अबूसब्र और अबूक़ीर की कथा -2

हम ने बताया कि एक रंगरेज़ था अबू क़ीर और एक नाई था अबू सब्र। दोनों आपस में दोस्त थे। अबू क़ीर झूठा और धोखेबाज़ इंसान था जबकि अबू सब्र झूठ और ग़लत कामों से परहेज़ करता था। बाज़ार में मंदी थी। दोनों ने यह तय किया कि किसी और शहर का रुख़ किया जाए। दोनों निकल पड़े। नौका का सफ़र था। अबू सब्र यात्रियों के बाल काट रहा था और उससे उसे पैसे मिल रहे थे।

 

क़बतान नाम के एक अच्छी हैसियत वाले इंसान ने अबू सब्र को खाने पर आमंत्रित किया और कहा कि अपने साथी को भी लेकर आना। अबू सब्र ख़ुशी ख़ुशी अपने मित्र के पास पहुंचा। वह सो रहा था लेकिन अबू सब्र की आहट सुनकर का जाग गया। उसने देखा कि अबू सब्र अपने साथ खाने पीने की चीज़ें लेकर आया है। वह झट पट उठा और खाना शुरू कर दिया। अबू सब्र ने उससे कहा कि यह चीज़ें बाद के लिए रख दो, क्योंकि आज रात हम दोनों की दावत है। अबू क़ीर ने कहा कि समुद्री यात्रा से मेरी तबीयत ख़राब हो गई है इस लिए तुम दावत खाओ, मैं तो यही चीज़ें खाकर सो रहुंगा। अबू सब्र अकेला ही क़बतान के पास गया और अपने मित्र के न आने पर क्षमायाचना की। इसके बाद दसतरख़ान लगा और खाना शुरू हो गया। जब अबू सब्र जाने लगा तो क़बतान ने उसे एक बर्तन में खाना रखकर दिया और कहा कि यह अपने दोस्त के लिए लेते जाओ। अबू सब्र ने खाना लिया और अपने मित्र के पास पहुंचा और उससे कहा कि क़बतान बड़ा उदार व्यक्ति है उसने तुम्हारे लिए खाना भिजवाया है। लेकिन खेद की बात यह है कि तुम खाना खा चुके हो अतः यह खाना नहीं खा सकते। अबू क़ीर ने अबू सब्र के हाथ से खाना ले लिया और इस तरह खाने पर टूट पड़ा जैसे बरसों का भूखा हो। अबू सब्र हैरत से देखता ही रहा और अबू क़ीर खाना चट कर गया।

 

इसके बाद ज़मीन पर ढेर हो गया और गहरी नींद सो गया। इसके बाद भी कई दिन इसी तरह गुज़रे। बीस दिन बाद नौका तट पर पहुंची। दोनों मित्र नीचे उतरे और एक सराए में पहुंचे। एक कमरा किराए पर ले लिया। अबू क़ीर वहां  पहुंच कर फिर सो गया। अबू सब्र बाज़ार गया और खाने के चीज़ें ख़रीद कर लाया। उसने खाना भी पकाया और दस्तरख़ान लगा दिया। फिर अबू क़ीर को जगाया। अबू क़ीर फिर खाना खाकर सो गया। इसी तरह चालीस दिन बीत गए। अबू सब्र काम करता था और खाने पीने का बंदोबस्त करता था और अबू क़ीर सोता रहता था। वह यही कहता था कि समुद्र की यात्रा ने मुझे बीमार कर दिया है और सिरदर्द मेरा पीछा नहीं छोड़ रहा है। चालीस दिन और बीत गए। अब अबू सब्र बहुत अधिक काम करने और विश्राम न करने के कारण बीमार पड़ गया और घर से बाहर न जा सका। उसने सराए में काम करने वाले व्यक्ति को बुलाकर उससे खाना मंगाया। अबू क़ीर अपनी जगह पर पड़ा सो रहा था। अबू सब्र की बीमारी को चार दिन हो गए।

 

इस दौरान सराए का नौकर उन दोनों के लिए खाना लाता रहा। पांचवे दिन अबू सब्र की हालत ज़्यादा ख़राब हो गई और वह बेहोश हो गया। अबू क़ीर को उस दिन खाना नहीं मिला और वह भूख से पागल होने लगा। उसने अबू सब्र की जेबें टटोलीं। उसे कुछ सिक्के मिल गए और वह बाज़ार गया और कमरे में ताला लगा दिया और सराए में कुछ बताए बग़ैर रवाना हो गया। बाज़ार पहुंचकर उसने अपने लिए कपड़े ख़रीदे और पहन लिए। शहर में टहलता रहा। उसने देखा कि शहर मे रहने वालों के कपड़े या सफ़ेद रंग के होते थे या काले रंग के। वह एक रंगरेज़ की दुकान पर पहुंचा तो वहां देखा कि सब चीज़ काले रंग की हैं। उसने कमर पर बंधी हुई शाल खोली और उसे रंगरेज़ को देते हुए पूछा कि इसे कितने में रंग कर दोगे। रंगरेज़ ने मज़दूरी बता दी। अबू क़ीर ने कहा कि तुम तो बहुत ज़्यादा मांग रहे है हमारे यहां इससे बहुत कम पैसे में रंग किया जाता है। अच्छा यह बताओ कि इस शाल को किस रंग में रंगोगे। रंगरेज़ ने कहा कि यह भी कोई पूछने की बात है, ज़ाहिर है काला रंग करूंगा। अबू क़ीर ने कहा कि उसे लाल रंग से रंगो। रंगरेज़ ने कहा कि जिस रंग का तुमने नाम लिया है उसे मैं नहीं जानता। अबू क़ीर ने कहा कि फिर तुम हरे रंग में रंग दो। रंगरेज़ ने कहा कि इस रंग को भी मैं नहीं जानता। अबू क़ीर इसी तरह रंगों के नाम लेता गया और रंगरेज़ वही जवाब देता रहा कि मैं इस रंग को नहीं जानता। अबू क़ीर ने कहा कि तुम मेरी शाल लौटाओ मैं कोई और दुकान देखता हूं। रंगरेज़ ने कहा कि हमारे शहर में रंग करने की चालीस दुकाने हैं  और किसी के पास काले रंग के अलावा कोई और रंग नहीं है और किसी को किसी अन्य रंग के बारे में मालूम भी नहीं है। अबू क़ीर ने कहा कि फिर तुम यह भी सुन लो कि मैं एक रंगरेज़ हूं, यदि तुम मुझे नौकरी पर रख लो तो तुम्हें दूसरे रंग बनाने की तरकीब सिखा सकता हूं। रंगरेज़ ने कहा कि हम अजनबी लोगों को काम नहीं देते।

 

अबू क़ीर ने कहा कि तो फिर मैं अपनी अलग दुकान खोल लूंगा। रंगरेज़ ने कहा कि तुम हरगिज़ ऐसा नहीं कर सकते। अबू क़ीर को ग़ुस्सा आ गया और सीधे शहर के राजा के पास जा पहुंचा। उसने राजा से कहा कि मैं मुसाफ़िर हूं मेरा नाम अबू क़ीर है और मैं रंगरेज़ हूं। मुझे ऐसे रंगों की जानकारी है जिनके बारे में शहर के रंगरेज़ नहीं जानते। जैसे लाल, पीला, नीला, हरा आदि। मैंने शहर के रंगरेज़ों को यह रंग बनाने की विधि सिखानी चाही तो वे तैयार नहीं हुए। मैं आपके पास उनकी शिकायत लेकर आया हूं। राजा कुछ देर तक सोच में पड़ गया फिर उसने कहा कि मैं तुम्हें एक दुकान देता हूं और पूंजी भी दूंगा। तुम काम शुरू करो। अगर शहर के रंगरेज़ों ने आकर एतेराज़ किया तो मुझे बताना। राजा ने राजगीरों को आदेश दिया कि उसके लिए दुकान तैयार की जाए। राजा ने अबू क़ीर को सोने के एक हज़ार सिक्के, दो नौकर और एक घोड़ा दिया। अबू क़ीर को एक घर भी दे दिया। अबू क़ीर की दुकान बहुत जल्द बनकर तैयार हो गई। राजा ने पूंजी के रूप में और चार हज़ार सिक्के दिए। अबू क़ीर ने दुकान में काम शुरू करने के लिए सारा ज़रूरी सामान ख़रीद लिया।