तयम्मुम के अहकाम

(710) अगर एक इंसान पेशानी या हाथों की पुश्त के ज़रा से हिस्से का भी मसह न करे तो उस का तयम्मुम बातिल है। चाहे उसने ऐसा जान बूझ कर किया हो या भूल या मसला न जानने की बिना पर। लेकिन बाल की खाल निकालने की भी ज़रूरत नही है। अगर यह कहा जा सके कि तमाम पेशानी और हाथों का मसा हो गया है तो इतना ही काफ़ी है।


(711) यह यक़ीन करने के लिए कि हाथ की तमाम पुश्त पर मसा कर लिया है कलाई से कुछ ऊपर वाले हिस्से का भी मसा कर लेना चाहिए, लेकिन उंगलियों के दरमियान मसा करना ज़रूरी नहीं है।


(712) एहतियात की बिना पर, पेशानी और हाथों की पुश्त का मसा ऊपर से नीचे की तरफ़ करना चाहिए और इसके तमाम कामों को मुत्तसिल (निरन्तर) तौर पर अंजाम देना चाहिए और अगर उन कामों के बीच इतना फ़ासिला हो जाये कि लोग यह न कहें कि तयम्मुम कर रहा है तो तयम्मुम बातिल है।


(713) नियत    करते वक़्त लाज़िम नही कि इस बात को मुऐय्यन करे कि उसका तयम्मुम ग़ुस्ल के बदले है या वुज़ू के बदले, लेकिन अगर किसी के लिए दो तयम्मुम करना ज़रूरी हों तो लाज़िम है कि उन में से हर एक को मुऐय्यन करे। और अगर उस पर एक तयम्मुम बाजिब हो और नियत    करे कि मैं इस वक़्त अपना वज़ीफ़ा अंजाम दे रहा हूँ तो अगरचे वह मुऐय्यन करने में ग़लती करे (कि तयम्मुम ग़ुस्ल के बदले है या वुज़ू के बदले) इस का तयम्मुम सही है।


(714) एहतियाते मुस्तहब की बिना पर तयम्मुम में पेशानी, हाथों की हथेलियों और हाथों की पुश्त का इमकान की हालत में पाक होना ज़रूरी है।


(715) इंसान को चाहिए कि हाथ पर मसा करते वक़्त अगर हाथ में कोई अंगूठी हो तो उसे उतार दे और अगर पेशानी या हाथों की पुश्त या हथेलियों पर कोई चीज़ चिपकी हुई हो तो उसको हटा देना चाहिए।


(716) अगर किसी इंसान की पेशानी या हाथों की पुश्त पर ज़ख़्म हो और उस पर कपड़ा या पट्टी वग़ैरा बंधी हो, जिस को खोला न जासकता हो तो ज़रूरी है कि उस के ऊपर हाथ फेरे और अगर हथेली ज़ख़्मी हो और उस पर कपड़ा या पट्टी वग़ैरा बंधी हो जिसे खोला न जासता हो तो जरूरी है कि कपड़े या पट्टी वग़ैरा समेत हाथ उस चीज़ पर मारे जिस पर तयम्मुम करना सही हो और फिर पेशानी और हाथों की पुश्त पर फेरे।


(717) अगर किसी इंसान की पेशानी और हाथों की पुश्त पर बाल हों तो कोई हरज नही लेकिन अगर किसी के सर के बाल पेशानी पर आ गिरे हों तो ज़रूरी है कि उहें पीछे हटा  दे।


(718) अगर किसी को एहतेमाल हो कि उसकी पेशानी या हथेलियों या हाथों की पुश्त पर कोई रुकावट है और उसका यह एहतेमाल लोगों की नज़रों में सही हो, तो ज़रूरी है कि छान बीन करे यहाँ तक कि उसे यक़ीन या इत्मिनान हो जाये कि रुकावट मौजूद नही है।


(719) अगर किसी इंसान का वज़ीफ़ा तयम्मुम हो और वह ख़ुद तयम्मुम न कर सकता हो तो ज़रूरी है कि किसी दूसरे इंसान से मदद ले ताकि वह मददगार उसके हाथों को उस चीज़ पर मारे जिस पर तयम्मुम करना सही हो और फिर उसके हाथों को उसकी पेशानी और दोनों हाथों की पुश्त पर रख दे ताकि इमकान की सूरत में वह ख़ुद अपनी हथेलियों की पेशानी और हाथों की पुश्त पर फेर सके। और अगर ऐसा करना मुमकिन न हो तो नाइब के लिए ज़रूरी है कि अपने हाथों को उस चीज़ पर मारे जिस पर तयम्मुम करना सही हो और फिर उसकी पेशानी और हाथों की पुश्त पर फेरे। एहतियाते लाज़िम यह है कि इन दोनों सूरतों में दोनों शख़्स तयम्मुम की नियत करें। लेकिन पहली सूरत में ख़ुद मुकल्लफ़ की नियत    काफी है।


(720) अगर कोई इंसान तयम्मुम करते वक़्त किसी हिस्से के बारे में शक करे कि इसका तयम्मुम किया है या नही तो अगर उस हिस्से का मौक़ा ग़ुज़र चुका हो तो उसे अपने शक की परवाह नही करनी चाहिए लेकिन अगर मोक़ा न ग़ुज़रा हो तो ज़रूरी है कि उस हिस्से का तयम्मुम करे।


(721) अगर किसी इंसान को बायें हाथ का मसा करने के बाद शक हो कि आया उसने तयम्मुम दुरुस्त किया है या नहीं तो उसका तयम्मुम सही है। लेकिन अगर उसका शक बायें हाथ के मसे के बारे में हो तो उसके लिए ज़रूरी है कि उसका मसा करे सिवाये इसके कि लोग यह कहें कि तयम्मुम से फ़ारिग़ हो चुका है मसलन उस इंसान ने कोई ऐसा काम किया हो जिस के लिए तहारत शर्त है या तसलसुल ख़त्म हो गया है।


(722) जिस इंसान का वज़ीफ़ा तयम्मुम हो अगर वह नमाज़ के पूरे वक़्त में उज़्र   के ख़त्म होने से मायूस हो जाये तो तयम्मुम कर सकता है और अगर उसने किसी दूसरे वाजिब या मुस्तहब काम के लिए तयम्मुम किया हो और नमाज़ के वक़्त तक उसका उज़्र   बाक़ी हो (जिस की वजह से उस का वज़ीफ़ा तयम्मुम है) तो उसी तयम्मुम के साथ नमाज़ पढ़ सकता है।


(723) जिस इंसान का वज़ीफ़ा तयम्मुम हो अगर उसे इल्म हो कि आख़िरी वक़्त तक उस का उज़्र   बाक़ी रहेगा या वह उज़्र   के ख़त्म होने से मायूस हो तो वक़्त में गुंजाइश होते हुए भी वह तयम्मुम के साथ नमाज़ पढ़ सकता है। लेकिन अगर वह जानता हो कि आख़िरी वक़्त तक उसका उज़्र   दूर हो जायेगा तो ज़रूरी है कि इंतिज़ार करे और वुज़ू या ग़ुस्ल कर के नमाज़ पढ़े। बल्कि अगर वह आख़िर वक़्त तक उज़्र   के ख़त्म होने से मायूस न हो तो मायूस होने से पहले तयम्मुम कर के नमाज़ नहीं पढ़ सकता।


(724) अगर कोई इंसान वुज़ू या ग़ुस्ल न कर सकता हो और उसे यक़ीन हो कि उसका उज़्र   दूर होने वाला नहीं है या दूर होने से मायूस हो तो वह अपनी क़ज़ा नमाज़ें तयम्मुम के साथ पढ़ सकता है। लेकिन अगर बाद में उज़्र   ख़त्म हो जाये तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि वह नमाज़ें वुज़ू या ग़ुस्ल कर के दोबारा पढ़े। लेकिन अगर उसे उज़्र के दूर होने से मायूसी न हो तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर क़ज़ा नमाज़ों के लिए तयम्मुम नहीं कर सकता।


(725) जो इंसान वुज़ू या ग़ुस्ल न कर सकता हो उसके लिए जायज़ है कि वह उन मुस्तहब नमाज़ों को जिन का वक़्त मुऐय्यन है, जैसे दिन रात की नवाफ़िल नमाज़ें, तयम्मुम कर के पढ़े। लेकिन अगर मायूस न हो कि आख़िरी वक़्त तक उस का उज़्र   दूर हो जायगा तो एहतियाते लाज़िम यह है कि वह नमाज़ें उनके अव्वले वक़्त में न पढ़े।


(726) जिस इंसान ने एहतियातन ग़ुस्ले जबीरा और तयम्मुम किया हो अगर वह ग़ुस्ल और तयम्मुम के बाद नमाज़ पढ़े और नमाज़े के बाद उससे हदसे असग़र सादिर हो जाये मसलन पेशाब करे, तो बाद की नमाज़ों के लिए ज़रूरी है कि वुज़ू करे। और अगर हदस नमाज़ से पहले सादिर हो जाये तो ज़रूरी है कि उस नमाज़ के लिए भी वुज़ू करे।


(727) अगर कोई इंसान पानी न मिलने की वजह से या किसी दूसरे उज़्र की बिना पर तयम्मुम करे तो उज़्र के ख़त्म हो जाने के बाद उस का तयम्मुम बातिल हो जाता है।


(728) जो चीज़ें वुज़ू को बातिल करती हैं वह वुज़ू के बदले किये हुए तयम्मुम को भी बातिल करती हैं। जो चीज़ें ग़ुस्ल को बातिल करती हैं वह ग़ुस्ल के बदले किये हुए तयम्मुम को भी बातिल कर देती हैं।


(729) अगर कोई इंसान ग़ुस्ल न कर सकता हो और चंद ग़ुस्ल उस पर वाजिब हों तो उसके लिए जायज़ है कि उन तमाम ग़ुस्लों के बदले एक तयम्मुम कर सकता है। लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि उन ग़ुस्लों में से हर एक के बदले एक तयम्मुम करे।


(730) जो इंसान ग़ुस्ल न कर सकता हो अगर वह ऐसा काम अंजाम देना चाहे जिस के लिए गुस्ल वाजिब हो तो ज़रूरी है कि ग़ुस्ल के बदले तयम्मुम करे और जो इंसान  वुज़ू न कर सकता हो अगर वह कोई ऐसा काम करना चाहे जिस के लिए वुज़ू वाजिब हो तो ज़रूरी है कि वुज़ू के बदले तयम्मुम करे।


(731) अगर कोई इंसान ग़ुस्ले जनाबत के बदले तयम्मुम करे तो नमाज़ के लिए वुज़ू करना ज़रूरी नहीं है। लेकिन अगर दूसरे ग़ुस्लों के बदले तयम्मुम करे तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि वुज़ू भी करे और अगर वह वुज़ू न कर सकता हो तो वुज़ू के बदले एक और तयम्मुम करे।


(732) अगर कोई इंसान ग़ुस्ल ज़नाबत के बदले तयम्मुम करे और बाद में उसे किसी ऐसी सूरत से दोचार होना पडे जो वुज़ू को बातिल कर देती हो, और बाद की नमाज़ों के लिए ग़ुस्ल भी न कर सकता हो, तो ज़रूरी है कि वुज़ू करे और एहतियाते मुस्तहब यह है कि तयम्मुम भी करे। और अगर वुज़ू न कर सकता हो तो ज़रूरी है कि उसके बदले तयम्मुम करे और एहतियाते मुस्तहब यह है कि उस तयम्मुम को मा फ़ी ज़्ज़िम्मह का निय्य्त से बजा लाये (यानी जो कुछ मेरे ज़िम्मे है उसे अंजाम दे रहा हूँ)।


(733) अगर किसी इंसान को कोई काम करने के लिए, मसलन नमाज़ पढ़ने के लिए वुज़ू या ग़ुस्ल के बदले तयम्मुम करने की ज़रूरत हो, तो अगर वह पहले तयम्मुम में वुज़ू के बदले तयम्मुम या ग़ुस्ल के बदले तयम्मुम की नियत करे और दूसरा तयम्मुम अपने वज़ीफ़े को अंजाम देने की नियत से करे तो काफ़ी है।


(734) जिस इंसान का फ़रीज़ा तयम्मुम हो अगर वह किसी काम के लिए तयम्मुम करे तो जब तक उस का तयम्मुम और उज़्र बाक़ी है वह उन तमाम कामों को कर सकता है जो वुज़ू या ग़ुस्ल कर के करने चाहियें। लेकिन अगर उसका उज़्र वक़्त की तंगी हो या उसने पानी होते हुए नमाज़े मय्यत या सोने के लिए तयम्मुम किया हो तो वह फ़क़त उन कामों का अंजाम दे सकता है जिन के लिए उसने तयम्मुम किया हो।


(735) चंद सूरतों ऐसी हैं जिनमें बेहतर यह है कि जो नमाजें इंसान ने तयम्मुम के साथ पढी हों उन की क़ज़ा करे:

1- पानी के इस्तेमाल से डरता हो और उसने जान बूझ कर अपने आप को जुनुब कर लिया हो और तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ी हो।

2- यह जानते हुए या गुमान करते हुए कि उसे पानी न मिल सकेगा अपने आपको जान बूझ कर जुनुब कर लिया हो और तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ी हो।

3- आख़िर वक़्त तक पानी की तलाश में न जाये और तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़े और बाद में उसे पता चले कि अगर तलाश करता तो उस पानी मिल सकता था।

4- जान बूझ कर नमाज़ पढ़ने में देर की हो और आख़िरी वक़्त में तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ी हो।

5- यह जानते हुए या गुमान करते हुए कि पानी मिलेगा जो पानी उसके पास था उसे गिरा दिया हो और तयम्मुम कर के नमाज़ पढ़ी हो।
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[1] मजलिसी अव्वल ने मन ला यहज़रुहु अलफ़क़ीह किताब की शरह में तीर के फ़ासले को 200 क़दम मुऐय्यन किया है।