अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क

कस्बे रोज़ी

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मतने हदीस

अन अबी उमर क़ाला : क़ला रसूलुल्लाहि(स.):लैसा शैउन तुबाइदुकुम मिन्नारि इल्ला व क़द ज़करतुहु लकुम व ला शैउन युक़र्रिबुकुम मिनल जन्नति इल्ला व क़द दलल्तुकुम अलैहि इन्ना रूहल क़ुदुस नफ़सा रवई अन्नहु लन यमूता अब्दुन मिन कुम हत्ता यस्तकमिला रिज़्कहु , फ़अजमिलु फ़ीत्तलबि फ़ला यहमिलन्नाकुम इस्तिबताउ अर्रिज़क़ि अला अन ततलुबु शैयन मिन फ़ज़लिल्लाहि बिमअसियतिहि, फ़इन्नहु लन युनाला मा इन्दलल्लाहि इल्ला बिताअतिहि अला व इन्ना लिकुल्लि अमरा रिज़्क़न हुवा यातिहि ला महालता फ़मन रज़िया बिहि बुरका लहु फ़ीहि व वस्सिअहु व मन लम यरज़ा बिहि लम युबारका लहु फ़ीहि व लम यसअहु, इन्नर रिज़्क़ा लयतलुबु अर्रजुला कमा यतलुबुहु अजलुहु।[1]

तर्जमा

इब्ने उमर से रिवायत है कि पैगम्बर (स.) ने फ़रमाया कि जो चीज़ तुमको जहन्नम की आग से दूर रखेगी वह मैंनें बयान कर दी हैं, और जो चीज़े तुमको जन्नत से नज़दीक करेंगी उनकी भी तशरीह कर दी है और किसी भी चीज़ को फ़रामोश नही किया है। मेरे ऊपर “वही” नाज़िल हुई है कि कोई भी उस वक़्त तक नही मरता जब तक उसकी रोज़ी पूरी न हो जाये। बस तुम तलबे रोज़ी में एतेदाल की रियाअत करो। ख़ुदा न करे कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारी रोज़ी की कुन्दी ( कमी और पिछड़ापन) तुमको इस बात पर मजबूर न करदे कि तुम उसको हासिल करने के लिए गुनाह के मुरतकिब हो जाओ। क्योंकि कोई भी अल्लाह की फ़रमा बरदारी के बग़ैर उसके पास मौजूद नेअमतों को हासिल नही सकता। और जानलो कि जिसके किस्मत में जो रोज़ी है वह उसको हर हालत में हासिल होगी। बस जो अपनी रोज़ी पर क़ानेअ होता है उसका रिज़्क पुर बरकत और ज़्यादा हो जाता है। और जो अपनी रोज़ी पर क़ाने और राज़ी नही होता उसके रिज़्क़ मे बरकत और ज़्यादती नही होती। रिज़्क़ उसी तरह इंसान की तलाश में आता है जिस तरह मौत इंसान की तलाश में आती है।

तफ़्सीर

हज़रत रसूले ख़ुदा फ़रमाते हैं कि : मैं तुमको क़ौल और फेअल के ज़रिये हर उस चीज़ से रोकता हूँ जो तुमको जन्नत से दूर करने वाली है। और तुमको हर उस चीज़ का हुक्म देता हूँ जो तुमको जन्नत से करीब और जहन्नम से दूर करने वाली है। इस हदीस का फ़ायदा यह है कि हमको हमेशा इस्लामी अहकाम को जारीयो सारी करने के लिए

कोशिश करनी चाहिए । और यह हिसाब हमको अहले सुन्नत से - जो कि मोतक़िद हैं कि जहाँ पर नस नही है वहाँ पर हुक्म भी नही है - जुदा करता है। इसी दलील से अहले सुन्नत फ़कीहों को यह हक़ देते हैं कि वह क़ानून बनायें क़ियास करें और इस्तेहसान व मसालहे मुरसला को जारी करें। ऐसा मज़हब जो आधा अल्लाह और मासूमीन के हाथ में हो और आधा आम लोगों के हाथों में वह उस मज़हब से बहुत ज़्यादा मुताफ़ावित होगा जो कामिल तौर पर अल्लाह और मासूमीन की तरफ़ से हो। अलबत्ता आयते “ अलयौम अकमलतु लकुम दीनाकुम ”[2] (आज हमने तुम्हारे दीन को कामिल कर दिया) से भी यही ज़ाहिर होता है। चूँकि दीन अक़ाइद , क़वानीन और अखलाक़ियात के मजमुए का नाम है। हदीस हमको यह नज़रिया देती है कि एक मुजतहिद की हैसियत से इसतम्बात करें न यह कि तशरीअ करे।

यहाँ पर चन्द बातों का ज़िक्र ज़रूरी है।

1- कुछ सुस्त और बेहाल लोग “ व मा मिन दाब्बति फ़िल अर्ज़ि इल्ला अला अल्लाहि रिज़्क़ुहा ”[3] ( ज़मीन पर कोई हरकत करने वाला ऐसा नही है जिसके रिज़्क़ का ज़िम्मा अल्लाह पर न हो।) जैसी ताबीरात और उन रिवायात पर तकिया करते हुए जिनमें रोज़ी को मुक़द्दर और मुऐयन बताया गया है यह सोचते हैं कि इंसान के लिए ज़रूरी नही है कि वह रोज़ी को तहिय्या करने के लिए बहुत ज़्यादा कोशिश करे। क्योंकि रोज़ी मुक़द्दर है और हर हालत में इंसान को हासिल होगी और कोई भी दहन रोज़ी के बग़ैर नही रहेगा।

इस तरह के नादान लोग दीन को पहचान ने में बहुत ज़्यादा सुस्त और कमज़ोर हैं। ऐसे अफ़राद दुशमन को यह कहने का मौक़ा देते हैं कि मज़हब वह आमिल है जो इक़्तेसादी रकूद, जिन्दगी की मसबत फ़आलियत की ख़मौशी और बहुत सी चीज़ो से महरूमियत को वजूद में लाता है। इस उज़्र के साथ कि अगर फलाँ चीज़ मुझको हासिल नही हुई तो वह हतमन मेरी रोज़ी नही थी। अगर वह मेरी रोज़ी होती तो किसी चूनों चरा के बग़ैर मुझे मिल जाती। इससे इस्तसमारगरान (वह बरबाद करने वाले अफ़राद जो अपने आपको इस्तेअमार यानी आबाद करने वाले कहते हैं) को यह मोक़ा देते हैं कि वह महरूम लोगों को को और ज़्यादा दूहें और उनको ज़िन्दगी के इब्तेदाई वसाइल से भी महरूम कर दें। जबकि क़ुरआन व इस्लामी अहादीस से थोड़ी सी आशनाई भी इस हक़ीक़त को समझ ने के लिए काफ़ी है कि इस्लाम ने इंसान के माद्दी व माअनवी फ़यदे हासिल करने की बुनियाद कोशिश को माना है। यहाँ तक कि नारे की मानिंद क़ुरआन की यह आयत “लैसा लिल इंसानि इल्ला मा सआ ” भी इंसान की बहरामन्दी के, कोशिश में मुनहसिर होने का ऐलान कर रही है।

इस्लाम के रहबर भी दूसरों को तरबीयत देने के लिए बहुत से मौक़ो पर काम करते थे ; थका देने वाले और सख़्त काम।

गुज़िश्ता पैगम्बरान भी इस क़ानून से मुस्तस्ना नही थे ; वह भेड़ें चराने, कपड़े सीने, जिरह बुनने और खेती करने से भी नही बचते थे। अगर अल्लाह की तरफ़ से रोज़ी की ज़मानत का मफ़हूम घर में बैठना और रोज़ी के उतरने का इंतेज़ार होता तो अम्बिया व आइम्मा - जो कि दीनी मफ़ाहीम को सबसे ज़्यादा जानते हैं - रोज़ी को हासिल करने के लिए यह सब काम क्यों अंजाम देते।

इसी बिना पर हम कहते हैं कि हर इंसान की रोज़ी मुक़द्दर है मगर इस शर्त के साथ कि उसको हासिल करने के लिए कोशिश की जाये। क्योंकि कोशिश शर्त और रोज़ी मशरूत है लिहाज़ा शर्त के बग़ैर मशरूत हासिल नही होगा। यह बिल्कुल इसी तरह है जैसे हम कहते हैं कि “सब के लिए मौत है और हर एक के लिए उम्र की मिक़दार मुऐयन है।” इस जुम्ले का मफ़हूम यह नही है कि अगर इंसान ख़ुदकुशी करे या ज़रर पहुँचाने वाली चीज़ों को खाये तब भी अपनी मुऐयन उम्र तक ज़िन्दा रहेगा। बल्कि इसका मफ़हूम यह है कि यह बदन मुऐयन मुद्दत तक बाक़ी रहने की सलाहियत रखता है इस शर्त के साथ कि इसके हिफ़ाज़त के उसूलों की रिआयत की जाये, खतरे के मवारिद से परहेज़ किया जाये और उन असबाब अपने आपको दूर रखे जिन की वजह से मौत जल्द वाक़ेअ हो जाती है।

अहम बात यह है कि वह आयात व रिवायात जो रोज़ी के मुऐयन होने से मरबूत हैं वह हक़ीक़तन लालची और दुनिया परस्त अफ़राद की फ़िक्रों के ऊपर लगाम है। क्योंकि वह अपनी ज़िन्दगी के वसाइल फ़राहम करने के लिए सब कुच्छ कर गुज़रते है और हर तरह के ज़ुल्मो सितम के मुरतकिब हो जाते हैं, इस गुमान में कि अगर वह ऐसा नही करेंगे तो उनकी ज़िन्दगी के वसाइल फ़रहम नही होंगे।

यह कैसे मुमकिन है कि जब इंसान बड़ा हो जाये और हर तरह के काम करने की ताकत हासिल कर ले तो अल्लाह उसको भूल जाये। क्या अक़्ल और ईमान इस बात की इजाज़त देते हैं कि इंसान ऐसी हालत में यह गुमान करते हुए कि मुमकिन है कि उसकी रोज़ी फ़राहम न हो गुनाह, जुल्मो सितम, दूसरों के हक़ूक़ की पामाली के मैदान में क़दम रखे लालच में आकर मुस्तज़अफ़ीन के हक़ूक़ को ग़स्ब करे ?

अलबत्ता इस बात से इंकार नही किया जा सकता कि बाअज़ रोज़ी ऐसी हैं कि चाहे इंसान उनके लिए कोशिश करे या न करे उसको हासिल हो जाती हैं।

क्या इस बात से इंकार किया जा सकता है कि सूरज की रौशनी हमारी कोशिश के बग़ैर हमारे घर में फैलती है या हवा और बारिश हमारी कोशिश के बग़ैर हमको हासिल हो जाती है ? क्या इस से इंकार किया जा सकता है कि अक़्ल, होश और इस्तेदाद जो रोज़े अव्वल से हमारे वजूद में ज़ख़ीरा थी हमारी कोशिश से नही है ?

इसका भी इंकार नही किया जा सकता कि कभी कभी ऐसा होता हैं कि इंसान किसी चीज़ को हासिल करने की कोशिश नही करता, मगर इत्तेफ़ाक़ी तौर पर वह उसको हासिल हो जाती है। अगरचे ऐसे हादसात हमारी नज़र में इत्तेफ़ाक़ हैं लेकिन वाक़िअत में और ख़ालिक़ की नज़रों में इस में एक हिसाब है। इसमें कोई शक नही है कि इस तरह की रोज़ी का हिसाब उन रोज़ीयों से जुदा है जो कोशिश के नतीजे में हासिल होती हैं।

लेकिन इस तरह की रोज़ी जिसको को इस्तलाह मे हवा में उड़ के आई हुई,या इस से भी बेहतर ताबीर मे वह रोज़ी जो किसी मेहनत के बग़ैर हमको लुत्फ़े इलाही से हासिल होती हैं,अगर उसकी सही तरह से हिफ़ाज़त न की जाये तो वह हमारे हाथों से निकल जायेंगी या बेअसर हो जायेंगी।

नहजुल बलाग़ा के खत न.31 में हज़रत अली अलैहिस्सलाम का एक मशहूर क़ौल है जो आपने अपने बेटे इमाम हसन अलैहिस्सलाम को लिखा फरमाते हैं कि “ व एलम या बुनय्या इन्ना अर्रिज़क़ा रिज़क़ानि रिज़क़ुन ततलुबाहु व रिज़क़ु यतलुबुका।” “ऐ मेरे बेटे जान लो कि रिज़्क़ की दो क़िस्में हैं एक वह रिज़्क़ जिसको तुम तलाश करते हो और दूसरा वह रिज़्क़ जो तुमको तलाश करता है।” यह क़ौल भी इली हक़ीक़त की तरफ़ इशारा करता है।

बहर हाल बुनियादी नुक्ता यह है कि इस्लाम की तमाम तालीमात हमको यह बताती हैं कि अपनी ज़िन्दगी को बोहतर बनाने के लिये चाहे- वह माद्दी जिन्दगी हो या माअनवी जिन्दगी- हमको बहुत ज़्यादा मेहनत करनी चाहिये। और यह ख़याल करते हुए कि रिज़्क़ तो अल्लाह की तरफ़ से तक़सीम होता ही है, काम न करना ग़लत है। (तफ़सीरे नमूना जिल्द 9/20)

2- हम सब तालिबे इल्मों को यह सबक़ देती है कि इस बात पर ईमान रख़ना चाहिए कि अल्ला अहले इल्म अफ़राद की रोज़ी का बन्दुबस्त करता है। क्योंकि अगर अहले इल्म अफ़राद माल जमा करने में लग जायेंगे तो दो बड़े ख़तरों से रू बरू होना पड़ेगा।

क- क्योंकि अवाम आलिमों के ख़त (राह) पर चलती है, लिहाज़ा इनको दूसरों के लिए नमूना होना चाहिए । अगर आलिम दुनिया कमाने में लग जायेंगे तो फ़िर यह दूसरों के लिए नमूना नही बन सकते।

ख- वह माल जो आलिमों के अलावा दूसरे लोग जमा करते हैं वह मज़हब को नुक़्सान नही पहुँचाता। लेकिन अगर आलिम हक़ और ना हक़ की तमीज़ किये बिना मुख़तलिफ़ तरीक़ों से माल जमा करेंगे तो यह मज़हब के लिए नुक़्सान देह होगा। वाक़ेयन यह हसरत का सामान है।

[1]बिहारुल अनवार जिल्द 77/185।
 

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