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पैगम्बरों की पवित्रता

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इस बारे में कि पैगम्बर किस सीमा तक पापों से दूर हैं, मुसलमानें के विभिन्न समुदायों के मध्य मतभेद हैः
बारह इमामों को मानने वाले शिओं का मानना है कि पैगम्बर अर्थात र्इश्वरीय दूत,जन्म से मृत्यु तक छोटे बड़े हर प्रकार के पापो से पवित्र होता है बल्कि गलत व भूल से भी वह पाप नही कर सकता।

किंतु कुछ अन्य गुट,पैगम्बरों को केवल, बडे पापों से ही पवित्र मानते है और कुछ लोगों का मानना है कि युवा होने के बाद वे पापों से पवित्र होते है और अन्य का मानना है कि जब उन्हे औपचारिक रुप से पैगम्बरी दी जाती है तब और कुछ अन्य लोग इस प्रकार की पवित्रता का ही इन्कार करते है और यह मानते है कि र्इश्वरीय दूतों से भी पाप हो सकता है यहाँ तक कि वह जानबूझकर भी पाप कर सकते हैं। पैगम्बरों की पापों से दूरी के विषय को प्रमाणित करने से पहले कुछ बातो की ओर संकेत करना उचित होगा

पहली बात तो यह कि पैगम्बरों या कुछ लोगों के पवित्र होने का आशय, केवल पाप न करना ही नही है क्योकि संभव है, एक साधारण व्यक्ति भी पाप न करे विशेषकर उस स्थिति में जब उस की आयु छोटी हो। बल्कि इस का अर्थ यह है कि उन मे ऐसी शक्ति हो कि कठिन से कठिन परिस्थितियों मे भी उन्हे पापों से रोके, एक ऐसी शक्ति जो पापो कि बुरार्इ के प्रति पूर्ण ज्ञान और आंतरिक इच्छाओं पर नियंत्रण के लिए सुदृढ इरादे द्वारा प्राप्त होती है। और चूँकि इस प्रकार कि शक्ति र्इश्वर की विशेष कृपा द्वारा प्राप्त होती है इस लिए उसे र्इश्वर से संबंधित बताया जाता है।
किंतु ऐसा नही है कि र्इश्वर, पापों से पवित्र लोगों को, बलपूर्वक पापों से दुर रखता है और उससे अधिकार व चयन शक्ति छीन लेता है। बल्कि पैगम्बरों और इमामों की पापों से पवित्रता का अर्थ यह होता है कि र्इश्वर ने उनकी पवित्रता की ज़मानत ली है।


दूसरी बात यह कि किसी भी व्यक्ति के पापों के पवित्र होने का अर्थ, उन कामों का छोडना है जिन का करना इस के लिए वर्जित हो जैसे वह पाप जिन का करना सभी धर्म मे गलत समझा जाता है और वह काम उसके धर्म मे वर्जित हो।इस आधार पर किसी पैगम्बर की पवित्रता वह काम करने से जो स्वंय उसके धर्म मे वैध हो और उससे पूर्व के र्इश्वरीय धर्म के वर्जित हो, या बाद मे वर्जित हो जाए, भगं नही होती।


तीसरी बात यह कि पाप, जिससे पवित्र व्यक्ति दूर होता है, उस काम को कहते है जिसे इस्लामी शिक्षाओं मे हराम कहा जाता है और इसी प्रकार पाप उन कामों के न करने को भी कहा जाता है और जिन का करना आवश्यक हो और जिसे इस्लामी शिक्षाओं मे वाजिब कहा जाता है। किंतु पाप के अतिरिक्त अवज्ञा व बुरार्इ आदि के जो शब्द है उनके अर्थ अधिक व्यापक होते है और उनमे श्रेष्ठ कार्य को छोडना भी होता है और इस प्रकार के काम पवित्रता को भंग नही करते ।।।।          
 

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