रोज़े को बातिल करने वाली चीज़े

वह चीज़े जो रोज़े को बातिल करती हैं:


(1581) नीचे लिखीं चन्द चीज़ें रोज़े को बातिल कर देती हैं


(1) खानाऔर पीना।


(2) जिमाअ (सम्भोग)


(3) इस्तिमना- यानी इंसान अपने आप या किसी दूसरे के साथ जिमाअ के अलावा कोईऐसा काम करे जिस के नतीजे में मनी(वीर्य) निकल जाये ।


(4) अल्लाह ताआला,पैग़म्बर (स0) और आइम्मा-ए-ताहेरीन(अ0) से कोई झूटी बातमंसूब करना।


(5) गर्द व ग़ुबार हलक़ तक पहुँचाना।


(6) मशहूर क़ोल की बिना पर पूरा सर पानी में डुबोना।


(7) अज़ान तक जनाबत, हैज़ और निफ़ास की हालत में रहना।


(8) किसी सय्याल(द्रव) चीज़ से हुक़ना (इनेमा) करना।


(9) उल्टी करना।


इन मुबतेलात के तफ़सीली अहकाम आइन्दा मसाइल में ब्यान किये जायेंगें।


(1) खाना और पीनाः


(1582) अगर रोज़ेदार इस बात की तरफ़ मुतवज्जेह होते हुऐ भी कि रोज़े से है कोई चीज़ जान बूझ कर खा या पीले तो उसका रोज़ा बातिल हो जाता है क़ते नज़र इस से कि वह चीज़ ऐसी हो जिसे आम तौर पर खाया या पिया जाता हो मसलन रोटी और पानी या ऐसी हो जिसे खाया या पिया न जाता हो मसलन मिट्टी और दरख़्त का शीरा, और चाहे कम हो या ज़्यादा हत्ता कि अगर रोज़े दार मिसवाक मुहँ से निकाले और दोबारा मुहँ में ले जाये और उस की तरी निगल ले तब भी रोज़ा बातिल हो जाता है सिवाए उस सूरत के कि मिसवाक की तरी लुआबे दहन में घुल मिल कर इस तरह खत्म हो जाये कि उसे बैरूनी तरी न कहा जा सके।


(1583) जब रोज़े दार खाना खा राहा हो अगर उसे मालूम हो जाये कि सुबह हो गयी है तो ज़रूरी है कि जो लुक़मा मुहँ में हो उसे उगल दे और अगर जान बूझ कर वह लुक़मा निगल ले तो उसका रोज़ा बातिल है और इस हुक्म के मुताबिक़ जिसका ज़िक्र बाद में होगा उस पर कफ़्फ़ारा भी वाजिब है।


(1584) अगर रोज़े दार ग़लती से कोई चीज़ खाले तो उसका रोज़ा बातिल नही होता।


(1585) जो इंजक्शन बदन के किसी हिस्से को बेहिस कर देते हैं या किसी और मक़सद के लिए इस्तेमाल होते हैं अगर रोज़े दार इन्हें इस्तेमाल करे तो कोई हरज नही लेकिन बेहतर यह है कि उन इंजकशनों से परहेज़ किया जाये जो दवा और ग़िज़ा के तौर पर इस्तेमाल होते हैं।


(1586) अगर रोज़े दार दाँतों के बीच की दरारों में फंसी हुइ कोई चीज़ जान बूझ कर निगल ले तो उस का रोज़ा बातिल हो जाता है।


(1587) जो शख़्स रोज़ा रखना चाहता हो उसके लिए अज़ाने सुबह से पहले ख़िलाल करना ज़रूरी नही हैं लेकिन अगर वह जानता हो कि जो ग़िज़ा दाँतों के रिख़ों में रह गयी है वह दिन के वक़्त पेट में चली जायेगी तो खिलाल करना ज़रूरी है।


(1588) मुहँ का पानी निगलने से रोज़ा बातिल नही होता चाहे वह पानी तुर्शी वग़ैरा के तसव्वुर से ही मुहँ में भर आया हो।


(1589) सर और सीने का बलग़म जब तक मुहँ के अन्दर वाले हिस्से तक न पहुँचे उसे निगलने में कोई हरज नही लेकिन अगर वह मुहँ में आ जाये तो एहतियाते वाजिब यह है कि उसे थूक दे।


(1590) अगर रोज़े दार को इतनी प्यास लगे कि उसे प्यास से मर जाने का ख़ौफ़ हो जाये या उसे नुक़्सान का अंदेशा हो या इतनी सख़्ती उठानी पड़े जो उस के लिए नाक़ाबिले बर्दाश्त हो तो इतना पानी पी सकता है कि उन उमूर का ख़ौफ़ ख़तम हो जाये लेकिन उस का रोज़ा बातिल हो जायेगा और अगर माहे रमज़ान हो तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर ज़रूरी है कि उस से ज़्यादा पानी न पिये और दिन के बाक़ी हिस्से में वह काम करने से परहेज़ करे जिस से रोज़ा बातिल हो जाता है।


(1591) बच्चे या परिन्दे के लिए ग़िज़ा का चबाना या ग़िज़ा का चखना और इसी तरह के काम करना जिस में ग़िज़ा उमूमन हलक़ तक नही पहुँचती अगर वह इत्तेफ़ाक़न हलक़ तक पहुँच जाये तो रोज़ा को बातिल नही करती। लेकिन अगर इंसान शुरू से ही जानता हो कि ग़िज़ा हलक़ तक पहुँच जायेगी तो उस का रोज़ा बातिल हो जाता है और ज़रूरी है कि उस की क़ज़ा बजा लाये और कफ़्फ़ारा भी उस पर वाजिब है।


(1592) इंसान मामूली नक़ाहत(कमज़ोरी) की वजह से रोज़ा नही छोड़ सकता लेकिन अगर नक़ाहत इस हद तक हो कि उमूमन बर्दाश्त न हो सके तो फ़िर रोज़ा छोड़ने में कोई हरज नही।


(2) जिमाअ-


जिमाअ रोज़े को बातिल कर देता है चाहे अज़वे तनासुल(लिंग) सुपारी तक ही दाखिल हो और मनी(वीर्य) भी ख़ारिज न होई हो।


(1594) अगर आला-ए-तनासुल(लिंग) सुपारी से कम दाखिल हो और मनी भी खारिज न हो तो रोज़ा बातिल नही होता लेकिन जिस शख़्स कि सुपारी कटी हुई हो अगर वह सुपारी की मिक़दार से कम मिक़दार में दाख़िल करे तो अगर यह कहा जाये कि उस ने हम बिस्तरी(सम्भोग) की है तो उस का रोज़ा बातिल हो जायेगा।


(1595) अगर कोई अमदन(जान बूझ कर) जिमाअ का इरादा करे और फ़िर शक करे कि सुपारी के बराबर दाख़िल हुआ था या नहीं तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर उस का रोज़ा बातिल है और ज़रूरी है कि उस रोज़े की क़ज़ा बजा लाये लेकिन कफ़्फारा वाजिब नही हैं।


(1596) अगर कोई भूल जाये कि रोज़े से है और जिमाअ करे या उसे जिमाअ पर इस तरह मजबूर किया जाये कि उस का इख़्तियार बाक़ी न रहे तो उस का रोज़ा बातिल नही होगा अलबत्ता अगर जिमाअ की हालत में उसे याद आ जाये कि रोज़े से है या मजबूरी ख़त्म हो जाये तो ज़रूरी है कि फ़ौरन तर्क कर दे और अगर ऐसा न करे तो उस का रोज़ा बातिल है।


इस्तिमना-


(1597) अगर रोज़े दार इस्तिमना करे (इस्तिमना का अर्थ मसअला न0 1581 में बताया जा चुका है।) तो उस का रोज़ा बातिल हो जायेगा।


(1598) अगर बेइख़्तियारी की हालत में किसी की मनी ख़ारिज़ हो जाये तो उस का रोज़ा बातिल नही है।


(1599) अगरचे रोज़े दार को इल्म हो कि अगर दिन में सोयेगा तो उसे एहतिलाम(स्वप्न दोष) हो जायेगा यानी सोते में उस की मनी ख़रिज हो जायेगी तब भी उस के लिए सोना जायज़ है चाहे न सोने की वजह से उसे कोई तकलीफ़ भी न हो और अगर उसे एहतिलाम हो जाये तो उस का रोज़ा बातिल नही होता।


(1600) अगर रोज़े दार मनी ख़रिज होते वक़्त नींद से बेदार हो जाये तो उस पर यह वाजिब नही कि मनी को निकलने से रोके।


(1601) जिस रोज़े दार को एहतिलाम(स्वप्न दोष) हो गया हो तो वह पेशाब कर सकता है चाहे यह इल्म हो कि पेशाब करने से रुकी हुई बाक़ी मनी नली से बाहर आ जायेगी।


(1602) जब रोज़े दार को एहतिलाम(स्वप्न दोष) हो जाये अगर उसे मालूम हो कि मनी नली में रह गयी है और अगर ग़ुस्ल से पहले पेशाब नही करेगा तो ग़ुस्ल के बाद मनी उस के जिस्म से ख़ारिज होगी तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि ग़ुस्ल से पहले पेशाब करे।


(1603) जो शख़्स मनी निकालने के इरादे से छेड़-छाड़ करे तो चाहे मनी न भी निकले एहतियात कि बिना पर ज़रूरी है कि रोज़े को तमाम करे और उस की क़ज़ा भी बजा लाये।


(1604) अगर रोज़े दार मनी निकालने के इरादे के बग़ैर मिसाल के तौर पर अपनी बीवी से छेड़छाड़ और हंसी मज़ाक़ करे और उसे इत्मिनान हो कि मनी ख़ारिज नही होगी तो अगरचे इत्तेफ़ाक़न मनी ख़ारिज भी हो जाये तो उस का रोज़ा सही है। अलबत्ता अगर उसे इत्मिनान न हो तो इस सूरत में अगर मनी ख़ारिज होगी तो उस का रोज़ा बातिल हो जायेगा।


ख़ुदा और रसूल पर बोहतान बाँधना-


(1605) अगर रोज़े दार ज़बान से या लिख कर या इशारे से या किसी और तरीउल्टी से अल्लाह तआला या रसूल अकरम (स0) या आपके (बरहक़) जानशीनों में से किसी से भी जान बूझ कर कोई झूटी बात मंसूब करे तो अगरचे वह फ़ौरन कह दे कि मैं ने झूट कहा है या तोबा कर ले तब भी एहतियाते लाज़िम की बिना पर उस का रोज़ा बातिल है और एहतियाते मुस्तहब की बिना पर हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स0) और तमाम अम्बिया व मुर्सलीन और उन के जानशीनों से भी कोई झूटी बात मंसूब करने का यही हुक्म है।


(1606) अगर (रोज़े दार ) कोई ऐसी रिवायत नक़्ल करना चाहे जिस के क़तई होने की दलील न हो और उस के बारे में उसे इल्म न हो कि यह सच है या झूट तो एहतियाते वाजिब की बिना ज़रूरी है कि जिस शख़्स से वह रिवायत हो या जिस किताब में लिखी देखी हो उस का हवाला दे।


(1607) अगर रोज़े दार किसी चीज़ के बारे में एतेक़ाद रखता हो कि वह वाउल्टीई क़ौले ख़ुदा या क़ौले पैग़म्बर (स0) है और उसे अल्लाह तआला या पैग़म्बर (स0) से मंसूब करे और बाद में मालूम हो कि यह निसबत सही नही थी तो उस का रोज़ा बातिल नही होगा।


(1608) अगर रोज़े दार किसी चीज़ के बारे में यह जानते हुये कि झूट है उसे अल्लाह और रसूले अकरम (स.) से मंसूब करे और बाद में पता चले कि जो कुछ उस ने कहा था वह दुरुस्त था तो एहतियात की बिना पर ज़रूरी है कि रोज़े को तमाम करे और उस की क़ज़ा भी बजा लाये।


(1609) अगर रोज़े दार किसी ऐसे झूट को जो किसी रोज़े दार ने नही बल्कि किसी दूसरे ने घड़ा हो जान बूझ कर अल्लाह तआला या रसूले अकरम (स0) या आपके (बर हक़) जानशीनों से मंसूब कर दे तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर उस का रोज़ा बातिल हो जायेगा लेकिन अगर जिस ने झूठ घड़ा हो उसका क़ौल नक़्ल करे तो कोई हरज नही।


(1610) अगर रोज़े दार से सवाल किया जाये कि क् रसूले अकरम (स0) ने ऐसा फ़रमाया है और वह अमदन जहाँ जवाब नही देना चाहिए वहाँ जवाब दे और जहाँ इस्बात में देना चाहिये वहाँ अमदन नफ़ी में दे तो एहतियाते लाज़िम कि बिना पर उस का रोज़ा बातिल हो जाता है।


(1611) अगर कोई शख़्स अल्लाह तआला या रसूले करीम (स0) का क़ौल दुरूस्त नक़्ल करे और बाद में कहे कि मैं ने झूठ कहा है या रात को कोई झूठी बात उन से मंसूब करे और दूसरे दिन जबकि रोज़े से हो तो कहे कि जो मैं ने रात कहा था वह सही है उस का रोज़ा बातिल हो जाता है लेकिन अगर वह रिवायत के (सही या ग़लत होने के) बारे में बताये तो उस का रोज़ा बातिल हो जाता है।


(6) ग़ुबार को हलक़ तक पहुँचाना


(1612) एहतियात की बिना पर कसीफ़ ग़ुबार का हलक़ तक पहुचाना रोज़े को बातिल कर देता है चाहे ग़ुबार किसी ऐसी चीज़ का हो जिस का खाना हलाल हो मसलन आटा या किसी ऐसी चीज़ को हो जिस का खाना हराम हो मसलन मिट्टी।


(1613) अक़वा यह है कि ग़ैरे कसीफ़ ग़ुबार को हलक़ तक पहुँचाने से रोज़ा बातिल नही होता।


(1614) अगर हवा कि वजह से कसीफ़ ग़ुबार पैदा हो और इंसान मुतवज्जेह होने और एहतियात कर सकने के बावुजूद एहतियात न करे और ग़ुबार उस के हलक़ तक पहुँच जाये तो एहतियाते वाजिब की बिना पर उस का रोज़ा बातिल हो जाता है।


(1615) एहतियाते वाजिब यह है कि रोज़े दार सिगरेट और तम्बाकु वग़ैरा का धुआँ भी हलक़ तक न पहुँचाये।


(1616) अगर इंसान एहतियात न करे और ग़ुबार वग़ैरा हलक़ में चला जाये तो अगर उसे यक़ीन या इत्मिनान था कि यह चीज़ हलक़ तक न पहुचेंगीं तो उस का रोज़ा सही है लेकिन अगर उसे गुमान था कि यह हलक़ तक नहीं पहुँचेंगीं तो बेहतर यह है कि उस रोज़े की क़ज़ा बजा लाये।


(1617) अगर कोई शख़्स यह भूल जाने पर कि रोज़े से है एहतियात न करे या बेइख़्तियार ग़ुबार उस के हलक़ में पहुँच जाये तो उस का रोज़ा बातिल नही होता।


सर को पीनी में डुबोना-


(1618) अगर रोज़े दार जान बूझ कर सारा सर पानी में डुबो दे तो चाहे उस का बाक़ी बदन पानी से बाहर रहे मशहूर क़ौल की बिना पर उसका रोज़ा बातिल हो जाता है। लेकिन बईद नही कि ऐसा करना रोज़े को बातिल न करे। अगरचे ऐसा करने में शदीद कराहत है और मुमकिन हो तो इस से एहतियात करना बेहतर है।


(1619) अगर रोज़े दार अपने आधे सर को एक दफ़ा और बाक़ी सर को दूसरी दफ़ा पानी में डुबोये तो उस का रोज़ा सही होने में कोई इशकाल नही है।


(1620) अगर सारा सर पानी में डूब जाये तो चाहे कुछ बाल पानी से बाहर भी रह जायें तो उस का हुक्म भी मसअला (1618) की तरह है।


(1621) पानी के अलावा दूसरी सय्याल(द्रव) चीज़ों मसलन दूद्ध में सर डुबोने से रोज़े को कोई ज़रर नही पहुँचता और मुज़ाफ़ पानी में सर डुबो ले तो इस से उस के रोज़े में कोई इशकाल नही है।


(1623) अगर कोई रोज़े दार यह ख़याल करते हुए अपने आपको पनी में गिरा दे कि उस का सर पानी में नही डूबेगा लेकिन उसका सर पानी में डूब जाये तो उसके रोज़े में कोई इशकाल नहीं है।


(1624) अगर कोई शख़्स भूल जाये कि रोज़े से है और सर पानी में डुबो दे तो अगर पानी में डूबे हुये उसे याद कि रोज़े से है तो बेहतर यह है कि रोज़े दार फ़ौरन अपना सर पानी से बाहर निकाले और अगर न निकाले तो उसका रोज़ा बातिल नही होगा।


(1625) अगर कोई शख़्स रोज़े दार के सर को पानी में डुबो दे तो उस के रोज़े में कोई इशकाल नही है लेकिन जब कि वह अभी पानी में है दूसरा शख़्स अपना हाथ हटाले तो बेहतर है कि फ़ौरन अपना सर पानी से बाहर निकाल ले।


(1626) अगर रोज़े दार ग़ुस्ल की नियत से सर पानी में डुबो दे तो उस का रोज़ा और ग़ुस्ल दोनों सही हैं।


(1627) अगर कोई रोज़े दार किसी को डूबने से बचाने की ख़ातिर सर पानी में डूबो दे तो चाहे उस शख़्स को बचाना वाजिब ही क्यों न हो एहतियाते मुस्तहब यह है कि रोज़े की क़ज़ा बजा लाये।


(7) अज़ाने सुबह तक जनाबत, हैज़ व निफ़ास की हालत में रहना-


(1628) अगर जुनुब(सम्भोग किया हुआ) शख़्स माहे रमज़ान में जान बूझ कर अज़ाने सुबह तक ग़ुस्ल न करे तो उसका रोज़ा बातिल है और जिस शख़्स का वज़ीफ़ा तयम्मुम हो और वह जान बूझकर तयम्मुम न करे तो उसका रोज़ा भी बातिल है और माहे रमज़ान के क़ज़ा रोज़े का हुकम भी यही है।


(1629) अगर जुनुब शख़्स(सम्भोग किया हुआ)माहे रमज़ान के रोज़ों और उन की क़ज़ा के अलावा उन वाजिब रोज़ों में जिन का वक़्त माहे रमज़ान की तरह मुऐय्यन है जान बूझ कर अज़ाने सुबह तक ग़ुस्ल न करे तो अज़हर यह है कि उसका रोज़ा सही है।


(1630) अगर कोई शख़्स माहे रमज़ानुल मुबारक की किसी रात में जुनुब हो जाये तो अगर वह अमदन ग़ुस्ल न करे हत्ता कि वक़्त तंग हो जाये तो ज़रूरी है कि तयम्मुम करे और रोज़ा रखे और एहतियाते मुस्तहब यह है कि उस की क़ज़ा भी बजा लाये।


(1631) अगर शख़्स माहे रमज़ान में ग़ुस्ल करना भूल जाये और एक दिन के बाद याद आये तो ज़रूरी है कि उस दिन का रोज़ा क़ज़ा करे और अगर चंद दिनों के बाद याद आये तो इतने दिनों के रोज़ों की क़जा करे जितने दिनों के बारे में उसे यक़ीन हो कि वह जुनुब था। मसलन अगर उसे यह इल्म न हो कि तीन दिन जुनुब रहा या चार दिन तो ज़रूरी है कि तीन दिन के रोज़ों की कज़ा करे।


(1632) अगर एक ऐसा शख्स अपने को जुनुब कर ले जिस के पास माहे रमज़ान की रात में ग़ुस्ल और तयम्मुम में से किसी के लिए भी वक़्त न हो तो उस का रोज़ा बातिल है और उस पर क़ज़ा और कफ़्फारा दोनों वाजिब हैं।


(1633) अगर रोज़े दार यह जानने के लिए जुस्तुजू करे कि उस के पास वक़्त है या नही और गुमान करे कि उस के पास ग़ुस्ल के लिए वक़्त है और अपने आप को जुनुब कर ले और बाद में उसे पता चले कि वक़्त तंग था और तयम्मुम करे तो उस का रोज़ा सही है और अगर बग़ैर जुस्तुजू किये गुमान करे कि उस के पास वक़्त है और अपने आप को जुनुब कर ले और बाद में पता चले कि वक़्त तंग था और तयम्मुम कर के रोज़ा रखे तो एहतियाते मुस्तहब की बिना पर ज़रूरी है कि उस दिन के रोज़े की क़ज़ा करे।


(1634) जो शख़्स माहे रमज़ान की किसी रात में जुनुब हो और जानता हो कि अगर सो जायेगा तो सुबह तक बेदार न होगा उसे बग़ैर ग़ुस्ल किये नही सोना चाहिये और अगर वह ग़ुस्ल करने से पहले अपनी मर्ज़ी से सो जाये और सुबह तक बेदार न हो तो उस का रोज़ा बातिल है और उस पर क़ज़ा व कफ़्फ़ारा दोनों वाजिब हैं।


(1635) जब जुनुब माहे रमज़ान की रात में सो कर जाग उठे तो एहतियाते वाजिब यह है कि अगर वह बेदार होने के बारे में मुतमइन न हो तो गुस्ल से पहले न सो अगरचे इस बात का एहतेमाल हो कि अगर दोबारा सो गाया तो सुबह की अज़ान से पहले बेदार हो जायेगा।


(1636) अगर कोई शख़्स माहे रमज़ान की किसी रात में जुनुब हो और यक़ीन रखता हो कि अगर सो गया तो सुबह की अज़ान से पहले बेदार हो जायेगा और उस का मुसम्मम इरादा हो कि बेदार होने के बाद ग़ुस्ल करेगा और इस इरादे के साथ सो जाये और अज़ान तक सोता रहे तो उस का रोज़ा सही है। और अगर कोई शख्स सुबह की अज़ान से पहले बेदार होने के बारे में मुत्मइन हो तो उस के लिए भी यही हुक्म है।


(1637) अगर कोई शख्स माहे रमज़ान की रात में जुनुब हो और उसे इल्म हो या एहतेमाल हो कि अगर सो गया तो अज़ान से पहले बेदार हो जायेगा और वह इस बात से ग़ाफ़िल हो कि बेदार होने के बाद उस पर ग़ुस्ल करना ज़रूरी है तो इस सूरत में जब कि वह सो जाये और सुबह की अज़ान तक सोता रहे एहतियात की बिना पर उस पर क़ज़ा वाजिब हो जाती है।


(1638) अगर कोई शख्स माहे रमज़ान की किसी रात में जुनुब हो और उसे इस बात का यक़ीन या एहतेमाल हो कि अगर सो गया तो सुबह की अज़ान से पहले बेदार हो जायेगा और वह बेदार होने के बाद ग़ुस्ल न करना चाहता हो तो इस सूरत में जब कि वह सो जाये और बेदार न हो उस का रोज़ा बातिल है और क़ज़ा और कफ़्फ़ारा उस के लिए लाज़िम है। और इसी तरह अगर बेदार होने के बाद उसे तरद्दुद हो कि ग़ुस्ल करे या न करे तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर यही हुक्म है।


(1639) अगर जुनुब शख्स माहे रमज़ान की किसा रात में सो कर जाग उठे और उसे इस बात का यक़ीन या एहतेमाल हो कि अगर सो गया तो अज़ान से पहले बेदार हो जायेगा और वह मुसम्मम इरादा भी रखता हो कि बेदार होने के बाद ग़ुस्ल करेगा और दुबारा सो जाये और अज़ान तक बेदार न हो तो ज़रूरी है कि बतौरे सज़ा उस दिन का रोज़ा क़ज़ा करे। और अगर दूसरी नींद से बेदार हो जाये और तीसरी दफ़ा सो जाये और सुबह की अज़ान तक बेदार न हो तो ज़रूरी है कि उस दिन के रोज़े की क़ज़ा करे और एहतियात मुस्तहब की बिना पर कफ़्फ़ारा भी दे।


(1640) जब इंसान को नींद में एहतिलाम(स्वप्न दोष) हो जाये तो पहली दूसरी और तीसरी नींद से मुराद वह नींद है जो इंसान (एहतिलाम से) जागने के बाद सोये लेकिन वह नींद जिस में एहतिलाम हुआ पहली शुमार नही होती।


(1641) अगर किसी रोज़े दार को दिन में एहतिलाम हो जाये तो उस पर फ़ौरन ग़ुस्ल करना वाजिब नहीं।


(1642) अगर कोई शख्स माहे रमज़ान में सुबह की अज़ान के बाद जागे और यह देखे कि उसे एहतिलाम हो गया है तो अगरचे उसे मालूम हो कि यह एहतिलाम अज़ान से पहले हुआ है उस का रोज़ा सही है।


(1643) जो शख्स रमज़ानुल मुबारक का क़ज़ा रोज़ा रखना चाहता हो और सुबह की अज़ान तक जुनुब रहे तो अगर उस का इस हातल में रहना अमदन हो तो उस दिन का रोज़ा नहीं रख सकता और अगर अमदन न हो तो रोज़ा रख सकता है अगरचे एहतियात यह है कि रोज़ा न रखे।


(1644) जो शख्स रमज़ानुल मुबारक के क़ज़ा रोज़े रखना चाहता हो अगर वह सुबह की अज़ान के बाद बेदार हो और देखे कि उसे एहतिलाम हो गाया है और जानता हो कि यह एहतिलाम उसे सुबह की अज़ान से पहले हुआ है तो अक़वा की बिना पर उस दिन माहे रमज़ान के रोज़े की क़ज़ा की नियत से रोज़ा रख सकता है।


(1645) अगर माहे रमज़ान के रोज़ों के अलावा ऐसे वाजिव रोज़ों में कि जिन का वक़्त मुऐय्यन नहीं है मसलन कफ़्फ़ारे के रोज़े में कोई शख्स अमदन अज़ान सुबह तक जुनुब रहे तो अज़हर यह है कि उस का रोज़ा सही है लेकिन बेहतर है कि उस दिन के अलावा रोज़ा रखे।


(1646) अगर रमज़ान के रोज़ों में औरत सुबह की अज़ान से पहले हैज़ या निफ़ास से पाक हो जाये और अमदन ग़ुस्ल न करे या वक़्त तंग होने की सूरत में अगरचे उसके इख़्तियार में हो और रमज़ान का रोज़ा हो तयम्मुम न करे तो उस का रोज़ा बातिल है और एहतियात की बिना पर माहे रमज़ान के क़ज़ा रोज़े का भी यही हुक्म है (यह उस का रोज़ा बातिल है) और इन दोनो के अलावा दिगर सूरतों में बातिल नही अगरचे अहवत यह है कि ग़ुस्ल करे। माहे रमज़ान में जिस औरत की शरई ज़म्मेदारी हैज़ या निफ़ास के ग़ुस्ल के बदले तयम्मुम हो और इसी तरह एहतियात की बिना पर रमज़ान की क़ज़ा में अगर जान बूझ कर अज़ान सुबह से पहले तयम्मुम न करे तो उस का रोज़ा बातिल है।


(1647) अगर कोई औरत माहे रमज़ान में सुबह की अज़ान से पहले हैज़ या निफ़ास से पाक हो जाये और गुस्ल के लिए वक़्त न हो तो ज़रूरी है कि तयम्मुम करे और सुबह की अज़ान तक बेदार रहना ज़रूरी नही है। जिस जुनुब शख्स का वज़ीफ़ा तयम्मुम हो उस के लिए भी यही हुकम है।


(1648) अगर कोई औरत माहे रमज़ान में सुबह की अज़ान के नज़दीक हैज़ या निफ़ास से पाक हो जाये और गुस्ल या तयम्मुम किसी के लिए वक़्त बाक़ी न हो तो उस का रोज़ा सही है।


(1649) अगर कोई औरत सुबह की अज़ान के बाद हैज़ या निफ़ास के खून से पाक हो जाये या दिन में उसे हैज़ या निफ़ास का खून आ जाये तो अगरचे यह खून मग़रिब के क़रीब ही क्यों न आये उस का रोज़ा बातिल है।


(1650) अगर औरत हैज़ या निफ़ास का ग़ुस्ल करना भूल जाये और उसे एक दिन या कई दिन के बाद याद आये तो जो रोज़े उस ने रखे हैं वह सही हैं।


(1651) अगर औरत माहे रमज़ान में सुबह की अज़ान से पहले हैज़ या निफ़ास से पाक हो जाये और ग़ुस्ल करने में कोताही करे और सुबह की अज़ान तक ग़ुस्ल न करे और वक़्त तंग होने की सूरत में तयम्मुम भी न करे तो उस का रोज़ा बातिल है लेकिन अगर कोताही न करे मसलन मुनतज़िर हो कि ज़नाना हम्माम मयस्सर आ जाये चाहे उस मुद्दत में वह तीन दफ़ा सोये और सुबह की अज़ान तक ग़ुस्ल न करे और तयम्मुम करने में भी कोताही न करे तो उस का रोज़ा सही है।


(1652) जो औरत इस्तेहाज़ा-ए- कसीरा की हालत में हो अगर वह अपने ग़ुसलों को उस तफ़सील के साथ न बजा लाये जिस का ज़िक्र मसअला न.402 में किया गया है तो उस का रोज़ा सही है। ऐसे ही इस्तेहाज़ा-ए- मुतावस्सेता में अगरचे औरत गुस्ल न भी करे, उस का रोज़ा सही है।


(1653) जिस शख्स ने मय्यित को मस किया हो यानी बदन का कोई हिस्सा मय्यित के बदन से छूवा हो वह ग़ुस्ले मसे मय्यित के बग़ैर रोज़ा रख सकता है और अगर रोज़े की हातल में भी मय्यित को मस करे तो उस का रोज़ा बातिल नही होता।


हुक़ना लेना -


(1654) सय्याल (बहने वाली) चीज़ों से हुक़ना (इनेमा) अगरचे मज़बूरी की हालत में या इलाज की ग़रज़ से ही क्योँ न लिया जाये रोज़े को बातिल कर देता है।


उल्टी करना-


(1655) अगर रोज़े दार जान बूझ कर उल्टी करे चाहे बीमारी वग़ैरा की वजह से मजबूरन ही ऐसा क्योँ न करना पड़े उस का रोज़ा बातिल हो जाता है। लेकिन अगर सहवन(भूले से) या बे इख़्तियार हो कर उल्टी करे तो कोई हरज नही है।


(1656) अगर कोई शख्स रात को ऐसी चीज़ खा ले जिस के बारे में मालूम हो कि उस के खाने की वजह से दिन में बे इख्तियार उल्टी आयेगी तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि उस दिन का रोज़ा क़ज़ा करे।


(1657) अगर रोज़े दार उल्टी को रोक सकता हो और ऐसा करना उस के लिए नुक़्सान दे न हो तो बेहतर यह है कि वह उल्टी को रोके।


(1658) अगर रोज़े दार के हलक़ में मक्खी चली जाये और वह इतनी अन्दर चलू गई हो कि उस के नीचे ले जाने को निगलना कहा जाये तो ज़रूरी नहीं कि उसे बाहर निकाला जाये और उस का रोज़ा सही है। लेकिन अगर मक्खी काफ़ी हद तक अन्दर न गई हो तो ज़रूरी है कि बाहर निकाले अगरचे उसे उल्टी करके ही निकालना पड़े मगर यह कि उल्टी करने में रोज़े दार को ज़रर व शदीद तकलीफ़ न हो। और अगर वह उल्टी न करे और उसे निगल ले तो उस का रोज़ा बातिल हो जायेगा।


(1659) अगर रोज़े दार सहवन (भूले से) कोई चीज़ निगल ले और उसके पेट में पहुँचने से पहले उसे याद आ जाये कि रोज़े से है तो उस चीज़ का निकालना लाज़िम नहीं और उस का रोज़ा सही है।


(1660) अगर किसी रोज़े दार को यक़ीन हो कि डकार लेने की वजह से कोई चीज़ उस के हलक़ से बाहर आ जायेगी तो एहतियात की बिना पर उसे जान बूझ कर डकार नही लेनी चाहिए लेकिन अगर उसे ऐसा यक़ीन न हो तो कोई हरज नही है।


(1661) अगर रोज़े दार डकार ले और कोई चीज़ उस के हलक़ या मुंह में आ जाये तो ज़रूरी है कि उसे उगल दे और अगर वह चीज़ बेइख़्तियार पेट में चली जाये तो उसका रोज़ा सही है।


उन चीज़ों के अहकाम जो रोज़े को बातिल करती हैं-


(1662) अगर इंसान जान बूझ कर और इखतियार के साथ कोई ऐसा काम करे जो रोज़े को बातलि करता हो, तो उस का रोज़ा बातिल हो जाता है। अगर कोई ऐसा काम जान बूझ कर न करे तो फिर इशकाल नही लेकिन अगर जुनुब सो जाये और उस तफ़सील के मुताबिक़ जो मसअला न0 1639 में बयान की गयी है सुबह की अज़ान तक ग़ुस्ल न करे तो उस का रोज़ा बातिल है। चुनाचे अगर इंसान न जानता हो कि जो बातें बतायी गयी हैं उन में से कुछ रोज़े को बातिल करती हैं यानी जाहिल क़ासिर हो और इंकार भी न करता हो (दूसरे शब्दों में मुक़स्सिर न हो) या यह कि शरई हुज्जत पर एतेमाद रखता हो और खाने पीने और जिमाअ के अलावा उन कामों में से किसी काम को अंजाम दे तो उस का रोज़ा बातिल नही होगा।


(1663) अगर रोज़े दार सहवन(भूले से) कोई ऐसा काम करे जो रोज़े को बातिल करता हो और इस गुमान से कि उस का रोज़ा बातिल हो गया है दुबारा अमदन कोई ऐसा ही काम करे तो उस का रोज़ा बातिल हो जाता है।


(1664) अगर कोई चीज़ ज़बर दस्ती रोज़े दार के हलक़ में उंडेल दी जाये तो उस का रोज़ा बातिल नही होता। लेकिन अगर उसे मजबूर किया जाये मसलन उसे कहा जाये कि अगर तुम ग़िज़ा खाओ तो हम तुम्हें माली या जानी नुक़्सान पहुँचायेंगें और नुक़्सान से बचने के लिए अपने आप कुछ खाले तो उस का रोज़ा बातिल हो जायेगा।


(1665) रोज़े दार को ऐसी जगह नही जाना चाहिए जिस के बारे में वह जानता हो कि लोग कोई चीज़ उस के हलक़ में डाल देंगें या उसे रोज़ा तोड़ने पर मजबूर करेंगें और अगर ऐसी जगह जाये या मजबूरी की वजह से वह खुद कोई ऐसा काम करे जो रोज़े को बातिल करता हो तो उस का रोज़ा बातिल हो जाता है। और अगर कोई चीज़ उस के हलक़ में उंडेल दें तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर यही हुक्म है।


वह चीज़ें जो रोज़ेदार के लिए मकरूह हैं


(1666) रोज़े दार के लिए कुछ चीज़ें मकरूह हैं जिन में से बाज़ यह हैं-


(1) आँख में दवा डालना और सुरमा लागाना जब कि उस का मज़ा या बू हलक़ मेंपहुँचे।


(2) हर ऐसा काम करना जो कि कमज़ोरी का बाइस हो मसलन फ़स्द खुलवाना और हम्मामजाना।


(3) (नाक से) निसवार खींचना इस शर्त के साथ कि यह इल्म न हो कि हलक़ तकपहुँचेगी और अगर यह इल्म हो कि हलक तक पहुँचेगी तो उस का इस्तेमाल जायज़ नहीं है।


(4) ख़ुशबूदार जड़ी बूटियां सूंघना।


(5) औरत का पानी में बैठना।


(6) शियाफ़ इस्तेमाल करना यानी किसी ख़ुश्क चीज़ से इनेमा लेना।


(7) जो लिबास पहन रखा हो उसे तर करना।


(8) दाँत निकलवाना और हर वह काम करना जिस की वजह से मुँह से खून निकले।


(9) तर लकड़ी से मिसवाक करना।


(10) बिलावजह पानी या कोई और सय्याल(द्रव) चीज़ मुँह में डालना।


और यह भी मकरूह है कि मनी के क़स्द के बग़ैर इंसान अपनी बीवी का बोसा ले याकोई शहवत अंगेज़ काम करे और अगर ऐसा काम करना मनी निकालेने के क़स्द से हो और मनी ननिकले तो एहतियाते लाज़िम की बिना पर रोज़ा बातिल हो जाता है।


ऐसी हालतें जिन में रोज़े की क़ज़ा और कफ़्फ़ारा दोनों वाजिब हो जाते हैं-

(1667) अगर कोई शख्स माहे रमज़ान के रोज़े को खाने, पीने या हमबिस्तरी या इस्तिमना या जनाबत पर बाक़ी रहने की वजह से बातिल करे जब कि यह काम मजबूरी या नाचारी की बिना पर न हो बल्कि वह अमादन और अख़्तियारन ऐसा करे तो उस पर क़ज़ा के अलावा कफ़्फ़ारा भी वाजिब होगा और जो कोई मुताज़क्किरा उमूर(वर्णित कार्यों) के अलावा किसी और तरीक़े से रोज़े को बातिल करे तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि वह क़ज़ा के अलावा कफ़्फ़ारा भी दे।

(1668) जिन कामों का ज़िक्र किया गया है अगर कोई उन में से किसी काम को अंजाम दे जब कि उसे पक्का यक़ीन हो कि इस काम से उस का रोज़ा बातिल नही होगा तो उस पर कफ़्फ़ारा वाजिब नहीं है।

रोज़े का कफ़्फ़ारा

(1669) माहे रमज़ान का रोज़ा तोड़ने के कफ़्फ़ारे के तौर पर ज़रूरी है कि इंसान एक ग़ुलाम आज़ाद करे या उन अहकाम के मुताबिक़ जो आइंदा मसअले में बयान किये जायेंगें दो महीने रोज़ा रखे या साठ फ़क़ीरों को पेट भर कर खाना खिलाये या हर फ़क़ीर को एक मुद ¾ किलो तआम यानी गेहूँ या जौ या रोटी वग़ैरा दे और अगर यह काम करना उस के लिए मुमकिन न हो तो जहाँ तक मुमकिन हो सदक़ा देना ज़रूरी है और अगर यह भी मुमकिन न हो तो तौबा व असतग़फ़ार करे और एहतियाते वाजिब यह है कि जिस वक़्त (कफ़्फ़ारा देने के) क़ाबिल हो जाये कफ़्फ़ारा दे।


(1670) जो शख्स माहे रमज़ान को रोज़े के कफ़्फ़ारे के तौर पर दो माह रोज़े रखना चाहे तो ज़रूरी है कि एक पूरा महीना और उस से अगले महीने के एक दिन तक मुसलसल रोज़े रखे और अगर बाक़ी रोज़े मुसलसल न भी रखे तो कोई इशकाल नही है।


(1671) जो शख्स माहे रमज़ान के रोज़े के कफ़्फ़ारे के तौर पर दो माह रोज़े रखना चाहे ज़रूरी है कि वह रोज़े ऐसे वक़्त न रखे जिस के बारे में वह जानता हो कि एक महीने और एक दिन को दरमियान ईदे क़ुरबान की तरह कोई ऐसी दिन आ जायेगा जिस का रोज़ा रखना हराम है।


(1672) जिस शख्स को मुसलसल रोज़े रखने ज़रूरी हैं अगर वह उन के बीच में एक दिन रोज़ा न रखे तो ज़रूरी है कि दुबारा अज़ सरे नौ (शुरू से)रोज़े रखे।


(1673) अगर इन दिनों के दरमियान जिन में मुसलसल रोज़े रखने ज़रूरी हैं रोज़े दार को कोई ग़ैर इख़्तियारी उज़्र पेश आ जाये मसलन हैज़ या निफ़ास या ऐसा सफ़र इख़्तियार करने पर मज़बूर हो तो उज़्र के दूर होने के बाद रोज़ों का अज़ सरे नौ रखना उस के लिए वाजिब नही बल्कि वह उज़्र दूर होने के बाद बाक़ी रोज़े रखे।


(1674) अगर कोइ शख्स हराम चीज़ से अपना रोज़ा बातिल कर दे चाहे वह चीज़ बज़ाते खुद हराम हो जैसे शराब और ज़िना या किसी वजह से हराम हो जाये जैसे कि हलाल ग़िज़ा जिस का खाना इंसान के लिए बिल उमूम मुज़िर्र(हानी कारक) हो या वह अपनी बीवी से हालते हैज़ में मुजामेअत(समभोग) करे तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि मजमूअन कफ़्फ़ारा दे। यानि उसे चाहिये कि एक ग़ुलाम आज़ाद करे और दो महीने रोज़े रखे और साठ फ़क़ीरों को पेट भर कर खाना खिलाये या उन में से हर फ़क़ीर को एक मुद गेहूँ या जौ या रोटी दे और अगर यह तीनों चीज़ें उस के लिए मुमकिन न हों तो उन में से जो कफ़्फ़ारा मुमकिन हो दे।


(1675) अगर रोज़े दार जान बूझ कर अल्लाह तआला या नबी-ए- अकरम (स0) से कोई झूठी बात मंसूब करे तो मुस्तहब है यह है कि मजमूअन कफ़्फ़ारा दे जिस की तफ़सील गुज़िशता मसअले में ब्यान की गयी है।


(1676) अगर रोज़े दार माहे रमज़ान के एक दिन में कई दफ़ा जिमाअ(सम्भोग) या इस्तिमना(किसी भी प्रकार से अपना वीर्य निकालना) करे तो उस पर एक कफ़्फ़ारा वाजिब है लेकिन एहतियाते मुस्तहब यह है कि हर दफ़ा के लिए एक एक कफ़फ़ारा दे।


(1677)अगर रोज़े दार माहे रमज़ान के एक दिन में जिमाअ या इस्तिमना के अलावा कई बार कोई दूसरा ऐसा काम करे जो रोज़े को बातिल कर देता है तो इन सब के लिए बिला इशकाल एक कफ़्फ़ारा काफ़ी है।


(1678) अगर रोज़े दार जिमाअ के अलावा कोई दूसरा ऐसा काम करे जो रोज़े को बातिल करता हो और फ़िर अपनी ज़ौजा(बीवी) से मुजामेअत(सम्भोग) करे तो दोनों को लिए एक कफ़्फ़ारा काफ़ी है।


(1679) अगर रोज़े दार कोई ऐसा काम करे जो हलाल तो हो लेकिन रोज़े को बातिल करता हो मसलन पानी पी ले और उस के बाद कोई दूसरा ऐसा काम करे जो हराम हो और रोज़े को बातिल भी करता हो मसलन हराम ग़िज़ा खाले तो एक कफ़्फ़ारा काफ़ी है।


(1680) अगर रोज़े दार डकार ले और कोई चीज़ उस के मुँह में आ जाये तो अगर वह उसे जान बूझ कर निगल ले तो उस का रोज़ा बातिल है। और ज़रूरी है कि उस की क़ज़ा भी करे और कफ़्फ़ारा भी दे। और अगर उस चीज़ का खाना हराम हो मसलन डकार लेते वक़्त खून या कोई ऐसी चीज़ जिसे ग़िज़ा न कहा जा सके उस के मुंह में आ जाये और वह उसे जान बूझ कर निगल ले तो ज़रूरी है कि उस रोज़े की क़ज़ा बजा लाये और एहतियाते मुस्तहब कि बिना पर मजमूअन कफ़्फ़ारा भी दे।


(1681) अगर कोई रोज़े दार मन्नत माने कि एक खास दिन रोज़ा रखेगा तो अगर वह उस दिन जाब बूझ कर अपने रोज़े को बातिल कर ले तो ज़रूरी है कि कफ़्फ़ारा दे और उस का कफ़्फ़ारा वही है जो कि मन्नत तोड़ने का कफ़्फ़ारा है।


(1682) अगर रोज़े दार ग़ैरे क़ाबिले एतेमाद शख्स के यह कहने पर कि मग़रिब का वक़्त हो गया है रोज़ा अफ़तार कर ले और बाद में पता चले कि मग़रिब का वक़्त नही हुआ या शक करे कि मग़रिब का वक़्त हुआ है या नही तो उस पर क़ज़ा और कफ़्फ़ारा दोनों वाजिब हो जाते हैं।


(1683) जो शख्स जान बूझ कर अपना रोज़ा बातिल कर ले और अगर वह ज़ोहर के बाद सफ़र करे या कफ़्फ़रे से बचने के लिए ज़ोहर से पहले सफ़र करे तो उस पर कफ़्फ़ारा साक़ित नही होता बल्कि अगर ज़ोहर से पहले इत्तेफ़ाक़न उसे सफ़र करना पड़े तब भी कफ़्फ़ारा उस पर वाजिब है।


(1684) अगर कोई शख्स जान बूझ कर अपना रोज़ा तोड़ दे और उस के बाद कोई उज़्र पैदा हो जाये मसलन हैज़ या निफ़ास या बीमारी मे मुबतिला हो जाये तो एहतियाते मुस्तहब यह है कि कफ़्फ़ारा दे।


(1685) अगर किसी शख्स को यक़ीन हो कि आज माहे रमज़ानुल मुबारक की पहली तारीख है और वह जान बूझ कर रोज़ा तोड़ दे लेकिन बाद में उसे पता चले कि शाबान की आख़री तारीख है तो उस पर कफ़्फ़ारा वाजिब नही है।


(1686) अगर किसा शख्स को शक हो कि आज रमज़ान की आख़री तारीख़ है या शव्वाल की पहली तारीख़ और वह जान बूझ कर रोज़ा तोड़ दे और बाद में पता चले कि पहली शव्वाल है तो उस पर कफ़्फ़ारा वाजिब नही है।


(1687) अगर रोज़े दार माहे रमज़ान में अपनी रोज़े दार बीवी से जिमाअ(समभेग) करे तो अगर उस ने बीवी को मज़बूर किया हो तो अपने रोज़े का कफ़्फ़ारा दे और एहतियात की बीना पर ज़रूरी है कि बीवी के रोज़े का भी कफ़्फ़ारा दे और अगर बीवी जिमाअ पर राज़ी हो तो हर एक पर एक एक कफ़्फ़ारा वाजिब हो जाता है।


(1689) अगर रोज़े दार माहे रमज़ान में अपनी बीवी को जिमाअ पर मजबूर करे और जिमाअ के दौरान औरत भी जिमाअ पर राज़ी हो जाये तो एहतियाते वाजिब की बिना पर ज़रूरी है कि मर्द दो कफ़्फ़ारे दे और औरत एक कफ़्फ़ारा दे।


(1690) अगर रोज़े दार माहे रमज़ानुल मुबारक में अपनी रोज़े दार बीवी से जो सो रही हो जिमाअ करे तो उस पर एक कफ़्फ़ारा वाजिब होता है और औरत का रोज़ा सही है और उस पर कफ़्फ़ारा भी नही वाजिब नही है।


(1691) अगर शौहर (पति) अपनी बीवी को या बीवी अपने शौहर को जिमाअ के अलावा कोई ऐसा काम करने पर मजबूर करे जिस से रोज़ा बातिल हो जाता है तो उन दोनों में से किसी पर भी कफ़्फारा वाजिब नही है।


(1692) जो आदमी सफ़र या बीमारी की वजह से रोज़ा न रखे वह अपनी रोज़े दार बीवी को जिमाअ पर मजबूर नही कर सकता लेकिन अगर मजबूर करे तब भी मर्द पर कफ़्फ़ारा वाजिब नही।


(1693) ज़रूरी है कि इंसान कफ़्फ़ारा देने में कोताही न करे लेकिन फ़ौरन देना भी ज़रूरी नही है।


(1694) अगर किसी शख्स पर कफ़्फ़ारा वाजिब हो और वह कई साल तक न दो तो कफ़्फ़ारे में कोई इज़ाफ़ा नही होता।


(1695) जिस शख्स को कफ़्फ़ारा के तौर पर एक दिन साठ फ़क़ीरों को खाना खिलाना ज़रूरी हो अगर साठ फ़क़ीर मौजूद हों तो वह एक फ़क़ीर को एक मुद से ज़्यादा खाना नही दे सकता या एक फ़क़ीर को एक से ज़्यादा बार पेट भर कर खिलाये और उसे अपने कफ़्फ़ारे में ज़्यादा अफ़राद को खाना खिलाना शुमार करे अलबत्ता वह फ़क़ीर के अहलो अयाल में से हर एक को एक मुद दे सकता है चाहे वह छोटे छोटे ही क्यों न हों।


(1696) जो शख्स माहे रमज़ानुल मुबारक की क़ज़ा करे अगर वह ज़ोहर के बाद जान बूझ कर कोई ऐसा काम करे जो रोज़े को बातिल करता हो तो ज़रूरी है कि दस फ़क़ीरों को अलग अलग एक मुद खाना दे और अगर न दे सकता हो तो तीन रोज़े रखे।