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ईमान क्या है?

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नहजुल बलाग़ा में “ईमान” जैसे विषय को विशेष महत्व प्राप्त है।


ईमान का शाब्दिक अर्थ होता है अपनाना।  ईमान शब्द की व्याख्या करते हुए हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहते हैं कि इसका अर्थ है किसी को हृद्य की गहराई से पहचानना, मौखिक रूप से उसे स्वीकार करना और फिर उसे व्यवहारिक बनाना है।  वे कहते हैं कि वास्तविक ईमान, स्पष्टतम मार्ग और प्रज्वलित दीप के समान है।  ईमान का मनुष्य के हृदय से बहुत ही निकट का संबन्ध होता है।

वास्तव में हृदय, इमान का निवासस्थल है।  जबतक मनुष्य के हृदय में इस्लाम रूपी वास्तविकता स्पष्ट न हो उस समय तक ईमान रूपी वृक्ष कभी भी फलदार नहीं हो सकता।  पवित्र क़ुरआन के सूरए होजोरात की आयत संख्या 14 में कहा गया है कि उन्होंने कहा कि हम ईमान ले आए है तो उनसे कहो कि तुम अभी ईमान नहीं लाए हो बल्कि यह कहो कि हम इस्लाम लाए हैं हालांकि अभी तक तुम्हारे हृदयों में ईमान प्रविष्ट नहीं हुआ है।


इस आयत के अनुसार इस्लाम स्वीकार करना और ईमान लाना दो अलग-अलग बातें हैं अर्थात वे समान नहीं है।  वास्तव में इस्लाम, धर्म का विदित और क़ानूनी रूप है।  इस हिसाब से जो भी व्यक्ति कलमा पढ़ ले वह मुसलमान हो जाता है किंतु ईमान, एक आंतरिक विषय है और उसका स्थान हृदय में है।  एसे में संभव है कि कुछ लोग इस्लामी नियमों का अनुसरण करते हों किंतु उनके हृद्यों में ईमान न पाया जाता हो।


ईमान, एसी सशक्त और आकर्षक वास्तविकता है कि जो सृष्टिकर्ता की ओर प्रेरित करती है।  इस प्रकार वह मनुष्य को उसके आरंभ से जोड़कर उसे एक प्रकार से शांति प्रदान करती है।


हेमाद बिन उमर कहते हैं कि एक व्यक्ति ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम से पूछा कि ईश्वर के निकट कौन सा कार्य सबसे अच्छा है।  इसपर उन्होंने कहा कि एसा कार्य जिसके अतिरिक्त कोई अन्य काम पसंद न किया जाए।  उस व्यक्ति ने पूछा कि वह कौन सा काम है? इमाम अली ने कहा कि ईश्वर पर भरोसा, सर्वोत्तम कार्य है।  उस व्यक्ति ने पूछा कि बताइए कि ईमान केवल मौखिक है या व्यवहार के साथ है?  हज़रत अली ने कहा कि ईमान वास्तव में व्यवहार है।


ज़ेअलिब यमानी ने इमाम अली से पूछा कि हे अमीरल मोमेनीन क्या आपने अपने परमेश्वर को देखा है? आपने उत्तर में कहा कि आखें उसे कभी भी नहीं देख सकतीं किंतु हृदय उसकी वास्तविकता को समझते हैं।


यह एक अटल सत्य है कि ईमान एसी वास्तविकता है जिसके कई चरण हैं।  इस्लाम स्वीकार करने वाले सारे लोग मुसलमान हैं किंतु उनके ईमान के चरणों में बहुत अंतर पाया जाता है।  दूसरे शब्दों में ईमान की दृष्टि में वे एक समान नहीं हैं।  मुसलमानों में ही कुछ लोग सृद्ढ़ ईमान वाले होते हैं जबकि कुछ का ईमान कमज़ोर होता है।  ईमान के चरणों को प्रकाश के चरणों की उपमा दी जा सकती है।  उदाहरण स्वरूप किसी छोटे बल्ब के प्रकाश और बड़े बल्प के प्रकाश में स्पष्ट अंतर दिखाई देता है।  प्रकाश के मामले में कहा जा सकता है कि सबसे शक्तिशाली प्रकाश सूर्य का होता है जिसकी किसी से तुलना संभव नहीं है।  जिस व्यक्ति का विश्वास जितना सशक्त होगा उसको सांसारिक समस्याएं किसी भी स्थिति में विचलित नहीं कर सकतीं।  इसके विपरीत मज़बूत ईमान वाले के ईमान को समस्याएं सुदृढ़ करती हैं।  इस बारे में हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहते हैं कि एसे लोगों की दृष्टि में ईश्वर इतना महान है कि उनकी नज़र में दूसरा कोई अन्य बहुत ही छोटा है।


मोमिन लोग यथार्थवादी होते हैं।  वे वास्तविकताओं को समझते हैं।  वे लोग शंका और विचारों को कोई महत्व नहीं देते।  मोमिन अपने अस्तित्व रूपी दर्पण में छोटी चीज़ को छोटा ही समझते हैं और शंका का शिकार नहीं होते।  उदाहरण स्वरूप प्रलय की घटना एसी है जिसे ग़ैर मोमिन शंका की दृष्टि से देखते हैं जबकि मोमिनों को इसपर पूर्ण विश्वास होता है।


मृत्यु के बाद से संबन्धित संसार के बारे में इमाम अली अलैहिस्सलाम कहते हैं कि मरने वाले अपनी मौत के बाद जो कुछ देखते हैं यदि तुम उनको देखो तो भयभीत हो जाओगे।  हालांकि उन्होंने जो कुछ देखा वह तुम्हारे लिए छिपा हुआ है किंतु शीघ्र ही तुम भी उसे अवश्य देखोगे।


इमाम अली अलैहिस्सलाम के मतानुसार मोमिन, संसार से बिल्कुल भी अपेक्षा नहीं रखता बल्कि वह परलोक की विभूतियों पर अधिक भरोसा करता है।  एसा व्यक्ति, अपने जीवन का अधिकांश समय ईश्वर के बारे में सोच-विचार, उपासना और उसकी याद में व्यतीत करता है।  उसको सदैव ही संसार और प्रलय स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।  यह इस प्रकार है कि मानो वह स्वर्ग और स्वर्गवासियों तथा नरक और नरकवासियों को अपनी आखों से देख रहा है।


इस बारे में हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहते हैं कि उनके निकट स्वर्ग पर विश्वास एसा ही है जैसे कि वे उसे देख रहे हैं और यही स्थिति उनके निकट नरक और नरक वासियों की है।  एसे लोग जब भी स्वर्ग से संबन्धित बातें या एसी आयतें सुनते हैं जिनमें अनुकंपाओं का उल्लेख किया गया होता है तो वे उसे बहुत शौक़ से सुनते और उसपर अमल करने के प्रयास करते हैं।  वे इस प्रकार से आगे बढ़ते हैं कि मानों जो उपहार उन्हें देने का वचन दिया गया है वह उनके सामने ही रखा है।  इसी प्रकार जिस आयत में ईश्वरीय प्रकोप का उल्लेख होता है उसे वे ध्यानपूर्वक सुनते हैं मानो वे नरक की अग्नि का आभास कर रहे हैं।


यदि कोई व्यक्ति ईमान के मार्ग को उचित ढंग से पहचाने तो वह उचित ढंग से आगे बढ़ेगा और प्रगति करता जाएगा।  एसे व्यक्ति की विचारधारा निश्चित रूप से दूसरों की तुलना में भिन्न होती है।  उदाहरण स्वरूप बहुत से लोग दूसरों से अपनी प्रशंसा सुनने के इच्छुक होते हैं।  यह लोग कभी-कभार कुछ एसे कार्य करते हैं ताकि लोग उनकी प्रशंसा करें।  इस प्रकार के लोग अपनी आलोचना से बचने के लिए हर प्रकार के कार्य करते हैं।  यह लोग दूसरों की ओर से की जाने वाली प्रशंसा से प्रसन्न और उनकी आलोचना से दुखी होते हैं।  किंतु मोमिन एसा नहीं होता।  वह वास्तविकता को समझता है अतः दूसरों की प्रशंसा से वह प्रसन्न नहीं होता बल्कि दुखी होता है।  वह जानता है कि उसकी वास्तविकता क्या है।  एसे लोगों की जब प्रशंसा की जाती है तो वे प्रसन्न होने के बजाद दुखी होते हैं और कहते हैं कि मैं स्वयं को अच्छी तरह से जानता हूं और मेरा ईश्वर मुझको उससे भी अच्छे ढंग से पहचानता है।


धार्मिक शिक्षाओं में मनुष्य को दो वर्गों में विभाजित किय गया है मोमिन और काफ़िर।  ईमान और कुफ़्र दो एसी विशेषताए हैं जो लोगों को एक दूसरे से अलग करती हैं।  इस्लामी शिक्षाओं की दृष्टि में भाषा, जाति, धन-संपत्ति, रंग-रूप या कोई अन्य कारक कभी भी दूसरे पर वरीयता का कारण नहीं बन सकता।  इसका मुख्य कारण यह है कि यह बातें स्वेच्छा से प्राप्त नहीं होतीं कि उनपर गर्व किया जाए।  ईमान की सीमा में प्रविष्ट होकर मनुष्य, विभिन्न आधारों पर स्थापित किये गए वरीयता के मानदंडों को रद्द कर देता है।  ईमान दो अलग लोगों को निकट करता है और यह निकटता स्थाई होती है।  ईमान के आधार पर जब मित्रता होती है तो वह स्थाई होती है और देर तक चलती है।


मोमिनों की प्रशंसा करते हुए हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहते हैं कि जान लो जो भी ईश्वरीय भय को अपनाता है, ईश्वर उसे षडयंत्रों से बचाने के लिए मार्ग प्रशस्त करता है।  वह उसके मन को प्रकाशमई कर देता है।  ईश्वर एसे व्यक्ति को मान-सम्मान और आध्यात्मिक विभूतियां प्रदान करता है।

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