तौहीद, तमाम इस्लामी तालीमात की रूह है


तौहीद, तमाम इस्लामी तालीमात की रूह है

तौहीद, तमाम इस्लामी तालीमात की रूह है

हमारा अक़ीदह है कि अल्लाह की माअरफ़त के मसाइल में मुहिमतरीन मस्ला माअरफ़ते तौहीद है। तौहीद दर वाक़ेअ उसूले दीन में से एक अस्ल ही नही बल्कि तमाम अक़ाइदे इस्लामी की रूह है। और यह बात सराहत के साथ कही जा सकती है

तौहीद, तमाम इस्लामी तालीमात की रूह है


हमारा अक़ीदह है कि अल्लाह की माअरफ़त के मसाइल में मुहिमतरीन मस्ला माअरफ़ते तौहीद है। तौहीद दर वाक़ेअ उसूले दीन में से एक अस्ल ही नही बल्कि तमाम अक़ाइदे इस्लामी की रूह है। और यह बात सराहत के साथ कही जा सकती है कि इस्लाम के तमाम उसूल व फ़रूअ तौहीद से ही वुजूद में आते हैं। हर मंज़िल पर तौहीद की बाते हैं ,वहदते ज़ाते पाक, तौहीदे सिफ़ात व अफ़आले ख़ुदा और दूसरी तफ़्सीर में वहदते दावते अंबिया, वहदते दीन व आईने ईलाही,वहदते क़िबलाव किताबे आसमानी,तमाम इँसानों के लिए अहकाम व क़ानूने ईलाही की वहदत,वहदते सफ़ूफ़े मुस्लेमीन और वहदते यौमुल मआद (क़ियामत)।


इसी वजह से क़ुरआने करीम ने तौहीद ईलाही से हर तरह के इनहेराफ़ और शिर्क की तरफ़ लगाव को ना बखशा जाने वाला गुनाह कहा है। “इन्ना अल्लाहा ला यग़फ़िरू अन युशरका बिहि व यग़फ़िरु मा दूना ज़ालिका लिमन यशाउ व मन युशरिक बिल्लाह फ़क़द इफ़तरा इस्मन अज़ीमन ”[15] यानी अल्लाह शिर्क को हर गिज़ नही बख़शेगा,(लेकिन अगर)इसके (शिर्क)के अलावा (दूसरे गुनाह हैं तो) जिसके गुनाह चाहेगा बख़्श देगा,और जिसने किसी को अल्लाह का शरीक क़रार दिया उसने एक बहुत बड़ा गुनाह अँजाम दिया।


“व लक़द उहिया इलैका इला अल्लज़ीना मिन क़बलिका लइन अशरकता लयहबितन्ना अमलुका वलतकूनन्ना मिन अलखासिरीना ”[16] यानी बातहक़ीक़ तुम पर और तुम से पहले पैग़म्बरों पर वही की गई कि अगर तुम ने शिर्क किया तो तुम्हारे तमाम आमाल हब्त(ख़त्म)कर दिये जायेंगे और तुम नुक़्सान उठाने वालों में से हो जाओ गे।


6) तौहीद की क़िस्में


हमारा अक़ीदह है कि तौहीद की बहुत सी क़िस्में हैं जिन में से यह चार बहुत अहम हैं।


तौहीद दर ज़ात


यानी उसकी ज़ात यकता व तन्हा है और कोई उसके मिस्ल नही है


तौहीद दर सिफ़ात


यानी उसके सिफ़ात इल्म, क़ुदरत, अज़लीयत,अबदियत व .....तमाम उसकी ज़ात में जमा हैं और उसकी ऐने ज़ात हैं। उसके सिफ़ात मख़लूक़ात के सिफ़ात जैसे नही हैं क्योँ कि मख़लूक़ात के तमाम सिफ़ात भी एक दूसरे से जुदा और उनकी ज़ात भी सिफ़ात से जुदा होती है। अलबत्ता ऐनियते ज़ाते ख़ुदा वन्द बा सिफ़ात को समझ ने के लिए दिक़्क़त व ज़राफते फ़िकरी की जरूरत है।


तौहीद दर अफ़आल


हमारा अक़ीदह है कि इस आलमें हस्ति में जो अफ़आल,हरकात व असरात पाये जाते हैं उन सब का सरचश्मा इरादए ईलाही व उसकी मशियत है। “अल्लाहु ख़ालिकु कुल्लि शैइन व हुवा अला कुल्लि शैइन वकील ”[17] यानी हर चीज़ का ख़ालिक़ अल्लाह है और वही हर चीज़ का हाफ़िज़ व नाज़िर भी है। “लहु मक़ालीदु अस्समावाति व अलअर्ज़ि ” [18]तमाम ज़मीन व आसमान की कुँजियाँ उसके दस्ते क़ुदरत में हैं।


“ला मुअस्सिरु फ़ी अलवुजूदि इल्ला अल्लाहु ” इस जहाने हस्ति में अल्लाह की ज़ात के अलावा कोई असर अन्दाज़ नही है।


लेकिन इस बात का हर गिज़ यह मतलब नही है कि हम अपने आमाल में मजबूर है,बल्कि इसके बर अक्स हम अपने इरादोँ व फ़ैसलों में आज़ाद हैं “इन्ना हदैनाहु अस्सबीला इम्मा शाकिरन व इम्मा कफ़ूरन ” [19]हम ने (इँसान)की हिदायत कर दी है (उस को रास्ता दिखा दिया है)अब चाहे वह शुक्रिया अदा करे (यानी उसको क़बूल करे)या कुफ़्राने नेअमत करे (यीनू उसको क़बूल न करे)। “व अन लैसा लिल इँसानि इल्ला मा सआ ” [20] यानी इँसान के लिए कुछ नही है मगर वह जिसके लिए उसने कोशिश की है। क़ुरआन की यह आयत सरीहन इस बात की तरफ़ इशारा कर रही है कि इँसान अपने इरादे में आज़ाद है , लेकिन चूँकि अल्लाह ने इरादह की आज़ादी और हर काम को अँजाम देने की क़ुदरत हम को अता की है,हमारे काम उसकी तरफ़ इसनाद पैदा करते हैं इसके बग़ैर कि अपने कामों के बारे में हमारी ज़िम्मेदारी कम हो- इस पर दिक़्क़त करनी चाहिए। हाँ उसने इरादह किया है कि हम अपने आमाल को आज़ादी के साथ अँजाम दें ताकि वह इस तरीक़े से वह हमारी आज़माइश करे और राहे तकामुल में आगे ले जाये, क्योँ कि इँसानों का तकामुल तन्हा आज़ादीये इरादह और इख़्तियार के साथ अल्लाह की इताअत करने पर मुन्हसिर है, क्योँ कि आमाले जबरी व बेइख़्तियारी न किसी के नेक होने की दलील है और न बद होने की।


असूलन अगर हम अपने आमाल में मजबूर होते तो आसमानी किताबों का नज़ूल, अंबिया की बेसत, दीनी तकालीफ़ व तालीमो तरबीयत और इसी तरह से अल्लाह की तरफ़ से मिलनी वाली सज़ा या जज़ा ख़ाली अज़ मफ़हूम रह जाती।


यह वह चीज़ हैं जिसको हमने मकतबे आइम्मा-ए-अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम से सीखा है उन्होँने हम से फ़रमाया है कि “न जबरे मुतलक़ सही है न तफ़वाज़े मुतलक़ बल्कि इन दोनों के दरमियान एक चीज़ है, ला जबरा व ला तफ़वीज़ा व लाकिन अमरा बैना अमरैन ”[21]


तौहीद दर इबादत


यानी इबादत सिर्फ़ अल्लाह से मख़सूस है और उसकी ज़ाते पाक के अलावा किसी माबूद का वुजूद नही है। तौहीद की यह क़िस्म सबसे अहम क़िस्म है और इस की अहमियत इस बात से आशकार हो जाती है कि अल्लाह की तरफ़ से आने वाले तमाम अंबिया ने इस पर ही ज़्यादा ज़ोर दिया है “व मा उमिरू इल्ला लियअबुदू अल्लाहा मुख़लिसीना लहु अद्दीना हुनफ़आ..... व ज़ालिका दीनु अलक़य्यिमति ”[22] यानी पैग़म्बरों के इसके अलावा कोई हुक्म नही दिया गया कि तन्हा अल्लाह की इबादत करें, और अपने दीन को उसके लिए खालिस बनाऐं और तौहीद में किसी को शरीक क़रार देने से दूर रहें .....और यही अल्लाह का मोहकम आईन है।


अख़लाक़ व इरफ़ान के तकामुल के मराहिल को तय करने से तौहीद और अमीक़तर हो जाती है और इँसान इस मँज़िल पर पहुँच जाता है कि फ़क़त अल्लाह से लौ लगाये रखता है,हर जगह उसको चाहता है उसके अलावा किसी ग़ैर के बारे में नही सोचता और कोई चीज़ उसको अल्लाह से हटा कर अपनी तरफ़ मशग़ूल नही करती। कुल्ला मा शग़लका अनि अल्लाहि फ़हुवा सनमुका यानी जो चीज़ तुझ को अल्लाह से दूर कर अपने में उलझा ले वही तेरा बुत है।


हमारा अक़ीदह है कि तौहीद फ़क़त इन चार क़िस्मों पर ही मुन्हसिर नही है,बल्कि-


तौहीद दर मालकियत यानी हर चीज़ अल्लाह की मिल्कियत है। “ लिल्लाहि मा फ़ी अस्समावाति व मा फ़ी अलअर्ज़ि ”[23]


तौहीद दर हाकमियत यानी क़ानून फ़क़त अल्लाह का क़ानून है। “व मन लम यहकुम बिमा अनज़ला अल्लाहु फ़उलाइका हुमुल काफ़ीरूना ”[24] यानी जो अल्लाह के नाज़िल किये हुए (क़ानून के मुताबिक़) फ़ैसला नही करते काफ़िर हैं।


7)हमारा अक़ीदह है कि अस्ले तौहीदे अफ़आली इस हक़ीक़त की ताकीद करती है कि अल्लाह के पैग़म्बरों ने जो मोजज़ात दिखाए हैं वह अल्लाह के हुक्म से थे, क्योँ कि क़ुरआने करीम हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के बारे में फ़रमाता है कि “व तुबरिउ अलअकमहा व अलअबरसा बिइज़नि व इज़ तुख़रिजु अलमौता बिइज़नि ”[25] यानी तुम ने मादर ज़ाद अँधों और ला इलाज कोढ़ियों को मेरे हुक्म से सेहत दी!और मुर्दों को मेरे हुक्म से ज़िन्दा किया।


और जनाबे सुलेमान अलैहिस्सलाम के एक वज़ीर के बारे में फ़रमाया कि “क़ाला अल्लज़ी इन्दहु इल्मुन मिन अलकिताबि अना आतिका बिहि क़बला अन यरतद्दा इलैका तरफ़ुका फ़लम्मा रआहु मुस्तक़िर्रन इन्दहु क़ाला हाज़ा मिन फ़ज़लि रब्बि” यानी जिस के पास (आसमानी )किताब का थोड़ा सा इल्म था उसने कहा कि इस से पहले कि आप की पलक झपके मैं उसे (तख़्ते बिलक़ीस)आप के पास ले आउँगा,जब हज़रत सुलेमान ने उसको अपने पास ख़ड़ा पाया तो कहा यह मेरे परवरदिगार के फ़ज़्ल से है।


इस बिना पर जनाबे ईसा की तरफ़ अल्लाह के हुक्म से लाइलाज बीमारों को शिफ़ा (सेहत) देने और मुर्दों को ज़िन्दा करने की निसबत देना, जिसको क़ुरआने करीम ने सराहत के साथ बयान किया है ऐने तौहीद है।


8) फ़रिशतगाने ख़ुदा


फ़रिश्तों के वुजूद पर हमारा अक़ीदह है कि और हम मानते हैं कि उन में से हर एक की एक ख़ास ज़िम्मेदारी है-


एक गिरोह पैगम्बरों पर वही ले जाने पर मामूर हैं।[26]


एक गिरोह इँसानों के आमाल को हिफ़्ज़ करने पर[27]


एक गिरोह रूहों को क़ब्ज़ करने पर[28]


एक गिरोह इस्तेक़ामत के लिए मोमिनो की मदद करने पर[29]


एक गिरोह जँग मे मोमिनों की मदद करने पर[30]


एक गिरोह बाग़ी कौमों को सज़ा देने पर[31]


और उनकी एक सबसे अहम ज़िम्मेदारी इस जहान के निज़ाम में है।


क्योँ कि यह सब ज़िम्मेदारियाँ अल्लाह के हुक्म और उसकी ताक़त से है लिहाज़ अस्ले तौहीदे अफ़आली व तौहीदे रबूबियत की मुतनाफ़ी नही हैं बल्कि उस पर ताकीद है।


ज़िमनन यहाँ से मस्ला-ए-शफ़ाअते पैग़म्बरान, मासूमीन व फ़रिश्तेगान भी रौशन हो जाता है क्योँ कि यह अल्लाह के हुक्म से है लिहाज़ा ऐने तौहीद है। “मा मिन शफ़ीइन इल्ला मिन बअदि इज़निहि ”[32] यानी कोई शफ़ाअत करने वाला नही है मगर अल्लाह के हुक्म से।


मस्ला ए शफ़ाअत और तवस्सुल के बारे में और ज़्यादा शरह (व्याख्या) नबूवते अंबिया की बहस में देँ गे।


9)इबादत सिर्फ़ अल्लाह से मख़सूस है।


हमारा अक़ीदह है कि इबादत बस अल्लाह की ज़ाते पाक के लिए है। (जिस तरह से इस बारे में तौहीदे अद्ल की बहस में इशारा किया गया है)इस बिना पर जो भी उसके अलावा किसी दूसरे की इबादत करता है वह मुशरिक है, तमाम अंबिया की तबलीग़ भी इसी नुक्ते पर मरकूज़ थी “उअबुदू अल्लाहा मा लकुम मिन इलाहिन ग़ैरुहु”[33] यानी अल्लाह की इबादत करो उसके अलावा तुम्हारा और कोई माबूद नही है। यह बात क़ुरआने करीम में पैग़म्बरों से मुताद्दिद मर्तबा नक़्ल हुई है। मज़ेदार बात यह है कि हम तमाम मुसलमान हमेशा अपनी नमाज़ों में सूरए हम्द की तिलावत करते हुए इस इस्लामी नारे को दोहराते रहते हैं “इय्याका नअबुदु व इय्याका नस्तईनु ” यानी हम सिर्फ़ तेरी ही इबादत करते हैं और तुझ से ही मदद चाहते हैं।


यह बात ज़ाहिर है कि अल्लाह के इज़्न से पैग़म्बरों व फ़रिश्तों की शफ़ाअत का अक़ीदह जो कि क़ुरआने करीम की आयात में बयान हुआ है इबादत के मअना मे है।


पैग़म्बरों से इस तरह का तवस्सुल कि जिस में यह चाहा जाये कि परवर दिगार की बारगाह में तवस्सुल करने वाले की मुश्किल का हल तलब करें, न तो इबादत शुमार होता है और न ही तौहीदे अफ़आली या तौहीदे इबादती के मुतनाफ़ी है। इस मस्ले की शरह नबूवत की बहस में बयान की जाएगी।


10) ज़ाते ख़ुदा की हक़ीक़त सबसे पौशीदा है


हमारा अक़ीदह है कि इसके बावुजूद कि यह दुनिया अल्लाह के वुजूद के आसार से भरी हुई है फ़िर भी उसकी ज़ात की हक़ीक़त किसी पर रौशन नही है और न ही कोई उसकी ज़ात की हक़ीक़त को समझ सकता है, क्योँ कि उसकी ज़ात हर लिहाज़ से बेनिहायत और हमारी ज़ात हर लिहाज़ से महदूद है लिहाज़ा हम उस की ज़ात का इहाता नही कर सकते“अला इन्नहु बिकुल्लि शैइन मुहीतु ”[34] यानी जान लो कि उस का हर चीज़ पर इहाता है। या यह आयत कि “व अल्लाहु मिन वराइहिम मुहीतु ”[35]यानी अल्लाह उन सब पर इहाता रखता है।


पैग़म्बरे इस्लाम (स.)की एक मशहूर व माअरूफ़ हदीस में मिलता है कि “मा अबदनाका हक़्क़ा इबादतिक व मा अरफ़नाका हक़्क़ा मअरिफ़तिक”[36] यानी न हम ने हक़्क़े इबादत अदा किया और न हक़्क़े माअरेफ़त लेकिन इसका मतलब यह नही है जिस तरह हम उसकी ज़ाते पाक के इल्मे तफ़्सीली से महरूम है इसी तरह इजमाली इल्म व माअरेफ़ते से भी महरूम हैं और बाबे मअरेफ़तु अल्लाह में सिर्फ़ उन अलफ़ाज़ पर क़िनाअत करते हैं जिनका हमारे लिए कोई मफ़हूम नही है। यह मारिफ़तु अल्लाह का वह बाब है जो हमारे नज़दीक क़ाबिले क़बूल नही है और न ही हम इसके मोतक़िद हैं। क्योँ कि क़ुरआन और दूसरी आसमानी किताबे अल्लाह की माअरेफ़त के लिए ही तो नाज़िल हुई है।


इस मोज़ू के लिए बहुत सी मिसाले बयान की जा सकती हैं जैसे हम रूह की हक़ीक़त से वाक़िफ़ नही हैं लेकिन रूह के वुजूद के बारे में हमें इजमाली इल्म है और हम उसके आसार का मुशाहेदा करते हैं।


इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि “ कुल्ला मा मय्यज़तमुहु बिअवहामिकुम फ़ी अदक़्क़ि मुआनीहि मख़लूक़ुन मसनूउन मिस्लुकुम मरदूदुन इलैकुम”[37] यानी तुम अपनी फ़िक्र व वहम में जिस चीज़ को भी उसके दक़ीक़तरीन मअना में तसव्वुर करोगे वह मख़लूक़ और तुम्हारे पैदा की हुई चीज़ है,जो तुम्हारी ही मिस्ल है और वह तुम्हारी ही तरफ़ पलटा दी जायेगी।


अमीरुल मोमेनीन हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने मअरिफ़तु अल्लाह की बारीक व दक़ीक़ राह को बहुत सादा व ज़ेबा तबीर के ज़रिये बयान फ़रमाया है “लम युतलिइ अल्लाहु सुबहानहु अल उक़ूला अला तहदीदे सिफ़तिहि व लम यहजुबहा अमवाज़ा मअरिफ़तिहि ”[38] यानी अल्लाह ने अक़्लों को अपनी ज़ात की हक़ीक़त से आगाह नही किया है लेकिन इसके बावुजूद जरूरी माअरिफ़त से महरूम भी नही किया है।


11)न तर्क न तशबीह


हमारा अक़ीदह यह है कि जिस तरह से अल्लाह की पहचान और उसके सिफ़ात की मारेफ़त को तरक करना सही नही है उसी तरह उसकी ज़ात को दूसरी चीज़ों से तशबीह देना ग़लत और मुजिबे शिर्क है। यानी जिस तरह उसकी ज़ात को दूसरी मख़लूक़ से मुशाबेह नही माना जा सकता इसी तरह यह भी नही कहा जा सकता है कि हमारे पास उसके पहचान ने का कोई ज़रिया नही है और उसकी ज़ात असलन काबिले मारेफ़त नही है। हमें इस बात पर ग़ौर करना चाहिए क्योँ कि एक राहे इफ़रात है दूसरी तफरीत।


दूसरा हिस्सा


नबूवत


12)नबियों की बेसत का फलसफ़ा


हमारा अक़ीदह है कि अल्लाह ने नोए बशर (इँसानों)की हिदायत के लिए और इँसानों को कमाले मतलूब व अबदी सआदत तक पहुँचाने के लिए पैग़म्बरों को भेजा है। क्योँ कि अगर ऐसा न करता तो इँसान को पैदा करने का मक़सद फ़ोत हो जाता, इँसान गुमराही के दरिया मे ग़ोता ज़न रहता और इस तरह नक़्ज़े ग़रज़ लाज़िम आती। “रसूलन मुबश्शेरीना व मुँज़िरीना लिअल्ला यकूना लिन्नासि अला अल्लाहि हुज्जतन बअदा रसुलि व काना अल्लाहु अज़ीज़न हकीमन ”[39] यानी अल्लाह ने खुश ख़बरी देने और डराने वाले पैग़म्बरों को भेज़ा ताकि इन पैग़म्बरो को भेज ने के बाद लोगो पर अल्लाह की हुज्जत बाकी न रहे (यानी वह लोगों को सआदत का रास्ता बतायें और इस तरह हुज्जत तमाम हो जाये)और अल्लाह अज़ीज़ व हकीम है।