क्रियेटर और क्रियेशन - 2 (न्यूक्लियस)

एटम का राज़ अधूरा है जब तक कि न्यूक्लियस की बात न की जाये। न्यूक्लियस, जो एटम का मरकज़ होता है, बहुत बड़ी निशानी है क्रियेटर की बेमिसाल तख्लीक़ की।


बीसवीं सदी की शुरुआत में एक डिस्कवरी हुई। वह डिस्कवरी न्यूक्लियर पावर की थी, जिसे आम जबान में एटामिक पावर भी कहते हैं। पूरी दुनिया ने इस ताकत को महसूस किया जब इसी न्यूक्लियर पावर की वजह से जापान के दो शहरों हिरोशिमा और नागासाकी का वजूद पूरी तरह मिट गया। तब दुनिया ने पहचाना कि न्यूक्लियस और उसकी ताकत क्या है।


और ईमानवालों को सोचने पर मजबूर किया कि अगर एक जर्रे यानि एटम के छोटे से हिस्से में इतनी ताकत भरी हुई है जिसे रब ने खल्क किया है, तो क्या कोई खालिके कायनात की ताकत का तसव्वुर कर सकता है?


हम जान चुके हैं कि एटम में इलेक्ट्रॉन एक मरकज़ के चारों तरफ लगातार गर्दिश में रहते हैं। यही मरकज़ या सेन्टर न्यूक्लियस है। न्यूक्लियस का साइज़ पूरे एटम का दस हजारवाँ हिस्सा होता है। लेकिन यह भी फैक्ट है कि एटम का लगभग पूरा वज़न न्यूक्लियस की ही वजह से होता है।


अब सवाल पैदा होता है कि न्यूक्लियस की बनावट कैसी होती है? इस सवाल ने बरसों साइंसदानों को चकराये रखा। और आज भी इसका जवाब पूरी तरह नहीं मिल पाया है। क्रियेटर ने इस छोटे से वजूद में इतनी बारीक कारीगरी कर रखी है जिसकी कोई मिसाल नहीं। हर रोज़ इसके बारे में नये नये इन्किशाफ हो रहे हैं। और इंसान का दिमाग हैरत में है।


बीसवीं सदी की शुरूआत में साइंसदाँ रदरफोर्ड ने एक एक्सपेरीमेन्ट किया। जिससे पहली बार मालूम हुआ कि एटम का एक सेन्टर होता है, जो पूरी तरह ठोस होता है। जबकि इलेक्ट्रान इसके चारों तरफ स्पेस में चक्कर लगाते रहते हैं। उस वक्त तक प्रोटॉन की डिस्कवरी हो चुकी थी, और यह पाया गया था कि उसपर पाजिटिव चार्ज होता है। रदरफोर्ड ने कहा कि यही प्रोटॉन आपस में जुड़कर एटम के न्यूक्लियस को बनाते हैं।


बाद में जेम्स चैडविक ने इसी न्यूक्लियस में एक और पार्टिकिल न्यूट्रान की दरियाफ्त की। और तब यह साफ हुआ कि न्यूक्लियस दरअसल प्रोटॉन और न्यूट्रान का मजमुआ यानि कलेक्शन होता है। इस तरह कल तक इंसान एटम के जिस सेन्टर को ठोस और अकेला समझता था, मालूम हुआ कि यह भी बहुत छोटे छोटे जर्रों से मिलकर बना है। इन जर्रों को फंडामेन्टल पार्टिकिल कहा गया।


अब यहां से कुछ पहेलियों की शुरूआत होती है, जिनके हल के दौरान खालिके कायनात के बहुत से करिश्मे नज़र आते हैं।


हाईड्रोजन के अलावा जो भी मैटर होता है, उसके एटम में एक से ज्यादा प्रोटॉन न्यूक्लियस के अंदर मौजूद होता हैं। यहां से शुरूआत होती है पहेली नंबर एक की।


इससे पहले हमने बिजली की ताकत के बारे में जाना। दो एक जैसे चार्जेज के बीच यह ताकत दोनों पार्टिकिल को एक दूसरे से दूर भगाती है। अब सारे प्रोटॉन एक ही तरह के चार्ज यानि पाजिटिव चार्ज के हामी होते हैं। फिर तो वह सब एक दूसरे से दूर बिखरे होने चाहिए। लेकिन अजीब बात है कि न्यूक्लियस में बिजली की ताकत का कानून होने के बावजूद बीसियों प्रोटॉन एक दूसरे से मिले हुए मौजूद रहते हैं। है न खालिके कायनात के क्रियेशन का एक और करिश्मा?


दरअसल खालिके कायनात ने न्यूक्लियस के हिस्सों यानि प्रोटॉन और न्यूट्रान को आपस में जोड़ने के लिए एक और ताकत पैदा कर दी है। साइंसदां इस ताकत को न्यूक्लियर फोर्स कहते हैं। ये ताकत इतनी ज्यादा होती है कि बिजली की ताकत इसके सामने फीकी पड़ जाती है। नतीजे में प्रोटॉन न्यूक्लियस में बंधे रहते हैं, जैसे किसी ग्लू से आपस में जोड़ दिये गये हों।


यहां से पैदा होती है पहेली नंबर दो। न्यूक्लियस की यह ताकत अगर बिजली की ताकत से कई गुना ज्यादा है तो क्यों नहीं यह इलेक्ट्रान को भी खींचकर न्यूक्लियस में शामिल कर लेती?


दरअसल अल्लाह ने इस ताकत को भी निहायत फाइन ट्‌यूनिंग पर सेट किया है। हालांकि न्यूक्लियर फोर्स बिजली की ताकत से लाखों गुना ज्यादा होता है। लेकिन इसकी रेंज बहुत कम होती है। यानि यह सिर्फ न्यूक्लियस के दायरे के अंदर ही काम करता है। जबकि न्यूक्लियस के बाहर बिजली की ताकत काम करने लगती है।


अगर न्यूक्लियर फोर्स की रेंज बढ़ जाये तो इलेक्ट्रॉन अपना घूमना छोड़कर न्यूक्लियस में समा जायेंगे और एटम का वजूद खत्म हो जायेगा। ये उसी क्रियेटर का करिश्मा है कि माइक्रो कायनात में दो बिल्कुल अलग अलग तरह की ताकतें कायम हैं और फाइन ट्‌यूनिंग के साथ अपना काम कर रही हैं। इनमें से हर ताकत की अपनी अलग रेंज है। जिससे ये दूसरी ताकत पर असरअंदाज नहीं होती। यहां से अल्लाह की कुदरत का पता चलता है जिसे देखकर साइंसदां हैरत में पड़ जाते हैं।


इस तरह हम देखते हैं कि एटम का वजूद इसलिए है क्योंकि अल्लाह की कुदरत ने इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन, न्यूट्रॉन सभी के लिए मुनासिब सूरतें तैयार कर दी हैं। ये सब अपनी अपनी हद में रहते हुए अपना काम करते रहते हैं और मैटर का वजूद कायम रहता है।


तो यह सब निशानियां हैं अल्लाह नूरुस्समावत वल अर्ज के वजूद की। और उसकी इनफाईनाइट अक्ल की। वही है हर तरह की एनर्जी और पावर का क्रियेटर।


एक पल को अगर मान लिया जाये कि यूनिवर्स में जो कुछ भी है वह कई इत्तेफाकों का नतीजा है, जैसा कि अक्सर नामनिहाद अक्लमन्दों का कहना है, तो ज्यादा पासिबिलिटी ये थी कि एटम पूरी तरह ठोस होता और प्रोटॉन, इलेक्ट्रॉन सब एक दूसरे से जुड़े होते। या फिर इलेक्ट्रान और प्रोटॉन जोड़ों की शक्ल में पूरे यूनिवर्स में बिखरे होते। दोनों के बीच बिजली की ताकत होने का मतलब तो यही बनता है। चांसेज इस बात के भी थे कि अलग अलग चीज़ों के एटम का बेसिक स्ट्रक्चर अलग अलग होता। कुछ में इलेक्ट्रॉन अगर न्यूक्लियस के गिर्द गर्दिश में होते तो कुछ में न्यूक्लियस में धंसे होते। लेकिन हर एटम का एक जैसा स्ट्रक्चर साबित करता है कि इन्हें बनाने वाला क्रियेटर एक और सिर्फ एक है।


जिस शक्ल में आज एटम मौजूद है, उस शक्ल का बनना तो सिरे से मुमकिन ही न था। तो इस तरह एटम या उसके न्यूक्लियस का बनना ही अपने आप में खालिके कायनात की मौजूदगी का बहुत बड़ा सुबूत है। दुनिया का बड़े से बड़ा साइंटिस्ट यह दावा नहीं कर सकता कि एटम उसने बनाया है या बना सकता है। एटम को देखने वाला साइंटिस्ट है लेकिन बनाने वाला कोई और है।


अब बात करते हैं एक और डिस्कवरी की। बीसवीं सदी की शुरूआत में एक नयी डिस्कवरी ने फिर से साइंसदानों को चक्कर में डाल दिया। यह देखा गया कि कुछ खास तरह का मैटर होता है जिसमें से अनोखी रेज़ यानि किरणें निकलती हैं। इन किरणों को रेडियोऐक्टिव किरणें कहा गया। इन किरणों को निकालने वाले मैटर में शामिल थे रेडियम, यूरेनियम, थोरियम, रेडान वगैरा।


बाद में जब इन किरणों की और स्टडी हुई तो यह पाया गया कि यह न्यूक्लियस से निकलती हैं। और तीन तरह की होती हैं। इन्हें नाम दिये गये अल्फा, बीटा और गामा। अल्फा के बारे में मालूम हुआ कि ये छोटे छोटे तेज़ रफ्तार जर्रे होते हैं और हर जर्रे में दो प्रोटॉन और दो न्यूट्रान शामिल होते हैं।


लेकिन सबसे अजीब बात जो मालूम हुई वह बीटा किरणों के बारे में थी। बीटा किरणें दरअसल तेज़ रफ्तार इलेक्ट्रानों की बौछार थीं।


अब सवाल पैदा हुआ कि अगर न्यूक्लियस में इलेक्ट्रान पाये नहीं जाते तो फिर बीटा किरणों की शक्ल में बाहर कैसे निकलते हैं? यह एक ऐसी पहेली थी जिसने फिर से साइंसदानों को अपने फार्मूले बदलने पर मजबूर कर दिया।


जब इस पहेली को हल किया जापानी साइंटिस्ट यूकावा ने, तो एक ऐसा इन्किशाफ हुआ जिसने एक बार फिर साइंसदानों को हैरत के समुन्द्र में गोते खाने पर मजबूर कर दिया। और सूरे रहमान की 29 वीं आयत एक बार फिर पूरी आबोताब के साथ नज़र आयी, ‘‘जमीन व आसमान में जो भी मखलूकात हैं, सब अपनी हाजतें उसी से मांग रहे हैं। हर आन वह नयी शान में है।’’


यूकावा ने न्यूक्लियस में एक नये पार्टिकिल मेसॉन की डिस्कवरी की। उसने बताया कि यह मेसॉन पाजिटिव, निगेटिव और न्यूट्रल तीन तरह के होते हैं। फिर उसने एक और हैरतअंगेज़ बात बतायी कि निगेटिव मेसॉन जब न्यूक्लियस के प्रोटॉन से जुड़ता है तो न्यूट्रान बन जाता है। इसी तरह न्यूट्रान से निगेटिव मेसॉन जब अलग होता है या पाजिटिव मेसॉन जुड़ता है तो प्रोटॉन बन जाता है। इसका मतलब ये हुआ कि न्यूक्लियस में मौजूद प्रोटॉन और न्यूट्रान लगातार अपनी शक्लें बदलते रहते हैं। अगर न्यूक्लियस में दो प्रोटॉन और दो न्यूट्रान हैं तो हमेशा इतनी ही क्वांटिटी में रहेंगे। लेकिन उनकी शक्लें बदलती रहेंगी। और ऐसा एक सेकंड में दस अरब मर्तबा होता है।


तो अगर सिर्फ न्यूक्लियस की बात की जाये तो खालिके कायनात एक न्यूक्लियस में एक सेकंड में दस अरब बार अपनी शान दिखलाता है, साहबे अक्लो फहम रखने वालों को। जिससे वह खालिके कायनात के बारे में सोचने पर मजबूर हो जायें। वह यकीनन ‘हर आन एक नयी शान में है।’


हम यूं भी कह सकते हैं कि न्यूक्लियस के भीतर एक सेकंड के दस अरबवें हिस्से में प्रोटॉन और न्यूट्रॉन अपनी शक्लें बदल लेते हैं। मेसॉनों के जरिये पार्टिकिल का यह बदलाव न्यूक्लियर फोर्स की पैदाइश का भी जरिया है। अगर एक सेकंड में दस अरब बार यह करिश्मायी प्रोसेस न हो तो न्यूक्लियर फोर्स कमजोर पड़ जायेगा। नतीजे में न्यूक्लियस एक धमाके के साथ फट जायेगा।


लेकिन क्या कभी नेचर में आपने किसी एटम को धमाके के साथ फटते देखा है? इसका मतलब मेसॉनों की यह प्रोसेस कभी मांद नहीं पड़ती। इतनी फाइन ट्‌यूनिंग के साथ यह प्रोसेस क्या सुबूत नहीं उस माबूद की मौजूदगी और उसकी कण्ट्रोलिंग पावर का जिसने हर मखलूक को हमेशा रिज्क़ देने का वादा किया है? यहां वह एनर्जी की शक्ल में लगातार न्यूक्लियस को रिज्क दे रहा है ताकि एटम का वजूद बना रहे।


इसी के साथ उसी क्रियेटर ने कुछ ऐसे भी न्यूक्लियस बना रखे हैं जिसमें प्रोटॉन और न्यूट्रान के आपस में शक्लें बदलने की प्रोसेस हल्की सी एक तरफ को झुकी होती है। जिसका नतीजा रेडियोऐक्टीविटी की शक्ल में नमूदार होता है। यानि हाई स्पीड बीटा किरणें दरअसल उन निगेटिव चार्ज मेसॉनों से बनती हैं जो न्यूक्लियर प्रोसेस के दौरान फ्री हो जाते हैं।


अब सवाल यह पैदा होता है कि जिस क्रियेटर ने परफेक्ट न्यूक्लियस बनाये उसने रेडियोऐक्टिव मैटर में यह कमी क्यों छोड़ दी? क्या इससे यह साबित होता है कि क्रियेटर की परफेक्टनेस में कोई कमी है?


जवाब यह है कि ऐसा हरगिज़ नहीं है। दरअसल माबूद ने परफेक्ट चीज़ें बनाने के बाद उन्हीं में कुछ ऐसे लूप होल रख दिये हैं जिनके जरिये इंसान उसकी बनाई दुनिया को समझ सकता है, पहचान सकता है। आज हम एटम या उसके न्यूक्लियस के बारे में जो कुछ भी जानते हैं उसके पीछे रेडियोऐक्टिव मैटर का बहुत बड़ा रोल है। अगर इंसान बीमार न पड़ता तो मेडिकल साइंस का कोई वजूद न होता और इंसान खुद अपने जिस्म के बारे में अँधेरे में होता।


ये लूप होल हमारे बहुत काम के भी होते हैं। इसी रेडियोऐक्टिव मैटर ने इंसान के सामने दरवाजा खोला न्यूक्लियर पावर का। लगभग सौ साल पहले आइंस्टीन ने दुनिया के सामने एक इक्वेशन पेश की, जिसने फिजिक्स की दुनिया में तहलका मचा दिया। वह इक्वेशन थी E=mc^2 इस इक्वेशन के जरिये आइंस्टीन ने बताया कि मैटर को एनर्जी में तब्दील किया जा सकता है। उसके बाद इसका फिजिकल वेरीफिकेशन भी हो गया जब रदरफोर्ड ने रेडियोऐक्टिव यूरेनियम के न्यूक्लियस पर न्यूट्रान की बमबारी की और न्यूक्लियस दो हिस्सों में टूट गया। साथ में मिली एनर्जी बेशुमार ।


पहली बार दुनिया ने देखा कि आँखों से ओझल दुनिया का सबसे बारीक जर्रा अपने भीतर कितनी अज़ीम पावर लिये हुए है, और इस तरफ इशारा कर रहा है कि खालिके कायनात की पावर बेशक लामहदूद है।


एटम की यह पावर या एनर्जी उसके न्यूक्लियस में छुपी होती है। दरअसल जब न्यूक्लियस टूटता है छोटे टुकड़ों में या छोटे टुकड़े मिलकर एक बड़ा न्यूक्लियस बनाते हैं तो इस दौरान कुछ मैटर एनर्जी में तब्दील हो जाता है। यही है न्यूक्लियर एनर्जी।


क्या आप जानते हैं सूरज हमारी जमीन को जो एनर्जी रोशनी और गर्मी की शक्ल में दे रहा है वह दरअसल न्यूक्लियर एनर्जी है? जी हां। सूरज और तारों में हाईड्रोजन के न्यूक्लियस आपस में जुड़कर हीलियम के न्यूक्लियस बना रहे हैं। और यह प्रोसेस करोड़ों साल से जारी है। जिसकी वजह से यह सब रोशनी और एनर्जी दे रहे हैं। सच कहा जाये तो पूरे यूनिवर्स में जो भी एनर्जी पैदा हो रही है वह न्यूक्लियर प्रोसेस का ही नतीजा है।


मौजूदा साइंस बताती है कि न्यूक्लियस में पचासों तरह के पार्टिकिल पाये जाते हैं। जो एक दूसरे से पूरी तरह अलग और बेजोड़ होते हैं। लेकिन वे सभी आपस में इस तरह एडजस्ट होते हैं कि न तो कोई पर्टिकिल न्यूक्लियस से बाहर निकलने पाता है और न उनमें आपस में कोई टकराव होता है। जबकि वे सब रफ्तार की पोजीशन में होते हैं।


करिश्मे बेशुमार हैं न्यूक्लियस के अंदर। साइंस थक कर बैठ सकती है लेकिन क्रियेटर के करिश्मे कम नहीं होने वाले। कुछ और जुस्तजू करने पर मालूम हुआ कि प्रोटॉन और न्यूट्रान पर ही दुनिया नहीं खत्म है। बल्कि ये पार्टिकिल और छोटे टुकड़ों से मिलकर बने होते हैं। जिन्हें नाम दिया गया है क्वार्कस।


माडर्न साइंस कुछ और थ्योरीज़ पर काम कर रही है जिनमें से एक है स्ट्रिंग थ्योरी। इस थ्योरी के मुताबिक सब कुछ यानि सारे पार्टिकिल मिलकर बने हैं एनर्जी की वाइब्रेटेड स्ट्रिंग यानि डोरियों से। अगर ये थ्योरी साबित हो गयी तो इसका मतलब होगा कि दुनिया में हर चीज़ बनी है सिर्फ और सिर्फ एनर्जी से।


दुनिया ने बड़ी बड़ी लैब्स बनाने के बाद जो बातें आज एटम के बारे में मालूम की हैं, उन्हें आज से चौदह सौ साल पहले इमाम जाफर सादिक (अ.) की निगाह ने पहचान कर दुनिया को इन अल्फाजों में बताया था, ‘‘जो पत्थर तुम सामने ठहरा हुआ देख रहे हो, उसके अन्दर के जर्रे बहुत तेज रफ्तार से चल रहे हैं।’’ उस वक्त लोगों का ज़हन इस लायक नहीं था कि उनकी बात समझ पाता। लेकिन आज साइंस इन बातों का ठोस सुबूत पेश कर चुकी है।