अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क

नेक बातों की पैरवी करते हैं।

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नेक बातों की पैरवी करते हैं।

“फ़बश्शिर इबादि * अल्लज़ीना यसतमिऊना अलक़ौलाफ़
यत्तबिऊना अहसनहु[68]” यानी मेरे बन्दों को ख़ुशख़बरी दो,उन बन्दो को जो बातों को सुन कर उन में नेक बातों की पैरवी करते हैं।
आज कल हमारे होज़ाते इल्मिया में उलूमे क़ुरआन एक वसी पैमाने पर पढ़ाया जा रहा है। और इन दुरूस में सब से अहम बहस अदमे तहरीफ़े क़ुरआने करीम है।[69]
27-क़रआन व इँसान की माद्दी व मानवी ज़रूरतें।
वह तमाम चीज़ें जिन की इंसान को अपनी माद्दी व मानवी ज़िन्दगी में ज़रूरत है उन के उसूल कुरआने करीम में बयान कर दिये गये हैं। चाहे वह हुकूमत चलाने के क़वानीन हों या सियासी मसाइल, दूसरे समाजों से राब्ते के मामलात हो या बा हम ज़िन्दगी बसर करने के उसूल, जंग व सुलह के के मसाइल हों या क़ज़ावत व इक़्तेसाद के उसूल या इन के अलावा और कोई मामलात तमाम के क़वाइद कुल्लि को इस तरह बयान कर दिया गया है कि इन पर अमल पैरा होने से हमारी ज़िन्दगी की फ़ज़ा रौशन हो जाती है। “व नज़्ज़ला अलैका अल किताबा तिबयानन लिकुल्लि शैइन व हुदन व रहमतन व बुशरा लिलमुस्लिमीना ”[70] यानी हमने इस किताब को आप पर नाज़िल किया जो तमाम चीज़ों को बयान करने वाली है और मुस्लमानों के लिए रहमत, हिदायत और बशारत है।
इसी बिना पर हमारा अक़ीदह है कि “इस्लाम ”“हुकूमत व सियासत से ” हर गिज़ जुदा नही है बल्कि मुस्लमानों को फ़रमान देता है कि ज़मामे हुकूमत को अपने हाथों में सँभालो और इस की मदद से इस्लाम की अरज़िशों को ज़िन्दा करे और इस्लामी समाज की इस तरह तरबियत हो कि आम लोग क़िस्त व अद्ल राह पर गामज़न हों यहाँ तक कि दोस्त व दुश्मन दोनों के बारे में अदालत से काम लें। “या अय्युहा अल्लज़ीना आमनु कूनू क़व्वामीना बिलक़िस्ति शुहदाआ लिल्लाहि व लव अला अनफ़ुसिकुम अविल वालिदैनि व अल अक़राबीना।”[71]यानी ऐ ईमान लाने वालो अद्ल व इँसाफ़ के साथ क़ियाम करो और अल्लाह के लिए गवाही दो चाहे यह गवाही ख़ुद तुम्हारे या तुम्हारे वालदैन के या तुम्हारे अक़रबा के ही ख़िलाफ़ क्योँ न हो। “व ला यजरि मन्ना कुम शनानु क़ौमिन अला अन ला तअदिलु एदिलु हुवा अक़रबु लित्तक़वा ” ख़बर दार किसी गिरोह की दुश्मनी तुम को इस बात पर आमादा न कर दे कि तुम इँसाफ़ को तर्क कर दो , इंसाफ़ करो कि यही तक़वे से क़रीब तर है।
28- तिलावत,तदब्बुर ,अमल
क़ुरआने करीम की तिलावत अफ़ज़ल तरीन इबादतों में से एक है और बहुत कम इबादते ऐसी हैं जो इसके पाये को पहुँचती हैं। क्यों कि यह इल्हाम बख़्श तिलावत क़ुरआने करीम में ग़ौर व फ़िक्र का सबब बनती है और ग़ौर व फ़िक्र नेक आमाल का सरचश्मा है।
क़ुरआने करीम पैग़म्बरे इस्लाम को मुख़डातब क़रार देते हुए फ़रमाता है कि “क़ुम अललैला इल्ला क़लीला*निस्फ़हु अव उनक़ुस मिनहु क़लीला* अव ज़िद अलैहि व रत्तिल अल क़ुरआना तरतीला....”[72] यानी रात को उठो मगर ज़रा कम ,आधी रात या इस से भी कुछ कम,या कुछ ज़्यादा कर दो और क़ुरआन को ठहर ठहर कर ग़ौर के साथ पढ़ो।
और क़ुरआने करीम तमाम मुस्लमानों को ख़िताब करते हुए फ़रमाता है कि “फ़इक़रउ मा तयस्सरा मिन अलक़ुरआनि”[73] यानी जिस क़द्र मुमकिन हो क़ुरआन पढ़ा करो।
लेकिन उसी तरह जिस तरह कहा गया, क़ुरआन की तिलावत उस के मअना में ग़ौर व फ़िक्र का सबब बने और यह ग़ौर व फ़िक्र क़ुरआन के अहकामात पर अमल पैरा होने का सबब बने। “अफ़ला यतदब्बरूना अलक़ुरआना अम अला क़ुलूबिन अक़फ़ालुहा ”[74] क्या यह लोग क़ुरआन में तदब्बुर नही करते या इन के दिलों पर ताले पड़े हुए हैं।“व लक़द यस्सरना अलक़ुरआना लिज़्ज़िकरि फ़हल मिन मद्दकिरिन[75]” और हम ने क़ुरआन को नसीहत के लिए आसान कर दिया तो क्या कोई नसीहत हासिल करने वाला है।“व हाज़ा किताबुन अनज़लनाहु मुबारकुन फ़इत्तबिउहु”[76] यानी हम ने जो यह किताब नाज़िल की है बड़ी बरकत वाली है, लिहाज़ा इस की पैरवी करो।
इस बिना पर जो लोग सिर्फ़ तिलावत व हिफ़्ज़ पर क़िनाअत करते हैं और क़ुरआन पर “तदब्बुर” “अमल” नही करते अगरचे उन्होंने तीन रुकनों में से एक रुक्न को तो अंजाम दिया लेकिन दो अहम रुक्नों को छोड़ दिया जिस के सबब बहुत बड़ा नुक्सान बर्दाश्त करना पड़ा।
29-इनहेराफ़ी बहसे
हमारा मानना है कि मुस्लमानों को क़ुरआने करीम की आयात में तदब्बुर करने से रोकने के लिए हमेशा ही साज़िशें होती रही हैम इन साज़िशों के तहत कभी बनी उमय्यह व बनी अब्बास के दौरे हुकूमत में अल्लाह के कलाम के क़दीम या हादिस होने की बहसों को हवा दे कर मुस्लमानों को दो गिरोहों में तक़्सीम कर दिया गया, जिस के सबब बहुत ज्यादा ख़ूँरेजिया वुजूद में आई। जबकि आज हम सब जानते हैं कि इन बहसों में नज़ाअ असलन मुनासिब नही है। क्योँ कि अगर अल्लाह के कलाम से हरूफ़ ,नक़ूश ,किताबत व काग़ज़ मुराद है तो बेशक यह सब चीज़ें हादिस हैं और अगर इल्मे परवरदिगार में इसके मअना मुराद हैं तो ज़ाहिर है कि उसकी ज़ात की तरह यह भी क़दीम है। लेकिन सितमगर हुक्काम और ज़ालिम ख़लीफ़ाओं ने मुसलमानों को बरसों तक इस मस्ले में उलझाए रक्खा। और आज भी ऐसी ही साज़िशें हो रही है और इस के लिए दूसरे तरीक़े अपनाए जा रहे हैं ताकि मुस्लमानों को क़ुरआनी आयात पर तदब्बुर व अमल से रोका जा सके।
30- क़ुरआने करीम की तफ़्सीर के ज़वाबित
हमारा मानना है कि क़ुरआने करीम के अलफ़ाज़ को उनके लुग़वी व उर्फ़ी मअना में ही इस्तेमाल किया जाये,जब तक आयत में अलफ़ाज़ के दूसरे मअना में इस्तेमाल होने का कोई अक़्ली या नक़्ली क़रीना मौजूद न हो। (लेकिन मशकूक क़रीनों का सहारा लेने से बचना चाहिए और क़ुरआने करीम की आयात की तफ़्सीर हद्स या गुमान की बिना पर नही करनी चाहिए।
जैसे क़ुरआने करीम फ़रमाता है कि “व मन काना फ़ी हाज़िहि आमा फ़हुवा फ़ी अलआख़िरति आमा”[77] यानी जो इस दुनिया में नाबीना रहा वह आख़ेरत में भी नाबीना ही रहे गा।
हमें यक़ीन है कि यहाँ पर “आमा” के लुग़वी मअना नाबीना मुराद नही हो सकते,इस लिए कि बहुत से नेक लोग ज़ाहेरन नाबीना थे,बल्कि यहाँ पर बातिनी कोर दिली व नाबीनाई ही मुराद है। यहाँ पर अक़्ली क़रीने का वुजूद इस तफ़्सीर का सबब है।
इसी तरह क़ुरआने करीम इस्लाम दुश्मन एक गिरोह के बारे में फ़रमा रहा है कि “सुम्मुन बुकमुन उमयुन फ़हुम ला यअक़ीलूना ”[78] यानी वह बहरे ,गूँगे और अन्धे है,इसी वजह से कोई बात नही समझ पाते।
यह बात रोज़े रौशन की तरह आशकार है कि वह ज़ाहिरी तौर पर अन्धे,बहरे और गूँगे नही थे बल्कि यह उन के बातिनी सिफ़ात थे। (यह तफ़्सीर हम क़रीना-ए- हालिया के मोजूद होने की वजह से करते हैं।)
इसी बिना पर क़ुरआने करीम की वह आयते जो अल्लाह तआला के बारे में कहती हैं कि “वल यदाहु मबसूसतानि ”[79] यानी अल्लाह के दोनों हाथ खुले हुए हैं। या “व इस्नइ अलफ़ुलका बिआयुनिना” [80] यानी (ऐ नूह)हमारी आँखों के सामने किश्ती बनाओ।
इन आयात का मफ़हूम यह हर गिज़ नही है कि अल्लाह के आँख, कान और हाथ पाये जाते है और वह एक जिस्म है। क्योँ कि हर जिस्म में अजज़ा पाये जाते हैं और उस को ज़मान, मकान व जहत की ज़रूरत होती है और आख़िर कार वह फ़ना हो जाता है। अल्लाह इस से बरतर व बाला है कि उस में यह सिफ़तें पाई जायें। लिहाज़ा “यदाहु” यानी हाथों से मुराद अल्लाह की वह क़ुदरते कामिला है जो पूरे जहान को ज़ेरे नुफ़ूज़ किये है,और “आयुन” यानी आँख़ों से मुराद उसका इल्म है हर चीज़ की निस्बत।
इस बिना पर हम ऊपर बयान की गई ताबीरात को चाहे वह अल्लाह की सिफ़ात के बारे में हों या ग़ैरे सिफ़ात के बारे में अक़्ली व नक़्ली क़रीनों के बग़ैर क़बूल नही करते । क्योँ कि तमाम दुनिया के सुख़नवरों की रविश इन्हीँ दो क़रीनों पर मुनहसिर रही है और क़ुरआने करीम ने इस रविश को क़बूल किया है। “व मा अरसलना मिन रुसुलिन इल्ला बिलिसानि क़ौमिहि”[81] यानी हमने जिन क़ौमों में रसूलों को भेजा उन्हीँ क़ौमों की ज़बान अता कर के भेजा। लेकिन यह बात याद रहे कि यह क़रीने रौशन व यक़ीनी होने चाहिए, जैसे ऊपर भी बयान किया जा चुका है।
31- तफ़्सीर बिर्राय के ख़तरात
हमारा अक़ीदह है कि क़ुरआने करीम के लिए सब से ख़तरनाक काम अपनी राय के मुताबिक़ तफ़्सीर करना है।इस्लामी रिवायात में जहाँ इस काम को गुनाहे कबीरा से ताबीर किया गया है वहीँ यह काम अल्लाह की बारगाह से दूरी का सबब भी बनता है। एकहदीस में बयान हुआ है कि अल्ला ने फ़रमाया कि “मा आमना बी मन फ़स्सरा बिरायिहि कलामी ”[82] यानी जो मेरे कलाम की तफ़्सीर अपनी राय के मुताबिक़ करता है वह मुझ पर ईमान नही लाया। ज़ाहिर है कि अगर ईमान सच्चा हो तो इंसान कलामे ख़ुदा को उसी हालत में क़बूल करेगा जिस हालत में है न यह कि उस को अपनी राय के मुताबिक़ ढालेगा।
सही बुख़ारी, तिरमिज़ी,निसाई और सुनने दावूद जैसी मशहूर किताबों में भी पैग़म्बरे इस्लाम (स.)की यह हदीस मौजूद है कि “मन क़ाला फ़ी अलक़ुरआनि बिरायिहि अव बिमा ला यअलमु फ़लयतबव्वा मक़अदहु मिन अन्नारि ”[83] यानी जो कुरआन की तफ़्सीर अपनी राय से करे या ना जानते हुए भी क़ुरआन के बारे में कुछ कहे तो वह इस के लिए तैयार रहे कि उसका ठिकाना जहन्नम है।
तफ़्सीर बिर्राय यानी अपने शख़्सी या गिरोही अक़ीदह या नज़रिये के मुताबिक़ क़ुरआने करीम के मअना करना और उस अक़ीदह को कुरआने करीम से ततबीक़ देना, जबकि उसके लिए कोई क़रीना या शाहिद मौजूद न हो। ऐसे अफ़राद दर वाक़े क़ुरआने करीम के ताबेअ नही हैं बल्कि वह चाहते हैं कि क़ुरआने करीम को अपना ताबे बनायें। अगर क़ुरआने करीम पर पूरा ईमान हो तो हर गिज़ ऐसा न करें।अगर क़ुरआने करीम में तफ़्सीर बिर्राय का बाब खुल जाये तो यक़ीन है कि कुल्ली तौर पर क़ुरआन का ऐतेबार खत्म हो जाये गा, जिस का भी दिल चाहेगा वह अपनी पसंद से क़ुरआने करीम के मअना करेगा और अपरने बातिल अक़ीदों को क़ुरआने करीम से ततबीक़ देगा।
इस बिना पर तफ़्सीर बिर्राय यानी इल्में लुग़त,अदबयाते अरब व अहले ज़बान के फ़हम ख़िलाफ़ क़ुरआने करीम की तफ़्सीर करना और अपने बातिल ख़यालात व गिरोही या शख़्सी खवाहिशात को क़ुरआन से तताबुक़ देना, क़ुरआने करीम की मानवी तहरीफ़ का सबब है।
तफ़्सीर बिर्राय की बहुत सी क़िस्में हैं। उन में से एक क़िस्म यह है कि इंसान किसी मोज़ू जैसे “शफ़ाअत”“तौहीद” “इमामत” वग़ैरह के लिए क़ुरआने करीम से सिर्फ़ उन आयतों का तो इँतेख़ाब कर ले जो उस की फ़िक्र से मेल खाती हों,और उन आयतों को नज़र अन्दाज़ कर दे जो उस की फ़िक्र से हमाहँग न हो,जब कि वह दूसरी आयात की तफ़्सीर भी कर सकती हों।
खुलासा यह कि जिस तरह क़ुरआने करीम के अलफ़ाज़ पर जमूद ,अक़्ली व नक़्ली मोतबर क़रीनों पर तवज्जोह न देना एक तरह का इनहेराफ़ है उसी तरह तफ़्सीर बिर्राय भी एक क़िस्म का इनहेराफ़ है और यह दोनों क़ुरआने करीम की अज़ीम तालीमात से दूरी का सबब है। इस बात पर तवज्जोह देना ज़रूरी है।
32- सुन्नत अल्लाह की किताब से निकली है।
हमारा अक़ीदह है कि कोई भी यह नही कह सकता है कि “कफ़ाना किताबा अल्लाहि ”हमें अल्लाह की किताब काफ़ी है और अहादीस व सुन्नते नबवी (जो कि तफ़्सीर व क़ुरआने करीम के हक़ाइक़ को बयान करने , क़ुरआने करीम के नासिख़- मँसूख़ व आमो ख़ास को समझने और उसूल व फुरू में इस्लामी तालीमात को जान ने का ज़रिया है।)की ज़रूरत नही है। “इस इबारत का मतलब यह नही है कि तारीख़ मे ऐसा किसी ने नही कहा,बल्कि मतलब यह है कि कोई भी सुन्नत के बग़ैर तन्हा किताब के ज़रिये इस्लाम को समझ ने का दावा नही कर सकता ” मुतरजिम।
क्योँ कि क़ुरआने करीम की आयात ने पैग़म्बरे इस्लाम (स.)की सुन्नत को- चाहे वह लफ़्ज़ी हो या अमली - मुसलमानों के लिए हुज्जत क़रार दिया है और आप की सुन्नत को इस्लाम के समझ ने व अहकाम के इस्तँबात के लिए एक असली मनबा माना है।“मा अता कुम अर्रसूलु फ़ख़ुज़ुहु व मा नहा कुम अनहु फ़इन्तहू”[84]रसूल जो तुम्हें दे ले लो (यानी जिस बात का हुक्म दे उसे अन्जाम दो)और जिस बात से मना करे उस से परहेज़ करो।
“व मा काना लिमुमिनिन व ला मुमिनतिन इज़ा क़ज़ा अल्लाहु व रसूलुहु अमरन अन यकूना लहुम अलख़ियरतु मिन अमरि हिम व मन यअसी अल्लाहा व रसूलहु फ़क़द ज़ल्ला ज़लालन मुबीनन।”[85]यानी किसी भी मोमिन मर्द या औरत को यह हक़ नही है कि जब किसी अम्र मे अल्लाह या उसका रसूल कोई फ़ैसला कर दें तो वह उस अम्र में अप ने इख़्तियार से काम करे और जो भी अल्लाह और उस के रसूल की नाफ़रमानी वह खिली हुई गुमराही में है।
जो सुन्नते पैग़म्बर(स.)की परवा नही करते दर हक़ीक़त उन्हों ने क़ुरआर्ने करीम को नज़र अँदाज़ कर दिया है। लेकिन सुन्नत के लिए ज़रूरी है कि वह मोतबर ज़राये से साबित हो,ऐसा नही है कि जिसने हज़रत की सीरत के मुताल्लिक़ जो कह दिया सब क़बूल कर लिया जाये।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं कि “व लक़द कुज़िबा अला रसूलि अल्लाहि सल्ला अल्लाहु अलैहि व आलिहि वसल्लम- हत्ता क़ामा ख़तीबन फ़क़ाला मन कजबा अलैया मुताम्मदन फ़ल यतबव्वा मक़अदहु मिन अन्नारि ”[86] यानी पैग़म्बरे इस्लाम (स.)की ज़िन्दगी मे ही बहुत सी झूटी बातों को पैग़म्बर (स.)की तरफ़ निस्बत दी गई तो पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ख़ुत्बा देने के लिए खड़े हुए और फ़रमाया कि जो अमदन किसी झूटी बात को मेरी तरफ़ मनसूब करे,वह जहन्नम में अपने ठिकाने के लिए भी आमादह रहे।
इस मफ़हूम से मलती जुलती एक हदीस सही बुख़ारी में भी।[87]
33-सुन्नत आइम्मा-ए- अहले बैत (अलैहिम अस्सलाम)
हमारा अक़ीदह यह भी है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.)के फ़रमान के मुताबिक़ आइम्मा-ए- अहले बैत (अलैहम अस्सलाम)की अहादीस भी वाजिब उल इताअत हैं। क्योँ कि
क)मशहूर व मारूफ़ मुतावातिर हदीस जो अहले सुन्नत और शिया दोनों मज़हबे

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