इमाम हुसैन (अ) के ग़म का ईनाम

बेहतर होगा कि हम इमामे मासूम(अ) के बयान में अपने काम का जायज़ा लें और देखे कि अहले बैत (अ) के लिये हमारी अज़ादारी और हमारा ग़म मनाना किस क़दर क़ीमती है। इमाम सादिक़(अ) से एक हदीस में इस तरह नक़्ल हुआ है कि हमारी मुसीबत पर ग़मगीन होने वाले का साँस लेना तसबीह और उसका ग़म मनाना इबादत है।[9]

इसलिये कि आप इमाम हुसैन (अ) पर होने वाले सारे ज़ुल्म पर ग़मगीन हैं। ऐसी हालत में आपका साँस लेना तसबीह है और फ़रिश्ते उसे लिखते रहते हैं और आपके नाम ए आमाल में हर साँस के बदले में एक सुबहानल्लाह लिखा जायेगा। इसके अलावा अल्लाह ने आपके ग़म मनाने को इबादत क़रार दिया है और यह दो बड़े सवाब उन सवाबों से अलग हैं जो इस राह में ख़िदमत से हासिल होंगें।

जो भी हज़रत की राह में ख़िदमत में ज़्यादा ज़हमत उठायेगा और अपने आराम और नींद को आपकी और आपके चाहने वालों की ख़िदमत के लिये ज़्यादा वक्फ़ करेगा और ज़्यादा सख़्तियाँ बर्दाश्त करेगा, वह ज़्यादा ईनाम पायेगा। एक बेहतरीन मिसाल जो हमारे मौज़ू से मुनासिबत रखती है, वह ख़्वाब है जो दो शिया फ़ोक़हा से नक़्ल हुआ है।[10]

उन दो फ़ोक़हा में से एक शेख़ अँसारी हैं, जिन के इल्म से तमाम हौज ए इल्मिया को 150 साल से ज़्यादा फ़ायदा उठाते हुए हो रहा है और दूसरे दरबंदी मरहूम हैं। यह दोनो हज़रात जवानी में एक साथ थे और शरीफ़ुल उलामा ए माज़िन्दरानी के दर्स में शरीक होते थे बाद में दोनो मरजए तक़लीद के मर्तबे तक पहुचे, उस ज़माने में नव्वे फ़ी लोग शेख़ अंसारी और दस फ़ी सद मरहूम दरबंदी की तक़लीद करते थे।

एक दिन शेख़ अंसारी के एक शागिर्द, जो उनके अच्छे शागिर्दों में होने के अलावा फ़ज़ीलत इल्मी के साथ साथ तक़वे में भी शोहरत रखते थे, ने ईरान सफ़र करने की इजाज़त चाही। आप नंगे पैर शहर के बाहर तक उन्हे रुख़सत करने आये, उस शागिर्द को कर्बला, काज़मैन, सामर्रा से होते हुए ईरान जाना था लेकिन अगले दिन कर्बला पहुचने से पहले ही लौट आये।

शेख़ अंसारी ने जब उसे नजफ़ में देखा तो पूछा क्यो लौट आये: शागिर्द ने जवाब दिया, कल जब मैं सफ़र में एक वीराने से गुज़र रहा था तो मैने ख़्वाब में देखा कि एक फ़रिश्ता मुझ से कह रहा है कि इस सहरा से कहाँ जा रहे हो तुम तीन दिन बाद मर जाओगे मैं नही जानता कि वह सच्चा ख़वाब है या नही मैं लौट आया कि अगर मैं तीन दिन बाद मरूँ तो नजफ़ में मरूँ जंगल में न मरूँ और अगर नही मरूगाँ तो दोबारा सफ़र पर जाऊँगा।

तीन दिन बाद उसका इंतेक़ाल हो गया उसी ने शेख़ से नक़्ल किया था कि उसी ख़वाब में मैंने एक सजा हुआ महल देखने के बाद पूछा यह किस का महल है कहा गया शेख़ अँसारी का, थोड़ी दूर पर एक दूसरा महल देखा जो उससे ज़्यादा शानदार था पूछा यह किसका महल है कहा गया यह दरबंदी का महल है।

उस ज़माने में शेख अँसारी भी और मरहूम दरबंदी भी दोनो ज़िन्दा थे, शेख़ अँसारी नजफ़ में थे और मरहूम दरबंदी कर्बला में, मरहूम दरबंदी मरजए तक़लीद होने के बावजूद इमाम हुसैन (अ) के लिये हमेशा मजलिसें पढ़ा करते थे। साल में एक बार वह एक ख़ास मजलिस पढ़ा करते थे जिसके कुछ वाक़ये मैने दो वास्तो़ से एक ऐसे शख्स से ख़ुद सुने हैं जो उस मजलिस में मौजूद था। वह मजलिस आशूर के दिन इमाम हुसैन (अ) के रौज़े के सहन में हुआ करती थी, आशूर के दिन ज़ोहर से पहले और सारी मजलिसें ख़त्म हो जाने के बाद आपकी मजलिस के लिये सहन लोगों से भर जाता था, वह लोगों से कहते कि मैं मजलिस नही पढ़ना चाहता, आपने कल से लेकर आज तक बहुत मजलिसें सुनी हैं मैं सिर्फ़ आपकी ज़बानी इमाम हुसैन (अ) से बातें करना चाहता हूँ। यह मजलिस अपनी मिसाल आप थी।

मरहूम दरबंदी की एक मुफ़स्सल किताब इमाम हुसैन (अ) पर है जिसका नाम इकसीरुल इबादात है अगरचे आपकी मरजईयत शेख़ अंसारी की तरह नही थी, शेख अंसारा का यह शागिर्द दोनो को पहचानता था और उस सच्चे ख़्वाब में उसने मरहूम दरबंदी के महल को ज़्यादा शानदार देखा था, वह कहता है कि मैंने उस फ़रिश्ते से पूछा कि ऐसा क्यो हैं जबकि शेख़ अंसारी का महल ज़्यादा शानदार होना चाहिये। उसने जवाब दिया कि यह दरबंदी के अमल का सिला नही है बल्कि दरबंदी के लिये इमाम हुसैन (अ) की तोहफ़ा है।

सैयदुश शोहदा (अलैहिस्सलाम) लोगों का हिसाब करेगें।

इमाम सादिक़ (अलैहिस्सलाम) से हदीस में नक़्ल हुआ है कि [11] क़यामत से पहले लोगों के आमाल का हिसाब करने वाले का नाम हुसैन इब्ने अली है। इस बात पर तवज्जो रहनी चाहिये कि क़यामत का दिन जन्नत व जहन्नम जाने का दिन है।

मरने के बाद तीन जगहों पर सबका हिसाब किताब होगा। हदीस में आया है कि मरते वक़्त, इंसान की रूह को मुशफ़िक़ व मेहरबान अल्लाह की बारगाह में ले जायेगें वहाँ उससे सवाल जवाब होगा, हदीस के मुताबिक़ जब तक हिसाब किताब ख़त्म नही होगा लाश उस जगह नही उठाई नही जायेगी।

दूसरा हिसाब किताब क़यामत से पहले है और तीसरा क़यामत के दिन।

इस हदीस से पता चलता है कि तमाम लोगो का मोमिन हो या काफ़िर, छोटा हो या बड़ा हिसाब बरज़ख़ में इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) लेगें।

हम सब का सामना इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) से होगा और हमें जवाब देना होगा। अल्लाह तअला ने उन्हे एक ख़ास मक़ाम अता किया है जो उनके नाना, बाप, माँ और भाई किसी को नही मिला है और वह क़यामत से पहले लोगों का हिसाब करना है।

इस मौक़े पर यह हदीस नक़्ल करना मुनासिब मालूम होता है एक दिन इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) की क़ब्र बग़ैर किसी निशानी के जंगल में वीरान थी और हर कोई बग़ैर राहनुमाई के उसे पहचान और उसकी ज़ियारत नही कर सकता था, दूसरी तरफ़ उसके आस पास जासूस लगे हुए थे ताकि आपके ज़ायरों के गिरफ़तार कर सकें। इस बात से सब डरते थे और कस लोग आपकी ज़ियारत को जाते थे। इमाम सादिक़ (अलैहिस्सलाम) के एक मशहूर सहाबी, अब्दुल्लाह इब्ने बुकैर जिन्होने के अहकाम की बहुत सी हदीसें नक़्ल की हैं, वह कहते है कि मैंने इमाम से सवाल किया कि मेरा दिल चाहता है कि मैं इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) की ज़ियारत को जाऊ? लेकिन डरता हूँ। इमाम ने फ़रमाया किस चीज़ से डरते हो। कहते हैं बादशाह और उसके मुख़बिर जासूसों और पुलिस से।

इमाम (अलैहिस्सलाम) ने फ़रमाया: अगर कोई हमारी राह में डरता हो तो दो ऐसी नेमतों से जिससे दूसरे महरूम होगें, फ़ायदा उठायेगा। एक यह कि क़यामत में सब डर के मारे बेक़रार होंगें और जो लोग इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) का राह में डरते होगें, अमान में होगें और डर से निजात पा चुके होगें, दूसरे यह कि क़यामत में गुफ़तगू करने वाले इमाम हुसैन (अलैहिस्सलाम) होगें। यह ख़ुद पाक ज़मीर लोगों के लिये सबसे बड़ी नेमत और इफ़्तेखार होगा।

क़ुरआन में हमने पढ़ा है इरशाद होता है कि[12] ऐसा दिन जो पचास हज़ार साल के बराबर होगा।

ऐसी नफ़सा नफ़सी के आलम के जब सबको अपनी अपनी फिक्र होग