हम इसी समय क़यामत में हैं मगर हमारी आँखों के सामने परदे हैं।

हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन मोहम्मद अली जावेदान अपने एक क्लास में कहते हैं: हम सोचते हैं कि दुनिया अस्ल है और बाक़ी सारी चीज़ें उसके चारो ओर घूम रही हैं लेकिन अस्ल और वास्तविकता केवल क़यामत है और हम इस समय क़यामत में हैं लेकिन हमारी आखों पर परदे पड़े हैं और इसी कारण हम इसे देख नहीं पा रहे हैं।

 

क़ुरआने करीम फ़रमाता है कि जो कोई यतीम का माल खाए वह आग खाता है।

 

इसी तरह हराम चीज़ देखना, हराम आवाज़ सुनना और या कोई और हराम काम करना इसी समय अपने आपको आग में डालना है।

 

क़यामत इसी समय है (नक़्द है) और हम सोचते हैं कि बाद में आएगी (उधार है)।

 

अख़्लाक़ के उस्ताद हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन मोहम्मद अली जावेदान नें पिछले जुमे की रात मीसम काम्पलेक्स की इमाम बरगाह में अपने लेक्चर में कहा, इन्सान नेचुरली अपनी सबसे पहली हालत में जीता है और इसी हालत पर बाक़ी रहेगा।

 

क़ुरआन के अनुसार उसे लालची पैदा किया गया है। इस तरह कि अगर उसे थोड़ी सी भी तकलीफ़ पहुँच जाए तो परेशान हो जाता और शिकवा और शिकायत करता है और जब उसे कोई अच्छी चीज़ मिल जाए तो सोचता है कि वह उसी के पास रहे और कोई दूसरा उससे फ़ायदा न उठाने पाए।

 

उसकी हालत बिल्कुल एक छोटे बब्चे की होती है।

 

एक हदीस क़ुदसी में अल्लाह तआला इरशाद फ़रमाता है, अगर मेरे बंदे का ध्यान ज़्यादा तर मेरी तरफ़ रहे तो मैं उसके दिल से इस दुनिया की चाहत कम कर दूँगा और अगर उसके पैरों में कम्पन्न होने लगेगा तो मैं रुकावट बन जाउँगा और उसे ग़ल्ती नहीं करने दूँगा।

 

यानी बंदे का ध्यान अल्लाह तआला की तरफ़ हो, दिलो गिमाग़ में अल्लाह तआला बसा हो।

 

जब हज़रत मीसमे तम्मार का एक हाथ और एक पैर काट दिया गया और उन्हें उस ज़माने के हिसाब से सूली पर लटका दिया गया तो उनकी बेटी नें उनसे पूछा, बाबा! आपका क्या हाल है? उन्होंने जवाब दिया, ऐसा लग रहा है कि मैं एक भीड़ भाड़ वाले रास्ते से गुज़र रहा हूँ और उसकी वजह से थोड़ी सी तकलीफ़ हो रही है।

 

अल्लाह तआला के इस इरशाद का हवाला देते हुए कि, मैं उसके दिल में इस ज़िन्दगी की चाहत कम कर दूगां, उन्होंने कहा, यहां से फिर इन्सान की पहली हालत बदल जाती है और मौत के बाद भी खुशी का माहौल होता है।

 

अल्लाह तआला की तरफ़ ध्यान रखने के बाद जब इन्सान की हालत बदलती है (दुनिया की चाहत कम हो जाती है) तो उसके बाद न केवल यह कि ख़ुदा बंदे को गुनाह नहीं करने देता बल्कि अगर करना भी चाहे तो उसे रोक लेता है।

 

उन्होंने बात को जारी रखते हुए आगे बयान किया: पहला क़दम यह है कि इन्सान अपनी इच्छाओं और वासनाओं को कुचल डाले। इसमें शक नहीं कि यह आख़री ज़माना है जिसमें इन्सान सुबह से लेकर आधी रात तक सर से पैर तक हलाल व हराम की समस्याओं में उलझा हुआ है।

 

ऐसे में अगर उसने अपनी औऱ दूसरों की वासनाओं पर कंट्रोल कर लिया, इस लिये कि कभी कभी इन्सान दूसरों के कारण गुनाह में पड़ जाता है, तो अल्लाह तआला मदद करेगा, इमामे ज़माना (अ.ज) मदद करेंगे। इमामे ज़माना (अ.ज) अपनी ज़िम्मेदारियां अदा करते हैं। हमारी शारीरिक तकलीफ़े दूर करना उनकी ज़िम्मेदारी नहीं है लेकिन फिर मदद कर देते हैं। हाँ अगर हमारे गुनाहों में ग्रस्त होने का ख़तरा है तो यहाँ उनकी ज़िम्मेदारी है कि हमारी मदद करें। पहले दिन हो सकता है हमें कोई जवाब न मिले लेकिन निश्चित तौर पर मदद होगी। अगर मुझे झूठ बोलने की आदत हो गई और मैं उसे छोड़ना चाहता हूँ।

 

यह ऐसा गुनाह है कि जब किसी के मुँह से झूठ निकलता है तो उसकी बदबू सातवें आसमान तक जाती और फ़रिश्तों को तकलीफ़ पहुँचाती है। अगर मैं यह गुनाह छोड़ना चाहता हूँ तो मुझे हिम्मत से काम लेना होगा, डटे रहना होगा, कुछ दिन सख़्ती झेलना होगी और उसके बाद यह गुनाह छोड़ना, झूठ न बोलना हमारे लिये आसान हो जाएगा। गुनाह छोड़ना मुश्किल है लेकिन अगर यह काम नामुमकिन होता तो हमें इसका हुक्म न दिया जाता। इस लिये कि अल्लाह तआला नें क़ुरआन में फ़रमाया है कि वह बंदों को उनकी ताक़त भर ही ज़िम्मेदारी देता हूँ। हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन मोहम्मद अली जावेदान का आम लोगों के ज़िन्दगी गुज़ारने के तरीक़े के बारे में कहना था: एक आम आदमी ज़िन्दगी के कामों में उलझा रहता है।

 

मेरा पढ़ना, पढ़ाना और आपका खाना कमाना दोनो में से कोई भी अल्लाह तआला से लौ लगाना और उसकी तरफ़ ध्यान दिये रहना नहीं है। लेकिन यह हो सकता है। मेरे पढ़ाने और आपके काम करने से ज़िन्दगी की गाड़ी चलती है। अब अगर हम चाहते हैं कि हमारा अल्लाह तआला की तरफ़ ध्यान दे तो हमें पहला काम यह करना होगा कि हमारे काम में कोई गुनाह न हो यानी हम अल्लाह की इताअत करते हुए खाएं कमाएं। शैतान हर एक के पीछे पड़ता और उसे बहका कर ज़मीन पर पटख़ देना चाहता है। और इसका सबसे अच्छा मौक़ा उसे तब मिलता जब हम अपने आपको पसंद करने लगें।

 

अल्लाह तआला फ़रमाता है कि मैं अपने बंदों को गुनाह में डालता हूँ ताकि उसमें घमंड पैदा न हो। इस लिये मुझे उसकी यह हालत उसके अपने आप से ख़ुश होने से अच्छी लगती है। अल्लाह तआला से लौ लगाने का अगला क़दम यह होगा कि मेरे पड़ने और पढ़ाने का मक़सद यह हो कि इससे अल्लाह तआला के दीन की मदद कर सकूँ।

 

आपके कमाने का मक़सद यह हो कि इससे आप अपनी बीवी बच्चों की ज़रूरतें पूरी कर सकें। बीवी अगर शरियत के दायरे में अपने मियां से कुछ मांगती है तो यह मियां की ज़िम्मेदारी (और उस पर वाजिब) है कि वह उसकी वह ज़रूरत पूरी करे और उसकी शान के अनुसार उसका सारा ख़र्च उठाए। अगर औरत ख़ुद भी काम करती हो तब भी उसे रोटी, कपड़ा और मकान उपलब्ध कराना मर्द पर ही वाजिब है, इसी तरह बच्चों का ख़र्च भी मर्द पर वाजिब है। अब इस वाजिब को अंजाम देने के लिये अगर हम काम करते हैं तो हमारा काम करना इबादत और अल्लाह तआला की इताअत होगा।

 

ऐसे में इन्सान को हर खाना अच्छा लगेगा (कोई खाना उसके लिये दूसरे किसी खाने से ज़्यादा मज़ेदार नहीं होगा।, अल्लाह तआला उसके दिल में दुनिया की चाहत को कम कर देगा। फिर उसके लिये न केवल यह कि खानों में अंतर का कोई महत्व नहीं होगा बल्कि दुनिया की मिठास को आख़ेरत की कड़वाहट समझेगा।

 

हम आयतुल्लाह हक़ शिनास के बुढ़ापे की उम्र में उनसे पढ़ने जाते थे। वह कहा करते थे कि उनके उस्ताद नें जवानी में उनसे कहा था कि मिठाई न खाया करो तो लगभग सत्तर साल से उन्होंने मिठाई नहीं खाई थी।

 

लेक्चर के आख़िर में हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन मोहम्मद अली जावेदान का कहना था: हम सोचते हैं कि दुनिया अस्ल है और बाक़ी सारी चीज़ें उसके चारो और घूम रही हैं लेकिन अस्ल और वास्तविकता केवल क़यामत है और इसी समय मैदाने क़यामत में हैं लेकिन हमारी आखों पर परदे पड़े हैं और इसी कारण हम इसे देख नहीं पा रहे हैं।

 

क़ुरआने करीम फ़रमाता है कि जो कोई यतीम का माल खाए वह आग खाता है। उसी तरह हराम चीज़ देखना, हराम आवाज़ सुनना और या कोई हराम काम करना उसी समय अपने आपको आग में डालना है। क़यामत इसी समय है (नक़द है) औऱ हम सोचते हैं कि बाद में आएगी (उधार है)।