मुस्तहब रोज़े

हराम और मकरूह रोज़ों के अलावा जिन का ज़िक्र किया जा चुका है साल के तमाम दिनों के रोज़े मुस्तहब है और बाज़ दिनों के रोज़े रखने की बहुत ताकीद की गई है जिन में से चंद यह हैः


(1) हर महीने की पहली और आख़री जुमेरात और पहला बुध जो महीने कीदसवीं तारीख़ के बाद आये। और अगर कोई शख्स यह रोज़े न रखे तो मुस्तहब है कि उन कीकज़ा करे और रोज़ा बिल्कुल न रख सकता हो तो मुस्तहब है कि हर दिन के बदले एक मुदतआम या 12/6 नुख़ुद सिक्केदार चाँदी फ़क़ीर को दे।


(2) हर महीने की तेरहवीं, चौदहवीं और पंद्रहवीं तारीख़।


(3) रजब और शाबान के पूरे महीने के रोज़े। या उन दो महीनों में जितने रोज़ेरख सकें चाहे वह एक दिन ही क्यों न हो।


(4) ईदे नौ रोज़ के दिन।


(5) शव्वाल की चौथी से नवीं तारीख तक।


(6) ज़ीक़ादा की पच्चीसवीं और इक्कीसवीं तारीख़।


(7) ज़ीक़ादा की पहली तारीख से नवीं तारीख़ (यौमे अरफ़ा) तक लेकिन अगर इंसानरोज़े की वजह से बेदार होने वाली कमज़ोरी की बिना पर यौमे अरफ़ा की दुआयें न पढ़सके तो उस दिन का रोज़ा मकरूह है।


(8) ईदे सईदे ग़दीर के दिन (18 ज़िलहिज्जा)


(9) रोज़े मुबाहिला (24 ज़िलहिज्जा)


(10) मुहर्रामुल हराम की पहली, तीसरी और सातवीं तारीख़।


(11) रसूसले अकरम (स0) की विलादत का दिन (17 रबी-उल-अव्वल)


(12) जमादीयुल अव्वल की पंद्रहवी तारीख़।


और ईदे बेसत यानी रसूले अकरम (स0) के ऐलाने रिसालत के दिन (27 रजब) को भीरोज़ा रखना मुस्तहब है। और जो शख्स मुस्तहब रोज़ा रखे उस के लिए वाजिब नहीं है किउसे इख़्तिताम तक ही पहुँचाये बल्कि अगर उस का काई मोमिन भाई उसे खाने की दावत देतो मुस्तहब है कि उस की दावत क़बूल कर ले और दिन में ही रोज़ा खोल ले चाहे ज़ोहर केबाद ही क्यों न हो।


वह सूरतें जिन में मुबतिलाते रोज़ा से परहेज़ मुसतहब है-


(1758) नीचे लिखे पाँच अशख़ास के लिए मुस्तहब है कि अगरचे रोज़े से न हों माहे रमज़ानुल मुबारक में उन कामों से परहेज़ करें जो रोज़े को बातिल करते है।


(1) वह मुसाफ़िर जिस ने सफ़र में कोई ऐसा काम किया हो जो रोज़े को बातिलकरता हो और वह ज़ोहर से पहले अपने वतन या ऐसी जगह पहुँच जाये जहाँ वह दस दिन रहनाचाहता है ।


(2) वह मुसाफ़िर जो ज़ोहर के बाद अपने वतन या ऐसी जगह पहुँच जाये जहाँ वह दसदिन रहना चाहता हो। और इसी तरह अगर ज़ोहर से पहले उन जगहों पर पहुँच जाये जब कि वहसफ़र में रोज़ा तोड़ चुका हो तब भी यही हुक्म है।


(3) वह मरीज़ जो ज़ोहर के बाद तंदुरूस्त हो जाये। और यही हुक्म है अगर ज़ोहरसे पहले तंदुरूस्त हो जाये अगरचे उस ने कोई ऐसा काम (भी) किया हो रोज़े को बातिल करदेता हो। और इसी तरह अगर ऐसा काम न किया हो तो उस का हुक्म मस्अला न0 1576 मेंगुज़र जुका है।


(4) वह औरत जो दिन में हैज़ या निफ़ास के ख़ून से पाक हो जाये।


(1759) रोज़े दार के लिए मुस्तहब है कि रोज़ा अफ़तार करने से पहले मग़रिब और इशा की नमाज़ पढ़े। लेकिन अगर कोई दूसरा शख्स उस का इंतिज़ार कर रहा हो या उसे इतनी भूक लगी हो कि हुज़ूरे क़ल्ब के साथ नमाज़ न पढ़ सकता हो तो बेहतर है कि पहले रोज़ा अफ़तार करे। लेकिन ज़हाँ तक मुमकिन हो नमाज़ फ़ज़ीलत के वक़्त में ही अदा करे।