बिरादरीवाद बिदअते बद

आए दिन हम किसी न किसी मज़हबी रस्म को उलोमा की ज़बानी बिदअत की फ़हरिस्त में शामिल होते देखते हैं, उलोमा की इस्तलाह में जो काम हुज़ूर सरकारे रिसालत (स0) के ज़माने में न हुआ हो उसको राइज करना या अनजाम देना बिदअत कहलाता है।

बिदअत की दो कि़स्में बयान की जाती हैं: 1- बिदअते बद 2- बिदअते ख़ूब (हसना),

बिदअते बद वो है जो इस्लामी तालीमात के खि़लाफ़ हो और इस से मुसिलम समाज को नुक़सान भी पहुँचता हो और बिदअते हसना वो बिदअत है जो ऐसी न हो यानी न तालीमाते इस्लामी के खि़लाफ़ हो और न इस से समाज को नुक़सान पहुँचने का ख़तरा हो, हालाँके मज़हबे अहलेबैत (अ0) में बिदअत, बिदअत है अच्छी (हसना) नहीं होती, मगर जब उलेमा हज़रात छोटी छोटी बातों को बिदअत कहते हैं तो ये वाज़ेह नहीं करते कि ये बिदअते बद हैं या बिदअते हसना? जिस से अवाम को ये मुग़ालता (कन्फ़्यूज़न) हो जाता है और फि़र इस्लाम मुख़ालिफ़ मीडिया इसी कन्फ़्यूज़न को बनामे इस्लाम पूरी दुनिया में नशर कर डालती है जिस से ग़ैर मुस्लिमो में ग़लत पैग़ाम पहुँचता है, मिसाल के तौर पर डबल बैड के इस्तेमाल को बिदअत कहा गया और मीडिया ने इसे ख़ूब उछाला और मुसलमानों को बदनाम किया, या नवासाए रसूल (स0) इमाम हुसैन (अ0) और उनके रिशते नाते नाते वालों की दिलसोज़ शहादत और मसाइब पर रोने को बिदअत कहा गया, जबकि डबल बैड को तो हम कह सकते हैं कि हुज़ूर (स0) के ज़माने में राइज नहीं था इस लिए बिदअत कह दिया होगा अलबत्ता ये भी बिदअत नहीं है, लेकिन इमाम हुसैन (अ0) की शहादत पर आँसू बहाना किस तरह बिदअत हो सकता है!

इमाम हुसैन (अ0) की पेशगी ख़बरे शहादत सुन कर तो हुज़ूर (अ0) ने ख़ुद गिरया फ़रमाया था और वो अमल जो हुज़ूर (स0) ने अंजाम दिया हो बिदअत नहीं बलकि सुन्नत होता है, मौलाना अब्दुल ग़नी तारिक़ साहब ने हुज़ूर (स0) के 39 गिरयों को जमा किया है और इस किताब का नाम ‘‘रसूले अकरम के आँसू ‘‘ रखा है, इस किताब पर मौलाना नेमतुल्लाह साहब आज़मी मुहद्दिस दारुलउलूम देवबंद ने तक़रीज़ लिखी है और ज़मज़म बुक डिपो देवबंद ने इसको शाया किया है, इस किताब में तक़रीबन 12 मौक़े ऐसे जि़क्र किए है जब हुज़ूर (स0) ने अपने किसी अज़ीज़ या सहाबी की शहादत या मौत की ख़बर सुन कर गिरया फ़रमाया और आँसू बहाए, बहरहाल मज़हबी रुसूमात की एक लंबी फ़हरिस्त है जिनको बाज़ उलोमा ने बिदअत कहा है जबकि इन रुसूमात से समाज को कोई नुक़सान भी नहीं पहुँचता बस दलील ये दी जाती है कि ये रुसूमात हुज़ूर सरकारे रिसालत (स0) के ज़माने में अंजाम नहीं दी जाती थीं इस लिए बिदअत हैं, अगर बिदअत का यही पैमाना है तो कम से कम बर्रे सग़ीर के मुसलमान एक ऐसी बिदअत में ज़रुर मुबतला हैं जो इस्लामी तालीमात के मनाफ़ी होने के साथ साथ इस्लामी समाज को तबाह व बरबाद किए हुए है और वो है उम्मते मुसलमा की फि़रक़ों और ज़ात बिादरीयों में तक़सीम!

दरहक़ीक़त हिन्दुस्तानी मुसलमानों में बिरादरीवाद हिन्दू कलचर से दाखि़ल हुआ और सियासी पार्टियों ने इसे परवान चढ़ाया, मुसलमानों में दसयों फि़रक़े और दर्जनों ज़ात बिरादरियां बाक़ी रहना ही सियासी पार्टियों के मफ़ाद में है,  हर सियासी पार्टी किसी न किसी फि़रक़े या ज़ात बिरादरी से किसी न किसी फ़आल शख़्स का इंतेख़ाब करके उसे उस की बिरादरी का चौधरी बनवा देती है और फिर चुनाव में इस का सिला उस बिरादरी के वोट की शक्ल में पाती है।

 हिन्दुस्तान में जितनी भी ज़ात ब्रादरियां हैं उनकी अपनी अपनी अंजुमनें और कमेटियों हैं जिन को किसी न किसी सियासी पार्टी का आशिर्वाद हासिल होता है, अकसर व बेशतर ये अंजुमनें और कमेटियां अपनी अपनी ज़ात बिरादरी की तरक़्क़ी के लिए एहतेजाज करने में धन दौलत भी ख़र्च करती है, उम्मते मुसलेमा की तरक़्क़ी की बात कोई नहीं करता, मुसलिम ज़ात ब्रादरियों के कितने है कनवेनशन, सेमिनार, कानफ़रंसें सालाना होती हैं जिस में हर बिरादरी अपने आप को पिछड़ा हुआ साबित करने की भरपूर कोशिश करती है और ऐसा करके बरसरे इक़तदार पार्टी को अपनी ताक़त का एहसास कराना और थोड़ी सी रियायतें हासिल करना इनका मक़सद होता है जबकि एऐसा करने से उम्मत की ताक़त का शीराज़ा बिखर जाता है और उम्मत की ताक़त रेज़ा रेज़ा हो जाती है मगर उम्मत के पिछड़ेपन और तरक़्क़ी की दौड़ में पीछे रह जाने पर ग़ौर व फि़कर भी नहीं होता, जब कोई सियासी पार्टी कोई प्रोग्राम करती है तो उसमें ब्रादरियों को ही नुमाइंदगी दी जाती है उम्मत को नहीं, हुकूमत अगर इत्तफ़ाक़ से मुसलमानो के हुक़ूक़ की बात करती है तो उस पर भी बिरादरीवाद ही छाया रहता है।

हुज़ूरे अकरम (स0) के ज़माने में भी मुसलमान इन तमाम पेशों से वाबसता थे जिनके नाम पर आज ब्रादरियां वजूद में लाई गई हैं लेकिन न कोई धोबी था न तेली, न बुनकर था न रंगरेज़, न सैफ़ी था न सलमानी,  न राईनी था न क़ुरैशी, न कुम्हार था न मनिहार, न घोंसी था न सक़्क़ा, थे तो सिर्फ़ मुसलमान थे,।

उलोमा के ज़रिए की गई बिदअत की मज़कूरा तारीफ़ की रौशनी में बिरादरीवाद बिदअते बद क़रार पाता है क्योकि बिरादरीवाद हुज़ूरे अकरम (स0) के ज़माने में नहीं था और ये मुस्लिम समाज के लिए बेहद ख़तरनाक भी है, हुज़ूरे अकरम (स0) ने हबश के एक ऐसे काले को गुलदसताए अज़ान पर खड़ा करके इज़्ज़त बख़शी जिसका मुक़ददर ही ग़ुलामी बन गया था, लेकिन हमारे यहाँ जो जिस पेशे से वाबसता हो गया उसी के एतबार से इज़्ज़त व जि़ल्लत का हक़दार क़रार दे दिया गया! क्या ये फि़क्र इस्लामी तालीमात के खि़लाफ़ नहीं है? क्या इस फि़क्र से भारत के मुसलिम समाज को नुक़सान नहीं पहुँच रहा है ? अगर ये फि़क्र इस्लामी तालीमात के खि़लाफ़ है और इससे भारत में इस्लामी समाज को नुक़सान पहुँच रहा है तो इस फि़क्र को बिदअते बद में शुमार क्यों नहीं किया जाता?

याद रखिए ! अगर पेशा हराम काम नहीं है तो जि़ल्लत का सबब नहीं हो सकता, बल्कि जो चीज़ इंसान को ज़लील करती है वो उसके स्याह आमाल होते हैं ख़ुदा के नज़दीक भी ज़लील वही होता है जो बदअमल होता है क़ुरआन ने इस बात की वज़ाहत फ़रमा दी है कि इज़्ज़त पेशे से नहीं बल्कि नेक अमल से मिलती है, सूराए हुजरात की तेरहवीं आयत में इरशाद होता हैः ‘‘लोगो ! हमने तुम को एक मर्द और एक औरत से पैदा किया और तुम्हारी क़ौमें और क़बीले बनाए ताकि एक दूसरे को पहचानो और ख़ुदा के नज़दीक तुम में ज़्यादा इज़्ज़त वाला वो है जो ज़्यादा परहेज़गार है ---‘‘ लेकिन अफ़सोस ! तालीमाते क़ुरआन के बरखि़लाफ़ लोगों की इज़्ज़त जि़ल्लत पेशों से नापी जाती है, सियासी पार्टियों ने तो ज़ात ब्रादरियों को ऊँच नीच ही के दरमियान तक़सीम किया लेकिन अफ़सोस तो उन हिन्दुस्तानी नाम निहाद उलोमाए इस्लाम पर होता है जिन्होंने कई पेशों को ज़लील ठहरा कर उनके पीछे नमाज़ नमाज़ को भी मना कर दिया।

ऐसा करके इन उलोमा ने बिरादरीवाद को बढ़ावा दिया है जो कि बिदअते बद है, छोटी छोटी बातों (जिनसे समाज को नुक़सान भी नहीं पहुँचता) को बिदअत कहने वाले उलोमा अगर मुत्तफि़क़ हो कर बिरादरीवाद को बिदअते बद कहते तो आज हिन्दुस्तान में मुस्लिम समाज का इस तरह शीराज़ा न बिखरता, न जान की अमान के लिए हुकूमतों के सामने गिड़गिड़ाना पड़ता न रोज़गार के लिए दफ़्तरों में चक्कर काटने पड़ते न तालीमी इदारों में रिज़र्वेशन की भीक माँगनी पड़ती।

35 करोड़ की उम्मते मुस्लेमा होती और हर बरसरे इक़तदार पार्टी मराआत की पेशकश करती, लोकसभा में भी मुस्लिम मिंबरान की तादाद अच्छी ख़ासी होती क्योंकि ऐसी सूरत में सियासी पार्टियाँ सिर्फ़ मुसलमान को टिकट देतीं अंसारी, तेली, घोंसी, धोबी, सैफ़ी, सलमानी, क़ूरैशी वग़ैरा को नहीं, आजकल हर सियासी पार्टी किसी न किसी बिरादरी के चौधरी को टिकट थमा देती है इसी लिए एक एक सीट पर कई कई मुसलमान उम्मीदवार नज़र आते हैं जिससे एक भी लोकसभा तक नहीं पहुँच पाता, चूँकि सियासी पार्टियों और हुकूमतों के ज़रिए मुसलिम ब्रादरियों पर किए जाने वाले छिड़काव के क़तरे उलोमा तक भी पहुँचते हैं लेहाज़ा वो बिरादरीवाद जैसी बिदअत को बिदअत नहीं कहते बल्कि बिरादरीवाद को बढ़ावा देने की तावील ये कहकर करते हैं कि हुज़ूर (स0) के ज़माने में भी तो क़बीलाई निज़ाम था, भोली और सादालौह अवाम तो ज़रुर धोखा खा सकती है लेकिन अहले नज़र से ये बात पोशीदा नहीं है कि हुज़ूर (स0) के ज़माने में क़बीलों में कोई इख़्तेलाफ़ नहीं था क्योंकि हुज़ूर (स0)  ने तमाम क़बीलों को वहदत की लड़ी में पिरो दिया था और मदीना में तो मुहाजिर व अंसार के दरमियान अक़्दे मुवाख़ात (भाई चारा) का़यम करके एक दूसरे का भाई बना दिया था और ये सब एक ही उम्मत कहलाते थे, हुज़ूर (स0) इनकी रंजिशें ख़तम कराके आपस में इनकी रिश्तेदारियां भी कराईं और अरब में तमाम मुस्लिम क़बीलों के बीच पाई जाने वाली नफ़रत को मुहब्बत में तब्दील कर दिया था, और जो क़बीले अपने आप को ऊँचा समझते थे और दूसरो को नीचा, उन्हें जमाअत में सबके साथ खड़ा कर दिया और हज में एक जैसा अहराम पहना दिया लेकिन बिरादरीवाद इस बात की इजाज़त नहीं देता कि नमाज़े जमाअत और हज जैसी अज़ीम इबादत के समरे से मुसलमान बहरावर हो सकें और एक पेशे से वाबसता मुसलमान लड़के की शादी दूसरे पेशे से वाबसता मुसलमान लड़की से हो जाए जिससे मालूम होता है कि ऐसा बिरादरीवाद इस्लामी तालीमात के खि़लाफ़ है और मुस्लिम समाज के लिए मुजि़र है लेहाज़ा बिदअते बद है।

इस्लाम के नुक़्तए निगाह से लड़के और लड़की को एक दूसरे का कफू (बराबर) होना चाहिए और कफ़ू के लिए तालीम व तरबियत, अख़लाक़ व किरदार और ईमान शर्त है पेशा या ख़ुदसाख़्ता बिरादरी नहीं।

चूँकि बिरादरीवाद ने उम्मते मुस्लेमा में अपनी अपनी ड़फ़ली अपना अपना राग की कैफि़यत पैदा कर दी है इस लिए कोई भी हुकूमत और सियासी पार्टी मुसलमानों को उनका जायज़ हक़ देने वाली नहीं है, क्या किसी और बिदअत से जिस के राग नाम निहाद उलोमा आए दिन अलापते रहते हैं समाज को इतना बड़ा नुक़सान पहुँचा है जितना बिरादरीवाद से पहुँच रहा है? हरगिज़ नहीं! तो फि़र उलोमाए इस्लाम बिरादरीवाद के लिए बिदअत के फ़तवे क्यों जारी नहीं करते ? जबकि पाकिस्तान को छोड़ कर सऊदी अरब समीत तमाम इस्लामी मुमालिक में कोई भी मुसलमान ज़ात बिरादरी से नहीं पहचाना जाता, उलोमा अगर मसलहेतन इसको बिदअत न भी कहें तो मुसलमानों को ख़ुद इससे बचना चाहिए, क्योंकि ये ख़तरनाक है।