अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क

मुनाफ़ेक़ीन

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वह लोग जो पैग़म्बरे इस्लाम(स.)के ज़माने में मुनाफ़ेक़ीन की सफ़ में थे

और वह लोग जो पैग़म्बरे इस्लाम(स.)के ज़माने में मुनाफ़ेक़ीन की सफ़ में थे और हमेशा ऐसे काम अंजाम देते थे जिन से पैग़म्बरे इस्लाम (स.)का दिल रंजीदा होता था। या जिन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम(स.)के बाद अपने रास्ते को बदल दिया और ऐसे काम अंजाम दिये जो इस्लाम और मुसलमानों के नुक़्सान दे साबित हुए,ऐसे लोगों से मुहब्बत न की जाये। क़ुरआने करीम फ़रमाता है कि “ला तजिदु क़ौमन युमिनूना बिल्लाहि वअलयौमिल आख़िरि युआद्दूना मन हाद्दा अल्लाहा व रसूलहु व लव कानू आबाअहुम अव अबनाअहुम अव इख़वानहुम अव अशीरतहुम ऊलाइका कतबा फ़ी क़ुलूबिहिम अलईमाना”[137] यानी तुम्हें कोई ऐसी क़ौम नही मिलेगी जो अल्लाह व आख़िरत पर ईमान लेआने के बाद अल्लाह व उसके रसूल की नाफ़रमानी करने वालों से मुब्बत करती हो,चाहे वह (नाफ़रमानी करने वाले)उनके बाप दादा,बेटे,भाई या ख़ानदान वाले ही क्य़ोँ न हो,यह वह लोग हैं जिनके दिलों में अल्लाह ने ईमान को लिख दिया है।
हाँ हमारा अक़ीदह यही है कि वह लोग जिन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम (स.)को उनकी ज़िन्दगी में या शहादत के बाद अज़ीयतें पहुँचाईँ है क़ाबिले तारीफ़ नही हैं।
लेकिन यह हर गिज़ नही भूलना चाहिए कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.)के कुछ आसहाब ने इस्लाम की तरक़्क़ी की राह में में बहुत क़ुरबानियाँ दी हैं और वह अल्लाह की तरफ़ से मदह के हक़ दार क़रार पायें हैं। इसी तरह वह लोग जो पैग़म्बरे इस्लाम (स.)के बाद इस दुनिया में आयें या जो क़ियामत तक पैदा होगें अगर वह पैग़म्बरे इस्लाम (स.)के सच्चे असहाब की राह पर चले तो वह भी लायक़े तारीफ़ हैं। क़ुरआने करीम फ़रमाता है कि “अस्साबिक़ूना अलअव्वलूना मीन अलमुहाजीरीना व अलअनसारि व अल्ल़ज़ीना अत्तबऊ हुम बिएहसानिन रज़िया अल्लाहु अनहुम व रज़ू अनहु ”[138] यानी मुहाजेरीन व अनसार में से पहली बार आगे बढ़ने वाले और वह लोग जिन्होंने उनकी नेकियों में उनकी पैरवी की अल्लाह उन से राज़ी हो गया और वह अल्लाह से राज़ी हो गये।
यह पैग़म्बरे इस्लाम (स.)के असहाब के बारे में हमारे अक़ीदेह का निचौड़ है।
55- आइम्मा-ए-अहले बैत (अ.)का इल्म पैग़म्बर (स.)का इल्म है।
मुतावातिर रिवायात की बिना पर पैग़म्बरे इस्लाम (स.)ने क़ुरआन व अहलेबैत अलैहिमुस् सलाम के बारे में हमें जो हुक्म दिया हैं कि इन दोंनों के दामन से वाबस्ता रहना ताकि हिदायत पर रहो इस की बिना पर और इस बिना पर कि हम आइम्मा-ए- अहले बैत अलैहिमुस् सलाम को मासूम मानते हैं और उनके तमाम आमाल व अहादीस हमारे लिए संद व हुज्जत हैं ,इसी तरह उनकी तक़रीर भी (यानी उनके सामने कोई काम अंजाम दिया गया हो और उन्होंने उस से मना न किया हो) क़ुरआने करीम व पैग़म्बरे इस्लाम (स.)की सीरत के बाद हमारे लिए फ़िक़्ह का मंबा है।
और जब भी हम इस नुक्ते पर तवज्जोह करते हैं कि बहुत सी मोतेबर रिवायतों की बिना पर आइम्मा-ए- मासूमीन अलैहिमुस् सलाम ने फ़रमाया है कि हम जो कुछ बयान करते हैं सब कुछ पैग़म्बरे इस्लाम(स.)का बयान किया हुआ है जो हमारे बाप दादाओं के ज़रिये हम तक पहुँचा है। इस से यह बात ज़ाहिर हो जाती है कि इनकी रिवायतें पैग़म्बरे इस्लाम (स.)की रिवायतें हैं। और हम सब जानते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.)से नक़्ल की गई मौरिदे ऐतेमाद व सिक़ा शख़्स की रिवायतें तमाम उलमा-ए- इस्लाम के नज़दीक क़ाबिले क़बूल हैं।
इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम ने जाबिर से फ़रमाया है कि “या जाबिरु इन्ना लव कुन्ना नुहद्दिसुकुम बिरायना व हुवा अना लकुन्ना मीनल हासीकीना,व लाकिन्ना नुहद्दिसु कुम बिअहादीसा नकनिज़ुहा अन रसूलि अल्लाहि (स.)”[139] यानी ऐ जाबिर अगर हम अपनी मर्ज़ी से हवा-ए- नफ़्स के तौर पर कोई हदीस तुम से बयान करें तो हलाक होने वालों में से हो जायेंगे। लेकिन हम तुम से वह हदीसें बयान करते हैं जो हम ने पैग़म्बरे इस्लाम (सल.)से ख़ज़ाने की तरह जमा की हैं।
इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम की एक हदीस में मिलता है कि किसी आप से सवाल किया आपने उसको उसके सवाल का जवाब अता किया वह इमाम से अपने नज़रिये को बदलने के लिए कहने लगा और आप से बहस करने लगा तो इमाम ने उस से फ़रमाया कि इन वातों को छोड़ “मा अजबतुका फ़ीहि मिन शैइन फ़हुवा अन रसूलिल्लाहि ” यानी मैने जो जवाब तुझ को दिया है इस में बहस की गुँजाइश नही है क्योँ कि यह रसूलुल्लाह(स.)का बयान फ़रमाया हुआ है। [140]
अहम व क़ाबिले तवज्जोह बात यह है कि हमारे पास हदीस की काफ़ी,तहज़ीब,इस्तबसार व मन ला यहज़ुरुहु अलफ़क़ीह बग़ैरह जैसी मोतबर किताबें मौजूद हैं। लेकिन इन किताबों के मोतबर होने का मतलब यह नही है कि जो रिवायतें इन में मौजूद हैं हम उन सब को क़बूल करते हैं। बल्कि इन रिवायतों को परखने के लिए हमारे पास इल्मे रिजाल की किताबें मौजूद है जिन में रावियों के तमाम हालात व सिलसिला-ए-सनद बयान किये गये हैं। हमारी नज़र में वही रिवायत क़ाबिले क़बूल है जिस की सनद में तमाम रावी क़ाबिले ऐतेमाद व सिक़ह हों। इस बिना पर अगर कोई रिवायत इन किताबों में भी हो और उसमें यह शर्तें न पाई जाती हों ते वह हमारे नज़दीक क़ाबिले क़बूल नही है।
इस के अलावा ऐसा भी मुमकिन है कि किसी रिवायत का सिलसिला-ए-सनद सही हो लेकिन हमारे बुज़ुर्ग उलमा व फ़क़ीहों ने शुरू से ही उस को नज़र अंदाज़ करते हुए उस से परहेज़ किया हो (शायद उस में कुछ और कमज़ोरियाँ देखी हों)हम ऐसी रिवायतों को “मोरज़ अन्हा ”कहते हैं और ऐसी रिवायतों का हमारे यहाँ कोई एतेबार नही है।
यहाँ से यह बात रौशन हो जाती है कि जो लोग हमारे अक़ीदों को सिर्फ़ इन किताबों में मौजूद किसी रिवायत या रिवायतों का सहारा ले कर समझने की कोशिश करते हैं,इस बात की तहक़ीक़ किये बिना कि इस रिवायत की सनद सही है या ग़लत,तो उनका यह तरीका-ए-कार ग़लत है।
दूसरे लफ़्ज़ों में इस्लाम के कुछ मशहूर फ़्रिक़ों में कुछ किताबें पाई जाती हैं जिनको सही के नाम से जाना जाता है,जिनके लिखने वालों ने इन में बयान रिवायतों के सही होने की ज़मानत ली है और दूसरे लोग भी उनको सही ही समझते हैं। लेकिन हमारे यहाँ मोतबर किताबों का मतलब यह हर गिज़ नही है,बल्कि यह वह किताबें है जिनके लिखने वाले मोरिदे एतेमाद व बरजस्ता शख़्सियत के मालिक थे,लेकिन इन में बयान की गई रिवायात का सही होना इल्मे रिजाल की किताबों में मज़कूर रावियों के हालात की तहक़ीक़ पर मुनहसिर है।
ऊपर बयान की गई बात से हमारे अक़ाअइद के बारे में उठने वाले बहुत से सवालों के जवाब ख़ुद मिल गये होगें। क्योँ कि इस तरह की ग़फ़लत के सबब हमारे अक़ाइद को तशख़ीस देने में बहुत सी ग़लतियाँ की जाती हैं।
बहर हाल क़ुरआने करीम की आयात,पैग़म्बरे इस्लाम (स.)की रिवायात के बाद आइम्मा-ए- मासूमीन अलैहिमुस् सलाम की अहादीस हमारी नज़र में मोतबर है इस शर्त के साथ कि इन अहादीस का इमामों से सादिर होने मोतबर तरीक़ों से साबित हो।
छटा हिस्सा
मसाइले मुतफ़र्रिक़
इस किताब के गुज़िश्ता हिस्सों में जो बहसें की गई हैं,वह उसूले दीन में हमारे अक़ीदों को रौशन करती है। हमारे अक़ीदों की कुछ और भी ख़ुसूसयात है जो हम इस हिस्से में बयान कर रहे हैं।
56- हुस्न व क़ुब्हे अक़ली का मसअला
हमारा अक़ीदह है कि इंसान की अक़्ल बहुत सी चीज़ों के हुस्न व क़ुब्ह (अच्छाई व बुराई )को समझती है। और यह उस ताक़त की बरकत से है जो अल्लाह ने इंसान को अच्छे और बुरे में तमीज़ करने के लिए अता की है। यहाँ तक की आसमानी शरीयत के नुज़ूल से पहले भी इंसान के लिए मसाइल का कुछ हिस्सा अक़्ल के ज़रिये रौशन था जैसे नेकी व अदालत की अच्छाई,ज़ुल्म व सितम की बुराई,अख़लाक़ी सिफ़ात जैसे सदाक़त,अमानत,शुजाअत,सख़ावत और इन्हीं के मिस्ल दूसरी सिफ़तों की अच्छाईयाँ,इसी तरह झूट,ख़ियानत,कंजूसी और इन्हीँ के मानिंद दूसरे ऐबों की बुराईयाँ वग़ैरह ऐसे मसाइल हैं जिन को इंसान की अक़्ल बहुत अच्छे तरीक़े से समझती है। अब रही यह बात कि अक़्ल तमाम चीज़ों के हुस्न व क़ुब्ह को समझने की सलाहियत नही रखती और इंसान की मालूमात महदूद है,तो इस के लिए अल्लाह ने दीन,आसमानी किताबों व पैग़म्बरों को भेजा ताकि वह इस काम को पूरा करें अक़्ल जिस चीज़ को दर्क करती है उसकी ताईद करे और अक़्ल जिन चीज़ों को समझने से आजिज़ है उनको रौशन करे।
अगर हम अक़्ल की ख़ुदमुखतारी को कुल्ली तौर पर मना करदें तो मस्ला-ए-तौहीद,खुदा शनासी,पैग़म्बरों की बेअसत व आसमानी अदयान का मफ़हूम की ख़त्म हो जाता है क्योँ कि अल्लाह के वुजूद और अम्बिया की दवत की हक़्क़ानियत का इसबात करना अक़्ल के ज़रिये ही मुमकिन है। ज़ाहिर है कि शरीअत के तमाम फ़रमान उसी वक़्त क़ाबिले क़बूल हैं जब यह दोनों मोजू (तौहीद व नबूवत)पहले अक़्ल के ज़रिये साबित हों जायें और इन दोनों मोज़ू को तनहा शरीअत के ज़रिये साबित करना नामुमकिन है।
57- अद्ले इलाही
इसी बिना पर हम अल्लाह के अद्ल के मोतक़िद हैं और कहते हैं कि यह मुहाल है कि अल्लाह अपने बन्दों पर ज़ुल्म करे,किसी दलील के बग़ैर किसी को सज़ा दे या माफ़ कर दे,अपने वादे को वफ़ा न करे,किसी गुनाहगार व ख़ताकार इंसान को अपनी तरफ़ से मंसबे नबूवत मंसूब करे और अपने मोजज़ात उसके इख़्तियार में दे।
और यह भी मुहाल है कि उस ने अपने जिन बन्दों को राहे सआदत तैय करने के लिए ख़ल्क़ किया है,उन को किसी राहनुमा या रहबर के बग़ैर छोड़ दे। क्योँ कि यह सब काम क़बीह (बुरे )हैं और अल्लाह के लिए बुरे काम अंजाम देना रवाँ नही हैं।
58- इंसान की आज़ादी
इसी बिना पर हमारा अक़ीदह यह है कि अल्लाह ने इंसान को आज़ाद पैदा किया है । इंसान अपने तमाम कामों को अपने इरादे व इख़्तेयार के साथ अंजाम देता हैं। अगर हम इंसान के कामों में जब्र के क़ाईल हो जायें तो बुरे लोगों को सज़ा देना उन पर ज़ुल्म,और नेक लोग़ों को इनआम देना एक बेहूदा काम शुमार होगा और यह काम अल्लाह की ज़ात से मुहाल है।
हम अपनी बात को कम करते हैं और सिर्फ़ यह कहते हैं कि हुस्न व क़ुब्हे अक़ली को क़बूल करना और इंसान की अक़्ल को ख़ुद मुख़्तार मानना बहुत से हक़ाइक़,उसूले दीन व शरीअत,नबूवते अम्बिया व आसमानी किताबों के क़बूल के लिए ज़रूरी है। लेकिन जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि इंसान की समझने की सलाहियत व मालूमात महदूद है लिहाज़ा सिर्फ़ अक़्ल के बल बूते पर उन तमाम हक़ाइक़ को समझना- जो उसकी सआदत व तकामुल से मरबूत हैं- मुमकिन नही है। इसी वजह से इंसान को तमाम हक़ाइक़ को समझने के लिए पैग़म्बरों व आसमानी किताबों की ज़रूरत है।
59- फ़िक़्ह का एक आधार अक़्ली दलील भी है
जो कुछ ऊपर बयान किया गया है उसकी बुनियाद पर हमारा अक़ीदह है कि दीने इस्लाम के असली मनाबे (आधारों)में से एक चीज़ अक़्ली दलील भी है। अक़्ली दलील से यहाँ पर यह मुराद है कि पहले अक़्ल किसी चीज़ को यक़ीनी तौर पर समझे फिर उसके बारे में फ़ैसला करे। मसलन फ़र्ज़ करो कि अगर किताब व सुन्नत में ज़ुल्म व ख़ियानत,झूट,क़त्ल,माल को चुराने व दूसरों के हक़ को पामाल करने के हराम होने के बारे में कोई दलील मौजूद न होती तो हम अक़्ल के ज़रिये इन कामों को हराम क़रार देते और यक़ीन करते कि आलिम व हकीम अल्लाह ने इन चीज़ों को हमारे लिए हराम क़रार दिया है और वह इन कामों को अंजाम देने पर हरगिज़ राज़ी नही है और यह हमारे लिए अल्लाह की एक हुज्जत होती।
क़ुरआने करीम ऐसी आयतों से पुर है जिन में अक़्ल व अक़्ली दलीलों की अहमियत को बयान किया गया है। जैसे- क़ुरआने करीम राहे तौहीद को तैय कराने के लिए साहिबाने अक़्ल व फ़हम को ज़मीन व आसमान में मौजूद अल्लाह की आयतों पर ग़ौर करने की दावत देता है “इन्ना फ़ी ख़ल्क़ि अस्सलावाति व अलअर्ज़ी व इख़्तिलाफ़ि अल्लैलि व अन्नहारि लआयातिन लिउलिल अलबाबि”[141] यानी ज़मीन व आसमान की ख़िल्क़त और दिन व रात के बदल ने में साहिबाने अक़्ल के लिए बहुत सी निशानियाँ हैं।
दूसरी तरफ़ क़ुरआने करीम आयाते इलाही को बयान करने का मक़सद इंसान के अक़्ल व फ़हम को बढ़ाना बता रहा है जैसे- “उनज़ुर कैफ़ा नुसर्रिफ़ु अलआयाति लअल्लाहुम यफ़क़हूना”[142] यानी देखो हम आयात को किस तरह मुख़्तलिफ़ ताबीरों के साथ बयान करते हैं ताकि वह समझ जायें।
तीसरी तरफ़ क़ुरआने करीम तमाम इंसानों को नेकी व बदी में तमीज़ करने की दावत दे कर उन को ग़ौर व फ़िक्र की राह पर गामज़न कर रहा है। जैसे- “क़ुल हल यस्तवी अलआमा व अलबसीरो अफ़ला ततफ़क्करूना”[143] यानी क्या अंधे व देखने वाले (नादान व दाना)बराबर हैं क्या तुम फ़िक्र नही करते ?
इसी तरह से क़ुरआने करीम ने सबसे बुरा उन नफ़्सों को कहा है जो न अपनी आँख,कान व ज़बान से काम लेते और नही अक़्ल को काम में लाते। जैसे-“इन्ना शर्रा अद्दवाब्बि इन्दा अल्लाहि अस्सुम्मु अलबुकमु अल्लज़ीना ला याक़िलूना ” [144] यानी अल्लाह के नज़दीक बदतरीन लोग गूँगे बहरे और अक़्ल से काम न लेने वाले अफ़राद हैं।
और इसी तरह की बहुत सी आयतें हैं। लिहाज़ा इन सब के बावुजूद इस्लाम के उसूल व फ़रूअ को समझने में अक़्ल व फ़िक्र को नज़र अनदाज़ नही किया जा सकता।

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