के अनुचित कामों के कारण जो प्रकोप उन पर हुआ उनसे स्वयं को बचाओ और विगत में गुज़रे हुए लोगों के हालात को अपने अच्छे और कठिन हालात में याद करो और डरो कि कहीं उनकी तरह न हो जाओ। जब कभी पूर्व में गुज़रे हुए लोगों के जीवन का अध्ययन करों और सोच विचार करो तो उस चीज़ को अपनाओ जो उनके सम्मान का कारण बनी और जिसने उनके दुश्मनों को मात दी और उनके जीवन को सुरक्षित बनाया, और उन्हें उससे अधिक अनुकंपाएं प्राप्त हुईं और उनकी हस्ती को सम्मान प्रदान किया। वे विभाजित नहीं हुए और उन्होंने एकता एवं समन्वयता के लिए प्रयास किए और एक दूसरे को एकता के लिए प्रेरित किया और उस पर बल दिया।