अब्दुल्लाह इब्ने ज़ुबैर

अब्दुल्लाह , हज़रत आयशा की हक़ीक़ी बहन अस्मा बिन्ते अबू बकर के बेटे थे। आयशा इन्हें बेहद चाहती थीं। उनके दिल में अब्दुल्लाह की मोहब्बत ऐसे थी जैसे किसी मां के दिल में इकलौते बेटे की होती है। इन्हीं अब्दुल्लाह के नाम पर आपकी कुन्नियत उम्मे अब्दुल्लाह पड़ी। हिशाम बिन उर्वा का बयान है कि मैंने आयशा को जैसी दुआ इब्ने ज़ुबैर के हक़ में करते सुनी वैसी किसी दूसरी मख़लूक़ के लिए नहीं सुनी।


एक बार आयशा बीमार हुईं तो अब्दुल्लाह उन्हें देखने आए और दहाढ़ें मार मार कर रोने लगे। आयशा ने उन्हें सर उठा कर देखा तो बदहवास हो गयीं और ख़ुद भी रोने लगीं और फ़रमाया कि ऐ अब्दुल्लाह तुम से बढ़ कर दुनिया में मुझे कोई भी अज़ीज़ नहीं। ( 8)


जंगे जमल में जब मालिके अशतर ने इन्हें अधमुआ कर के डाल दिया और ये शदीद ज़ख़्मी हुए तो आयशा उस वक़्त तक के बेक़रारी के बिस्तर पर करवटें बदलती रहीं जब तक उन्हें अब्दुल्लाह के ज़िन्दा बच जाने की ख़बर नहीं मिल गयी। तारीख़ों से पता चलता है कि हज़रत आयशा ने उस शख़्स को दस हज़ार दिरहम दिये जिसने उनके बच जाने की ख़ुशख़बरी सुनाई थी। ( 9)


आयशा ने इन्हीं अब्दुल्लाह को अपने हुजरे में दफ़्न करने की वसीयत भी की थी ये वही हुजरा था जिसमें फ़रज़न्दे रसूल हज़रत इमामे हसन (अ.स) को उन्होंने दफ़्न न होने दिया था। ( 10)


अब्दुल्लाह की परवरिश और न शोनु मा बचपन से ही अदावत और नफ़रत की आग़ोश में हुई। ये बनी हाशिम ख़ुसूसन आले मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के सख़्त तरीन दुश्मन थे। इन्हीं का कारनामा था कि अपने बाप ज़ुबैर को भी इन्होंने हज़रत अली का दुश्मन बना दिया।


अमीरूल मोमिनीन का इरशाद हैः-


ज़ुबैर उस वक़्त तक हम अहलेबैत के बही ख़्वाह रहे जब तक कि उनका मनहूस बेटा अब्दुल्लाह जवान नहीं हुआ। ( 11)


अब्दुल्लाह की आले मोहम्मद (स.अ.व.व) से अदावत इस इन्तिहा को पहुंची हुई थी कि उन्होंने अपने ज़माना ए ख़िलाफ़त में चालीस जुम्अ (नमाज़ के मौक़े पर) पैग़म्बर (स.अ.व.व) पर दुरूद नहीं भेजा। उनका कहना था कि इससे रसूल (स.अ.व.व) के घराने की नाक ऊंची होती है। एक दूसरी रवायत में है कि उन्होंने जुम्अ में दुरूद न भेजने की वजह ये बयान की कि रसूल के घर वाले दुरूद में अपना नाम सुन कर अपना सर बलन्द करेंगे। ( 12)


इब्ने अब्बास से एक मरतबा अब्दुल्लाह इब्ने ज़ुबैर ने कहा , कि मैं चालीस बरस से अहलेबैत की अदावत अपने दिल में छिपाए हुए हूं। इन्हें हज़रत अली से ख़ुसूसी और पैदाइशी अदावत थी और ये अमीरूल मोमिनीन को बुरा भला कहा करते थे। ( 13)


यही अब्दुल्लाह इब्ने ज़ुबैर थे जिन्होंने इब्ने अब्बास , मोहम्मदे हनफ़िया और सत्तरह बनी हाशिम के अफ़राद को मक्के में महसूसर कर के पुख़्ता इरादा कर लिया था कि इन सब को ज़िन्दा जला दें और इस मक़सद की तकमील के लिए उन्होंने लकड़िया भी इकट्ठा कर ली थीं। जनाबे मुख़्तार को जब ये मालूम हुआ तो उन्होंने चार हज़ार सिपाहियों का एक दस्ता रवाना किया जो इन्तिहाई तेज़ी से मन्ज़िले तय करता हुआ मक्के आया और उसने उन लोगों की जान बचायी। ( 14)


मगर अब्दुल्लाह इब्ने ज़ुबैर के दिल में ख़ानवादा ए बनी हाशिम से दुश्मनी की जो आग भड़क रही थी वो बदस्तूर भड़कती रही , उन्होंने एक और कोशिश की कि मोहम्मदे हनफ़िया और उनके साथ तमाम बनी हाशिम को इकट्ठा कर के उन्हें क़ैद कर दिया और क़ैदख़ाने में लकड़ियां भरवा दीं और उनमें आग लगा दी। इस मरतबा अबू अब्दुल्लाहे जदली ऐन वक़्त पर अपने हमराहियों के साथ मौक़े पर पहुंच गये और बड़ी कोशिश के बाद आग पर क़ाबू हासिल कर के उन लोगों को रिहा कराया। ( 15)


यही अब्दुल्लाह इब्ने ज़ुबैर थे जिन्होंने अपने बाप के ख़यालात को तबदील करा के उन्हें हज़रत अली का दुश्मन बनाया और तल्हा वग़ैरह के साथ मिलकर आयशा को मजबूर किया कि वो अली से जंग करें। आयशा के दिल में अली की तरफ़ से अदावतों कुदूरत पहले ही से थी , इब्ने ज़ुबैर की तहरीक को तरग़ीब ने उन्हें पूरी तरह अमादाए क़िताल कर दिया।


मोवर्रेख़ीन का कहना है कि जब हव्वाब मे आयशा ने कुत्तों के भौंकने की आवाज़ सुनीं तो उन्हें पैग़म्बर की हदीस याद आ गयी और उन्होंने चाहा की यहीं से लौट जायें। इब्ने ज़ुबैर ने उन्हें यक़ीन व इतमिनान दिलाया कि जिसने इस मक़ाम को हव्वाब बताया है वो झूठा है , और ये हव्वाब नहीं है और इस क़दर बज़िद हुए कि आयशा से अपने झूठ को मनवा कर उन्हें पेश क़दमी के लिए मजबूर कर दिया।


इन तमाम हक़ाइक़ और शवाहिद की रौशनी में हम ये कह सकते है कि जंगे जमल के बानियान में अब्दुल्लाह इब्ने ज़ुबैर को नज़र अन्दाज़न नहीं किया जा सकता।