अज़ादारी और इसका फ़लसफ़ा
हमारा अक़ीदह है कि शोहदा-ए- इस्लाम मख़सूसन शोहदा-ए-कर्बला के लिए अज़ादारी बरपा करना, इस्लाम की बक़ा के लिए उनकी जाफ़िशानी व उनकी याद को ज़िन्दा रखने का ज़रिया है। इसी वजह से हम हर साल ख़ास तौर पर माहे मोहर्रम के पहले अशरे में (जो कि सरदारे जवानाने जन्नत[21] फ़रज़न्दे अमीरुल मोमेनीन हज़रत अली व हज़रत ज़हरा के बेटे पैग़म्बरे इस्लाम(स.) के नवासे हुसैन इब्ने अली की शहादत से मख़सूस है) दुनिया के मुख़तलिफ़ हिस्सों में अज़ादारी बरपा करते हैं। इस अज़ादारी में उनकी सीरत शहादत के मक़सद और मुसीबत को बयान करते हैं और उनकी रूहे पाक पर दरूद भेजते हैं।
हमारा मानना है कि बनी उमैय्यह ने एक ख़तरनाक हुकूमत क़ायम की थी और हुकूमत के बल बूते पर पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की बहुतसी सुन्नतों को बदल दिया था और आख़िर में इस्लामी अक़दार को मिटाने पर कमर बाँध ली थी।
यह सब देख कर हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने सन् 61 हिजरी क़मरी में यज़ीद के ख़िलाफ क़ियाम किया।यज़ीद एक गुनाहगार, अहमक़ और इस्लाम से बेगाना इंसान था और कुर्सीये ख़िलाफ़ते इस्लामी पर काबिज़ था। इस क़ियाम के नतीजे में हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनकी साथीयों को इराक़ में सरज़मीने कर्बला पर शहीद कर दिया गया और उनके बीवी बच्चों को असीर बना लिया गया। लेकिन उनका ख़ून रंग लाया और उनकी शहादत ने उस ज़माने के तमाम मुसलमानों के अन्दर एक अजीबसा हीजान पैदा कर दिया। लोग बनी उमैय्यह के ख़िलाफ़ उठ ख़ड़े हुए और मुख़तलिफ़ मक़ामात पर क़ियाम होने लगे जिन्होने ज़ालिम हुकूमत की नीव को हिला कर रख दिया और आख़िर कार बनी उमैय्यह की हुकूमत का ख़ातमा हो गया। अहम बात यह है कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद बनी उमैय्यह के ख़िलाफ़ जितने भी क़ियाम हुए वह सब अर्रिज़ा लिआलि मुहम्मद या लिसारतिल हुसैन के तहत हुए। इन में से बहुत से नारे तो बनी अब्बास की ख़ुदसाख़्ता हुकूमत के ज़माने तक लगते रहे।[22]
हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का यह ख़ूनी क़ियाम आज हम शियों के लिए ज़ालिम हुकूमतों से लड़ने के लिए एक बेहरीन नमूना है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के कर्बला में लगाये गये नारे “हैहात मिन्ना अज़्ज़िलत” यानी हम कभी भी ज़िल्लत को क़बूल नही करेंगे। “इन्ना अलहयाता अक़ीदतु व जिहाद” यानी ज़िन्दगी की हक़ीक़त ईमान और जिहाद है। हमेशा हमारी रहनुमाई करते रहे हैं और इन्ही नारों का सहारा लेकर हम ने हमेशा ज़ालिम हुकूमतों का सामना किया है। सय्युश शोहदा हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और आप के बावफ़ा साथियों की इक़तदा करते हुए हमने ज़ालिमों के शर का ख़ात्मा किया है। (ईरान के इस्लामी इंक़लाब में भी जगह जगह पर यही नारे सुन ने को मिले हैं।)
मुख़तस तौर पर यह कि शोहदा-ए- इस्लाम मख़सूसन शोहदा-ए- कर्बला ने की याद ने हमारे अक़ीदेह व ईमान में क़ियाम, इसार, दिलेरी व शौक़े शहादत को हमेशा ज़िन्दा रखा है।इन शोहदा की याद हमको हमेशा यह दर्स देती है कि हमेशा सर बुलन्द रहो और कभी भी ज़ालिम की बैअत न करो। हर साल अज़ादारी बरपा करने और शहीदों की याद को ज़िन्दा रखने की फ़लसफ़ा यही है।
मुमकिन है कि कुछ लोग इस अज़ादारी के फ़ायदे से आगाह ना हो। शायद वह कर्बला और इस शहादत को एक पुराना तारीख़ी वाक़िया समझते हो, लेकिन हम अच्छी तरह जानते हैं कि इस याद को बाक़ी रखने की हमारी कल की, आज की और आइन्दा की तारीख में क्या तसीर रही है और रहेगी।
जंगे ओहद के बाद सैय्यदुश शोहदा जनाबे हमज़ा की शहादत पर पैग़म्बरे इस्लाम का अज़ादारी बरपा करना बहुत मशहूर है।तारीख की सभी मशहूर किताबों में नक़्ल हुआ है कि पैग़म्बरे इस्लाम(स.) एक अनसारी के मकान के पास से गुज़रे तो उस मकान से रोने और नोहे की आवाज़ सुनाई दी पैग़माबरे इस्लाम(स.) की आखों से भी अश्क जारी हो गये और आपने फ़रमाया कि आह हमज़ा पर रोने वाला कोई नही है। यह बात सुन कर सअद बिन मआज़ तायफ़ा-ए-बनी अब्दुल अशहल के पास गया और उनकी ख़वातीन से कहा कि पैग़म्बर के चचा हमज़ा के घर जाओ और उनकी अज़ादारी बरपा करो।[23]
यह बात ज़ाहिर है कि यह काम जनाबे हमज़ा से मख़सूस नही था।बल्कि यह एक ऐसी रस्म है जो तमाम शहीदों के लिए अंजाम दी जाये और उनकी याद को आने वाली नस्लों के लिए ज़िन्दा रखा जाये और जिस से हम मुसलमानों की रगो में ख़ून को गरम रख सकें। इत्तेफ़ाक़ से आज जो मैं यह सतरे लिख रहा हूँ आशूर का दिन है (10 मुहर्रम सन् 1417 हिजरी क़मरी) और आलमें तश्शयो में एक अज़ीम वलवला है, बच्चे ,जवान बूढ़े सभी सियाह लिबास पहने हुए इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की अज़ादारी में शिरकत कर रहे हैं। आज इन में ऐसा जोश व जज़बा भरा हुआ है कि अगर इस वक़्त इन से दुशमने इस्लाम से दंग करने के लिए कहा जाये तो सभी हाथों में हथियार ले कर मैदाने जंग में वारिद हो जायेंगे। इस वक़्त इनमें वह जज़बा कार फ़रमा है कि यह किसी भी क़िस्म की क़ुर्बानी व इसार से दरेग़ नही करेंगे। इनकी हालत ऐसी है कि गोया इन सब की रगो में ख़ूने शहादत जोश मार रहा है और यह इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम व उनके साथियों को मैदाने कर्बला में राहे इस्लाम में लड़ते हुए देख रहे हैं।
इस अज़ादारी में इस्तेमार व इस्तकबार को मिटा डालने, ज़ुल्म व सितम के सामने न झुकने व इज़्ज़त की मौत को ज़िल्लत की ज़िन्दगी पर तरजीह देने से मुताल्लिक़ शेर पढ़े जाते हैं।
हमारा मानना है कि यह एक अज़ीम मानवी सरमाया है जिसकी हिफ़ाज़त बहुत ज़रूरी है। क्योँ कि इस से इस्लाम, ईमान व तक़वे की बक़ा के लिए मदद मिलती है।