इमाम हुसैन के बा वफ़ा असहाब
इमाम हुसैन अलैहिस सलाम ने फ़रमाया:
मैंने अपने असहाब से आलम और बेहतर किसी के असहाब को नही पाया।
हमारी दीनी तालीमात का पहला स्रोत क़ुरआने मजीद है। क़ुरआन के बाद हम जिन रिवायात का तज़किरा करते हैं वह दो तरह की हैं: 1. जिन को दरमियाने सुखन इस्तेमाल किया जाता है। 2. जिन को उनवाने कलाम क़रार दिया जाता है। दूसरी क़िस्म के बर अक्स पहली क़िस्म के सिलसिले में सनद के हवाले से ज़्यादा बहस नही होती है।
आम्मा व ख़ास्सा के अकसर मुहद्देसीन ने इस रिवायत का ज़िक्र किया है और बाज़ ने रावी के नाम के साथ ज़िक्र करने के बजाए सिर्फ़ क़ाला के साथ इस रिवायत को बयान किया है जो मुहद्दिस के इस यक़ीन पर दलालत करता है कि यह इमाम (अ) का कलाम है।
हम भी ‘ला आलम’ का इस्तेमाल करते हैं और इमाम (अ) ने भी इस को इस्तेमाल किया है लेकिन मुतकल्लिम के ऐतेबार से इस के मअना बदल जाते हैं। हम यह जुमला कहें तो हमारी जिहालत पर दलालत करता है लेकिन जब यही लफ़्ज़ एक मुहक़्क़िक़, उस्ताद या मरजअ इस्तेमाल करता है तो यह उस चीज़ के अदमे वुजूद पर दलालत करता है। यह इकतेसाबी इल्म के उलामा हैं अब अगर इसी कलेमे को आलिमे इल्मे लदुन्नी इस्तेमाल कर रहा है तो इस का मतलब यह होगा कि इस कायनात में मेरे असहाब से बेहतर असहाब पाये ही नही जाते।
हो सकता है कि ज़ेहन में यह सवाल आये कि जब ला आलम का मअना ला यूजद है तो इमाम (अ) ने ला यूजद क्यों नही कहा तो इस का जवाब यह है कि यूजद फ़ेअले मुज़ारअ है जो हाल या ज़्यादा से ज़्यादा मुस्तिक़बिल के सिलसिले में दलालत करता है कि मेरे असहाब के जैसे असहाब नही पाये जाते है या नही पाये जायेगें लेकिन यह माज़ी को शामिल नही होता है। अगर माज़ी का सिग़ा इस्तेमाल किया जाये तो यह हाल व मुसतक़बिल को शामिल नही होगा। उन सब के बर ख़िलाफ़ ला आलम का ताअल्लुक़ मुतकल्लिम के इल्म से ताअल्लुक़ रखता है। अगर यह कलेमा एक फ़क़ीह इस्तेमाल करे तो इस का मतलब यह होगा कि फ़िक़ह की किताबों में यह मसला नही है इस का मतलब यह नही है कि ऐसा मसला कभी पेश ही नही आया या पेश नही आयेगा क्योकि हर आदमी अपने दायर ए इल्म के ऐतेबार से गुफ़तुगू करता है वह उस के आगे नही बता सकता। लिहाज़ा मुतकल्लिम के इल्म का दायरा जितना वसी होगा उस पर ला इल्म का दायरा भी उतना ही वसीअ होगा। अब अगर ऐसा मुतकल्लिम इस्तेमाल करे जो माज़ी के बारे में भी जानता हो और हाल व मुसतक़बिल के बारे में भी तो इस का मतलब है कि मेरे जैसे असहाब न माज़ी में थे न हाल में हैं और न ही कभी हो सकेगें।
यह ख़ुसूसियत सिर्फ़ असहाब की नही है कि वह अफ़ज़ल हैं बल्कि करबला मंसूब हुई तो अफ़ज़ल ज़मीन, अफ़ज़ल ख़ाक बन गई। ग़मख़्वार बहुत से हैं लेकिन हुसैनी ग़मख़ार अफ़ज़ल हैं इस लिये अगर हमें भी अफ़ज़ल बनना है तो हुसैनी बनना होगा।
इस जुमले का मतलब यह है कि जैसे असहाब इमाम हुसैन (अ) के हैं वैसे न रसूले ख़ुदा (स) के असहाब थे न अली (अ), न हसन (अ) के, क्योकि दुनिया में दूसरे अफ़राद के असहाब लायक़े तज़किरा भी नही हैं। ज़ाहिर है कि इमाम दूसरे अफ़राद के असहाब से अपने असहाब का तक़ाबुल नही करेगें। अब अगर यह पैग़म्बर (स) के असहाब से बरतर हैं तो दुनिया के तमाम असहाब से बरतर हैं।
बाज़ रिवायात में औला के बजाए औफ़ा का लफ़्ज़ है। लफ़्ज़े वफ़ा सुनने से पहले अहद व पैमान ज़ेहन में आता है कि जिसे पूरा किया जाये लेकिन तारीख़ ने इमाम हुसैन (अ) के साथ उन के असहाब का कोई ऐसा अहद व पैमान नक़्ल नही किया है बल्कि बाज़ असहाब तो रास्ते से आ कर मिलें हैं। सिर्फ़ एक अहद है और वह आलमे ज़र का अहद है। इस की ताईद उन रिवायात से भी होती है जिस में इमाम (अ) ने फ़रमाया कि मेरे यह असहाब आलमे ज़र में भी मेरे साथ थे नीज़ यह कि असहाब की एक फ़ेहरिस्त पहले से मौजूद थी।
इसी वजह से ख़ुद ख़ानदाने बनी हाशिम के बाज़ अफ़राद इमाम (अ) के साथ नही आये क्योकि यह एक राज़े इलाही है जो आलमे ज़र में तय हो चुका था और इसी से इस ऐतेराज़ का जवाब भी मिल जाता है कि जो बाज़ अहले सुन्नत करते हैं कि अगर कूफ़ा के अफ़राद नही आये तो ख़ुद ख़ानदाने बना हाशिम के भी बाज़ अफ़राद नही आये?
इस के अलावा अफ़ज़ल होने की कोई वजह होती है। यह असहाब किस ज़ाविये से, किस जेहत से सब से बेहतर हैं। तीन चीज़ें फ़र्ज़ की जा सकती है:
इजमाल, यानी इमाम (अ) की नज़र में कोई जेहत थी ही नही और यह नामुमकिन है।
तक़ईद, कलाम में कोई क़ैद भी नही है।
इतलाक़, जब क़ैद नही है तो इस का मतलब यह है कि मेरे असहाब हर ऐतेबार से दूसरे असहाब से बेहतर हैं। चाहे वह मारेफ़त का मैदान हो या इबादत, इताअत का हो या अख़लाक़ का।
यहाँ पर सिर्फ़ मारेफ़त का तज़किरा करता हूँ। जंग में मौला ए कायनात मुसल्ला बिछा देते हैं तो इब्ने अब्बास सवाल करते हैं कि मौला यह नमाज़ का वक़्त है? इमाम (अ) ने फ़रमाया कि हम इसी नमाज़ के लिये तो जंग कर रहे हैं। शायद इमाम हुसैन (अ) ने अमदन नमाज़ के लिये ख़ुद नही कहा ता कि मालूम हो जाये कि मेरे असहाब माले ग़नीमत या किसी और बुनियाद पर जंग नही कर रहे हैं।
इमाम (अ) जब यह फ़रमाते हैं तो इब्ने मज़ाहिर उठ कर यह कहते हैं
कि मेरे मौला, हम अपनी औरतों को क़बील ए बनी असद में क्यो भेजें?
इमाम (अ) ने फ़रमाया क्योकि मेरे बाद मेरी ख़्वातीन को असीर किया जायेगा।
यह सुन कर इब्ने मज़ाहिर ख़ैमे में जाते हैं और अपनी ज़ौजा को यह पैग़ाम सुनाते हैं वह कहती है कि आप का क्या इरादा है? इब्ने मज़ाहिर कहते हैं कि उठ कर मेरे साथ चलो वह कहती है ‘मा अनसफ़तनी यबना मज़ाहिर’ आप ने इंसाफ़ नही किया। क्या आप को यह गवारा है कि अहले बैत (अ) की ख़्वातीन असीर हो जायें और मैं अमान में रहूँ। आप जायें मर्दों का साथ दें.....।