पवित्र माहे रमज़ान-12

रमज़ान का पवित्र महीना ईश्वर से निकटता तथा उपासनाओं का महीना है। इस्लाम में ईश्वर के सामिप्य के लिए विभिन्न प्रकार की उपासनाओं का उल्लेख किया गया है। रोज़ा भी उन उपासनाओं में से एक है। यदि हम उपासनाओं पर दृष्टि डालें तो हमको यह ज्ञात होगा कि ईश्वर के लिए इन उपासनाओं का कोई लाभ नहीं है। जब वास्वत में हमारी उपासना का ईश्वर को कोई लाभ नहीं है तो फिर इस्लामी शिक्षाओं में उनके संबन्ध में इतना अधिक बल क्यों दिया गया है।


इसका कारण यह हो सकता है कि हमारा रचयिता अपनी रचना अर्थात मानव को शारीरिक तथा आध्यात्मिक दोनों रूप में सही देखना चाहता है। वह मनुष्य के जीवन को व्यक्तिगत तथा सामाजिक दोनों स्तरों पर शान्तिमय और सकारात्मक बनाना चाहता है। अतः प्रार्थना वह होती है जिससे अपने या दूसरों के शरीर तथा आत्मा को लाभ पहुंचता हो अन्यथा प्रार्थना के नाम पर किया गया कार्य केवल ढोंग होता है प्रार्थना नहीं। अन्य सभी अनिवार्य उपासनाओं की भांति रोज़ा रखने वाले के लिए ही यह आवश्यक है कि मनुष्य मानसिक रूप से स्वस्थ हो ताकि उसे पूर्ण रूप से इस बात का पता चल सके कि वह रोज़ा क्यों रख रहा है और उसके नियम क्या है? रोज़े के लिए शारीरिक स्वास्यथ का होना भी आवश्यक है क्योंकि चिकित्सक की दृष्टि से भूखा प्यासा रहने से यदि किसी व्यक्ति को नुक़सान हो रहा हो तो इस्लाम ने एसे व्यक्ति को रोज़ा न रखने की सलाह दी है। इसके साथ ही यह बात भी दृष्टिगत रखनी चाहिए कि केवल इस भय से कि रोज़ा रखने से कहीं शरीर को नुक़सान न हो और भूख प्यास सहन नहीं की जा सकती मनुष्य रोज़ा नहीं छोड़ सकता।

रमज़ान का पवित्र महीना रोज़ा रखने वालों को शारीरिक और आध्यात्मिक लाभ पहुंचाने के अतिरिक्त लोगों के बीच संबन्धों के सुदृढ़ होने का भी कारण बनता है। वास्तविक रोज़ा उस रोज़े को माना जाता है जिसका रखने वाला अपने व्यक्तिगत, पारीवारिक एवं सामाजिक तीनों प्रकार के कर्तव्यों पर ध्यान रखता हो।