अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क

इमाम हुसैन अ.स. की ज़ियारत के आदाब

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अहले बैत अ.स. द्वारा इमाम हुसैन अ.स. की ज़ियारत के लिए दिशा-निर्देश हदीसों में मौजूद हैं जिनको अपना कर हम ज़ियारत की बरकत से और भी अधिक फ़ायदा हासिल कर सकते हैं, और उनको अनदेखा करने से हमारी ज़ियारत की बरकतों में ज़रूर कमी रहेगी, और रिवायतों में ज़ियारत के सवाब को लेकर जो मतभेद दिखाई देता है उसका कारण भी यही है कि जो शख़्स उन मासूमीन अ.स. द्वारा बताए गए आदाब को ध्यान में रखता हुआ ज़ियारत पढ़ता है उसका सवाब उन आदाब को अनदेखा करने वाले से अधिक है।
यह आदाब 2 तरह के हैं, कुछ वह आदाब हैं जिनका संबंध हमारे ज़ाहिर से है, और कुछ का संबंध हमारे नफ़्स (बातिन) से है। हम इन दोनों में से जिनकी ओर अधिक ध्यान देने को कहा गया है इस लेख में पेश कर रहे हैं।
बातिन के आदाब
1- मारेफ़त बहुत सारी हदीसों में इमाम हुसैन अ.स. की ज़ियारत के नतीजे में मिलने वाली बरकत के लिए आपके हक़ की मारेफ़त की शर्त पाई जाती है, हक़ीक़त में यह शर्त इंसान की जेहालत को दूर करने के लिए है, इसीलिए इमाम हुसैन अ.स. के ज़ाएर के लिए जो सबसे ज़रूरी चीज़ है वह यह है कि सबसे पहले इमाम अ.स. के हक़ को समझे, कि इमाम अ.स. को क्यों शहीद किया गया? हक़ को साबित करने के लिए किन किन ज़िम्मेदारियों को पूरा किया? और इस सवाल के जवाब के लिए ज़रूरी है कि समाज में आशूरा के कल्चर और इमाम हुसैन अ.स. के इंक़ेलाब को ज़िंदा और बाक़ी रखा जाए, और यही आशूराई कल्चर इंसान को इमाम के हक़ को समझने और उनकी मारेफ़त को हासिल करने में मदद करता है। याद रहे जितनी अधिक ज़ाएर की मारेफ़त होगी उतना ही अधिक सवाब भी उसे मिलेगा और उतना ही अधिक वह ज़ियारत की बरकतों को हासिल कर पाएगा।
2- ख़ुलूस किसी भी इबादत चाहे नमाज़ रोज़ा वग़ैरह हो या दुआ मुनाजात और ज़ियारत इन सब में मारेफ़त के बाद सबसे ज़रूरी चीज़ ख़ुलूस का होना है, ख़ुलूस के भी मारेफ़त की तरह कई दर्जे हैं, जिस दर्जे का ज़ाएर का ख़ुलूस होगा वह उतना ही अपनी ज़ियारत को कामयाब बना सकता है।
3- ज़ियारत पर ध्यान केंद्रित करना ज़ियारत में अगर ज़ाएर का ध्यान इमाम अ.स. की ओर से हट गया तो फिर उसे ज़ियारत नहीं कहा जा सकता, और अगर ज़ाएर का पूरा ध्यान इमाम अ.स. की ज़ियारत में होगा तो इसके नतीजे में इमाम अ.स. की पैरवी भी करेगा।
4- शौक़ ज़ियारत के आदाब में से एक ज़ियारत के लिए शौक़ का पाया जाना है, और इस अदब की जड़ें इमाम अ.स. से मुहब्बत और और उनकी मारेफ़त से जुड़ी हैं, जितनी अधिक इमाम हुसैन अ.स. की मारेफ़त होगी उतना ही अधिक आपकी ज़ियारत का शौक़ बढ़ेगा, और अगर हदीसों की बात की जाए तो हदीसों में आया है कि जो अधिक शौक़ के साथ इमाम अ.स. की ज़ियारत को जाएगा उसको आपके असहाब में जगह मिलेगी, और क़यामत में आपके परचम के नीचे खड़ा होगा, और जन्नत में आपके साथ होगा।
5- ग़म बहुत सारी हदीसों में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि जब इमाम हुसैन अ.स. की ज़ियारत के लिए जाओ तो ऐसे जाओ कि मन दुखी हो, कपड़े मिट्टी में अटे हों और बाल बिखरे हों। अगर ध्यान दिया जाए तो यह अदब भी इमाम अ.स. की मारेफ़त से ही जुड़ा हुआ है, क्योंकि जब इमाम अ.स. की मारेफ़त होगी तो इंसान के सामने उनकी भूख, प्यास और वह सारे अत्याचार जो यज़ीद की ओर से आप पर किए गए वह उसकी निगाहों के सामने होंगे, ज़ाहिर है जब यह सब मंज़र निगाहों में होगा तो हर वह दिल जिसमें इंसानियत हो वह ज़रूर दुखी होगा।
ज़ाहिर के आदाब
1- ग़ुस्ल ज़ाएर को चाहिए कि वह ज़ियारत करने जाने से पहले ग़ुस्ल करे, क्योंकि ग़ुस्ल से न केवल इंसान का जिस्म पाक साफ़ हो जाता है बल्कि उसका बातिन भी पाक होता है, यानी उसके गुनाह भी ज़ाहिरी गंदगी के साथ धुल जाते हैं।
2- पाक साफ़ कपड़े पहनना कुछ हदीसों में बताया गया है कि ग़ुस्ल के बाद ज़ाएर को पाक साफ़ कपड़े पहन कर ज़ियारत के लिए निकलना चाहिए, कुछ हदीसों में यहां तक कहा गया है कि सबसे अधिक पाक कपड़े पहन कर ज़ियारत को जाना चाहिए, इसमें कि. तरह का कोई शक भी नहीं किया जा सकता क्योंकि इंसान सासूम इमाम अ.स. की बारगाह में उसके सामने हाज़िरी देने जा रहा है।
3- ख़शबू और सजने संवरने से परहेज़  इंसान का बस ज़ाहिर ठीक होना चाहिए, इसीलिए इमाम हुसैन अ.स. की बारगाह में हाज़िर होने के लिए न केवल यह गया कि ख़ुशबू और सजने संवरने से परहेज़ करे बल्कि यह भी हदीस में है कि उदास और दुखद हालत में इमाम अ.स. के हरम में दाख़िल हो।
4- शोर शराबे से परहेज़ इमाम सादिक़ अ.स. से हदीस है कि, इमाम हुसैन अ.स. की ज़ियारत करने वाले को इमाम अ.स. के हरम में मौजूद फ़रिश्तों की पैरवी करते हुए ख़ामोश रहना चाहिए, नेक और अच्छे अमल के अलावा कुछ और ज़बान पर नहीं होना चाहिए। इस हदीस में नेक और अच्छे अमल का मतलब नमाज़, दुआ, ज़िक्र और ज़ियारत वगैरह का पढ़ना है।
5- सुकून और आराम से क़दम उठाएं इमाम हुसैन अ.स. की ज़ियारत के आदाब में से यह भी है कि ज़ाएर जब हरम की ओर जाए तो बहुत सुकून और आराम से क़दम ज़मीन पर रखे, ऐसा करने से ज़ाएर का पूरा ध्यान केवल ज़ियारत ही की ओर रहेगा।
6- अंदर जाने की अनुमति मांगना इमाम हुसैन अ.स. का हरम हक़ीक़त में पैग़म्बर स.अ. के कुंबे का ही घर है, इसी लिए बिना अनुमति वहां दाख़िल होना अच्छी बात नहीं है, अदब यही कहता है कि अहले बैत अ.स. के घर में दाख़िन होने से पहले उनसे अनुमति मांगें, ध्यान देने की बात है कि अनुमति मांगने के प्रभाव के बारे में इमाम सादिक़ अ.स. से हदीस है कि, (अनुमति मांगते समय) अगर तुम्हारा दिल दुखी हो जाए और आंखों से आंसू निकल आएं, समझ लेना कि अनुमति मिल गई है, अब हरम में दाख़िल हो जाओ। कर्बला में दाख़िल होते समय दिल में ग़म और आंखों में आंसू ही इमाम हुसैन अ.स. के हरम में जाने की अनुमति है, अगर ज़ाएर में यह हालत पाई गई तो समझो उसे अनुमति मिल गई, और अगर यह हालत नहीं पैदा हुई तो उसे अंदर जाने से रुक जाना चाहिए, शायद अल्लाह की ख़ास नज़र उस पर हो जाए और उसके अंदर यह हालत पैदा हो जाए।
7- पहले दाहिना पैर आगे बढ़ाएं सभी पवित्र जगहों पर जाते समय ध्यान रहे कि पहले दाहिना क़दम आगे बढ़ाएं, विशेष कर इमाम हुसैन अ.स. के हरम में दाख़िल होने से पहले, क्योंकि सफ़वान ने इमाम सादिक़ अ.स. से हदीस नक़्ल की है जिसमें साफ़ शब्दों में इस अदब की ओर ध्यान दिलाया गया है।
8- किताब में मौजूद ज़ियारतों का पढ़ना ज़ाएर जिस तरह भी चाहे इमाम अ.स. से बातें और दिल का दर्द बयान कर सकता है, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि अहले बैत अ.स. से जो ज़ियारतें नक़्ल हुई हैं उनका पढ़ना अधिक सवाब रखता है, क्योंकि इमाम अ.स. द्वारा बताई गई ज़ियारतों में उनके दिशा-निर्देश का पालन होने के साथ साथ मारेफ़त के वह अहम दरया जो उन शब्दों में छिपे हुए हैं हम उनसे भी फ़ायदा हासिल कर सकते हैं, और इमाम अ.स. द्वारा बताई गईं यह मारेफ़त वाली ऐसी ज़ियारतें हैं जो किसी और जगह हमें नहीं दिखाई देती हैं। ध्यान रहे कि अहले बैत अ.स. के हरम में पढ़ी जाने वाली ज़ियारतों में सबसे अधिक अपने अंदर मारेफ़त का दरया समेटे हुए जो ज़ियारत है वह जामए कबीरा है।

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