क़दम क़दम बढ़ाए जा

किसी भी वुजूद के ज़िंदा होने की सब से आसान और साफ़ निशानी उसका प्रगति करना है। जब भी उसकी प्रगति रुक जाये समझलो कि उसकी मौत का ज़माना क़रीब आ गया है। और जब भी कोई ज़िन्दा वुजूद इंहेतात (गिरावट) के किनारे पर जा खड़ा हो तो समझलो कि उसकी वह धीरे धीरे मौत की तरफ़ बढ़ रहा है। और यह क़ानून किसी एक इंसान की मानवी और माद्दी ज़िन्दगी पर ही नही बल्कि पूरे समाज पर लागू है। (इस बात पर ग़ौर करने की ज़रूरत है।)

 


इस नुक्ते से फ़ायदा उठाते हुए- अगर हम हर रोज़ एक क़दम आगे न बढ़ायें और अज़ नज़रे ईमान, तक़वा, अखलाक़, अदब ,पाकीज़गी व नेकी के मैदान में प्रगति न करें और हर साल गुज़रे हुए साल पर अफ़सोस करें तो हमें समझ लेना चाहिए कि हमने एक बहुत बड़ा नुक़्सान हुआ है और हम अपनी राह से भटक गये हैं। लिहाज़ा इस हालत में हमें ला परवाही नही बरतनी चाहिए बल्कि संजीदगी के साथ ख़तरे को महसूस करना चाहिए।

 


अमीरुल मोमेनीन हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने इस बारे में कितना अच्छा जुमला बयान फ़रमाया है, एक मशहूर रिवायत में है कि आपने फ़रमाया “मन इस्तवा यौमाहु फ़हुवा मग़बून”[1] यानी जिसके दो दिन एक से हो गये हों उसने नुक़सान उठाया (क्यों कि उसने ज़िन्दगी के सरमाये को तो अपने हाथ से गवाँ दिया मगर कोई तिजारत नही की नतीजा में हसरत और रंज के अलावा उसे कुछ भी नही मिला।) “व मन काना फ़ी नक़सिन फ़ल मौतु ख़ैरुन लहु।”[2] यानी जो नुक़्सान की मंज़िल में चला गया उसके लिए तो मौत ही बेहतर है(क्योँ कि कम से कम इंसान नुक़्सान से ही बचा रहे, इस लिए कि नुक़्सान से बचा रहना भी एक बहुत बड़ी नेअमत है।)

 


आरिफ़ाने ख़ुदा और सालिकाने राहे ख़ुदा हर सालिक के लिए हर रोज़ सुबह के वक़्त “मुशारेते” पूरे दिन “मुहासेबे” और फिर शाम को “मुआक़िबे” को जो ज़रूरी मानते हैं तो वह इस लिए है ताकि राहरवाने राहे हक़ ग़ाफ़िल न होने पाये और अगर कहीँ पर कोई ऐब या नक़्स वाकेअ हो तो उसका इज़ला कर सकें। और इस तरीक़े से हर रोज़ अपने चेहरे को अनवारे इलाहिय्या का उफ़ुक़ क़रार दे और जन्नती अफ़राद की तरह सुबह शाम अल्लाह के लुत्फ़ शाहिद बनें। “व लहुम रिज़्क़ु हुम फ़ीहा बुकरतन व अशीय्यन ”[3] यानी उनके लिए जन्नत में सुबह शाम रिज़्क़ है।

 


लिहाज़ा ऐ अज़ीज़म अपने हाल से ग़ाफ़िल न रहो ताकि ज़िन्दगी की तिजारत में उम्र के बेतरीन सरमाये को बलन्दतरीन अर्ज़िशों से बदला जा सके। और “इन्नल इंसाना लफ़ी ख़ुसरिन” (जान लो कि तमाम इंसान घाटे में है।) का मिसदाक़ न बनो। और यह तिजारत तो वह है जिस में हर इंसान एक बड़ा नफ़ा हासिल कर सकता है। अपने नफ़्स के मुहासबे से ग़ाफ़िल न रहो और इस से पहले कि तुम से तुम्हारे आमाल का हिसाब लिया जाये हर रोज़ व हर माह अपने आमाल का हिसाब करते रहो


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[1] बिहारुल अनवार जिल्द 68 पेज न.173 हदीस न. 5
[2] बिहारुल अनवार जिल्द न. 67 पेज न. 64 हदीस न. 3
[3] सूरए मरयम आयत न. 62