कयामत मे हमारे जिस्म का होना

मआदे जिस्मानी

हमारा अक़ीदह है कि उस जहान (आख़ेरत) में सिर्फ़ इंसान की रूह ही नही बल्कि रूह व जिस्म दोनो उस पलटाये जायें गे। क्योँ कि इस जहान में जो कुछ भी अन्जाम दिया गया है इसी जिस्म और रूह के ज़रिये अंजाम दिया गया है। लिहाज़ा जज़ा या सज़ा में भी दोनो का ही हिस्सा होना चाहिए।


मआद से मरबूत क़ुरआने करीम की अक्सर आयात में मआदे जिस्मानी का ज़िक्र हुआ है। जैसे मआद पर ताज्जुब करने वाले मुख़ालेफ़ीन के जवाब में जो यह कहते थे कि इन बोसीदह हड्डियों को कौन जिन्दा करेगा? क़ुरआने करीम फ़रमाता है कि “क़ुल युहयिहा अल्लज़ी अनशाअहा अव्वला मर्रतिन ”[98] यानी आप कह दीजिये कि इन्हें वही ज़िन्दा करेगा जिस ने इनको पहली बार ख़ल्क़ किया।


“अयहसबु अलइंसानु अन लन नजमआ इज़ामहु * बला क़ादिरीना अला अन नुसव्विया बनानहु।”[99] यानी क्या इंसान यह गुमान करता है कि हम उसकी (बोसीदह) हड्डियों को जमा (ज़िन्दा) नही करेंगे? हाँ हम तो यहाँ तक भी क़ादिर हैं कि उन की ऊँगलियोँ के (निशानात) को भी मुरत्तब करें और उन को पहला हालत पर पलटा दें)।


यह और इन्हीँ की मिस्ल दूसरी आयते मआदे जिस्मानी के बारे में सराहत करती हैं।


वह आयतें जो यह बयान करती हैं कि तुम अपनी क़ब्रों से उठाये जाओ गे वह भी मआदे जिस्मानी को वज़ाहत से बयान करती हैं।


क़ुरआने करीम की मआद से मरबूत अक्सर आयात मआदे रूहानी व जिस्मानी की ही शरह बयान करती हैं।