फ़िक़्ह का एक आधार अक़्ली दलील भी 



जो कुछ ऊपर बयान किया गया है उसकी बुनियाद पर हमारा अक़ीदह है कि दीने इस्लाम के असली मनाबे (आधारों)में से एक चीज़ अक़्ली दलील भी है। अक़्ली दलील से यहाँ पर यह मुराद है कि पहले अक़्ल किसी चीज़ को यक़ीनी तौर पर समझे फिर उसके बारे में फ़ैसला करे। मसलन फ़र्ज़ करो कि अगर किताब व सुन्नत में ज़ुल्म व ख़ियानत,झूट,क़त्ल,माल को चुराने व दूसरों के हक़ को पामाल करने के हराम होने के बारे में कोई दलील मौजूद न होती तो हम अक़्ल के ज़रिये इन कामों को हराम क़रार देते और यक़ीन करते कि आलिम व हकीम अल्लाह ने इन चीज़ों को हमारे लिए हराम क़रार दिया है और वह इन कामों को अंजाम देने पर हरगिज़ राज़ी नही है और यह हमारे लिए अल्लाह की एक हुज्जत होती।



क़ुरआने करीम ऐसी आयतों से पुर है जिन में अक़्ल व अक़्ली दलीलों की अहमियत को बयान किया गया है। जैसे- क़ुरआने करीम राहे तौहीद को तैय कराने के लिए साहिबाने अक़्ल व फ़हम को ज़मीन व आसमान में मौजूद अल्लाह की आयतों पर ग़ौर करने की दावत देता है “इन्ना फ़ी ख़ल्क़ि अस्सलावाति व अलअर्ज़ी व इख़्तिलाफ़ि अल्लैलि व अन्नहारि लआयातिन लिउलिल अलबाबि”[141] यानी ज़मीन व आसमान की ख़िल्क़त और दिन व रात के बदल ने में साहिबाने अक़्ल के लिए बहुत सी निशानियाँ हैं।



दूसरी तरफ़ क़ुरआने करीम आयाते इलाही को बयान करने का मक़सद इंसान के अक़्ल व फ़हम को बढ़ाना बता रहा है जैसे- “उनज़ुर कैफ़ा नुसर्रिफ़ु अलआयाति लअल्लाहुम यफ़क़हूना”[142] यानी देखो हम आयात को किस तरह मुख़्तलिफ़ ताबीरों के साथ बयान करते हैं ताकि वह समझ जायें।



तीसरी तरफ़ क़ुरआने करीम तमाम इंसानों को नेकी व बदी में तमीज़ करने की दावत दे कर उन को ग़ौर व फ़िक्र की राह पर गामज़न कर रहा है। जैसे- “क़ुल हल यस्तवी अलआमा व अलबसीरो अफ़ला ततफ़क्करूना”[143] यानी क्या अंधे व देखने वाले (नादान व दाना)बराबर हैं क्या तुम फ़िक्र नही करते ?



इसी तरह से क़ुरआने करीम ने सबसे बुरा उन नफ़्सों को कहा है जो न अपनी आँख,कान व ज़बान से काम लेते और नही अक़्ल को काम में लाते। जैसे-“इन्ना शर्रा अद्दवाब्बि इन्दा अल्लाहि अस्सुम्मु अलबुकमु अल्लज़ीना ला याक़िलूना ” [144] यानी अल्लाह के नज़दीक बदतरीन लोग गूँगे बहरे और अक़्ल से काम न लेने वाले अफ़राद हैं।



और इसी तरह की बहुत सी आयतें हैं। लिहाज़ा इन सब के बावुजूद इस्लाम के उसूल व फ़रूअ को समझने में अक़्ल व फ़िक्र को नज़र अनदाज़ नही किया जा सकता।