जवान और आईडियल

आज के तरक़्क़ी याफ़ता दौर में हर नौ जवान को अपने आईडियल की तलाश है। कोई किसी फ़नकार में अपना आईडियल तलाश करता है तो कोई हिदायत कार में अपना आईडियल तलाश करने की कोशिश करता है और फिर उसी के तर्ज़ पर अपनी ज़िन्दगी गुज़ारने की कोशिश करता है और यह कोशिश करता है कि हम उसी की तरह बोलें, उसी की तरह उठें बैठें, उसी की तरह चलें, लिबास पहने तो उसी की तरह। अल ग़रज़ अपने आईडियल की हर नक़्ल व हरकत को अपनाने की कोशिश करता है लेकिन जब यही शख़्स उस से भी बेहतर और बरतर किसी शख़्सीयत को देखता है और उस की राह व रविश का मुतालआ करता है तो कहता है कि मैं ने जिस की आईडियल बनाया था उस में हज़ारों कमियाँ और नक़्स है। उस से बेहतर तो यह शख़्स है क्यों न उस को ही आईडियल बना लिया जाये। अल ग़रज़ जब उस की मुतलाशी तबीयत व फ़ितरत पर मअनवीयत का ग़लबा होने लगता है तो फिर किसी इंसाने कामिल की तलाश में सर गरदाँ थक कर बैठ जाया करता है कि इस दुनिया में कोई आईडियल नही है और जहाँ ज़ेहन में ख़्याल पैदा हुआ कि कोई आईडियल नही है को उस की रूह मुज़तरिब हो जाती है अब यही नौजवान दुनिया की उलझनों में मुबतला हो कर कभी रात को देर से घर आता है तो कभी बात बात पर उलझ पड़ता है, माँ बाप से ला परवाह हो जाता है अपने दिल के सुकून के लिये बे चैन रहता है कि शायद कहीं तो उस की रूह को सुकून मिल जाये लेकिन उस के बाद भी उसे सुकून नही मिलता बल्कि उस के इज़तेराब में इज़ाफ़ा होता है शायद इसी तरह यह नौजवान भटकता रह जाता और कभी सुकून व आराम न पाता अगर ख़ुदा ने बशरी हिदायत के लिये इंतेज़ामात न किये होते। इसी हाल में उस मुतलाशी नौ जवान की मुलाक़ात अपने ही जैसे एक नौ जवान दोस्त से हो जाती है और उस की नौ जवान दोस्त कहता है कि तुम को एक कामिल और हक़ीक़ी आईडियल की तलाश है जैसी कि मुझे भी थी पस तुम को चाहिये कि हज़रत अली (अ) को अपनी आईडियल बनाओ तो यह नौ जवान कहने लगा कि यह किस तरह मुम्किन है इस लिये मैं एक नौजवान हूँ और नौजवानी के कुछ तक़ाज़े होते हैं इस उम्र में खेलें कूदें हँसी मज़ाक़ तफरीह करें। दोस्त कहता है कि मेरे दोस्त तुम्हारा कहना दुरुस्त है लेकिन इन सब के बावजूद तुम्हारे लिये सबसे अच्छा आईडियल मौला ए मुत्तक़ियान हैं बिल ख़ुसूस आप की जवानी के दिन। देखो खु़द मौला अली (अ) ने भी अपना आईडियल रसूले ख़ुदा (स) को माना था और मौला अली (अ) तो बचपन से रसूले ख़ुदा (स) के साथ रहे थे और अपनी ज़िन्दगी के तमाम मसायल में रसूले ख़ुदा की इक़्तेदा करते थे। यहाँ तक कि रोज़ मर्रा के छोटे छोटे मसायल में भी हालाँ कि आप ख़ुद एक इंसाने कामिल थे फिर भी आप ने अपना आईडियल रसूले ख़ुदा (स) को ही माना था भाई वोह कैसे?



मेरे भाई इस तरह कि पैग़म्बर इस्लाम (स) और मौला अली (अ) हमेशा साथ साथ रहते थे वह ग़ारे हिरा ही क्यों न हो जिस को रसूले ख़ुदा ने अपनी बंदगी की अदायगी के लिये ख़लवत के तौर पर मुन्तख़ब किया था या ज़िन्दगी के दूसरे मराहिल जैसे क़राबतदारों को दावत देने का मरहला हो या आम लोगों को ख़ान ए ख़ुदा में दावत देने का मरहला यहाँ तक कि अपने तबलीग़ी सफ़र में भी रसूले ख़ुदा के साथ साथ रहते थे और जब आप सो कर उठते थे तो सब से पहले पैग़म्बरे अकरम (स) के रुख़े अनवर के दीदार को जाते थे और जब रसूले ख़ुदा (स) की निगाहें मौला अली (अ) से चार होती थीं तो आपको गले से लगा लेते थे औ फिर दोनो एक दूसरे की अहवाल पुरसी करते थे। आप का ज़्यादा तर वक़्त पैग़म्बरे इस्लाम (स) के साथ ही ग़ुज़रता था कभी आप रसूले ख़ुदा (स) की पसीना पोछते थे कभी रसूले ख़ुदा आप का शुक्रिया अदा करते थे हत्ता कि ख़ुद मौला अली (अ) फरमाते हैं कि रसूले ख़ुदा ने मेरी परवरिश की है और मैं उन की आग़ोश में परवान चढ़ा हूँ और मैं रसूले ख़ुदा के साथ इस तरह रहता था जिस तरह ऊटनी का बच्चा अपनी माँ से चिपटा रहता है। आँ जनाब (स) मुझे हर रोज़ नई बातें बताते और अख़लाक़ की तालीम देते और नसीहत फ़रमाते और फ़रमाया करते थे कि या अली, तुम ही ने तो बस मेरी पैरवी की है। आँ हज़रत (स) जब कोहे हिरा में जाते तो मेरे अलावा आप को कोई नही देख सकता था और न आप की ख़ुशबू सूँध सकता था।



मुतलाशी जवान कहने लगा कि बहुत अच्छा आप का कहना दुरुस्त कि मौला अली (अ) को अपना आईडियल बनाऊँ लेकिन मेरे भाई मौला अली (अ) ने ख़ुद रसूले ख़ुदा (स) को देखा आप की आग़ोंश में तरबियत पाई इस लिये आप को अपना आईडियल बनाया मैं ने तो मौला अली (अ) को देखा नही तो किस तरह से उन को अपना आईडियल बनाऊँ?



मेरे मुख़लिस दोस्त ने जवाब दिया सही है कि तुमने मौला को नही देखा और वह तुम्हारे सामने नही हैं लेकिन तारीख़ ने आप को देखा है और आप की तमाम नक़्ल व हरकत को अपने दामन में जगह दी है तुम तारीख़ से इस्तेफ़ादा करो या उन लोगों से सवाल करो जिन की तारीक़ पर नज़र है। क्या तुम ने नही कहा कि तुम्हे कामिल आईडियल चाहिये जो तुम्हारी ज़िन्दगी की सारी मुश्किलात और सवालात से निजात दिलाये, वह सवालात जो जवानी और नौजवानी के तक़ाज़े के मुताबिक़ हों। आया तुम ने मौला अली (अ) के अलावा किसी और के बारे में तारीख़ में पाया है कि ख़ुद अपनी जान को ख़तरे में डाल कर सरवरे कायनात (स) की हिफ़ाज़त की हो, क्या तुम ने तारीख़ में नही देखा कि अभी मौला अली (अ) के नौजवानी के दिन हैं और रसूले ख़ुदा (स) कुफ़्फ़ारे कुरैश के दरमियान तबलीग़ कर रहे हैं और कुफ़्फ़ार रसूले ख़ुदा के इस अमल को रोकने के लिये बच्चों का इस्तेमाल करते हैं हत्ता कि रसूले ख़ुदा को दीवाना कहा जाता है और उन पर पत्थर बरसाये जा रहे हैं तो उस वक़्त मौला अली (अ) ही तो थे जिन्होने कुफ़्फ़ारे कुरैश के बच्चों की बद तमीज़ियों का जवाब दिया बल्कि आप तो हमेशा रिसालत के इस गिर्द तलाया फिरते थे कभी अगर आप ने रसूले ख़ुदा (स) की जान को ख़तरे में देखा तो ख़ुद आप के बिस्तर पर सो गये और आप की जान की हिफ़ाज़त की और ऐसी सुकून की नींद सोए कि आप ख़ुद फ़रमाते हैं कि मैं जिस तरह शबे हिजरत बिस्तरे रिसालत पर सोया उस तरह से कभी नही सोया था। आया तुम ने जंगे बद्र की तारीख़ नही पढ़ी या सुनी कि जिस वक़्त आप की उम्र सिर्फ़ 25 साल की थी तारीख़ कहती है कि जितने लोग जंगे बद्र मे मारे गये हैं उस में आधे लोग मौला अली (अ) के हाथों मारे गये हैं।



क्या तुम जानते जिस वक़्त जंगे ओहद हुई मौला की उम्र 26 साल थी और आप ने पैग़म्बरे अकरम (स) की जान को ख़तरे में देखा तो मिस्ले परवाना रसूले ख़ुदा के इर्द गिर्द धूम कर हिफ़ाज़त कर रहे थे उस वक़्त आसमान से यह निदा आई थी ला फ़ता इल्ला अली ला सैफ़ा इल्ला ज़ुलफ़िक़ार। (मौला अली तमाम जवानों बेहतर हैं और आप की ज़ुलफ़िक़ार की तरह कोई तलवार नही)



क्या तुम जंगे ख़ंदक के बारे में नही सुना? आप की सुजाअत के बारे में जिस वक़्त अम्र बिन अब्दवद ज़ोअम में धूम रहा था कि मैं अरब का सब से शुजाअ इंसान हूँ कौन है जो मेरे मुक़ाबले में आये जब कि उस वक़्त आप की उम्र सिर्फ़ 28 साल थी आप उस के मुक़ाबले में आये और उसको अपनी शमशीर का ऐसा निशाना बनाया कि लिसाने पैग़म्बरे इस्लाम (स) जुँबिश में आई और आप का क़सीदा इस तरह से पढ़ा कि ज़रबतों अलीयिन यौमा ख़ंदक़ अफ़ज़लों मिन इबादतिस सक़लैन (यअनी ख़दक़ के दिन की अली की एक ज़रबत दोनो जहाँ की इबादत से अफ़ज़ल है) यह सुन कर नौजवान की ज़बान से निकला कि मैं आप की तमाम बातो को क़बूल करता हूँ मगर जंग, शुजाअत, फ़तह यह इंसानी ज़िन्दगी का एक पहलू है मगर उन की ज़िन्दगी के और बहुत से पहलू और गोशे हैं जिन पर चलने के लिये कामिल आईडियल की ज़रुरत है क्या ऐसा नही है?



नही मेरे दोस्त यक़ीनन ऐसा ही है लेकिन अभी तुम ने मौला के बारे में मुकम्मल कहाँ सुना और पढ़ा है ग़ौर करोगे तो मिलेगा कि मौला अली (अ) ज़िन्दगी के तमाम मराहिल के लिये एक मुकम्मल आईडियल हैं चाहे जिस रुख़ से देखो आया सिर्फ़ यह समझते हो कि मौला अली (स) की सारी ज़िन्दगी जंगी मअरकों और उन की सुजाअत में ही महदूद है हरगिज़ नही। क्या तुम नहीं जानते कि आप हमेशा खु़श रहते थे और आप के होठों पर हमेशा तबस्सुम रहता था। आप हमेशा मोमिन को ख़ुश रखना और उन के होठों पर तबसस्सुम की रमक़ चाहा करते थे, आप मिज़ाह भी करते थे और तफ़रीह भी करते हैं लेकिन हमारी तरह की तफ़रीह नही कि हम तफ़रीह तफ़रीह में लोगों की दिल शिकनी करते हैं और अपने वक़्त को लग़वीयात में सर्फ़ करते हैं और वक़्त की क़द्र नही करते बल्कि आप अमल और अख़लाक़े अमल को तफ़रीह समझते थे। आप कहीं सफ़र पर भी जाया करते थे तो चाहते थे कि किसी की मदद करें या किसी को पढ़ना लिखना सिखायें, लोगों को क़ुरआन की तालीम दें, दीन से आशना करें।



आप लोगों को वरज़िश की तशवीक़ भी करते थे और कहते थे कि इंसान को तलवार चलाने के साथ साथ, घुड़ सवारी, वज़्न बरदारी वग़ैरह में भी महारत रखनी चाहिये। यह सारी चीज़ें आप की तफ़रीह के सामान थे। कितना दिलचस्ब होगा अगर आप की मुकम्मल ज़िन्दगी का एक सरसरी जायज़ा लिया जाये। आप की ज़िन्दगी हमेशा मुतहर्रिक थी कहीं भी हमें आप की ज़िन्दगी में ठहराव नही मिलेगा। जैसा कि आप ने फ़रमाया जिस का कल और आज एक जैसा हो (उस में तरक़्क़ी न हो) गोया उस ने ज़रर किया है।



आप मिज़ाह भी फ़रमाते थे और क्यों न हो कि गुफ़तगू में मिज़ाह इस तरह है जैसे खाने में नमक। लेकिन इस बात की तरफ़ भी तवज्जो देनी चाहिये कि ज़्यादा मिज़ाह इंसान को बे वक़अत बना देता है वह हमारी तरह बे अदबाना और फूहड़ मिज़ाह नही करते थे बल्कि आप का मिज़ाह अदब के दायरे में होता था और आप के मिज़ाह में भी एक पैग़ाम और तालीम पोशीदा रहती थी।



आप किसी भी मोमिन या जानने वाले को या दोस्त को ग़मगीन देखते तो उस का हँसाना चाहते थे कि उस से ग़म में कुछ कमी वाक़े हो जाती है बल्कि आप का मिज़ाह भी इस तरह का होता था कि काफ़िर भी मुसलमान हो जाये जैसा कि तारीख़ शाहिद है।



आप जंग में हमेशा फ़ातेह रहे, फ़की़रों की मदद करते रहे, रंजीदा दिल को हमेशा ख़ुश करते रहे और लोगों की मुश्किलात को दूर किया करते थे। बच्चों और यतीमों के साथ उन की ख्वाहिश के मुताबिक़ पेश आते थे और उन की छोटी छोटी ख़्वाहिश को पूरा किया करते थे हत्ता कि अगर बच्चा ज़िद करे तो उस के लिये नाक़ा भी बन जाया करते थे और इन सब से अहम बात यह है कि आप मिज़ाह में भी हुदूदे सिन्नी और हुदूदे शरई का लिहाज़ रखते थे और मिज़ाह में भी आप को झूट पसंद नही था। (जैसा कि हदीस में हैं कि झूट मज़ाक़ में भी जायज़ नही है।) आप किसी मोंमिन का दिल तोड़ना पसंद नही करते थे और न ही किसी ना महरम से मिज़ाह पसंद करते थे।



लेकिन अगर हम आज के मुआशरे का जायज़ा लें तो मज़कूरा तमाम बातों को हम बाला ए ताक़ रख देते हैं और उन का ख़्याल नही रखते हैं, मिज़ाह में झूट बोलने को हम झूट नही समझते और न ही हम मिज़ाह में हुदूदे सिन्नी का लिहाज़ रखते हैं और न हुदूदे शरई का और ना महरम से मिज़ाह को हम गुनाह समझते हैं और न उन से बे हूदा बातों को हम गुनाह समझते हैं हत्ता उन से गले लगने को भी हम गुनाह नही समझते हैं लेकिन मौला अली (अ) की ज़िन्दगी पर हम नज़र डालें तो हमे मिलेगा कि आप जवानी के दिनों में इतने मोहतात थे कि सिर्फ़ बूढ़ी औरतों को सलाम करते थे और सिर्फ़ उन की अहवाल पुरसी करते थे बल्कि लड़कियों और जवान औरतों को न ही सलाम करते थे और न ही अहवाल पुरसी करते थे ता कि मुआशरा इबरत ले सके और मौज़ ए तोहमत से दामन महफ़ूज़ रह सके।



इस के बर अक्स रसूले ख़ुदा (स) जवान लड़कियों और औरतों को भी सलाम किया करते थे और उन के अहवाल पुरसी भी किया करते थे और वह इस लिये कि मौला अभी सिन्ने जवानी में दाख़िल हुए थे और रसूले ख़ुदा (स) पचास साल गुज़ार चुके थे और पचास साल गुज़ारने के बाद मुआशरे की निगाह में बुराई के ऐहतेमाल नही रह जाते ब निस्बत जवानी के दिनो के।



अगर चे आप ऐसी आग़ोश के परवरदा थे जहाँ गुनाह का ज़र्रा बराबर भी शायबा नही मिलता और आप की ज़िन्दगी उन तमाम बातों से मुबर्रा थी मगर फिर भी आप मुआशरे की रिआयत करते थे।



मेरे दोस्त यक़ीनन अगर हम मौला ए कायनात (स) की सीरत को अपना लें तो उस से बढ़ कर हमें कोई आईडियल नही मिल सकता क्यों कि आप ज़िन्दगी के तमाम मसायल में यहाँ तक कि ज़ुज़ई तरीन मसायल में भी आज के नौजवानों और जवानों के लिये आईडियल हैं।