इस्लाम का सर्वोच्च अधिकारी (भाग 11)

इस्लाम के सच्चे धर्माधिकारी हर दौर और हर हालत में रहे हैं। कभी उन्हें मौका मिला और हालात अच्छे रहे तो पूरी दुनिया ने उनकी आब व ताब देखी और पूरी दुनिया को उन्होंने फायदा पहुँचाया। जबकि हालात खराब होने पर कभी कभी तो उन्हें पूरी जिंदगी जालिम बादशाहों की कैद में गुज़ार देनी पड़ी। लेकिन ऐसी हालत में भी जहाँ तक हो सका उन्होंने लोगों की भलाई के लिये ही काम किया और इस्लाम का सच्चा पैगाम दुनिया तक पहुँचाया। और ज़ुल्म की तमाम सख्ती के बावजूद कभी इस्लाम के उसूलों के साथ समझौता नहीं किया। यही वजह है कि आज भी इस्लाम का सही स्वरूप दुनिया में बाकी है। वरना आज इस्लाम के नाम पर बस आतंकवाद ही होता। वह आतंकवाद जो हमेशा से इस्लाम में ज़ालिम बादशाहों व लालची वज़ीरों के ज़रिये घुसपैठ करता रहा।


जब इस्लामी धर्माधिकारी इमाम अली रज़ा(अ.) अपने दौर के बादशाह की दग़ाबाज़ी का शिकार हुए, उस वक्त तक इस्लाम के नये धर्माधिकारी का जन्म हो चुका था। और कम उम्र होने के बावजूद उन्होंने अपनी इमामत को अपने ज्ञान व चमत्कारों के ज़रिये साबित भी किया। ये धर्माधिकारी थे इमाम अली रज़ा(अ.) के कमउम्र बेटे इमाम मोहम्मद तक़ी(अ.)।


जब इमाम अली रज़ा(अ.) शहीद हुए उस वक्त इमाम मोहम्मद तक़ी(अ.) की उम्र थी मात्र आठ साल। लेकिन इस छोटी उम्र में भी उन्होंने उस ज़माने के बड़े बडे ज्ञानियों के साथ बहस की और ज्ञान में उन्हें पराजित कर अपनी इमामत को साबित किया। खलीफा मामून भी इमाम मोहम्मद तक़ी(अ.) के ज्ञान का क़ायल था और उसके दरबारी उसे एक बच्चे को इतनी इज़्ज़त देते देखकर जल जाते थे। उनही दरबारियों के कहने पर मामून ने एक मुनाज़िरे का आयोजन किया। जिसमें एक तरफ नौ साल के इमाम मोहम्मद तक़ी(अ.) थे और दूसरी तरफ उस ज़माने में बग़दाद का सबसे बड़ा ज्ञानी समझा जाने वाला बुज़ुर्ग आलिम यहिया।


यहिया ने इमाम(अ.) से सवाल किया कि हज के वक्त अगर कोई शख्स शिकार कर ले तो उसके बारे में इस्लाम का क्या फतवा होगा?

जवाब में इमाम मोहम्मद तक़ी(अ.) ने फरमाया कि यहया, तुम्हारा सवाल आधा अधूरा है। सवाल में ये देखने की ज़रूरत है कि शिकार किस जगह पर था, शिकार करने वाला इसे जुर्म समझता था या नहीं? उसने जान बूझकर शिकार को मारा या शिकार धोके से क़त्ल हो गया? शिकार करने वाला आज़ाद था या गुलाम? कमसिन था या बालिग़? पहली बार ये काम किया था या पहले भी कर चुका था? शिकार कोई परिन्दा था, या छोटा जानवर या कोई बड़ा जानवर? शिकारी अपने काम पर खुश है या शर्मिन्दा? रात को छुपकर शिकार किया या दिन दहाड़े? जब तक ये तमाम बातें न बताई जायें, कोई फतवा नहीं दिया जा सकता।


इमाम मोहम्मद तक़ी(अ.) का इन तमाम बातों का पूछना आज के उन मुल्लाओं के लिये भी सबक़ है जो आँख बन्द करके किसी भी मसले पर फतवा सुना देते हैं और ज़्यादातर मामलों में उनके फतवे गलत निकलते हैं। दूसरी तरफ यह दुनिया के जज़ों के लिये एक उदाहरण है कि सज़ा देने में न सिर्फ जुर्म बल्कि वह किन हालात में किया गया है इसका पूरी तरह विश्लेषण करने के बाद ही फैसला सुनाना चाहिए।


जब इमाम मोहम्म्द तक़ी(अ.) ने यहिया के सवाल के इतने पहलू निकाले तो यहिया व तमाम मजमा दंग रह गया। फिर इमाम ने हर सिचुएशन के लिये अलग अलग फतवा दिया। सिर्फ एक सवाल से यहिया को इमाम(अ.) के ज्ञान की गहराई का अंदाज़ा हो गया था।

अब अगला सवाल पूछने की बारी इमाम(अ.) की थी। हालांकि इमाम(अ.) उसे और शर्मिन्दा नहीं करना चाहते थे फिर भी मामून के कहने पर उन्होंने सवाल किया, ‘उस शख्स के बारे में क्या कहते हो जिसने सुबह एक औरत की तरफ नज़र की तो वह उसपर हराम थी। दिन चढ़े हलाल हो गयी। फिर ज़ोहर के वक्त हराम हो गयी, अस्र के वक्त फिर हलाल हो गयी। सूरज डूबने के वक्त फिर हराम हो गयी। एशा के वक्त फिर हलाल हो गयी। आधी रात को हराम हो गयी। सुबह के वक्त फिर हलाल हो गयी। बताओ एक ही दिन में इतनी बार वह औरत उस शख्स पर किस तरह हराम व हलाल होती रही?


इमाम(अ.) की ज़बान से ऐसी टेढ़ा सवाल सुनकर यहिया हक्का बक्का रह गया और उसे कोई जवाब न सूझा। आखिर में उसने हाथ जोड़कर कहा, या रसूल(अ.) के फर्ज़न्द आप ही इसका जवाब बयान करें।


अब इमाम मोहम्म्द तक़ी(अ.) ने जवाब दिया, सुनो वह औरत किसी की दासी थी। उस की तरफ सुबह को एक अजनबी शख्स ने देखा तो वह उसपर हराम थी। दिन चढ़े उसने उस दासी को खरीद लिया तो वह हलाल हो गयी। ज़ोहर के वक्त उसने उसे आज़ाद कर दिया तो वह उसपर हराम हो गयी। अस्र के वक्त उसने निकाह कर लिया फिर हलाल हो गयी। सूरज डूबने (मग़रिब) के वक्त उसने ज़हार किया तो फिर हराम हो गयी। एशा के वक्त ज़हार का कफ्फारा दे दिया तो फिर हलाल हो गयी। आधी रात को उस शख्स ने उस औरत को तलाक़ रजअी दी तो वह हराम हो गयी और सुबह के वक्त उस तलाक़ से रुजूअ कर लिया तो वह हलाल हो गयी।


मसले का हल सुनकर न सिर्फ यहिया बल्कि सारा मजमा हैरान रह गया। इसके कुछ दिन बाद मामून ने अपनी बेटी की शादी इमाम(अ.) के साथ कर दी। अपनी बेटी की शादी इमाम(अ.) से करने के बाद मामून चाहता था कि इमाम(अ.) महल के होकर रह जायें और वह भी बादशाह की तरह ऐशो आराम की जिंदगी गुज़ारें। इसके लिये उसने उनके लिये ऐशो आराम के तमाम सामान मुहय्या करा दिये थे। एक बार हुसैन नामी इमाम(अ.) के सहाबी उनसे मिलने आये तो ये ऐशो आराम देखकर सोचा कि इतना कुछ होते हुए इमाम(अ.) मदीने वापस हरगिज़ न जायेंगे। अभी वह ये सोच ही रहे थे कि इमाम(अ.) का चेहरा ग़म से पीला पड़ गया। इमाम(अ.) फरमाने लगे, ऐ हुसैन रसूले खुदा(स.) के हरम में जौ की रोटी और नमक मुझे इस ऐशो आराम से ज़्यादा पसंद है। मामून की तमाम कोशिशें इमाम(अ.) को बग़दाद में रोकने में नाकाम रहीं। और इमाम(अ.) मदीने वापस आ गये।


हालांकि बादशाह की बेटी के साथ इमाम(अ.) की ये शादी रास न आयी। मामून की मौत के बाद जब उसका बेटा मुत्तसिम गद्दी पर बैठा तो उसकी बहन ने खतों के ज़रिये इमाम(अ.) की शिकायतें भेजना शुरू कर दीं। क्योंकि इमाम(अ.) इसकी ज़रा भी परवाह न करते थे कि वह बादशाह की बेटी और बहन है। वह इस्लामी उसूलों के पाबन्द थे और सबको उनही उसूलों पर चलाते थे। बहन की शिकायतों का नतीजा ये हुआ कि मुत्तसिम ने इमाम(अ.) को बग़दाद तलब करके कैद करा दिया और उसी साल उनको शहीद कर दिया। शहादत के वक्त इमाम(अ.) की उम्र सिर्फ पच्चीस साल थी।


न्याय व इंसानियत परस्ती में तमाम सच्चे धर्माधिकारियों की तरह इमाम मोहम्मद तक़ी(अ.) का भी कोई जवाब न था।


एक बार इमाम(अ.) के घर से एक बकरी गायब हो गयी। तो इमाम(अ.) के खिदमतगार एक पड़ोसी को खींचते हुए लाये और उसपर बकरी चोरी का इल्ज़ाम लगाने लगे। इमाम(अ.) ने खिदमतगारों को डाँटा और कहा कि पड़ोसी बेकुसूर है। बकरी इस वक्त फुलाँ घर में है। खिदमतगार उस घर में गये तो वहाँ उन्हें बकरी मिल गयी। वह उस घर के मालिक को भी गिरफ्तार करके मारते हुए ले आये। इमाम(अ.) ने खिदमतगारों से कहा वाय हो तुमपर। बकरी खुद उसके घर में चली गयी थी। घर के मालिक को खबर भी न थी। तुमने उसके ऊपर ज़ुल्म किया। इमाम(अ.) ने उसकी दिलजोई की और उसके नुकसान के बदले एक बड़ी रक़म उसे अता की।


इमाम(अ.) की कुछ शिक्षाएं इस तरह हैं:


ज़ुल्म करने वाला और उसका मददगार और उसपर राज़ी रहने वाला तीनों बराबर के शरीक हैं।

जो किसी को बड़ा समझता है, उससे डरता है।

जिस की ख्वाहिशात ज़्यादा होंगी उसका जिस्म मोटा होगा।

जो खुदा के भरोसे पर लोगों से बेनयाज़ हो जायेगा, लोग उसके मोहताज होंगे। जो खुदा से डरेगा लोग उसे दोस्त रखेंगे।

इंसान की तमाम खूबियों का मरकज़ ज़बान है। इंसान के कमालात का दारोमदार अक्ल के कमाल पर है।

जो जिंदा रहना चाहता है उसे चाहिए कि बर्दाश्त करने के लिये अपने दिल को सब्र आज़मा बना ले।

अगर जाहिल ज़बान बन्द रखे तो विवाद कभी न हों।

जो अपने भाई को पोशीदा तौर पर नसीहत करे वह उसका मोहसिन है और जो एलानिया नसीहत करे गोया उसने उसके साथ बुराई की।

जल्दबाज़ी करके किसी काम को शोहरत न दो जब तक वह पूरा न हो जाये।

दीन इज़्ज़त है, इल्म खज़ाना है और खामोशी नूर है।

इंसान को बरबाद करने वाली चीज़ लालच है।

अगर आज दुनिया दीन के सच्चे धमाधिकारियों को पहचान ले और उनके बताये हुए रास्ते पर चले तो दुनिया में शांति का साम्राज्य स्थापित हो जायेगा।