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ईश्वर और न्याय

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ईश्वर का न्याय भी उन विषयों में से है जिन के बारे में बुद्धिजीवियों और विशेषज्ञों में मतभेद पाया जाता है और इस संदर्भ में उन्होंने भिन्न- भिन्न विचार प्रस्तुत किये हैं।


ईश्वर के न्याय के संदर्भ में विभिन्न प्रकार के विचार वास्तव में इस विषय के महत्व के कारण हैं और यदि ध्यान दिया जाए तो पूरा धर्म- कर्म ईश्वर की इसी विशेषता पर टिका हुआ है।


ईश्वर के न्याय के संदर्भ में पहला प्रश्न तो यह उठता है कि ईश्वर न्यायी है या नहीं। तो इस प्रश्न का बहुत सीधा सा उत्तर है कि यह संभव हीं नहीं है कि वह न्यायी न हो क्योंकि यदि वह न्यायी नहीं होगा तो अच्छे कर्म करने वाले को नरक में और बुरे कर्म करने वाले को स्वर्ग में डाल सकता है और लोगों के कर्मों के प्रतिफल में उलट-फेर और अनियमिता कर सकता है और यदि कर्म करने वाला ऐसा समझने लगे तो फिर वह कोई कर्म कर ही नहीं सकता क्योंकि उसे प्रतिफल पर विश्वास नहीं होगा। इस लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य को ईश्वर के न्यायी होने पर पूर्ण रूप से विश्वास हो।


यही कारण है कि हम ने जिन बुद्धिजीवियों के बारे में कहा कि ईश्वर के न्याय के बारे में उन में मतभेद है तो यहां पर हम यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि समस्त इस्लामी मतों में ईश्वर को न्यायी माना जाता है अर्थात यह कोई नहीं कहता कि ईश्वर अत्याचारी है क्योंकि कुरआन मजीद की असंख्य आयतों में ईश्वर को न्यायप्रेमी और अत्याचार से दूर कहा गया है।


तो प्रश्न यह उठता है कि यदि सब लोग ईश्वर को न्यायप्रेमी मानते हैं और कोई भी उसे अत्याचारी नहीं समझता तो फिर उनमें मतभेद कैसा है और किस विषय ने उन्हें अलग- अलग मत अपनाने पर विवश किया। वास्तव में ईश्वर के न्याय पर चर्चा करने वाले इस बात में मतभेद रखते हैं कि क्या मानव बुद्धि में इतनी शक्ति है कि वह धार्मिक आदेशों के बिना ही भलाई व बुराई समझ सकती है? या फिर बुद्धि को कामों और चीज़ों की भलाई- बुराई समझने के लिए धार्मिक व ईश्वरीय आदेशों की आवश्यकता होती है? दूसरे शब्दों में क्या बुद्धि में इतनी शक्ति है कि वह यह निष्कर्ष निकाले कि यदि किसी मनुष्य ने अच्छा काम किया है और ईश्वर के समस्त आदेशों का पालन किया है तो ईश्वर के लिए आवश्यक है कि वह उसे स्वर्ग में भेजे?


क्या बुद्धि अकेले ही यह निष्कर्ष निकाल सकती है कि जिन लोगों ने जीवन भर बुराईयां की हों ईश्वर के लिए आवश्यक है कि उन्हें नरक में भेजे? या फिर बुद्धि को इस प्रकार के निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए धार्मिक नियमों और ईश्वरीय आदेशों की भी आवश्यकता होती है? या यह कि इस प्रकार के धर्म से संबंधी नियमों पर आधारित निष्कर्ष केवल ईश्वरीय संदेशों और धार्मिक शिक्षाओं के आधार पर ही निकाले जा सकते हैं और बुद्धि से इसका कोई संबंध नहीं होता?


बात को अधिक स्पष्ट करते हुए कहेंगे कि कुछ बुद्धिजीवियों का कहना है कि व्यवहारिक रूप से जो कुछ ईश्वर करता है वह भलाई है और धार्मिक मामलों में जो कुछ ईश्वर आदेश देता वह अच्छा है ऐेसा नहीं है कि चूंकि अमुक काम अच्छा है इसलिए ईश्वर उसका आदेश देता है बल्कि सही बात यह है कि चूंकि अमुक काम का ईश्वर ने आदेश दिया है इस लिए वह अच्छा है।


अर्थात कुछ बुद्धिजीवियों का कहना है कि उदाहरण स्वरूप झूठ बोलना मूल रूप से न अच्छा है न बुरा अर्थात बुद्धि के लिए अच्छाई व बुराई से खाली विषय है अब चूंकि ईश्वर ने झूठ को बुरा कहा है कि इस लिए झूठ बुरा है जबकि इसके मुक़ाबले में कुछ बुद्धिजीवियों के एक वर्ग का यह कहना है कि बुद्धि स्वंय भी भला- बुरा समझने की शक्ति रखती है और वह अपनी इसी शक्ति और क्षमता की सहायता से कुछ बुराईयों को बुरा और ईश्वर को उनसे दूर और कुछ अच्छाइयों को अच्छा और ईश्वर के लिए आवश्यक मानते हैं अर्थात उनका यह कहना है कि धार्मिक नियमों के बिना भी कुछ कामों की भलाई और बुराई समझने की शक्ति बुद्धि में होती है अर्थात उदाहरण स्वरूप उनका का कहना है कि झूठ के बारे में यदि किसी को धार्मिक नियमों का ज्ञान न भी हो तब भी वह अपनी बुद्धि के आधार पर उसे बुरा काम समझेगा।


इस प्रकार के बुद्धिजीवियों का कहना है कि बुरा काम बुरा होता है इस लिए ईश्वर उससे दूर रहने का आदेश देता है। यह सही नहीं है कि चूंकि ईश्वर ने किसी काम से दूर रहने को कहा है इस लिए वह बुरा है। अर्थात झूठ बुरा है इस लिए ईश्वर ने उस से दूर रहने को कहा है। यह सही नहीं है कि चूंकि ईश्वर ने झूठ से दूर रहने को कहा है इस लिए झूठ बोलना बुरा काम है। इस संदर्भ में चर्चा अत्यधिक व्यापक है और दोनों प्रकार के विचार पेश करने वालों के अपने- अपने तर्क हैं।

 

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