अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क

इस्लाम लोगों की आवश्यक्ताओं का उत्तर देने वाला धर्म

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ऐतिहासिक प्रमाण इस वास्तविकता के सूचक हैं कि मनुष्य ने कभी भी धर्म के बिना जीवन व्यतीत नहीं किया। इस विषय ने बहुत से विचारकों को इस विषय में विचार करने और इसके स्रोत के बारे में शोध करने पर प्रेरित किया और इसी लिए इस संबंध में विभिन्न दृष्टिकोण अस्तित्व में आए नास्तिक विचारधारा वाले कुछ लोगों ने आस पास के वातावरण से उत्पन्न भय पर नियंत्रण जैसे कारक को धर्म के अस्तित्व में आने में प्रभावी बताया है और कुछ लोगों ने धर्म के सामाजिक क्रियाकलाप पर बल दिया है किन्तु इस बात पर गहन दृष्टि डालने से मनुष्य के लिए यह वास्तविकता खुलकर सामने आ जाती है कि धर्म मनुष्य की आधारभूत व मूल आवश्यकता रही है।

 

पवित्र क़ुरआन धर्म को मानवीय प्रवृत्ति से संबंधित बताता है और इन भीतरी आवश्यकताओं का उत्तर देने का उससे अह्वान करता है।

 

ईश्वर सूरए रूम की आयत संख्या 30 में कहता है कि आप अपने चेहरे को धर्म की ओर रखें और असत्य से दूर रहें कि यह धर्म वह ईश्वरीय प्रवृत्ति है जिसपर उसने मनुष्यों को पैदा किया है और ईश्वर की सृष्टि में कोई परिवर्तन नहीं हो सकता, निश्चित रूप से यही सीधा और सुदृढ़ धर्म है, मगर अधिकांश लोग इस बात से बिल्कुल निश्चेत हैं।

 

इस आधार पर पवित्र क़ुरआन की दृष्टि में मनुष्य की रचना और प्रवृत्ति, उसको धर्म परायणता अर्थात बेहतर जीवन के लिए वैचारिक व व्यवहारिक सिद्धांतों की ओर मार्ग दर्शन करती है।

 

चूंकि प्रवृत्ति की एक आवश्यकता के रूप में धर्मपरायणता कभी कभी निश्चेतना का शिकार हो जाती है, इसलिए ईश्वरीय दूत भेजे गये ताकि वह प्रवृत्ति की आवश्यकता लोगों को याद दिलाएं और उससे कहें कि वह अपनी भीतरी आवाज़ को सुने। धर्म के परिप्रेक्ष्य में ईश्वर की ओर से ईश्वरीय दूतों ने लोगों को ऐसी बातों की शिक्षाएं दी हैं जिसे वहि के मार्ग के अतिरिक्त जानना संभव नहीं था।

 

ईश्वर ने धर्मों के माध्यम से मनुष्य के जीवन के लिए ऐसे कार्यक्रम भेजे जिनके द्वारा वह वास्तविक परिपूर्णता और कल्याण की चरमसीमा पर पहुंच सके।

 

इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए आवश्यक क़ानून और नियम बनाए गये जो एक धर्म के बाद दूसरे धर्म में परिपूर्ण होते गये और लोगों की सामाजिक व बौद्धिक परिपूर्णता के साथ ही इस्लाम धर्म के आने से यह क़ानून व नियम परिपूर्णता की अपनी चरम सीमा पर पहुंच गये। जैसा कि हम जानते हैं कि इस्लाम धर्म का अंतिम होना व सदैव रहना, इस ईश्वरीय धर्म की महत्त्वपूर्ण विशेषताओं में है। इस्लाम धर्म के अंतिम धर्म होने व सदैव रहने की शर्त, उसकी शिक्षाओं व नियमों की व्यापकता व समुचित होने के कारण है।

 

सूरए नह्ल की आयत संख्या 89 में इस्लाम धर्म के अंतिम धर्म होने का एक प्रमाण, पवित्र क़ुरआन का व्यापक व परिपूर्ण होना बताया गया है।

 

सूरए नह्ल की आयत संख्या 89 में ईश्वर कहता है कि मैंने क़ुरआन को जो हर वस्तु का बयान करने वाला है, तुम पर उतारा है।

 

पवित्र क़ुरआन के प्रसिद्ध व्याख्याकर्ता अल्लामा तबातबाई इस आयत के बारे में कहते हैं कि पवित्र क़ुरआन समस्त लोगों के लिए मार्गदर्शन है और इस आयत में हर वस्तु से तात्पर्य वह समस्त चीज़ें हैं जो मार्ग दर्शन से संबंधित हैं। सृष्टि के आरंभिक बिन्दु व प्रलय, शालीन चरित्रों से संबंधित शिक्षाएं, कहानियां और उपदेश जो मार्गदर्शन में मनुष्य के लिए आवश्यक हैं, सभी वस्तुओं को क़ुरआन में बयान किया गया है।

 

क़ुरआन की एक अन्य व्याख्या में इस आयत के विवरण के बारे में आया है कि इस आयत में हर वस्तु से तात्पर्य वह समस्त चीज़ें हैं जो लोगों और समाज के समस्त आयामों को परिपूर्ण करने के लिए आवश्यक हैं, न यह कि क़ुरआन एक बड़ा शब्दकोश है जिसमें गणित, भूगोल, रसायनशास्त्र और भौतिक विज्ञान के समस्त विवरण वर्णित हैं।

 

इस आधार पर क़ुरआन मार्गदर्शन व पथप्रदर्शन करने वाली पुस्तक है और जो अपनी सदैव बाक़ी रहने वाली शिक्षाओं के साथ एकेश्वरवादी लोगों के जीवन के लिए आधार समझी जाती है।

 

हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम भी अंतिम ईश्वरीय पुस्तक की व्यापकता व समुचित होने तथा पूरे संसार के लिए भेजी जाने वाली इस पुस्तक के बारे में कहते हैं कि ईश्वर ने क़ुरआन को किसी विशेष व्यक्ति व विशेष समय के लिए नहीं भेजा। क़ुरआन हर समय और हर व्यक्ति के लिए प्रलय के दिन तक ताज़ा है।

 

इस बिन्दु पर ध्यान देना आवश्यक है कि धर्म की व्यापकता का तात्पर्य, यह नहीं है कि मनुष्य, अपनी पहचान, संसार और मानवीय जीवन के विभिन्न आयामों के बारे में हर प्रकार की चर्चा और वादविवाद से आवश्यकता मुक्त हो जाए। बल्कि इसका उद्देश्य यह है कि इस्लाम धर्म ने लोगों के मार्ग दर्शन में समस्त बिन्दुओं पर विशेष रूप से ध्यान दिया है और किसी भी बिन्दु की अनदेखी नहीं की है। धर्म की व्यापकता की इस प्रकार व्याख्या करना ग़लत है कि विभिन्न मानवीय ज्ञान विज्ञान में प्रस्तुत विभिन्न प्रकार के नियमों, दृष्टिकोणों और फ़ार्मूलों को धार्मिक स्रोतों और किताबों में ढूंढ कर निकाला जा सकता है।

 

दूसरी ओर इस्लाम धर्म की विभिन्न व व्यापक शिक्षाओं और सिद्धांतों को उपासना संबंधी विषयों तक सीमित करना भी धर्म की अधूरी व्याख्या है।

 

इस्लाम धर्म के अंतिम व सदैव बाक़ी रहने के विषय में सबसे महत्त्वपूर्ण बिन्दु, इस ईश्वरीय धर्म का समय व काल के अनुरूप होना है।

 

अलबत्ता यह इस अर्थ में नहीं है कि युग व काल के अनुरूप होने के लिए धर्म के सिद्धांत व नियम परिवर्तित हो जाते हैं बल्कि इसका अर्थ यह है कि जब भी किसी काल या समय में कोई समस्या या आवश्यकता आ पड़ती है तो इस्लाम उस समस्या का सामाधान प्रस्तुत करता है।

 

अब यह प्रश्न उठता है कि प्रत्येक काल में परिवर्तित होती आवश्यकताओं के अनुरूप जीवन के एक क़ानून के रूप में इस्लाम धर्म विभिन्न कालों में कैसा व्यवहार करता है?

 

जैसा कि हम जानते हैं कि स्वभाविक रूप से मनुष्य में रचनात्मकता और नई नई चीज़ों की खोज करने की भावना पायी जाती है।

 

इसीलिए उसने विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में बहुत सारे अविष्कार किये है और नई नई चीज़ें खोजी हैं और सामाजिक जीवन में भी सबसे उचित व सबसे सरल शैलियों पर कार्य किया है।

 

दूसरी ओर मानवीय संपर्कों के विस्तार से समाजों के भीतरी व बाहरी संपर्क अधिक जटिल हो गये हैं।

 

स्पष्ट रूप से वर्तमान समाज पर छाये जटिल संबंधों के कारण वर्तमान समाज के संचालन को नये नियमों व क़ानूनों की आवश्यकता होती है।

 

यह देखना चाहिए कि चौदह शताब्दी पूर्व लोगों के मार्गदर्शन और मानव जीवन के संचालन व प्रबंधन के लिए ईश्वर की ओर से भेजे गये इस्लामी नियम व क़ानून किस प्रकार से स्वयं को युग के अनुरूप ढाल सकते हैं और नये युग की विभिन्न आवश्यकताओं का उत्तर दे सकते हैं।

 

इस प्रश्न के उत्तर के लिए आवश्यक है कि हर वस्तु के बयान से पहले यह बयान किया जाए कि मानवीय आवश्यकताएं कितने प्रकार की होती हैं।

 

मानवीय आवश्यकताओं को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। मूलभूत आवश्यकताएं और दूसरे दर्जे की आवश्यकताएं।

 

आरंभिक व मूलभूत आवश्यकताएं वह आवश्यकताएं हैं जिनकी जड़ें मानवीय प्रवृत्ति व स्वभाव में निहित होती है।

 

जब तक मनुष्य जीवित है तब तक यह आवश्यकताएं पायी जाती हैं और समय व स्थान की विभिन्न परिस्थितियों से हटकर सदैव बाक़ी रहने वाली होती हैं।

 

उदाहरण स्वरूप खाने, पीने, पहनने जैसी आवश्यकतायें रहने और उपासना जैसी आत्मिक आवश्यकताएं और ज्ञान प्राप्ति व समझने की आवश्यकताएं या एक दूसरे के साथ सहयोग करने या स्वतंत्रता से संपन्न होने जैसी सामाजिक आवश्यकताएं।

 

दूसरी आवश्यकताएं वह आवश्यकताएं हैं जो आरंभिक आवश्यकताओं से उत्पन्न होती हैं। उदाहरण स्वरूप जीवन के विभिन्न उपकरणों व संसाधनों की आवश्यताएं जो हर युग और समय में परिवर्तित होती रहती हैं। इसी प्रकार संबंधों के जटिल होने के साथ सांस्कृतिक, राजनैतिक और सामाजिक संबंधों में परिवर्तन की आवश्यकता का आभास किया जा रहा है।

 

दूसरे शब्दों में मूल आवश्यकताओं को व्यवहारिक करने के लिए उपकरण व संसाधन के रूप में दूसरे दर्जे की आवश्यकताएं समय और युग के परिवर्तित होने के साथ परिवर्तित होती रहती हैं।

 

मानवीय आवश्यकताओं के मध्य एक सामान्य तुलना से हमें यह पता चल जाता है कि आरंभिक व मूलभूत आवश्यकताएं कभी भी समाप्त नहीं होती किन्तु समय की आवश्यकता और स्थिति के दृष्टिगत केवल उनका रूप और उनके समाधान का मार्ग परिवर्तित हो जाता है। इस्लाम की क़ानून निर्धारण करने की व्यवस्था ने भी आरंभिक व मूल आवश्यकताओं के लिए मूल क़ानून निर्धारित किए हैं और इसी प्रकार लोगों की दूसरे दर्जे की आवश्यकताओं के लिए परिवर्तित होने योग्य क़ानून बनाए हैं।

 

लोगों को कल्याण व परिपूर्णता तक पहुंचाने के लिए जो क़ानून व नियम इस्लाम ने निर्धारित किए हैं वह कभी किसी भी काल व युग में परिवर्तित नहीं होंगे, मगर यह कि मनुष्य अपनी मानवीय प्रवृत्ति के मार्ग से दिगभ्रमित हो जाए।

 

इस्लाम धर्म ने दूसरे दर्जे के क़ानून बनाने के लिए जिस शैली की सहायता ली है उसे इजतेहाद कहा जाता है। धार्मिक क़ानूनों व नियमों को सिद्ध करने और उसके लिए तर्क प्रस्तुत करने के लिए बौद्धिक व वैज्ञानिक प्रयास का नाम इजतेहाद है। इस्लाम धर्म ने ज्ञानियों और धर्म शास्त्रियों को यह अनुमति दी है कि धर्म के मूल सिद्धांतों और नियमों के आधार पर समय और युग की आवश्यकता के अनुसार क़ानून बनाएं।

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