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वहाबियों के ऐतेराज़ात

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वहाबियों के ऐतेराज़ात की तहक़ीक़ व जवाब

आयात, रिवायात और मुसलमानों की सीरत से जश्न व महफ़िल के ज़ायज़ बल्कि रुजहान व मुसतहब होने की दलीलों के बावजूद भी वह्हाबी लोग मुसलमानों के इस अमल का मुक़ाबला करते हैं और बेजा ऐतेराज़ात की बेना पर इस मुक़द्दस अमल में मानेअ होने की कोशिश करते हैं। अब हम यहाँ पर पहले उनके ऐतेराज़ात बयान करते हैं और फिर उनके जवाबात पेश करते हैं:

 

 

 

 

पहला ऐतेराज़:

किसी की याद मनाने के लिये कोई प्रोग्राम करना ग़ैरे ख़ुदा की इबादत है। ()
 

 

जवाब:

यह बात अपनी जगह पर साबित हो चुकी है कि इबादत का उन्सुरे मुक़व्विम (यानी जिस पर इबादत का इतलाक़ किया जाता है) उसकी उलूहीयत या रूबूबीयत का ऐतेक़ाद है जिसकी ताज़ीम की जाये, लिहाज़ा अगर किसी की ताज़ीम व तकरीम उस उन्सुर से ख़ाली हो तो उसको इस्तेलाह में इबादत नही कहा जाता।
 

 

 

दूसरा ऐतेराज़:

इस तरह के प्रोग्राम में ऐसे काम होते हैं जो ग़ालेबन हराम हैं जैसे औरतों और मर्दों का एक साथ जमा होना या मौसीक़ी के साथ नज़्म व क़सीदा पढ़ना। ()

 

 

जवाब:

गुनाह किसा भी ज़माने या किसी भी जगह हो हराम है, चाहे किसी प्रोग्राम में हो या उसेक अलावा, लेकिन हम एक ममदूह और पसंदीदा अमल को इस वजह से हराम नही कह सकते कि उसमें कभी कभी कोई गुनाह अंजाम पाता है, बल्कि हमें चाहिये कि हराम और गुनाह से रोक थाम की जाये। ()

() फ़तहुल मजीद बे शरहे अक़ीदतित तौहीद पेज 154,155 हाशिया में

() अल मदख़ल, इब्नुल हाज जिल्द 2 पेज 2

() अलहावी लिलफ़तावा, सुयूती जिल्द 1 पेज 19

 

 

तीसरा ऐतेराज़:

पैग़ंम्बरे अकरम (स) ने फ़रमाया: अपने घरों को क़ब्र और मेरी क़ब्र को ईद क़रार न दो। () इब्ने क़य्यिम ने इस हदीस के ज़रिये जश्न व महफ़िल की हुरमत पर इस्तिदलाल किया है। ()

 

 

जवाब:

अव्वल. दलील मुद्दआ से ख़ास है क्योकि रिवायत में सिर्फ़ क़ब्रे पैग़म्बर (स) की तरफ़ इशारा हुआ है न कि आम मका़मात की तरफ़।

दूसरे. इस की वजह शायद यह हो कि इँसान पैग़म्बरे अकरम (स) के हुज़ूर में इंसान को ख़ुज़ू व ख़ुशू के आलम में होना चाहिये और यह मसअला पैग़म्बरे अकरम (स) की कब्रे मुनव्वर के पास ख़ुशी व मुसर्रत के साथ हम आहंग नही है लेकिन इस चीज़ से कोई मुमानेअत नही पाई जाती कि दूसरे मक़मात पर भी ख़ुशी व मुसर्रत का इज़हार न किया जाये।

सुबकी कहते हैं: इस हदीस के मअना में यह ऐहतेमाल है कि मेरी कब्र को रोज़ ईद की तरह क़रार न दो बल्कि मेरी कब्र पर ज़ियारत, सलाम व दुआ पढ़ो। ()

() मुसमदे अहमद जिल्द 2 पेज 246

() हाशिय ए औनिल मअबूद जिल्द 6 पेज 32

() कशफ़ुल इरतियाब पेज 449

 

 

चौथा ऐतेराज़:

इस तरह के प्रोग्राम में नज़्म व क़सीदा ख़्वानी में ईसाईयों से मुशाबेहत पाई जाती है। ()

() इक़तेज़ाउस सिरात पेज 294

 

 

जवाब:

अव्वल. मुशाबेहत का तअल्लुक़ इरादे से है यानी जब इंसान इस शबाहत का क़स्द करता है तब ही उस पर उस मुशाबेहत का हुक्म लागू होता है। अब हम सवाल करते हैं कि क्या कोई मुसलमान इस तरह की महफ़िल में कुफ़्फ़ार और ईसाईयों से शबाहत का क़स्द करता है? हरगिज़ ऐसा नही है।

बुख़ारी अपनी सही किताब मग़ाज़ी में बाब ग़ज़व ए औहद में नक़्ल करते हैं: अबू सुफ़यान ने मुशरेकीन को तहरीत करते हुए यह नारा लगाया: ज़िन्दाबाद बुते हुबल, पैग़म्बरे अकरम (स) ने फ़रमाया: तुम भी उसका जवाब दो, जवाब दिया हम क्या कहें? तो आँ हज़रत (स) ने फ़रमाया: तुम कहो .... अबू सुफ़यान ने मुशरेकीन को हमले की तहरीक के लिये दूसरा नारा लगाया: हमारे पास उज़्ज़ा है और तुम्हारे पास उज़्ज़ा नही है। पैग़म्बरे अकरम (स) ने फ़रमाया: तुम भी जवाब दो, असहाब ने अर्ज़ किया हम जवाब में क्या कहें? तो आँ हज़रत (स) ने फ़रमाया कि कहो: .......

() यानी अल्लाह हमारा मौला है लेकिन तुम्हारा कोई मौला नही है।

() सही बुख़ारी हदीस 4043, अल बिदाया वन निहाया जिल्द 4 पेज 28

क्या कोई वहाबियों की तरह पैग़म्बरे अकरम (स) से यह कह सकता है कि या रसूलल्लाह, आपका यह अमल काफ़िरों से मुशाबेह है लिहाज़ा जायज़ नही है? क्या ख़ुदा वंदे आलम ने क़ुरआने मजीद में नही फ़रमाया है:

आयत

उसी तरह तुम पर रोज़े लिख दिये गये हैं जिस तरह तुम्हारे से पहले वालों पर लिख दिये गये थे।

() सूर ए बकरह आयत 183

शेख़ शलतूत ने अपनी किताब अल फ़तावा में इस सवाल के जवाब में लिखते है, जिसमें उनसे सवाल किया गया था कि मग़रिबी मुमालिक से आने वाले टोपों का पहनना कैसा है? तो उन्होने जवाब दिया: यह कहना सही नही है कि यह टोपे ग़ैर मुस्लिम और ग़ैर इस्लामी शेआर में से हैं बल्कि उनको मुसलमान व ग़ैर मुसलमान सभी पहनते हैं और जब मुसलमान इस तरह के टोपों को पहनते हैं तो ग़ैर मुसलमानों को दीन से मुशाबेहत का इरादा नही होता बल्कि वह गर्मी या सर्दी से बचने के लिये पहनते हैं। लिहाज़ा उनके पहनने में कोई हरज नही है। ()

() अल फ़तावा, शलतूत पेज 88

दूसरे. किसी अमल के जायज़ होने में क़ुरआने मजीद और सुन्नते रसूल (स) से मुताबिक़त होना मेयार होता है चाहे वह दूसरे से मुशाबेह हो या न हो और हमने जश्न व महफ़िल को ख़ास व आम दलीलों से साबित कर दिया है।

तीसरे. जैसा कि शेख शलतूत के कलाम से मालूम होता है कि ईसाईयों की मुशाबेहत से मक़सूद उनके कामों में मुशाबेहत हैं जैसे सलीब और नाक़ूस बजाना न कि हर अमल में मुशाबेहत मुराद है।

 

 

पाचवाँ ऐतेराज़:

सलफ़े सालेह ने इस अमल को अंजाम नही दिया है।

 

 

जवाब:

अव्वल, उसूल में यह बात साबित हो चुकी है कि मासूम का कोई काम न करना, उस काम के हराम होने पर दलील नही है, बल्कि सिर्फ़ किसी काम का न करना, उस काम के वाजिब न होने और किसी फ़ेअल का अंजाम देना उसके हराम न होने पर दलालत करता है। लिहाज़ा किसी अमल का सिर्फ़ अंजाम न देना उसके हराम होने पर दलील नही है।

दूसरे, इब्ने तैमिया के ज़माने से पहले मुसलमानों का अमल और सीरत इस तरह की महफ़िल क़ायम करने पर थी और अहले सुन्नत इस बात के क़ायल हैं कि इजमाअ हुज्जत है।

तीसरे, जैसा कि इब्ने तैमिया के कलाम में बयान हुआ है: रसूले अकरम (स) की निस्बत सलफ़े सालेह की मुहब्बत ज़्यादा थी और अगर यह अमल जायज़ होता तो वह भी अंजाम देते, यह कलाम हदीसे नबवी के बर ख़िलाफ़ है क्योकि रसूले अकरम (स) ने अपने असहाब से खिताब करते हुए फ़रमाया है: बेशक अनक़रीब एक ऐसी क़ौम आने वाली है जिनकी मुहब्बत मेरी निस्बत तुम लोगों से ज़्यादा होगी। ()

() मजमउज़ ज़वायद जिल्द 10 पेज 66, क़ंज़ुल उम्माल जिल्द 2 पेज 374

 

 

छठा ऐतेराज़:

किसी मख़सूस दिन को ख़ुशी व मुसर्रत से मख़सूस करना बिदअत है।

 

 

जवाब:

अव्वल, जैसा कि यह बात साबित हो चुकी है कि कभी कभी कोई मक़ाम, मज़रूफ़ के लिहाज़ से शरफ़ पैदा कर लेता है, इसी तरह ज़माने में बाज़ ज़माने उन मे मख़सूस अमल की वजह से बा अहमियत बन जाते हैं जैसे शबे क़द्र, चुनाचे क़ुरआने मजीद में इरशाद होता है:

आयत

हमने क़ुरआने को एक मुबारक शब में नाज़िल किया है।

लिहाज़ा अगर हम रोज़े विलादते पैग़म्बरे इस्लाम (स) या ईदे ग़दीर के मौक़े पर कोई जश्न मनाते हैं तो इस वजह से कि यह मुबारक शब है।

दूसरे, कभी कभी अहकामे शरीयत किसी आम उनवान के तहत किसी चीज़ से मुतअल्लिक़ होते हैं जिनकी ततबीक़ मुकल्लफ़ के ज़िम्मे होती है जैसे ग़रीबों और फ़क़ीरों की मदद करना एक आम हुक्म है लेकिन उसके मिसदाक़ को मुनतबिक़ करना हमारी ज़िम्मेदारी है कि ग़रीब को किस चीज़ की ज़रूरत है या हम उसको अंजाम दे सकते हैं या नही? यह काम ख़ुद हमारा है। यहाँ भी वक़्त को मुनतबिक़ करना मुकल्लफ़ पर छोड़ा गया है ताकि जब भी मुनासिब वक़्त देखे मुनतबिक़ कर दे।
अल हम्दु लिल्लाहि रब्बिल आलमीन, व लहुश शुक्रो अला हाज़न नेअमा
रब्बना तक़ब्बल मिन्ना इन्नका अनतस समीऊल अलीम।

 

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