अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क

मुस्लिम कूफ़े में

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पाँचवी शव्वाल को ब-रवायते तबरी व इब्ने असीर हज़रत मुस्लिम (अ.स) कूफ़े में दाख़िल हुए और अपने बचपन के दोस्त मुख़्तार के घर को जाए- अम्न क़रार दिया क्योंकि तमाम अहले कूफ़ा मुख़्तार की बे इन्तेहा इज़्ज़त करते थे मुख़्तार आपकी तशरीफ़ आवरी से बे इन्तेहां ख़ुश हुए और बड़ी इज़्ज़त व एहतेराम से पेश आये। हज़रत मुस्लिम को उनके पेशवाये बुज़ुर्ग हज़रत इमाम हुसैन (अ.स) की तरफ़ से जो प्रोग्राम सुपुर्द हुआ था उसमें एहले कूफ़ा के ख़यालात और अफ़कार का जायज़ा भी लेना था चुनाँचे आपने मुख़्तार को हुक्म दिया कि वह अतराफ़े कूफ़ा में इन उमूर का जायज़ा लें। मुख़्तार हालियाने कूफ़ा का जायज़ा लेने और अपना हम ख़याल बनाने की ग़रज़ से कूफ़े से रवाना हुआ। हज़रत मुस्लिम हानी बिन उरवा के मकान में मुनतक़िल हो गये। अठ्ठारह हज़ार कूफ़ियों ने हज़रत मुस्लिम के हाथ पर बैअत कर ली ,कि इब्ने ज़्याद कूफ़े का हाकिम बनाकर भेज दिया गया। जाबिर हुकूमत नें डरा धमका कर तमअ ए ज़र के वायदा वईद करके अहले कूफ़ा को अपना हम ख़्याल बना लिया मगर लोगों के दिल अभी जनाबे मुस्लिम ही की तरफ़ मायल थे। मगर क़त्ल होने ,क़ैद होने और ला-वारसी ए अतफ़ाल के ख़ौफ़ ने हज़रत मुस्लिम का साथ देने से बाज़ रखा और उन लोगों ने यह बेहतर समझा कि उमूरे सियासी में ख़ामोशी ही इख़्तेयार की जाये ,और घर के गोशे में ख़ामोश बैठकर हज़रत की कामयाबी की दुआ करते रहें।

लेकिन इस मामले में जान को अज़ीज़ रखना सही न था। क्या कभी सुना है कि मुसलमाने इस्लामी ग़ज़वात में अस्लेह से दस्तर्बदार होकर मस्जिद में दुआ के लिये बैठ गयें हों और जंग में फ़त्हा पा ली हो। मुजाहिदीने इस्लाम ने जब सर ब कफ़ होकर जान की बाज़ी लगाई तब मुसलमानों को फ़त्हा व कामरानी नसीब हुई है देखो इमाम हुसैन (अ.स) ने अगर शब को दुआ के लिये मोहलत चाही तो दिन को जान की बाज़ी लगाई। अगर इमाम (अ.स) के अन्सान ने रात इबादत में गुज़ारी तो दिन को दरगाहे ख़ुदावन्दी में सर को नज़्र कर दिया।

अबुल फ़ज़लिल (अ.स) नें अगर रात नमाज़ियों की हिफ़ाज़त में बसर की तो दिन में राहे ख़ुदा में सर दे दिया। मर्दुमें कूफ़ा क्यों सुल्हो पसंद बन बैठे क्यों इस्लाम को सिर्फ़ नज़रे ज़ाहिर से देखा उन्हें चाहिये था कि हज़रत मुस्लिम का साथ देते क्योंकि वह नायबे इमाम थे और इमाम की तरफ़ से इजाज़त याफ़्ता थे। क्या यह इजाज़त सिर्फ़ हज़रत मुस्लिम (अ.स) के वास्ते थी। हमें ज़रा अपने हाल पर नज़र करनी चाहिये। हमारा हाल भी इस वक़्त कूफ़ियों से कम नहीं। आख़ीर कार हज़रत मुस्लिम शहीद हुए और तमाम कूफ़े में सिर्फ़ एक जान फ़रोश हानी बिन उरवा निकला जिसने हज़रत मुस्लिम पर जान निसार कर दी और सिर्फ़ एक औरत जिसने अपने घर में पनाह दी। आख़ीर वह वक़्त आया कि हज़रत मुस्लिम दारूल-अमारा से फेके गये। सारा कूफ़ा बेचैन था लेकिन क़ैद व बन्द के ख़ौफ़ से अपनी बेचैनी और इज़्तेराब को भी ज़ाहिर नहीं कर सकता था।

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