ख़ुद क़ुरआने मजीद कैसी तफ़सीर कबूल करता है?

इस सवाल का जवाब पिछले बाबों से मालूम हो जाता है क्योकि एत तरफ़ तो क़ुरआने मजीद ऐसी किताब, जो उमूमी और हमेशगी है और तमामों इँसानों को ख़िताब करते हुए अपने मक़ासिद की तरफ़ रहनुमाई और हिदायत करती है। इस तरह सब इंसानों के चैलेंज करती हैं (कि इस तरह की किताब ला कर दिखाओ) और अपने आप को नूर (नूरानी करने वाली) और हर चीज़ को वाज़ेह बयान करने वाली किताब कह कर तआरुफ़ कराती है अतबत्ता अपने वाज़ेह और रौशन होने में दूसरों की मोहताज नही है।

क़ुरआने मजीद यह भी चैलेंज करता है कि यह किसी इंसान का कलाम नही है और फ़रमाता है कि क़ुरआन यकसाँ कलाम है जिस में किसी क़िस्म का फ़र्क़ नही। (इस की आयात में) और जो फ़र्फ़ ज़ाहिरी तौर पर लोगों को लोगों को नज़र आता है वह लोग अगर क़ुरआन में ग़ौर व फ़िक्र और तदब्बुर करें तो हल हो जाता है और अगर यह क़ुरआन खुदा का कलाम न होता तो हरगिज़ इस क़िस्म का न होता और अगर ऐसा कलाम अपने मक़ासिद के रौशन होने में किसी कमी, चीज़ या आदमी का मोहताज होता तो यह दलील और बुरहान पूरी नही हो सकती थी क्योकि अगर कोई मुख़ालिफ़ या दुश्मन ऐसे इख़्तिलाफ़ी मसायल दरयाफ़्त करे जो ख़ुद की क़ुरआन की लफ़्ज़ी दलालत के ज़रिये हल न हो और किसी दूसरे ग़ैरे लफ़्ज़ी तरीक़े से हल हों जैसे पैग़म्बरे अकरम (स) की तरफ़ रुजू करने से हल हो सकें तो आँ हज़रत क़ुरआनी शवाहिद के बग़ैर ही उन को हल कर दें यानी आयत का मतलब ऐसा और यूँ हैं तो इस सूरत में वह मुख़ालिफ़ शख़्स जो आँ हज़रत की इस्मत और सदाक़त का मोतरिफ़ नही है वह अगर क़ाने और मुतमईन नही हो सकेगा। दूसरे अल्फ़ाज़ में पैग़म्बरे अकरम (स) का बयान और इख़्तिलाफात को हल करना और वह भी क़ुरआनी शहादत और दलील के बग़ैर तो वह सिर्फ़ ऐसे शख़्स के लिये मुफ़ीद और क़ाबिले क़बूल होगा जो नबूवत और आँ हज़रत (स) की इस्मत और पाकी पर ईमान रखता हो। लेकिन इस आयते शरीफ़ा में, क्या वह लोग क़ुरआन में ग़ौर व फिक्र नही करते अगर यह क़ुरआन खुदा के अलावा किसी और जानिब से आया होता तो इस में बहुत ज़्यादा इख़्तिलाफ़ पाते। (सूरह निसा आयत 82) एक एहितजाज और उन लोगों की तरफ़ इशारा और दावत है जो नवूबत और आँ हज़रत (स) की इस्मत व तहारत पर ईमान नही रखते। लिहाज़ा आँ हज़रत का बयान जो क़ुरआनी सुबूत के बग़ैर हो उन पर सादिक़ नही आया।

दूसरी तरफ़ क़ुरआने मजीद ख़ुद पैग़म्बरे अकरम (स) के बयान और तफ़सीर पर और पैग़म्बरे अकरम (स) अपने अहले बैत की तफ़सीर की ताईद करते हैं।

इन दो दीबाचों का नतीजा यह है कि क़ुरआने मजीद में बाज़ आयात बाज़ दूसरी आयात के साथ मिल कर तफ़सीर होती हैं और पैग़म्बरे अकरम (स) और आप के अहले बैत (अ) की हालत क़ुरआने मजीद के बारे में मासूम उस्तादों जैसी है। जो अपनी तालीम में हरगिज़ ख़ता नही करते हैं। लिहाज़ा जो तफ़सीर वह करते हैं वह क़ुरआने मजीद की आयात को बा हम ज़म कर के तफ़सीर करने से कोई फ़र्क़ नही रखती।