अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क

इस्लाम का सर्वोच्च अधिकारी? (भाग 13)

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पैगम्बर मोहम्मद(स.) उस धर्म के आखिरी पैगम्बर थे जिसे अल्लाह ने दुनिया के तमाम इंसानों के लिये पसन्द किया। उस धर्म के पहले संदेशवाहक हज़रत आदम(अ.) थे और उसकी शरीयत को मुकम्मल करने वाले थे पैगम्बर मोहम्मद(स.)। इस्लाम की शरीयत को मुकम्मल करके पैगम्बर मोहम्मद(स.) सन 632 ई में इस दुनिया से विदा हो गये। लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि उसके बाद बिना किसी सर्वोच्च धर्माधिकारी के धर्म अनाथ हो गया। बल्कि अल्लाह ने हमेशा अपनी शरीयत व धर्म को क़ायम रखने के लिये दुनिया में एक सर्वोच्च धर्माधिकारी के वजूद को बाक़ी रखा। और सदियां गुज़रने के बावजूद धर्म आज भी अनाथ नहीं है।

जब इमाम अली नक़ी(अ.) की शहादत हुई, उस वक्त तक उस दौर के बादशाहों का ज़ुल्म अपनी हद को पार कर रहा था। ऐसे वक्त में अगले सर्वोच्च धर्माधिकारी इमाम हसन अस्करी(अ.) इस दुनिया में तशरीफ लाये।

इमाम हसन अस्करी(अ.) इमाम अली नक़ी(अ.) के बेटे थे और इनकी पैदाइश सामरा में हुई। इमाम अली नक़ी(अ.) ने अपने बाद के दो आखिरी इमामों की खबर इस तरह दी, ‘यकीनन मेरे बाद मेरा फर्ज़न्द ‘हसन’ इमाम होगा। और मेरे हसन के बाद उसका फर्ज़न्द ‘क़ायम’ इमाम होगा। और वही है जो ज़मीन को अद्ल व इंसाफ से भर देगा जिस तरह वह ज़ुल्म व जोर से भर चुकी होगी।
 
बाइस साल की उम्र में इमाम हसन अस्करी(अ.) ने अपने वालिद की शहादत के बाद इमामत का पद संभाला लेकिन सिर्फ छह साल बाद यानि अट्ठाइस साल की उम्र में आपको शहीद कर दिया गया। और इसके पीछे एक बड़ी वजह थी।

इमाम हसन अस्करी(अ.) के दौर के ज़ालिम बादशाह पैगम्बर मोहम्मद की बारह धर्माधिकारियों की भविष्यवाणी को पूरी तरह सच जानते थे। हालांकि आम जनता के बीच इसे झुठलाने की पूरी कोशिश करते थे लेकिन उनके दिल में ये डर पूरी तरह बैठा हुआ था कि बारहवाँ इमाम जो कि दुनिया से तमाम ज़ुल्म मिटाने आयेगा वह उनकी हुकूमत को भी नेस्त व नाबूद कर देगा। लिहाज़ा उन्होंने ग्यारहवें इमाम हसन अस्करी(अ.) व उनके पूरे घर को नज़रबन्द कर दिया था और उनकी पल पल की निगरानी की जा रही थी। और फिर थोड़े अर्से के बाद उन्हें शहीद भी कर दिया गया।

लेकिन उन बादशाहों की तमाम कोशिशें नाकाम हो गयीं। क्योंकि ग्यारहवें इमाम की शहादत से पहले ही बारहवां इमाम(अ.) इस दुनिया में अपना जलवा दिखाने के लिये आँखें खोल चुका था। बारहवें इमाम(अ.) के बारे में हम बातफसील गुफ्तगू करेंगे अगले भाग में।

इमाम हसन अस्करी(अ.) की जिंदगी का ज़्यादातर हिस्सा कैदखाने, नज़रबन्दी और ज़ालिम हाकिमों के ज़ुल्म सहते हुए बीता। एक बार इमाम(अ.) को ऐसे क़ैदखाने में डाला गया जिसका जेलर एक निहायत ज़ालिम शख्स था। उसकी बीवी ने उससे कहा कि खुदा से डरो। तुम नहीं जानते कि तुम्हारे घर में कौन है। उस शख्स ने कहा कि मैं उनको खुंखार जानवरों के बीच डाल दूंगा। फिर उसने आलाकमान से इस बारे में इजाज़त भी हासिल कर ली और इमाम(अ.) को खुंखार जानवरों के बीच डलवा दिया। लेकिन अगले दिन जब वह आया तो इमाम(अ.) को सही सलामत इबादत करते हुए पाया। इमाम(अ.) के गिर्द खुंखार जानवर घेरा बनाये हुए सर झुकाए खड़े थे। उसने चुपचाप इमाम(अ.) को वापस उस घर में भेज दिया जहाँ वह नज़रबन्द थे।

इस्लाम के तमाम धर्माधिकारियों की तरह इमाम हसन अस्करी(अ.) भी लोगों के दिलों के हाल व उनकी ज़रूरतों से बखूबी वाक़िफ रहते थे। एक बार कामिल नाम के सहाबी जब इमाम(अ.) की खिदमत में हाज़िर हुए तो देखा कि इमाम(अ.) सफेद रंग का नर्म व खूबसूरत लिबास पहने हुए हैं। कामिल ने अपने दिल में कहा कि इमाम(अ.) दूसरों को तो मोटा लिबास पहनने व रूखा सूखा खाने का उपदेश देते हैं और खुद इतना नर्म व कीमती कपड़ा पहने हुए हैं। जैसे ही कामिल के दिल में ये ख्याल आया इमाम(अ.) मुस्कुराए और अपनी आस्तीन उलट दी। कामिल ने देखा कि उस कि उस नर्म कपड़े के नीचे इमाम(अ.) ने टाट का मोटा लिबास पहना हुआ था। उसके बाद इमाम(अ.) ने फरमाया, ऐ कामिल ये मोटा लिबास अल्लाह के लिये है और नर्म लिबास तुम्हारे लिये है।

मोहम्मद बिन अली नामक एक व्यक्ति का बयान है कि एक बार मेरी माली हालत बहुत खराब हो गयी थी तो मेरे वालिद ने मुझसे कहा कि इमाम हसन अस्करी(अ.) के पास चलते हैं और उनसे मदद माँगते हैं। दोनों उनके पास जाने के लिये निकले। रास्ते में वालिद ने कहा कि हमें 500 दरहम की ज़रूरत है। 200 दरहम कपड़े के लिये, 200 कर्ज़े के लिये और सौ बाकी खर्चों के लिये। मोहम्मद ने अपने मन में कहा कि मुझे तो 300 दरहम मिल जायें तो काफी है। 100 दरहम से चैपाया खरीदता, 100 में कपड़े बनवाता और 100 दूसरे खर्चों के लिये। और फिर जबल चला जाता।

ये दोनों जल्दी ही इमाम(अ.) की खिदमत में पहुंचे। लेकिन वहाँ मुलाकात के बावजूद शर्म की वजह से अपनी ज़रूरतें नहीं बतायीं। जब ये इमाम(अ.) के घर से निकल आये तो इमाम(अ.) का नौकर इनके पास पहुंचा। उसके हाथ में दो थैलियां थीं। एक थैली उसने मोहम्मद के वालिद को थमाई और कहा कि ये 500 दरहम हैं। 200 कपड़े के लिये, 200 कर्ज़े के लिये और 100 बाकी खर्चों के लिये। फिर उसने दूसरी थैली मोहम्मद की तरफ बढ़ाई और कहा कि इमाम(अ.) ने फरमाया है कि इसमें 300 दरहम हैं, 100 दरहम चैपाया खरीदने के लिये, 100 कपड़े बनवाने के लिये और 100 दूसरे खर्चों के लिये। लेकिन जबल मत जाना बल्कि सूरिया की तरफ जाना।

अपने पूर्वजों की तरह इमाम हसन अस्करी(अ.) को भी खुदा की इबादत से खास लगाव था। नमाज़ के वक्त आप तमाम काम छोड़ देते थे। उनके एक मिलने वाले एक बार जब इमाम(अ.) के पास आये तो उस वक्त इमाम(अ.) कुछ लिख रहे थे कि नमाज़ का वक्त आ गया। इमाम(अ.) ने वह तहरीर अलग रख दी और नमाज़ के लिये खड़े हो गये।

इमाम(अ.) इस तरह इबादत करते थे कि दूसरे देख कर खुदा को याद करने लगते थे। जिस वक्त इमाम(अ.) बादशाह के हुक्म से कैद में थे उस वक्त वहां के इन्चार्ज ने दो ऐसे पहरेदारों को उनपर नियुक्त किया जो निहायत सख्त थे। और उन्हें इमाम पर सख्ती का हुक्म भी दिया गया था। लेकिन वह दोनों इमाम(अ.) के साथ रहते रहते बिल्कुल बदल गये। और नमाज़ व इबादतों में अपना वक्त गुज़रने लगे।
जब वज़ीर को इस बारे में खबर हुई तो वह दोनों को बुलाकर डाँटने फटकारने लगा। इसपर दोनों ने कहा हम उस इंसान के बारे में क्या कहें जो दिन में रोज़ा रखता है और रात इबादत में बसर करता है। इबादत के अलावा और कोई बात ही नहीं करता और कोई दूसरा काम नहीं करता। जब उसकी नज़र हमपर पड़ती है तो हम काँपने लगते हैं और अपने आप पर काबू नहीं रख पाते हैं।

कई बार इमाम(अ.) ने लोगों को गुमराही से बचाकर असली धर्म की पहचान करायी। एक बार सामरा में अकाल पड़ गया। लोग बारिश के लिये दुआ करते थे लेकिन बारिश नहीं होती थी। उसी दौरान ईसाईयों का बड़ा पादरी जासलीक़ ईसाईयों व दूसरे पादरियों के साथ रेगिस्तान में गया। उनमें से एक पादरी जब भी दुआ के लिये हाथ उठाता था फौरन बारिश होने लगती थी। इतनी बारिश हुई कि लोगों को पानी की ज़रूरत न रही। ये देखकर मुसलमान शक में पड़ गये और उनमें से कई ईसाई बन गये। ये बात मुसलमानों के खलीफा को नागवार गुज़री। उसने इमाम हसन अस्करी(अ.) को कैदखाने से बुलाया और कहा कि आप पैगम्बर मुहम्मद(स.) के वारिस हैं। अब मुहम्मद(स.) की शरीयत से लोग मुंह मोड़ रहे हैं।

इमाम(अ.) ने जासलीक़ व दूसरे पैगम्बरों को अगले दिन दुआ के लिये रेगिस्तान में बुलवाया। उस दिन इमाम(अ.) व कई मुसलमान वहां पहुंच गये। उस पादरी ने जैसे ही दुआ के लिये हाथ उठाया वहाँ बादल घिरकर आ गये। अब इमाम(अ.) ने हुक्म दिया कि उस पादरी के हाथ में जो कुछ है उसे उठा लो। लोगों ने पादरी के हाथ में रखी चीज़ उठा ली। ये किसी इंसान की काली पड़ गयी हड्डी थी। इमाम(अ.) ने उस हड्डी को कपड़े में लपेट दिया और पादरी से दोबारा दुआ करने के लिये कहा। इसबार पादरी ने जैसे ही दुआ के लिये हाथ उठाया, बरसते हुए बादल वापस लौटने लगे। और वहाँ सूरज चमकने लगा। लोगों ने जब माजरा पूछा तो इमाम(अ.) ने फरमाया कि वह हड्डी दरअसल अल्लाह के नबी की है जो इस पादरी ने कब्र खोदकर हासिल कर ली है। ये हड्डी जैसे ही आसमान के नीचे आती है अल्लाह की रहमत बारिश की शक्ल में बरसने लगती है। फिर लोगों ने उस हड्डी को आज़माया तो इमाम(अ.) की बात सच साबित हुई।

कभी कभी लोग इमाम(अ.) की अजीबोग़रीब बातों को बाद में समझते थे। एक शख्स इमाम(अ.) की खिदमत में आया और कहने लगा कि मैंने फारस के सफर का इरादा किया है और वहां बसने का इरादा रखता हूं। इमाम(अ.) ने फरमाया ‘तुमने फारस के सफर का ज़िक्र किया है। इंशा अल्लाह तुम सही व सलामत मिस्र पहुंचोगे। वहाँ हमारे दोस्तों को हमारा सलाम कहना।’ वह व्यक्ति समझा कि इमाम(अ.) शायद बेखयाली में फारस की बजाय मिस्र बोल गये हैं। फिर वह बगदाद आया और वहाँ से फारस की तरफ जाना चाहता था। हालात कुछ ऐसे बने कि वह फारस न जा सका और बगदाद के बाद मिस्र चला गया। तब उसकी समझ में आया कि इमाम(अ.) ने यह क्यों फरमाया था कि मिस्र पहुँचोगे।

इमाम(अ.) के दौर में मोहम्मद बिन शीबानी नामक एक शख्स था जिसने एक बार किसी मुशरिक से बहस की जो कई खुदाओं को मानता था। शीबानी उसकी कुछ बातों से प्रभावित हो गया और वह दिल ही दिल में कई खुदाओं के होने की संभावना पर गौर करने लगा। फिर उसका सामरा जाना हुआ जहाँ उसकी मुलाकात इमाम हसन अस्करी(अ.) से हो गयी। इमाम(अ.) उसे कुछ देर गौर से देखते रहे और फिर उंगली से इशारा करके फरमाया ‘खुदा एक है, एक है। उसको एक ही मानो।’ यह सुनकर शीबानी हैरत में पड़ गया। क्योंकि उस वक्त तक उसकी इमाम(अ.) से कोई बात ही नहीं हुई थी और न इससे पहले कोई मुलाकात।

खुदा के बारे में इमाम हसन अस्करी(अ.) फरमाते हैं, ‘पाक है वह ज़ात जिसकी तारीफ हद से नहीं की जाती। न मख्लूक़ के गुण से उसे के गुण बताये जाते हैं। उसके जैसी कोई शय नहीं है। और न उससे कोई शय मिलती जुलती है और वह सुनने वाला व देखने वाला है। अल्लाह एक है, न उसने किसी को पैदा किया है न किसी ने उसको। न उसका कोई मिस्ल है न मानिन्द। वह खालिक है मख्लूक़ नहीं। अजसाम वगैरा से जो चाहता है पैदा करता है। वह जिस्म नहीं। वह जैसी सूरत चाहता है बना देता है। वह खुद सूरत नहीं। उसकी सना में बन्दगी है। उसके नामों में तक़द्दुस है। वह बरी है इससे कि कोई शय उससे मिलती जुलती हो।

इमाम हसन अस्करी(अ.) के ज़माने में एक नामी गिरामी फिलास्फर था इस्हाक अल किंदी। वह एक किताब को लिखने में व्यस्त था। जिसमें वह साबित करना चाहता था कि कुरआन में एक दूसरी को काटती हुई विरोधी बातें मौजूद हैं। (आज भी काफी लोग इसे साबित करने में लगे हुए हैं।) अपनी किताब को पूरी करने के लिये वह लोगों से अलग होकर तनहाई में अपने काम में जुट गया। एक दिन उसका एक शगिर्द इमाम(अ.) से मिलने आया तो इमाम(अ.) ने सवाल किया कि क्या तुममें से कोई ऐसा है जो अपने उस्ताद को इस बेमतलब काम से मना करे। तो शागिर्द ने कहा कि हममें से किसी में इतनी हिम्मत नहीं। तब इमाम(अ.) ने कहा कि अल किंदी लोगों की बातें गौर से सुनता है। तुम उससे नज़दीकियां बढ़ाओ और उसके कामों में मदद करो। फिर उससे एक सवाल पूछने की इजाज़त लो। जब इजाज़त दे दे तो सवाल करो कि अगर कुरआन को बयान करने वाला आपके सामने आये और कहे कि मैंने कुरआन के शब्दों का वह मतलब नहीं दिया है जो आप समझ रहे हैं। हो सकता है उन शब्दों का मतलब कुछ और हो जहाँ तक आपकी पहुँच न हो सकी हो।

अल किंदी का शागिर्द अपने गुरू के पास आया और इमाम(अ.) के कहने के मुताबिक अपने गुरू से पेश आया और फिर सवाल किया। अल किंदी इस सवाल को सुनकर गहरी सोच में उूब गया। और फिर उसे ये बात तर्क की कसौटी पर खरी लगी। उसने शागिर्द से पूछा ये सवाल तुम्हारे दिमाग में नहीं आ सकता था। सच बताओ कि ये किसका सवाल है। इसपर शागिर्द ने इमाम(अ.) से मुलाकात का पूरा हाल कह सुनाया। अल किंदी ने कहा कि सच है इस तरह की बात इमाम(अ.) ही कर सकते हैं। उसके बाद अल किंदी ने इस सिलसिले में जो कुछ भी लिखा था सब आग के हवाले कर दिया।

इमाम हसन अस्करी(अ.) की कुछ नसीहतें इस तरह हैं:
जब दिल खुश हो तो उसे ज्ञान व हिकमत हासिल करने पर लगाओ और जब ग़मगीन हो तो उसे आज़ाद रखो।
जिसने दूसरों के सामने किसी को नसीहत की उसने उसे बदनाम किया।
तमाम बुराईयाँ एक घर में बन्द हैं और झूठ उसकी कुंजी है।
एहतियात की भी एक हद है, जब उससे गुज़र जाये तो बुज़दिली है।

अपने भाई को नसीहत करते हुए इमाम(अ.) ने फरमाया, मैं तुम्हें तक़वाये इलाही की नसीहत करता हूं। तुम्हें नमाज़ के क़याम और ज़कात की अदायगी की ताकीद करता हूं। क्योंकि जो ज़कात अदा नहीं करता उसकी नमाज़ कुबूल नहीं होती। तुम्हें ये भी नसीहत करता हूं कि तुम दूसरों की गलतियों और बुराईयों से दरगुज़र करो। गुस्सा पी जाया करो। रिश्तेदारों के साथ रहम व नेक सुलूक करो। भाईयों के साथ बराबर का बरताव करो। सख्ती और बुरे वक्त में उनकी ज़रूरतों को पूरा करने की कोशिश करो। लोगों की जहालत व नादानी के मुकाबले में उदार रहो। दीन में गहरी नज़र रखो। कामों को मज़बूत तरीके से अंजाम दो। कुरआन का इल्म हासिल करो। अच्छे अमल करो और लोगों को बुरे काम से रोको।

ऐसे होते हैं इस्लाम के सच्चे धमाधिकारी।

 

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