हदीसे ग़दीर की दलादत

हदीसे ग़दीर में लफ़्ज़े मौला सर परस्त, इमाम और औला बित तसर्रुफ़ के मायने में हैं, इस मतलब को मुख़्तलिफ़ तरीक़ों से साबित किया जा सकता है:

1. ख़ुद लफ़्ज़ से इसी मायना का तबादुर होना

लफ़्ज़े वली और मौला लुग़ते अरब में अगरचे मुख़्तलिफ़ मायना के लिये इस्तेमाल होता है लेकिन जब किसी क़रीने से ख़ाली हो तो अरब उसको सर परस्त और औला बित तसर्रुफ़ के मायना में लेते हैं (और यही मायना इमामत के हैं) जबकि तबादुर, हक़ीक़त की निशानी होता है।

2. किसी इंसान की तरफ़ इज़ाफ़े की सूरत में तबादुर

अगर फ़र्ज़ करें कि ख़ुद लफ़्ज़ से इस मायना का तबादुर न होता हो तो भी यह दावा किया जा सकता है कि जब इस लफ़्ज़ को किसी इंसान की तरफ़ इज़ाफ़ा किया जाये जैसे अरब कहते हैं: वली ए ज़ौजा तो इसके मआनी यानी ज़ौजा का सर परस्त होते हैं या कहा जाता है: वली व मौला ए तिफ़्ल, तो इससे बच्चे के सर परस्त मुराद होता है।



3. क़ुरआनी इस्तेमाल

क़ुरआने करीम की आयात के मुतालआ के बाद यह नतीजा हासिल होता है कि लफ़्ज़े मौला औवलवियत के मअना में इस्तेमाल हुआ है जैसा कि खुदा वंदे आलम का इरशाद है:

आयत (सूरये हदीद आयत 15)

तो न आज तुम से कोई फ़िदया लिया जायेगा और न कुफ़्फ़ार से, तुम सब का ठिकाना जहन्नम है, वही तुम सबका साहिबे इख़्तियार (और मौला) है औ तुम्हारा बदतरीन अंजाम है।

इस आयत में लफ़्ज़े मौला औवलवियत के मअना में इस्तेमाल हुआ है।
4. फ़हमें सहाबा

तारीख़े के मुतालआ से यह नतीज़ा हासिल होता है कि ग़दीरे ख़ुम में मौजूद सहाबा ने पैग़म्बरे अकरम (स) के कलाम को सुना तो सबने इस हदीस से सर परस्ती, औला बित तसर्रुफ़ और इमामत के मअना समझे और जो लोग आँ हज़रत (स) के ज़माने में ज़िन्दगी बसर करते थे और आँ हज़रत (स) के मक़सूद और मंज़ूर के ख़ूब समझते थे, उनके यह मअना समझना हमारे लिये हुज्जत व दलील बन सकते हैं, सहाबा ए केराम की इस समझ पर किसी ने मुख़ालेफ़त नही की बल्कि बाद वाली नस्लों ने भी यही मअना मुराद लिये हैं और अपने अशआर व नज़्म में इसी मअना को इस्तेमाल किया है।

बहुत सी अज़ीम शख़्सियतों ने इस हदीस से सर परस्ती के मअना समझे हैं और उसी मअना को अपने अशआर में बयान किया है जैसे मुआविया के जवाब में हज़रत अली (अ) ने जो ख़त लिखा और हस्सान बिन साबित, क़ैस बिन साद बिन उबाद ए अंसारी, मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह हिमयरी, अब्द कूफ़ी, अबी तमाम, देबले ख़ुज़ाई, हम्मानी कूफ़ी, अमीर अबी फ़रास, अलमुल हुदा वग़ैरह।

क्या ऐसा नही है कि उमर व अबू बक्र ने पैग़म्बरे अकरम (स) से ख़ुतब ए ग़दीर और हदीसे ग़दीर सुनने के बाद हज़रत अली (अ) की ख़िदमत में तहनीयत और मुबारकबाद दी, क्यो उन्होने इमामात व ख़िलाफ़त के मअना नही समझे थे?।

क्यो हारिस बिन नोमान फ़हरी ने हज़रत अली (अ) की विलायत को बर्दाश्त न किया और ख़ुदा वंदे आलम से अज़ाब की दरख़्वास्त कर डाली? क्या वह पैग़म्बरे अकरम (स) के बाद हज़रत अली (अ) की विलायत व ख़िलाफ़त को नही समझ रहा था?

कूफ़ा में कुछ लोग हज़रत अमीरुल मोमिनीन (अ) की ख़िदमत मे पहुच कर अर्ज़ करते थे: .... इमाम अली (अ) ने उनसे फ़रमाया: मैं किस तरह तुम लोगों का मौला हूँ जबकि तुम अरब के एक ख़ास क़बीले से ताअल्लुक़ रखते हो? उन्होने जवाब में कहा: क्यो कि हमने रसूरे अकरम (स) से रोज़े ग़दीर सुना है कि आपने फ़रमाया: .........।

() इरशादुस सारी जिल्द 7 पेज 280



5. इशतेराके मअनवी

इब्ने तरीक़े कहते हैं: जो शख़्स लुग़त की किताबों को देखे तो वह इस नतीजे पर पहुचता है कि लफ़्ज़े मौला के मुख़्तलिफ़ मअना हैं, नमूने के तौर पर फ़िरोज़ाबादी कहते हैं: मौला के मअना मालिक, अब्द, आज़ाद करने वाला, आज़ाद शुदा, क़रीबी साथी, जैसे चचा ज़ाद भाई वग़ैरह, पड़ोसी क़सम में शरीक फ़रज़ंद, चचा, नाज़िल होने वाला, शरीक, भाँजा, सर परस्त, तरबीयत करने वाला, यावर, नेमत अता करने वाला, जिसको नेमत दी गई हो, दोस्त, पीर व दामाद के हैं।

() क़ामूसुल मुहीत जिल्द 4 पेज 410

इसके बाद इब्ने तरीक़ कहते हैं: हक़ यह है कि लफ़्ज़े मौला के एक से ज़्यादा मअना नही हैं और वह मअना किसी चीज़ पर औला और ज़्यादा हक़दार के हैं, लेकिन यह औवलवियत इस्तेमाल के लिहाज़ से हर जगह बदल जाती है, पस नतीजा यह हुआ कि लफ़्ज़े मौला उन मुख़्तलिफ़ मअना में शरीके मअनवी है, और मुशतरके मअनवी, मुशतरके लफ़्ज़ी से ज़्यादा मुनासिब होता है।

() इब्ने तरीक़, अल उमदा पेज 114, 115

क़ारेईने मोहतरम, हम इब्ने तरीक़ के कलाम की वज़ाहत के लिये अर्ज़ करते हैं:

हम थोड़ी ग़ौर व फ़िक्र के बाद इस नतीजे पर पहुचते हैं कि किसी चीज़ में औवलवियत के मअना, एक लिहाज़ से लफ़्ज़े मौला के हर मअना में पाये जाते हैं और उन तमाम मअना में इस लफ़्ज़ का इतलाक़ औवलवियत के मअना की वजह से होता है।

मौला के एक मअना मालिक के थे, लेकिन मालिक को मौला इस वजह से कहा जाता है कि वह अपने माल में तसर्रुफ़ करने में औला होता है।
एक मअना अब्द के थे, अब्द भी अपने मौला की इताअत करने में दूसरे की निस्बत औला होता है।
आज़ाद करने वाला अपने ग़ुलाम पर फ़ज़्ल व करम करने में दूसरों की निस्बत औला होता है।
आज़ाद होने वाला, दूसरों की निस्बत अपने मौला के शुक्रिया का ज़्यादा हक़दार होता है।
साथी, अपने साथी के हुक़ूक़ की मारेफ़त का ज़्यादा हक़दार होता है।
नज़दीक, अपनी क़ौम के देफ़ाअ का ज़्यादा हक़दार होता है।
पड़ोसी, अपने पड़ोसियों के हुक़ूक़ की रियाअत करने का ज़्यादा हक़दार होता है।
क़सम में शरीक़, अपने हम क़सम के देफ़ाअ और उसकी हिमायत का ज़्यादा हक़दार होता है।
औलाद अपने बाप की इताअत करने की ज़्यादा हक़दार होती है।
चचा, अपने भतीजे की देखभाल का ज़्यादा हक़दार होता है वग़ैरह।
नतीजा यह हुआ कि लफ़्ज़े मौला लुग़ते अरब में ज़्यादा हक़दार के मअना में इस्तेमाल होता है, हदीसे ग़दीर में लफ़्ज़े मौला ..की तरफ़ इज़ाफ़ा होने (यानी मौलाहु) की वजह से चूँकि लोगों की तरफ़ इज़ाफ़ा हुआ है लिहाज़ा इसके मअना वही सर परस्ती के है जो इमामत की ही रदीफ़ में है।



6. सद्रे हदीस में मौजूद क़रीना

पैग़म्बरे अकरम (स) ने हदीस ... से पहले फ़रमाया: ....क्या मैं तुम लोगों पर ख़ुद तुम से ज़्यादा हक़दार नही हूँ? तो सब लोगों ने एक जवाब होकर कहा: जी हाँ, उस वक़्त रसूले अकरम (स) ने फ़रमाया: ........ और फ़मन में फ़ा तफ़रीई है यानी यह जुमला पहले वाले जुमले की एक फ़रअ है, दर हक़ीक़त पहले वाला जुमला हदीसे ग़दीर की तफ़सीर करने वाला है, इस मअना में कि (रसूले ख़ुदा (स) फ़रमाते हैं कि) ख़ुदा वंदे आलम ने जो मक़ाम मेरे लिये क़रार है और मुझे तुम लोगों का सर परस्त क़रार दिया है, वही मक़ाम और ओहदा मेरे बाद हज़रत अली (अ) के भी है और यहा मअना क़ुरआने करीम से भी हासिल होते हैं जैसा कि ख़ुदा वंदे आलम ने फ़रमाया:

() यह जुमला हदीसे ग़दीर की बहुत सी अहादिस में बयान हुआ है।

आयत (सूरये अहज़ाब आयत 6)

बेशक नबी तमाम मोमिनीन से उनके नफ़्स की वनिस्बत ज़्यादा औला है।

क़सतानी मज़कूरा आयत की तफ़सीर में कहते हैं: पैग़म्बरे अकरम (स) मुसलमानों के तमाम उमूर में हुक्म नाफ़िज़ करने और इताअत के लिहाज़ से ज़्यादा हक़दार हैं। इब्ने अब्बास और आता कहते हैं: जब पैग़म्बरे इस्लाम (स) लोगों को किसी काम के लिये हुक्म दें, जबकि उनका नफ़्स उनको किसी दूसरे काम का हुक्म देता हो तो वह पैग़म्बरे अकरम (स) की इताअत के ज़्यादा हक़दार हैं, क्योकि पैग़म्बरे अकरम (स) उनको सिर्फ़ उन्ही चीज़ों का हुक्म देते हैं और उसी काम से राज़ी होते हैं जिसमें उनकी ख़ैर व भलाई हो, बरख़िलाफ़ उनके नफ़्सों के।

बैज़ावी कहते हैं: पैग़म्बरे अकरम (स) तमाम उमूर में मोमिनीन की निस्बत ख़ुद उनके नफ़्सों का ज़्यादा हक़दार हैं, क्योकि आँ हज़पत (स) दूसरों के बर ख़िलाफ़ उस काम का हुक्म नही करेगें जिसमें उनकी मसलहत न हो और न उस काम पर राज़ी होगें।

() इरशादुस सारी जिल्द 7 पेज 280

() अनवारूत तंज़ील बैज़ावी सूरये अहज़ाब आयत 6 के ज़ैल में

ज़मख़्शरी कहते है: पैग़म्बरे अकरन (स) मोमिनीन की निस्बत दीन व दुनिया की हर चीज़ में ख़ुद उनसे औला हैं, इसी वजह से आयते शरीफ़ा में मुतलक़ तौर पर हुक्म हुआ है और किसी चीज़ की क़ैद नही है, लिहाज़ा मोमिनीन पर वाजिब है कि उनके नज़दीक आँ हज़रत (स) की शख़्सीयत सबसे ज़्यादा महबूब क़रार पाये और उनका हुक्म अपने हुक्म से भी ज़्यादा नाफ़िज़ मानें, नीज़ आँ हज़रत (स) का हुक्म ख़ुद उनके हुक्म पर भी मुक़द्दम है।

यही तफ़सीर नसफ़ी और सुयूती ने भी की है। ()

() अलकाशिफ़ जिल्द 3 पेज 523

() मदारिकुत तंज़ील नसफ़ी, जिल्द 3 पेज 294, तफ़सीरे जलालैन, मज़कूरा आयत के ज़ैल में

क़ाबिले ज़िक्र है कि .... का फ़िक़रा बहुत से उलामा अहले सुन्नत ने नक़्ल किया है जैसे अहमद बिन हंबल, इब्नेम माजा, निसाई, शैबानी, ज़हबी, हाकिम, सअलबी, अबू नईम, बैहक़ी, ख़तीबे बग़दादी, इब्ने मग़ाज़ेली, ख़ारज़मी, बैज़ावी, इब्ने असाकर, इब्ने असीर, गंजी शाफ़ेई, तफ़ताज़ानी, क़ाज़ी ऐजी, मुहिब्बुद्दीन तबरी, इब्ने कसीर, हमूई, ज़रन्दी, क़सतानी, जज़री, मक़रीज़ी, बान सब्बाग़ हैसमी, इब्ने हजर, समहूदी, सुयूती, हलबी, इब्ने हजरे मक्की, बदख़शी वग़ैरह।



7. ज़ैले हदीस

बहुत सी हदीसे ग़दीर के ज़ैल में यह जुमला नक़्ल हुआ है ..........() ख़ुदा वंदा, जो अली (अ) की विलायत को कबूल करे, उसको दोस्त रख और जो उनकी विलायत को कबूल न करे और उनसे दुश्मनी करे, उनको तू भी दुश्मन रख।

() मुसनदे अहमद जिल्द 1 पेज 118, मुसतदरके हाकिम जिल्द 3 पेज 109

यह जुमला जिसको चंद उलामा ए अहले सुन्नत जैसे इब्ने कसीर और अलबानी ने सही माना है, सिर्फ़ सर परस्ती और इमामत से हम आहंग है न कि मुहब्बत व दोस्ती के मअना से, जैसा कि बाज़ अहले सुन्नत ने कहा है क्योकि हज़रत अली (अ) को दोस्त रखने वालों के लिये आँ हज़रत (स) का दुआ करना कोई मअना नही रखता।



8. मुसलमानों को गवाह बनाना

हुज़ैफ़ा बिन उसैद सही सनद के साथ नक़्ल करते हैं कि रसूले अकरम (स) ने रोज़े ग़दीरे ख़ुम फ़रमाया: क्या तुम लोग ख़ुदा वंदे आलम की वहदानियत .............. और मेरी नबूव्वत .......... की गवाही देते हो? तो सब लोगों ने एक ज़बान हो कर कहा: जी हाँ या रसूलल्लाह, हम उन चीज़ों की गवाही देते हैं, उस वक़्त पैग़म्बरे अकरम (स) ने फ़रमाया, ऐ लोगों, ख़ुदा वंदे आलम मेरा सर परस्त है और मैं मोमिनीन का सर परस्त और तुम पर तुम्हारे नफ़्सों से ज़्यादा औला हूँ, लिहाज़ा जिसका मैं मौला हूँ उसके यह अली भी (अ) मौला हैं।

() उसदुल ग़ाबा जिल्द 6 पेज 136 हदीस 5940, तारीख़े दमिश्क़ जिल्द 12 पेज 226, सीरये हलबी जिल्द 3 पेज 374

क़ारेईने केराम, आँ हज़रत (स) ने हज़रत अली (अ) की विलायत को तौहीद व रिसालत की गवाही की रदीफ़ में क़रार दिया, यह ख़ुद इस बात की दलील है कि हज़रत अली (अ) की विलायत इसी इमामत और उम्मत की सर परस्ती के मअना में है।



9. इमाम अली (अ) की विलायत पर दीन की मुकम्मल होना

सूरए मायदा आयत 6 आयते इकमाल को ज़ैल में सहीहुसस सनद रिवायतों के मुताबिक़ ख़ुदा वंदे आलम ने वाक़ेया ए ग़दीर में रसूल अकरम (स) के ख़ुतबे के बाद यह आय ए शरीफ़ नाज़िल हुई:

(आयत) (सूरए मायदा आयत 6)

आज मैंने तुम्हारे दीन को कामिल कर दिया और तुम पर अपनी नेमत पूरी कर दी और तुम्हारे इस दीन इस्लाम को पसंद किया।

इस आयत से यह नतीजा निकलता है कि ख़ुदावंदें आलम इस इस्लाम से राज़ी है जिसमें हज़रत अली (अ) की विलायत पाई जाती हो, क्यो कि दीन आप की विलायत से कामिल हुआ है और नेमतें भी आपकी विलायत का वजह से तमाम हुई हैं और यह हज़रत अली (अ) की इमामत और सर परस्ती से हम आहंन्ग है, लिहाज़ा बाज़ रिवायात के मुताबिक़ आय ए इकमाल के नाज़िल होने के बाद और ग़दीर ख़ुम से लोगों के अलग अलग होने से पहले रसूले अकरम (स) ने फ़रमाया:

हदीस ...........

() अल बिदाया वन निहायह जिल्द 5 पेज 214, शवाहिदुत तंज़ील जिल्द 1 पेज 157

अल्लाहो अकबर, दीन के कामिल होने, नेमतें तमाम करने, मेरी रिसालत और मेरे बाद अली (अ) की विलायत पर राज़ी होने पर।



10.पैग़म्बरे अकरम (स) की वफ़ात की ख़बर

पैग़म्बरे अकरम (स) ने ख़ुतब ए ग़दीर के पहले हिस्से में लोगों के सामने यह ऐलान फ़रमा दिया था: ……. गोया मुझे ख़ुदा वंदे आलम की तरफ़ से दावत दी गई है और मैं उसको क़बूल करने वाला हूँ और बाज़ रिवायात की बेना पर आँ हजरत (स) ने फ़रमाया: ............. नज़दीक है कि मुझे ख़ुदा वंदे आलम की तरफ से दावत दी जाये और मैं भी उसको क़बूल कर लूँ।

हदीस में इस्तेमाल होने वाले अल्फ़ाज़ से यह नतीजा हासिल होता है कि पैग़म्बरे अकरम (स) एक बहुत अहम ख़बर देना चाहते हैं जिससे पहले चंद चीज़ें मुक़द्दमें के तौर पर बयान फ़रमाई और बाद में अपनी रेहलत की खबर सुनाई और यह बात सिर्फ़ इमामत, ख़िलाफ़त, सर परस्ती और जानशीनी के अलावा किसी दूसरे मअना से हम आहंग नही है।



11.पैग़म्बरे अकरम (स) की ख़िदमत में मुबारकबाद पेश करना

बाज़ रिवायात के मुताबिक़ पैग़म्बरे अकरम (स) ने वाक़ेया ए ग़दीर और ख़ुतबे के तमाम होने के बाद असहाब को हुक्म दिया कि हमें तहनीयत और मुबारक बाद पेश करो। किताब शरफ़ुल मुसतफ़ा में हाफ़िज़ अबू सईद नैशा पुरी (407) की नक़्ल के मुताबिक़ मौसूफ़ अपनी सनद के साथ बरा बिन आज़िब और अबू सईद ख़िदरी से नक़्ल करते हैं कि रसूले अकरम (स) ने फ़रमाया:

हदीस.....

मुझे मुबारक बाद पेश करो, मुझे मुबारक बाद पेश करो, क्योकि ख़ुदावंदे आलम ने मुझे नबूव्वत और मेरे अहले बैत को इमामत से मख़्सूस फ़रमाया है।

उमर बिन ख़त्ताब इस मौक़े पर आगे बढ़े और हज़रत अली (अ) की ख़िदमत में मुबारक बाद पेश की।



12.रसूले अकरम (स) का ख़ौफ़

अल्लामा सुयूती ने नक़्ल किया है कि पैग़म्बरे अकरम (स) ने फ़रमाया: बेशक ख़ुदावंदे आलम ने मुझे मबऊस बरिसालत फ़रमाया और यह बात मेरे लिये संगीन थी, मैं जानता था कि जब मैं लोगों के सामने इस अम्र को पेश करूँगा तो वह मुझे झुटलायेगें, उस मौक़े पर ख़ुदावंदे आलम ने मुझे डराया कि इस अम्र को आप ज़रूर पहुचायें वर्ना आप के लिये अज़ाब होगा। चुनाँचे इस मौक़े पर यह आयत नाज़िल हुई:

आयत ()

() दुर्रे मंसूर जिल्द 2 पेज 298

क़ारेईने केराम, पैग़म्बरे अकरम (स) ख़ौफ़ ज़दा थे लेकिन किस चीज़ से ख़ौफ़ ज़दा थे? क्या इस बात को पहुचाने से ख़ौफ़ ज़दा थे कि हज़रत अली (अ) तुम्हारे दोस्त और मददगार हैं? हरगिज़ ऐसा नही है बल्कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) हज़रत अली (अ) की ख़िलाफ़त व विलायत और सर परस्ती को पहुचाने में लोगों से ख़ौफ़ ज़दा थे, क्यो कि आप जानते थै कि कु़रैश हज़रत अली (अ) से ख़ुसूमत और दुश्मनी रखते हैं, क्योकि यह वही शख़्सीयत हैं जिन्होने उनके आबा व अजदाद को मुख़्तलिफ़ जंगों में क़त्ल किया था।



13.हारिस बिन नोमान का इंकार

बाज़ रिवायात के मुताबिक़ हारिस बिन नोमान फ़हरी ग़दीर की ख़बर सुन कर रसूले अकरम (स) की ख़िदमत में आया और अर्ज़ की: ऐ मुहम्मद, तुमने ख़ुदा वंदे आलम की तरफ़ से हमें हुक्म दिया कि ख़ुदा की वहदानियत और तुम्हारी रिसालत की गवाही दें, तो हमने क़बूल किया, तुमने हमें पाँच वक़्त की नमाज़ का हुक्म दिया, हमने उसको भी क़बूल किया, तुमने रोज़ा, ज़कात और हज का हुक्म दिया, हमने मान लिया, लेकिन इस पर राज़ी नही हुए और अपने चचाज़ाद भाई को हाथ पकड़ कर बुलंद किया और उसको हम पर फ़ज़ीलत दी और कहा ............. क्या यह हुक्म अपनी तरफ़ से था या ख़ुदा वंदे आलम की तरफ़ से? रसूले अकरम (स) ने फ़रमाया: क़सम उस ख़ुदा की जिसके अलावा कोई माबूद नही है, मैंने इस हुक्म को भी ख़ुदा वंदे आलम की तरफ़ से पहुचाया है। उस मौक़े पर हारिस बिन नोमान मुँह मोड़ कर चल पड़ा और अपनी सवारी की तरफ़ यह कहता हुआ चला कि पालने वाले, अगर जो मुहम्मद कह रहे हैं हक़ है तो मुझ पर आसमान से पत्थर भेज दे या मुझे दर्दनाक अज़ाब में मुब्तला कर दे, चुनाँचे वह अभी अपनी सवारी तक नही पहुच पाया था कि ख़ुदा वंदे आलम ने आसमान से उस पर एक पत्थर नाज़िल फ़रमाया जो उसके सर पर आ कर लगा और उसकी पुश्त से बाहर निकल गया और वहीं वासिले जहन्नम हो गया, उस मौक़े पर यह आय ए शरीफ़ा नाज़िल हुई:

(आयत) सूरए मआरिज आयत 1,2

एक माँगने वाले ने वाक़े होने वाले अज़ाब का सवाल किया।

इस हदीस को सअलबी ने अपनी तफ़सीर में मज़कूरा आयत के ज़ैल में और दीगर उलामा ने भी नक़्ल किया है।

अगर हदीसे ग़दीर सिर्फ़ हज़रत अली (अ) की मुहब्बत और आपकी नुसरत की ख़बर थी तो हारिस को ख़ुदा वंदे आलम से अज़ाब माँगने की क्या ज़रूरत थी? यह तो सिर्फ़ सर परस्ती की सूरत में मुमकिन है जिसको बाज़ लोग कबूल नही करना चाहते हैं।



14.मंसूब करने के लफ़्ज़ का इस्तेमाल

बाज़ रिवायाते ग़दीरे ख़ुम में लफ़्ज़े नस्ब बयान हुआ है।

शहाबुद्दीन हमदानी उमर बिन ख़त्ताब से नक़्ल करते हैं कि उन्होने कहा: रसूले अकरम (स) ने हज़रत अली (अ) को अलम के उनवान से नस्ब किया और फ़रमाया:………….

() मवद्दतुस क़ुरबा, मवद्दते पंजुम

हमविनी अपनी सनद के साथ हज़रत अली (अ) से रिवायत करते हैं कि आपने फ़रमाया: ख़ुदा वंदे आलम ने अपने पैग़म्बर को हुक्म दिया कि मुझे लोगों पर मंसूब करें। () जबकि हम जानते हैं कि लफ़्ज़ किसी को नस्ब या मंसूब करना, इमामत और सर परस्ती से मुताबेक़त रखता है।

() फ़रायदुस समतैन जिल्द 1 पेद 312



15. ताजे शराफ़त

बाज़ रिवायात के मुताबिक़ पैग़म्बरे अकरम (स) ने वाक़ेय ए ग़दीरे के बाद अपने मारूफ़ अम्मामा बनामे शहाब को हज़रत अली (अ) के सरे मुबारक पर रखा।

इब्ने क़ैयिम कहते है: रसूले ख़ुदा का एक अम्मामा बनामे शहाब था जिसको हज़रत अली (अ) के सर पर रखा। ()

() ज़ादुल मआद जिल्द 1 पेज 121

मुस्लिम भी नक़्ल करते हैं कि रसूले अकरम (स) इस अम्मामे को मख़्सूस दिनों में जैसे रोज़े फ़तहे मक्का सर पर रखते थे।

मुहिबुद्दीन तबरी, अब्दुल आला बिन अदी बहरानी से रिवायत करते हैं कि उन्होने कहा: रोज़े ग़दीरे ख़ुम रसूले अकरम (स) ने हज़रत अली (अ) को बुलाया और उनके सर पर अम्मामा रखा और उसके एक सिरे को आपकी कमर पर डाल दिया।

() सही मुस्लिम किताबुल हज हदीस 451, सोनने अबी दाऊद जिल्द 4 पेज 54

() अर रेयाज़ुन नज़रा जिल्द 2 पेज 289, उसदुल ग़ाबा जिल्द 3 पेज 114

बहुत से उलामा ए अहले सुन्नत ने हज़रत अली (अ) की ताज पोशी की हदीस को रिवायत की है जैसे:

· अबू दाऊदे तयालसी

· इब्ने अबी शैबा

· अहमद बिन हसन बिन अली बैहक़ी

· मुहम्मद बिन युसुफ़ ज़रन्दी

· अली बिन हम्द मारूफ़ बे इब्ने सब्बाग़े मालिकी

· जलालुद्दीने सुयूती वग़ैरह



16.औलवियत की लफ़्ज़

सिब्ते बिन जौज़ी ने हदीसे ग़दीर में औलवियत व सर परस्ती के अलावा दूसरे मअना को रदद् करते हुए कहा: पस दसवे मअना मुअय्यन हो गये, लिहाज़ा हदीसे के मअना यह हैं। मैं जिसकी निस्बत ख़ुद उसके नफ़्स से औला हूँ, पस अली भी उसकी निस्बत औला हैं। उसके बाद कहते हैं कि इसी मअना की तरफ़ हाफ़िज़ अबुल फ़रज यहया बिन सईद सक़फ़ी इस्फ़हानी ने अपनी किताब मरजुल बहरैन में वज़ाहत की है, क्योकि इस हदीस को अपने असातिद से नक़्ल किया है, जिसमें यह बयान हुआ है कि रसूले अकरम (स) ने हज़रत अली (अ) के हाथ को बुलंद करके फ़रमाया:

हदीस

() तज़किरतुल ख़वास पेज 32

जिस शख़्स का मैं वली और उसके नफ़्स से औला (बित तसर्रुफ़) हूँ पस अली भी उसके वली और सर परस्त हैं।



विलायत पर हदीसे ग़दीर की दलालत का इक़रार करने वाले हज़रात

अहले सुन्नत के मुतअद्दिद उलामा ने काफ़ी हद तक इंसाफ़ से काम लिया है और हदीसे ग़दीर में इस हदीस को क़बूल किया है कि यह हदीस हज़रत अली (अ) की इमामत और सर परस्ती पर दलालत करती है, अगरचे दूसरी तरफ़ से इसकी तौजीह और तावील भी की है, अब हम यहाँ पर उनमें से बाज़ की तरफ़ इशारा करते हैं।