शिया सम्प्रदाय किस प्रकार वजूद मे आया

हज़रत अली अलैहिस्सलाम के चाहने वाले हज़रत अली अलैहिस्सलाम के उस स्थान को दृष्टि मे रखते हुए जो उनको पैगम्बर, सहाबा व मुसलमानो के निकट प्राप्त था यह अवश्यक मानते थे कि पैगम्बर के बाद खिलाफ़त हज़रत अली अलैहिस्सलाम का हक़ है।

 

पैगम्बर की बीमारी के दिनो को छोड़ कर उस समय की ज़ाहिरी अवस्था से भी ऐसा ही प्रतीत होता था।

परन्तु जब हज़रत पैगम्बर के स्वर्गवास के समय अहलिबैत और कुछ सहाबा उनके ग़म(शौक) मे विलाप कर रहे थे और उनके दफ़्न के इन्तिज़ाम मे लगे थे।

 

ठीक उसी समय एक गिरोह ने अहलिबैत व हज़रत पैगम्बर के सम्बन्धियों से मशवरा किये बिना अपने आप को मुस्लमानो का शुभ चिंतक दर्शाते हुए शिघ्रता पूर्वक खलीफ़ा(पैगम्बर का उत्तराधिकारी) का चुनाव कर लिया। और हज़रत अली अलैहिस्सलाम व उनके अनुयाईयों को एक तरफ़ छोड़ दिया।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम व उनके साथीगण जैसे इब्ने अब्बास, ज़ुबैर ,सलमान, अबूज़र,मिक़दाद और अम्मार आदि ने पैगम्बर को दफ़्न करने के बाद इस गिरोह के इस कार्य पर आपत्ति व्यक्त की। परन्तु उनको यह जवाब दिया गया कि हमने जो कुछ किया मुस्लमानों की भलाई इसी कार्य मे थी।

इस घटना का यह प्रभाव पड़ा कि इस्लामी समाज अल्प संख्यक (हज़रत अली अलैहिस्सलाम के अनुयायी) व बहुसंख्यक (खिलाफ़त अनुयायी) दो समुदायों मे विभाजित हो गया।और हज़रत अली अलैहिस्सलाम के अनुयायी इसी दिन से समाज मे “शिया-ए-अली” के नाम से पहचाने जाने लगे।

 

परन्तु खलीफ़ा व उनके सहयोगियों ने अपनी सियासत के अनुसार यह प्रयास किया कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम के अनुयायी इस नाम से न पहचानें जायें और समाज अल्प संख्यक व बहुसंख्यक दो भागो मे विभाजित न हों।

 

समाज को इस विभाजन से रोकने से उनका तात्पर्य यह था कि वह यह दर्शाना चाहते थे कि खिलाफ़त को सामुहिक रूप से स्वीकार कर लिया गया है।

 

इसी कारण वह खिलाफ़त पर आपत्ति व्यक्त करने वालों को बैअत तथा मुस्लमानो का विरोधी कहते थे। और कभी कभी तो इस खिलाफ़त पर अपत्ति व्यक्त करने वालों को इससे भी अधिक बुरे नामो से प्रसिद्ध करने की चेष्टा करते थे।

अतः शिया लोग प्रथम दिन से ही समकालीन शासन की सियासत का निशाना बने। वह आपत्ति व्यक्त करने के अलावा कुछ नही कर सकते थे।

 

और हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम ने भी उस समय इस्लाम और मुस्लमानों की भलाई को ध्यान मे रखते हुए जंग को उचित नही समझा।

 

परन्तु इस खिलाफ़त पर आपत्ति व्यक्त करने वाले समूह के लोगों केवल हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम को ही हज़रत पैगम्बर का जानशीन (उत्तराधिकारी) मानते थे और खिलाफ़त को उनका हक़(अधिकार) समझते हुए इल्मी व मानवी क्षेत्र मे उनसे ही सम्पर्क करते थे तथा लोगों के मध्य प्रचार करते थे कि इल्मी व मानवी क्षेत्र मे केवल उन्ही से सम्पर्क स्थापित किया जाये।

 

वह अक़ीदे की दृष्टि से कभी भी बहुसंख्यकों के आधीन नही हुए। (उपरोक्त लेख अल्लामा तबातबाई की किताब शिया दर इस्लाम से चुन कर अनुवाद किया गया है।)