अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क

इस्लाम का सर्वोच्च अधिकारी (भाग 9)

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आज पूरी दुनिया एक अजीब पहेली में उलझी हुई है। वह पहेली इस्लाम व मुसलमानों के बारे में है। दरअसल कुछ दहशतगर्द ग्रुप ऐसे फैल गये हैं जो इस्लाम के नाम पर पूरी दुनिया में हाहाकार मचा रहे हैं। लोगों को क़त्ल कर रहे हैं। और उनके हमले से क्या मुसलमान और क्या गैर मुसलमान सभी परेशान हैं। और लोग ये सोचने पर मजबूर होने लगे हैं कि अगर इसी को इस्लाम कहते हैं तो ऐसे मज़हब का न होना ही अच्छा।


जबकि हक़ीक़त इसके उलट है। दरअसल आइसिस, अल क़ायदा, तालिबान और बोको हराम जैसे इन दहशतगर्द ग्रुप्स ने इस्लाम का अपहरण कर लिया है। और अपने नापाक मंसूबों केा इस्लाम की आड़ में पूरी दुनिया पर थोपना चाहते हैं। जो कुछ भी वो कर रहे हैं वह कुछ और तो हो सकता है इस्लाम नहीं।


तो फिर सवाल पैदा होता है कि इस्लाम क्या है? तो इसका जवाब ये है कि इस्लाम की कुछ बुनियादी मान्यताएं हैं और कुछ अमल हैं जिनकी मिसालें इस्लाम के सर्वोच्च अधिकारियों ने दुनिया के सामने पेश की हैं। अगर वो अमल कोई इंसान करता है तो उसे इस्लामी अमल कहा जायेगा, वरना नहीं। मसलन इस्लाम का एक पैगाम है कि इल्म हासिल करो और दूसरों को भी इससे फायदा पहुंचाओ।


इससे पहले हमने इमाम जाफर सादिक़(अ.) की बात की जिन्होंने तमाम दुनिया को इल्म की रोशनी से मुनव्वर कर दिया।


दूसरी तरफ अगर कोई इल्म छोड़कर जिहालत की राह पकड़ता है तो वह हरगिज़ इस्लाम का रास्ता नहीं।


इस्लाम में गुस्से के बारे में कहा गया है कि अगर कोई गुस्से की हालत में कोई कदम उठाता है तो वह शैतान का अमल होता है। इमाम जाफर सादिक़(अ.) के बाद इस्लाम के अगले धर्माधिकारी हुए इमाम मूसा काज़िम(अ.) ऐसे ही धर्माधिकारी थे जिन्हें दुनिया ने कभी गुस्से में क्या, कभी ऊंची आवाज़ में बात करते हुए भी नहीं देखा। इमाम की लगभग पूरी जिंदगी ज़ालिम हुकूमतों के कैदखानों में बीती। लेकिन ऐसे सख्त हालात में भी उन्होंने इस्लाम का पैगाम दुनिया को देना जारी रखा और बताया कि खराब से खराब हालात में जिंदगी कैसे गुज़ारी जाये और कैसे इस्लाम के उसूलों पर अमल किया जाये।


इमाम जाफर सादिक (अ.) के दौर में जबकि इमाम मूसा काज़िम(अ.) का अभी बचपन था उस वक्त हुकूमत में तख्ता पलट हुआ और बनी उमय्या खानदान को हटाकर बनी अब्बास खानदान गद्दी पर बैठा। इन्हें गद्दी पर बिठाने में अबू मुस्लिम की बेहिसाब मेहनत तारीख में दर्ज है। लेकिन बनी अब्बास के बादशाह बनी उमय्या से भी ज़्यादा ज़ालिम साबित हुए। मंसूर दवानिक़ी ने अबू मुस्लिम को क़त्ल करा दिया और इस तरह उसके एहसान का बदला दिया। बग़दाद को बसाने वाले इसी ज़ालिम बादशाह ने इमाम जाफर सादिक(अ.) को भी शहीद किया। हज़रत अली(अ.) की औलादों से इसे खास तौर से दुश्मनी थी। और हर बहाने से उन्हें क़त्ल कराता रहता था। ऐसे माहौल में इमाम मूसा काज़िम(अ.) ने इस्लाम का सही व अमन का पैगाम लोगों तक पहुंचाना जारी रखा और आपके इल्म का चर्चा पूरी दुनिया में फैलने लगा। लोग दूर दूर से आपके इल्म से फायदा उठाने ठीक उसी तरह आते थे जिस तरह इससे पहले इमाम जाफर सादिक (अ.) के दौर में आते थे।


ये बात उस ज़माने के बादशाहों को नागवार गुज़री और उन्हें अपनी हुकूमत खतरे में मालूम होने लगी। और उन्होंने इमाम को कैद करने का हुक्म दे दिया। इमाम मूसा क़ाज़िम(अ.) के दौर में तीन बादशाह गुज़रे। इन तीनों ज़ालिम बादशाहों के दौर में इमाम की जिंदगी का ज़्यादातर हिस्सा जेल में गुज़रा। और फिर हारून रशीद ने आपको ज़हर देकर शहीद कर दिया।


ऐसे हालात में इस्लाम का पैगाम देने के लिये और लोगों को ऐसे ज़ालिम बादशाहों के ज़ुल्म से अमान देने के लिये इमाम(अ.) ने हिकमत अमली से काम लिया। मसलन हारून रशीद की हुकूमत में उन्होंने अपने खास शागिर्दों को पद पर बने रहने को कहा। ये शागिर्द हुकूमत के काम देखते थे लेकिन तमाम मसलों में इमाम से राय लेने के बाद ही काम करते थे। इस तरह इन ज़ालिम बादशाहों के ज़माने में जो भी अच्छे काम देखने को मिलते हैं वह इमाम की इस तरह की हिकमत अमली के नतीजे थे।     


इमाम मूसा क़ाज़िम (अ.) जब मदीने में होते थे तो ग़रीबों व फकीरों को ढूंढा करते थे। और जो भी मिल जाता था उसके घर में रुपया पैसा और खाना पानी वगैरा पहुंचाया करते थे। ये सारे काम वो रात के वक्त करते थे। इस तरह मदीने के बेशुमार घर आपकी मदद से चल रहे थे। लेकिन उन मदद पाने वालों को भी नहीं मालूम था कि कौन उनकी मदद कर रहा है। मालूम उस वक्त हुआ जब इमाम की शहादत हो गयी।


इस्लामी धर्माधिकारी का एक गुण ये होता है कि वो आने वाले वक्त की खबर रखता है और उसके मुताबिक मुनासिब कदम उठाता है। खलीफा हारून रशीद का एक वज़ीर अली इमाम से मोहब्बत करता था। एक बार खलीफा ने उसे कुछ तोहफे दिये। अली ने वह सभी तोहफे इमाम की खिदमत में पेश कर दिये। इमाम ने वे तोहफे रख लिये लेकिन एक रेशमी कपड़े की बनी गुदड़ी वापस कर दी और अली को कहलाया कि इसे हिफाज़त से अपने पास रख लो बाद में काम आयेगी।


इसके कुछ दिन बाद अली ने अपने एक नौकर को निकाल दिया। वह नौकर खलीफा के पास पहुंचा और अली की चुग़ली करते हुए कहने लगा कि तुम्हारा वज़ीर इमाम मूसा क़ाज़िम (अ.) का भक्त है और उसने आपके दिये तोहफे इमाम को दे दिये हैं। खलीफा आग बबूला हो गया और अली को बुलाकर उस गुदड़ी को लाने का हुक्म दिया। चूंकि वह गुदड़ी अली ने इमाम के कहने पर हिफाज़त से रख ली थी सो खलीफा के हुक्म पर उसने उसे फौरन उसके सामने पेश कर दिया। इस तरह उसकी जान बच गयी। और चुगली करने वाले नौकर को खलीफा ने सज़ाये मौत दे दी।  


इमाम मूसा क़ाज़िम (अ.) में गुस्से को पीने की और सब्र करने की ताकत बेइंतिहा थी। पूरी जिंदगी में किसी ने इमाम को गुस्सा करते या तेज़ आवाज़ में बात करते नहीं देखा। साथ ही इमाम का क़ौल भी किताबों में दर्ज है कि ‘जो शख्स अपने गुस्से को लोगों से रोके रखता है तो क़यामत में खुदा के गुस्से से महफूज़ रहेगा।


इमाम के कुछ और खूबसूरत क़ौल इस तरह हैं,


मख्लूक़ात के पैदा होने का मक़सद अल्लाह की इताअत है। इताअत के बगैर निजात (मोक्ष) मुमकिन नहीं। इताअत इल्म के ज़रिये हासिल होती है। इल्म सीखने से हासिल होता है। अक़्ल के ज़रिये इल्म हासिल किया जाता है। इल्म तो बस खुदा के पास है। आलिम की मआरफत उसकी अक्ल के ज़रिये है।


वह शख्स हमसे नहीं है जो अपनी दुनिया को दीन के लिये छोड़ दे या अपने दीन को दुनिया के लिये छोड़ दे। यानि दुनिया की रंगीनियों में डूब जाने वाला भी गलत है और पूरी तरह सन्यास ले लेने वाला भी।


आज सच्चे इस्लाम का वजूद ऐसे ही धर्माधिकारियों की वजह से बाक़ी है।

 

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