कफ़न के अहकाम

 

576. मुसलमान की मैयित को तीन कपड़ों का कफ़न देना ज़रूरी है, जिन्हे लुंग, क़मीस और चादर कहा जाता है।


577. एहतियात की बिना पर ज़रूरी है कि लुंग ऐसी हो जो नाफ़ से घुटनों तक तमाम बदन को छुपा ले और बेहतर यह है कि सीने से पाँव के नीचे तक पहुँचे और एहतियात की बिना पर क़मीस ऐसी हो जो काँधों के सिरों से आधी पिंडलियों तक तमाम बदन को छुपा ले और बेहतर यह है कि पांव तक पहुंचे और चादर की लम्बाई इतनी होनी चाहिए कि पूरे बदन को ढाँप ले और एहतियात यह है कि चादर की लम्बाई इतनी हो कि मैयित को उसमें लपेटने के बाद सर और पैरों की तरफ़ उसमें गिराह दे सकें और उसकी चौड़ाई इतनी होनी चाहिए कि उसका एक किनारा दूसरे किनारे पर आ सके।


578. लुंग की इतनी मिक़दार जो नाफ़ से घुटनों तक ढाँप ले और कमीस की इतनी मिक़दार जो काँधों से आधी पिंडली तक ठाँप ले, कफ़न के लिए वाजिब है। इस मिक़दार से ज़्यादा जो इससे पहले मस्अले में बयान किया गया है वह कफ़न की मुस्तहब मिक़दार है।


579. कफ़न की वह वाजिब मिक़दार जिसका ज़िक्र इससे पहले मस्अ में हुआ है, मैयित के अस्ल माल से लिया जाता है और ज़ाहिर यह है कि मुस्तहब कफ़न की मिक़दार को मैयित की शान और उर्फ़ को नज़र में रखते हुए मैयित के अस्ल माल से लिया जाये। अगरचे एहतियाते मुस्तहब यह है कि वाजिब मिक़दार से ज़्यादा कफ़न उन वारिसों के हिस्से से न लिया जाये जो अभी बालिग़ न हुए हों।


580. अगर किसी ने वसीयत की हो कि मुस्तहब कफ़न की मिक़दार, जिसका ज़िक्र ग़ुज़शता मसले में हो चुका है, उसके तिहाई माल से ली जाये या यह वसीयत की हो कि उसका तिहाई माल खुद उस पर ख़र्च किया जाये, लेकिन किन कामों पर ख़र्च की जाये उनका ज़िक्र न किया हो, या सिर्फ़ उसके कुछ हिस्से के मसरफ़ को मुऐयन किया हो तो मुस्तहब कफ़न उसके तिहाई माल से लिया जा सकता है।


581. अगर मरने वाले ने वसीयत न की हो कि कफ़न उसके तिहाई माल से लिया जाये और उससे मुताल्लिक़ लोग यह चाहें कि उसके अस्ल माल से लों तो जो बयान मसला न. 579 में गुज़र चुका है, उससे ज़्यादा न लें। मसलन वह मुस्तहब काम जो आमतौर पर अंजाम न दिये जाते हों और जो मैयित की शान के मुताबिक़ भी न हों तो उनकी अदाएगी के लिए हरगिज़ अस्ल माल से न लें और बिल्कुल इसी तरह अगर कफ़न मामूल से ज़्यादा क़ीमती हो तो इज़ाफ़ी रक़म को मैयित के अस्ल माल से नही लेना चाहिए। लेकिन जो वारिस बालिग़ हैं अगर वह अपनी मर्ज़ी से अपने हिस्से में से लेने की इजाज़त दे दें तो जिस हद तक वह इजाजत दें उनके हिस्से से लिया जा सकता है।


582. औरत के कफ़न की ज़िम्मेदारी शौहर पर है, चाहे औरत के पास अपना माल भी हो। इसी तरह अगर औरत को, उस तफ़्सील के मुताबिक़ जिसे हम तलाक़ के अहकाम में बयान करेंगे, तलाक़े रजई दी गई हो और वह इद्दत ख़त्म होने से पहले मर जाये तो शौहर के लिए ज़रूरी है कि उसे कफ़न दे, और अगर शौहर बालिग़ न हो या दीवाना हो तो शौहर के वली को चाहिए कि उसके माल से औरत को कफ़न दे।


583. मैयित को कफ़न देना उसके क़राबतदारों पर वाजिब नही है, चाहे उसकी ज़िन्दगी में उसके ख़र्च की ज़िम्मेदारी उनके ऊपर वाजिब रही हो।

584. एहतियात यह है कि कफ़न के तीनों कपड़ों में से हर कपड़ा इतना बारीक न हो कि उसके नीचे से मैयित का जिस्म नज़र आये, लेकिन अगर इस तरह हो कि तीनों कपड़ों को मिलाने के बाद मैयित का ज़िस्म उनके नीचे से नज़र न आये तो बिना बर अक़वा काफ़ी है।

585. ग़स्ब की हुई चीज़ से कफ़न देना चाहे कफ़नाने के लिए कोई दूसरी चीज़ मैयस्सर न हो तब भी जायज़ नही है। अगर मैयित का कफ़न ग़स्बी हो और उसका मालिक राज़ी न हो तो वह कफ़न उसके बदन से उतार लेना चाहिए, चाहे उसे दफ़्न भी कर दिया गया हो। (लेकिन कुछ सूरतें ऐसी हैं जिनमें उसके बदन से कफ़न उतारना ज़रूरी नही है) मगर इस मक़ाम पर उसकी तफ़्सील की गुंजाइश नही है।


586. मैयित को नजिस चीज़ या ख़ालिस रेशमी कपड़े का कफ़न देना जायज़ नही है। इसी तरह एहतियात की बिना पर उस कपड़े का कफ़न देना भी जायज़ नही है, जिस पर सोने के पानी से काम किया गया हो। लेकिन मजबूरी की हालत में कोई हरज नही है।


587. इख़्तियारी हालत में मैयित को नजिस मुर्दार की खाल का कफ़न देना जायज़ नही है, बल्कि पाक मुर्दार की खाल का कफ़न देना भी जायज़ नही है। इसी तरह इख़्तियार की हालत में उस कपड़े का कफ़न देना भी जायज़ नही है जो रेशमी हो या उस जानवर की ऊन से बनाया गया हो जिसका गोश्त खाना हराम हो। लेकिन अगर कफ़न हलाल गोश्त जानवर की खाल या बाल या ऊन का बना हो तो कोई हरज नही है। जबकि एहतियाते मुस्तहब यह है कि इन दोनों चीज़ों से बना कफ़न भी न दिया जाये।


588. अगर मैयित का कफ़न उसकी अपनी निजासत या किसी दूसरी निजासत से नजिस हो जाये तो अगर कफ़न बर्बाद न होता हो तो जितना हिस्सा नजिस हुआ है उसे धोना या काटना ज़रूरी है, चाहे मैयित को क़ब्र में ही क्यों न उतार दिया गया हो और अगर उसका धोना या काटना मुमकिन न हो लेकिन उसको बदलना मुमकिन हो तो उसे बदलना ज़रूरी है।


589. अगर कोई ऐसा इंसान मर जाये जिसने हज्ज या उमरे का एहराम बाँध रखा हो तो उसे दूसरों की तरह कफ़न पहनाना ज़रूरी है और उसका सर व चेहरा ढकने में कोई हरज नही है।


590. इंसान के लिए मुस्तहब है कि वह अपनी ज़न्दगी में कफ़न, बेरी व काफ़ूर आमादा करे।
 हनूत के अहकाम

 
591. ग़ुस्ल देने के बाद मैयित को हनूत करना वाजिब है। यानी उसकी पेशानी, दोनों हथेलियों, दोनों घुटनो और दोनों पैरों के अंगूठों पर काफ़ूर इस तरह मला जाये कि कुछ काफ़ूर उन पर बाक़ी रहे, मुस्तहब है कि मैयित की नाक पर भी काफ़ूर मला जाये। काफ़ूर पिसा हुआ और ताज़ा होना चाहिए, लिहाज़ा अगर पुराना होने की वजह से उसकी खुशबू ख़त्म हो गई हो तो वह काफ़ी नही है


592. . एहतियाते मुस्तहब यह है कि पहले काफ़ूर मैयित की पेशरानी पर मला जाये लेकिन दूसरे मक़ामात पर मलने में तरतीब ज़रूरी नही है।


593. बेहतर यह है कि मैयित को कफ़न पहनाने से पहले हनूत किया जाये, लेकिन अगर मैयित को कफ़न पहनाने के बीच या कफ़न पहनाने के बाद भी हनूत किया जाये तो कोई हरज नही है।


594. अगर कोई ऐसा इंसान मर जाये जिसने हज्ज या उमरे के लिए एहराम बाँध रखा हो तो उसे हनूत करना जायज़ नही है। लेकिन उन दो सूरतों में जायज़ है जिनका ज़िक्र मसला न. 559 में गुज़र चुका है।


595. ऐसी औरत जिसका शौहर मर गया हो और अभी उसकी इद्दत बाक़ी हो आगरचे उसके लिए ख़ुशबू लगाना हराम है, लेकिन अगर वह मर जाये तो उसे हनूत करना वाजिब है।


596. एहतियाते मुस्तहब यह है कि मैयित को मुश्क, अम्बर, ऊद और दूसरी ख़ुशबुएं न लगाई जायें और न ही उन्हें काफ़ूर के साथ मिलाया जाये।


597. मुस्तहब है कि सैयदुश शोहदा हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की क़ब्र की मिट्टी (ख़ाके शिफ़ा) की कुछ मिक़दार को काफ़ूर में मिलाया जाये, लेकिन उस काफ़ूर को ऐसे मक़ाम पर न लगाया जाये, जहाँ लगाने से ख़ाके शिफ़ा की बेहुरमती होती हो और यह भी ज़रूरी है कि ख़ाके शिफ़ा इतनी ज़्यादा न हो कि जब वह काफ़ूर के साथ मिल जाये तो उसे काफ़ूर न कहा जा सके।


598. अगर काफ़ूर न मिल सके या फ़क़त ग़ुस्ल के लिए ही काफ़ी हो तो हनूत करना ज़रूरी नही है लेकिन अगर ग़ुस्ल की ज़रूरत से तो ज़्यादा हो, मगर हनूत के सातों हिस्सों के लिए काफ़ी न हो तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि पहले पेशानी पर मलें और अगर बच जाये तो दूसरी जगहों पर मल दें।


599. मुस्तहब है कि दो तरो ताज़ा टहनियाँ मैयित के साथ क़ब्र में रखी जायें।