अज़ादारी की आवश्यकता क़ुरआन की दृष्टि में

आज के इस युग में हम कभी कभी किसी भी ऐसे गैरे के मुंह से इमाम हुसैन (अ) की अज़ादारी और उन पर रोने के बारे में किए गए इश्कालों और आपत्तियों को सुनते रहते हैं


वह कहते हैं कि इमाम हुसैन (अ) की शहादत के 1400 साल बीत जाने के बाद आज इस मातम, मजलिस, अज़ादारी, और रोने का क्या लाभ है? और उसका क्या नतीजा निकलता है?


और आख़िर क्या कारण है कि हमारे भारत जैसे देश में जो कि ख़ुद एक ग़रीब देश है और अभी अभी विकास की राह पर अग्रसर हुआ है, क्यों इतना पैसा और समय एक ऐसे कार्य पर लगाया जाए जिसका कोई लाभ न हो? और उस घटना पर अपना समय वयर्थ किया जाए जिसको बीते 1400 साल हो चुके हैं?


इस बेकार के इश्काल और आपत्ति का उत्तर बजाए इसके कि हम अपनी तरफ़ से या किसी हदीस की पुस्तक से दें, हम उस महान और पवित्र पुसत्क से देंगे जिसके बारे में ईश्वर ने कहा है कि “यह वह पुस्तक है जिसमें शक और शंका का कोई स्थान नहीं है।“


क़ुरआन!!!


आइये हम और आप मिलकर ख़ुदा की सबसे महान पुस्तक क़ुरआन में देखते हैं कि वह अज़ादारी और रोने के बारे में क्या कहता है


1.    चुप रहना मना है


क़ुरआन का उसूल और आधार ज़ुल्म और अत्याचार के विरुद्ध लड़ना है चाहे वह किसी भी स्थान पर हो या अत्याचार करने वाला कोई भी हो, और इसीलिए ख़ुदा ने अपने बंदों को ज़ुल्म और अत्याचार को सबके सामने बयान करने की अनुमिति देकर न केवल यह चाहा है कि अत्याचार का शिकार और मज़लूम की आवाज़ उसके सीने में दब कर न रह जाए, बल्कि यह चाहा है कि सारे लोग उस पीड़ित को और उस पर हुए अत्याचार को जानें और उसको ज़ुल्म और अत्याचार से बचाने के लिए उठ खड़े हों


 « لاَّ یُحِبُّ اللّهُ الْجَهْرَ بِالسُّوَءِ مِنَ الْقَوْلِ إِلاَّ مَن ظُلِمَ وَکَانَ اللّهُ سَمِیعًا عَلِیمًا [نساء/ 148].»


ख़ुदा बुरी बात को तेज़ और रौशन (जैसे ग़ीबत, झूठा आरोप लगाना, गाली गलौज आदि को) पसंद नही करता है सिवाय उसके जिस पर अत्याचार हुआ हो और ख़ुदा सदैव सुनने वाला और जानकार है।


इस आयत के अनुसार कर्बला की घटना में इसके अतिरिक्त कि इमाम हुसैन (अ) और उनके साथियों यहां तक के छोटे छोटे बच्चों पर ज़ुल्म एवं अत्याचार किया गया, दूसरी तरफ़ हम शियों पर भी इमाम के चले जाने और उनके शहीद कर दिए जाने से बहुत बड़ा अत्याचार हुआ है, क्योंकि इस्लाम के शत्रु यज़ीदियों के इस भीवत्स कार्य से हम शियों ने अपने रूहानी बाप को गवां दिया है।

(तमाम मासूम इन्सानों की आत्मिक तरबियत के आधार पर हमारे रूहानी पिता है यहां तक कि यह चीज़ हमारे अध्यापकों के लिए भी है कि वह हमारे रूहानी पिता होते हैं (विश्वविद्यालयों में सुप्रीम नेता की सलाब ब्यूरो प्रतिनिथि कोड 100132360/1)


अब अगर हम आशूरा के बाद होने वाली अज़ादारियों के बारे में थोड़ा चिंतन करें तो हम को पता चलेगा कि इन अज़ादारियों या दूसरे शब्दों में कहा जाए रसूल के नवासे पर होने वाले ज़ुल्म और अत्याचार को बयान करना, न केवल इस्लाम के वास्तविक शत्रु का चेहरा सबके सामने लाता है बल्कि दूसरी तरफ़ यह बहुत सी क्रांतियों, इन्क़ेलाब और दुनिया में अत्याचार के विरुद्ध खड़े होने के लिए लोगों को जोश देता है जैसा कि हमने स्वंय अपने भारत में देखा है कि महात्मा गाँधी ने इसी हुसैन (अ) और कर्बला से पाठ लेते हुए आज़ादी को अपने अंजाम तक पहुँचाया।


नतीजाः यह आयत हमको सिखा रही है कि पीड़ित को अत्याचारी के मुक़ाबले में चुप नहीं बैठना चाहिए, बल्कि उसका मुक़ाबला करना चाहिए।


2.    ईश्वरीय निशानियों का सम्मान (ताज़ीमे शआएरे इलाही)


« وَمَن یُعَظِّمْ شَعَائِرَ اللَّهِ فَإِنَّهَا مِن تَقْوَى الْقُلُوبِ [حج/32 .»


जो भी ख़ुदा की निशानियों (शआएर) को महान रखे निःसंदेह (शआएर इलाही का सम्मान) यह दिल के तक़वे में से है


इस आयत को समझने के लिए आवश्यक है कि हम इस आयत में आने वाले दो शब्दों की सही परिभाषा को समझें


शआएरे इलाही (شعائر الهی)


अरबी भाषा का यह शब्द “शआएर” बहुवचन है “शअरा” का जिसका अर्थ “निशानी और अलामत” है, इस आधार पर शआएरे इलाही का अर्थ “परमात्मा की निशानियां” है जो ईश्वरीय धर्म, आस्था.. आदि को शामिल है।


ताज़ीम या सम्मान


वास्तविक सम्मान यह है कि इन ईश्वरीय निशानियों के स्थान और महत्व को सोंच, कार्य ज़ाहिर और बातिन में ऊँचा किया जाए, और उनके सम्मान और एहतेराम के लिए जो भी आवश्यक है वह किया जाए। जिसका अर्थ यह हुआ कि यह छोटे से छोटा कार्य जैसे मजलिस और जुलूसों में समिलित होना या हर बड़े से बड़ा कार्य जैसे इमाम हुसैन (अ) के मक़सद को अपने जीवन में शामिल करना एक प्रकार का ईश्वरीय निशानियों का सम्मान है

(तफ़्सीरे नमूना जिल्द 14, इसी आयत के अंतरगत)


और अब जब्कि सैय्यदुश शोहदा इमाम हुसैन (अ) की अज़ादारी वास्तव में इस्लाम को जीवित करना और लोगों को वास्तविक इस्लाम की पहचान करवाना है, इसी प्रकार मजलिसों में जाना ख़ुदा की याद और दीन एवं क़ुरआन की शिक्षा की जानकारी प्राप्त करना है तो इस प्रकार की अज़ादारी ईश्वरीय निशानियों के सम्मान का एक मिस्दाक़ हैं, विशेषकर जब हम आयत के अंत में देखते हैं कि जहां पर ख़ुदा कह रहाः “ख़ुदा की निशानियों का सम्मान दिल के तक़वे कि निशानी है।“


अब प्रश्न यह नहीं रह जाता है कि इमाम हुसैन (अ) की अज़ादारी क्यों की जाए बल्कि प्रश्न यह हो जाता है कि जो लोग इन अज़ादारियों में समिलित नहीं होते हैं वह कल को क़यामत में अल्लाह को क्या मुंह दिखाएंगे उनके पास “ताज़ीमे शआएरे इलाही” के बारे में पूछे जाने वाले प्रश्न का क्या उत्तर होगा? क्या ऐसे लोगों को दीन का ग़द्दार नहीं कहा जाएगा?


जब्कि हम अपनी इस दुनिया मे देखते हैं कि अगर मिसाल के तौर पर कोई 2 अक्टूबर यानी गाँधी जयन्ती पर गाँधीजी का सम्मान न करे तो उसको देशद्रोही या भारत का ग़द्दार कहा जाएगा क्योंकि उसने उस महान व्यक्ति का सम्मान नहीं किया है जिसके कारण वह आज़ाद भारत में सांस ले रहा है।


इसी प्रकार अगर 61 हिजरी में इमाम हुसैन (अ) ने अपनी और अपने साथियों की क़ुर्बानी देकर इस्लाम को न बचाया होता तो आज इस्लाम का नाम न होता, तो अगर आज कोई इन्सान इस दुनिया में अपने आप को मुसलमान कह रहा है तो वह कर्ज़दार है इमाम हुसैन (अ) का, अब अगर इसके बाद भी वह हुसैन की अज़ादारी का विरोध करे तो वह इस्लामी ग़द्दार है।


अंत में हम ख़ुदा से प्रार्थना करते हैं कि वह हमको इमाम हुसैन (अ) के वास्तविक अज़ादारों में समिलित करे और हमको ईश्वरीय निशानयों का सम्मान करने की तौफ़ीक़ अता करे (आमीन)