मोमिन की प्रसन्नता

पैग़म्बरे इस्लाम फ़रमाते हैं कि जो किसी मोमिन को खुश करे उसने मुझे खुश किया और जिसने मुझे खुश किया उसने ईश्वर को खुश किया”


पैग़म्बरे इस्लाम का यह कथन और इस प्रकार की दूसरी रवायतें इस वास्तविकता की सूचक हैं कि इस्लाम की दृष्टि में एक बेहतरीन कार्य मोमिन को खुश करना है। यह वास्तविकता उस कल्पना व दृष्टिकोण रद्द कर देती है जिसमें कुछ लोग यह सोचते हैं कि मोमिन और धार्मिक उस व्यक्ति को कहा जाता है जिसका चेहरा दुःखी व हंसीरहित होता है। पैग़म्बरे इस्लाम के इस कथन से इस बात को भलिभांति समझा जा सकता है कि इस्लाम खुशहाल और प्रफुल्लित समाज पसंद करता है। दूसरा बिन्दु, जिस पर ध्यान देना चाहिये, यह है कि पैग़म्बरे इस्लाम के कथन में मोमिन के खुश रखने को मूल्यवान कार्य बताया गया है। यह बात भी स्पष्ट है कि मोमिन इंसान किस बात से खुश होता है। इस आधार पर मोमिन को खुशहाल करने वाली उन शैलियों को नहीं अपनाया जाना चाहिये जिन्हें इस्लाम पसंद नहीं करता है।


 हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के हवाले से एक रवायत में हम पढ़ते हैं” नमाज़ के बाद बेहतरीन कार्य मोमिन के दिल को उन चीज़ों से खुश करना है जो पाप न हों” जबकि हज़रत इमाम जाफर सादिक़ अलैहिस्सलाम के हवाले से एक अन्य रवायत में हम पढ़ते हैं” ईश्वर के निकट सबसे अच्छा कार्य मोमिन को खुश करना है भूख से खाना खिलाके, उसकी समस्याओं का समाधान करके या उसके ऋणों को अदा करके”


इस आधार पर मोमिन को खुश करना ईश्वर की उपासना है परंतु इसका यह मतलब नहीं है कि जिस पर प्रकार से भी हो मोमिन को खुश किया जाये। यहां ध्यान योग्य बात यह है कि जिस चीज़ को इस्लाम पसंद नहीं करता मोमिन उस चीज़ से प्रसन्न नहीं हो सकता। अतः मोमिन को उन्हीं चीज़ों के माध्यम से खुश करना चाहिये जिनकी अनुमति इस्लाम ने दी है। उदारहण स्वरूप अगर कोई ग़लत कार्यों व पापों द्वारा मोमिन को प्रसन्न करने का प्रयास करता है तो वह न केवल उपासना नहीं करता बल्कि पाप करता है क्योंकि जब महान ईश्वर ने पाप करने से मना किया है तो क्यों उसने पाप करके मोमिन को खुश करने का प्रयास किया?


कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि दुःख और सुख एक ही सिक्के के दो रूप हैं। इंसान अपने जीवन में सदैव खुशी प्राप्त करने के प्रयास में रहता है और जीवन को सुखमय बनाने की आकांक्षा हर इंसान की हार्दिक इच्छा होती है। खुशी एक एसी चीज़ होती है जिसे प्राप्त करने के लिए हम सब प्रयास करते हैं परंतु हम सब खुशी प्राप्त नहीं कर पाते हैं। खुशी एसी चीज़ है जिसके समस्त लक्षणों को बयान नहीं किया जा सकता। हर व्यक्ति की बात चीत और उसके व्यवहार से प्रतीत हो जाता है कि वह खुश है या नहीं। जो इंसान जितना अधिक खुशहाल होगा वह अपने जीवन से उतना ही आनंदित होगा। समाज में एसे बहुत से लोगों को देखा जा सकता है जिनके पास धन दौलत होती है अच्छा घर, गाड़ी और जीवन की दूसरी सुविधायें होती हैं परंतु वे अपने जीवन से प्रसन्न नहीं होते हैं इसके मुकाबले में एसे भी लोग होते हैं जिनके पास अधिक धन सम्पत्ति नहीं है परंतु वे अपने जीवन में प्रसन्न हैं तो जीवन में खुशहाल होने के लिए धन सम्पत्ति का होना आवश्यक नहीं है बल्कि खुशहाली इस बात पर निर्भर है कि वह अपने जीवन में होने वाले परिवर्तनों एवं जीवन की प्रक्रियाओं से खुशहाल हो।


इस्लाम खुशहाल व प्रफुल्लित समाज चाहता है। ईश्वरीय धर्म इस्लाम में जितने भी व्यक्तिगत और सामाजिक आदेश हैं उन सबका आधार खुशी व प्रफुल्लता है। इस्लाम के जो भी आदेश हैं उसमें खुशी और प्रफुल्लता नीहित है। यहां पर यह प्रश्न किया जा सकता है कि इस्लाम के बहुत से एसे भी आदेश हैं जिनसे कुछ लोग प्रसन्न नहीं होते हैं जैसे गर्मी में रोज़ा रखना और नमाज़ का हर हालत में अनिवार्य होना। इसका संक्षिप्त उत्तर यह है कि महान व कृपालु ईश्वर कभी भी अपने बंदे को एसा आदेश नहीं देता जो उसके लिए हानिकारक हो। यह संभव है कि बंदे को शायद कुछ चीज़ें पसंद न आयें लेकिन उसका वास्तविक फायदा उस कार्य के करने में ही है जैसे बहुत सी दवाएं कड़वी होती हैं और बहुत से लोग उसे बिल्कुल पसंद नहीं करते हैं परंतु लोगों का वास्तविक फाएदा उसी कड़वी दवा के खाने में होता है। इसी प्रकार समस्त ईश्वरीय आदेशों में मनुष्य का कल्याण, खुशी और प्रफुल्लता नीहित है। जो लोग दूसरों की सेवा करते हैं, लोगों की समस्याओं का समाधान करते हैं और महान ईश्वर की उपासना जैसे कार्य करते हैं तो इन सब से समाज में प्रेम का वातावरण व्याप्त होता है और समाज के लोग इससे आनंदित होते हैं। इस्लाम हर उस खुशी का पक्षधर व समर्थक है और वह खुशी मूल्यवान है जो महान ईश्वर से सामिप्य का कारण बने।


यहां इस बात का उल्लेख आवश्य है कि उस खुशी को इस्लाम पसंद नहीं करता है जो महान ईश्वर से दूरी एवं उसके क्रोध का कारण बने। उदाहरण स्वरूप जब बहुत से लोग धन सम्पत्ति या किसी पद को प्राप्त कर लेते हैं तो वे एसी खुशियां मनाते हैं जिसे इस्लाम बिल्कुल पसंद नहीं करता है। जो लोग इस प्रकार की खुशी मनाते हैं उनकी यह खुशी न केवल उनकी परिपूर्णता का कारण नहीं बनती है बल्कि वे अपने पालनहार से दूर हो जाते हैं। यही नहीं इस प्रकार की चीजें मनुष्य में अहंकार का कारण बनती हैं और वह अपने अनिवार्य दायित्वों में आनाकानी से काम लेता है। महान ईश्वर इस प्रकार की प्रसन्नता को पसंद नहीं करता है। हां अगर इंसान अपनी धन संपत्ति से लोगों की सेवा करता है उससे दूसरों की सहायता करता है तो उससे प्राप्त होने वाली खुशी से न केवल कोई हरज नहीं है बल्कि इस प्रकार की खुशी की इस्लाम में प्रशंसा की गयी है।


खुशी लक्ष्य की प्राप्ति का परिणाम है अर्थात जब इंसान इस बात का आभास करता है कि उसे वह चीज़ मिल गयी जिसे वह प्राप्त करना चाहता था तो उसे खुशी होती है। यहां इस बात का उल्लेख आवश्यक है कि हर व्यक्ति का लक्ष्य अलग अलग होता है और हर इंसान उस समय प्रसन्न होता है जब उसे उसके दृष्टिगत चीज़ मिल जाती है। यानी उसकी खुशी उसकी इच्छा व लक्ष्य पर निर्भर होती है। जो इंसान स्वयं को महान व सर्वसमर्थ ईश्वर की सृष्टि समझता है और अपने पैदा करने के उद्देश्य को समझता है निश्चित रूप से वह उस समय अधिक प्रसन्न होता है जब वह यह समझता है कि वह उसी दिशा में अग्रसर है जिसके लिए उसे पैदा किया गया है और जो कार्य वह कार्य कर रहा है उससे उसका पालनहार खुश है और अगर उसे पता चले कि उसका यह कार्य ईश्वर की प्रसन्नता के मार्ग में नहीं है और जो कुछ उसने किया है वह ईश्वर की अप्रसन्नता का कारण है तो वह क्षुब्ध व दुःखी होगा। दूसरे शब्दों में मोमिन उस समय प्रसन्न होता है जब उसे यह पता चले कि उसने अपने धार्मिक दायित्वों का निर्वाह किया है और उसने वह कार्य नहीं किया है जो महान ईश्वर की अप्रसन्नता का कारण बनता है।


जिस खुशी की बात इस्लाम करता है वह अस्ली खुशी है। इस आधार पर इस्लाम में उस खुशी का कोई महत्व है जो पाप है और वह इंसान की इंसानियत को कम कर देती है और वह इंसान को उसके वास्तविक स्थान से नीचे गिरा देती है। इस्लाम भौतिक खुशी को नहीं मानता है वह उसे नकारता है परंतु जो खुशी यात्रा करने, धार्मिक भाइयों, मित्रों आदि से भेंट करने, मेहमानी में जाने, दूसरों को अपने यहां मेहमान बनाना और धार्मिक भाइयों का सम्मान करने से प्राप्त होती है इस्लाम उसकी सराहना करता है क्योंकि यह चीज़ें आपसी द्वेष व परेशानी को कम करने का कारण बनती हैं। इसके विपरीत वह खुशी है जो अवैध कार्यों जैसे नाच गाने आदि से प्राप्त होती है वह क्षणिक होती है और अवैध तरीके से प्राप्त होने वाली खुशियों का इस्लाम में कोई महत्व नहीं है। इस्लाम धर्म ने खुशी व आनंद से दूरी को मना किया है। इस्लाम में आनंद उठाना अच्छा कार्य है परंतु वह वैध तरीके से हो। ईश्वरीय धर्म इस्लाम की शिक्षाओं में नाना प्रकार से आनंद उठाने पर ध्यान दिया गया है। उदाहरण स्वरूप सुगन्ध लगाना अच्छी चीज़ है इससे जहां सुगंध लगाने वाले को खुशी होती है और उसे अच्छी लगती है वहीं दूसरों को भी इससे आराम मिलता है। सुगन्ध लगाना पैग़म्बरे इस्लाम की परंमरा है। साफ सफाई रखना, विवाह और बच्चे के जन्म के समय दूसरों को खाना खिलाना, हज व ज़ियारत पर जाने और उससे लौटने, सगे संबंधियों के साथ अच्छा व्यवहार, मोमिनों से हाथ मिलाना आदि वे चीज़ें हैं जिनसे खुशी होती है और ईश्वरीय धर्म इस्लाम में इन सब चीजों पर बहुत बल दिया गया है। जैसे पैदल चलना, घोड़सवारी करना, तैरना, हरी चीजों को देखना, खाना पीना, दातून करना, हंसना, यात्रा करना और विभिन्न राष्ट्रों की संस्कृतियों से अवगत होना आदि वे चीज़ें हैं जिनसे खुशी होती है और मनुष्य को शारीरिक व आध्यात्मिक शांति प्राप्त होती है। इस आधार पर इस्लाम ने इन सब चीज़ों की बहुत सिफारिश की है।


खुशी एक आंतरिक आभास है जिसके परिणामों को बाहर भी देखा जा सकता है और हमें इस बात की अनुमति नहीं देनी चाहिये कि नकारात्मक सोच और  निराशा हमारे जीवन की खुशियों को समाप्त कर दें और हम पर नकारात्मक सोच का नियंत्रण हो जाये।