इस्लाम पर महापुरूषों के विचार
इन्सानी भाईचारा और इस्लाम पर महात्मा गाधी का ब्यानः
‘‘कहा जाता है कि यूरोप वाले दक्षिणी अफ्रीका में इस्लाम के प्रसार से भयभीत हैं, उस इस्लाम से जिसने स्पेन को सभ्य बनाया, उस इस्लाम से जिसने मराकश तक रोशनी पहुँचाई और संसार को भाईचारे की इंजील पढाई। दक्षिणी अफ्रीका के यूरोपियन इस्लाम के फैलाव से बस इसलिए भयभीत हैं कि उनके अनुयायी गोरों के साथ कहीं समानता की माँग न कर बैठें। अगर ऐसा है तो उनका डरना ठीक ही है। यदि भाईचारा एक पाप है, यदि काली नस्लों की गोरों से बराबरी ही वह चीज है, जिससे वे डर रहे हैं, तो फिर (इस्लाम के प्रसार से) उनके डरने का कारण भी समझ में आ जाता है।’’
पृष्ठ 13, प्रो. के. एस. रामाकृष्णा राव की मधुर संदेश संगम, दिल्ली से छपी पुस्तक ‘‘इस्लाम के पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) में
खुदा के समक्ष रंक और राजा सब एक समान
इस्लाम के इस पहलू पर विचार व्यक्त करते हुए सरोजनी नायडू कहती हैं-
‘‘यह पहला धर्म था जिसने जम्हूरियत (लोकतंत्र) की शिक्षा दी और उसे एक व्यावहारिक रूप दिया। क्योंकि जब मीनारों से अज़ाद दी जाती है और इबादत करने वाले मस्जिदों में जमा होते हैं तो इस्लाम की जम्हूरियत (जनतंत्र) एक दिन में पाँच बार साकार होती है, जब रंक और राजा एक-दूसरे से कंधे से कंधा मिला कर खडे होते हैं और पुकारते हैं, ‘अल्लाहु अकबर’ यानी अल्लाह ही बडा है। मैं इस्लाम की इस अविभाज्य एकता को देख कर बहुत प्रभावित हुई हूँ, जो लोगों को सहज रूप में एक-दूसरे का भाई बना देती है। जब आप एक मिस्री, एक अलजीरियाई, एक हिन्दुस्तानी और एक तुर्क (मुसलमान) से लंदन में मिलते हैं तो आप महसूस करेंगे कि उनकी निगाह में इस चीज़ का कोई महत्व नहीं है कि एक का संबंध मिस्र से है और एक का वतन हिन्दूस्तान आदि है।’’ पृष्ठ 12
विश्व प्रसिद्ध शायर गोयटे ने पवित्र कुरआन के बारे में एलान किया थाः ‘‘यह पुस्तक हर युग में लोगों पर अपना अत्यधिक प्रभाव डालती रहेगी।’’ पृष्ठ 16
जार्ज बर्नाड शा का भी कहना हैः
‘‘अगर अगले सौ सालों में इंग्लैंड ही नहीं, बल्कि पूरे यूरोप पर किसी धर्म के शासन करने की संभावना है तो वह इस्लाम है।’’
‘इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका’ में उल्लिखित है -‘‘समस्त पैग़म्बरों और धार्मिक क्षेत्र के महान व्यक्तित्वों में मुहम्मद सबसे ज़्यादा सफल हुए हैं।’’ पृष्ठ 21
प्रेमचंद जी ‘‘इस्लामी सभ्यता’’ पुस्तिका जो मधुर संदेश संगम, दिल्ली से भी छपी है, में लिखते हैं:
‘‘जहां तक हम जानते हैं कि किसी धर्म ने न्याय को इतनी महानता नहीं दी जितनी इस्लाम ने।’’ पृष्ठ 5
‘संसार की किसी सभ्य से सभ्य जाति की न्याय-नीति की इस्लामी न्याय-नीति से तुलना कीजिए, आप इस्लाम का पल्ला झुकता हुआ पाएँगे।’’ पृष्ठ 7
‘‘हिन्दू-समाज ने भी शूद्रों की रचना करके अपने सिर कलंक का टीका लगा लिया। पर इस्लाम पर इसका धब्बा तक नहीं। गुलामी की प्रथा तो उस समस्त संसार में भी, लेकिन इस्लाम ने गुलामों के साथ जितना अच्छा सलूक किया उस पर उसे गर्व हो सकता है।’’ पृष्ठ 10
‘‘हमारे विचार में वही सभ्यता श्रेष्ठ होने का दावा कर सकती है जो व्यक्ति को अधिक से अधिक उठने का अवसर दे। इस लिहाज से भी इस्लामी सभ्यता को कोई दूषित नहीं ठहरा सकता।’’ पृष्ठ 11
‘‘हम तो याहं तक कहने को तैयार हैं कि इस्लाम में जनता को आकर्षित करने की जितनी बडी शक्ति है उतनी और किसी सस्था में नही है। जब नमाज़ पढते समय एक मेहतर अपने को शहर के बडे से बडे रईस के साथ एक ही कतार में खडा पाता है तो क्या उसके हृदय में गर्व की तरंगे न उठने लगती होंगी। उसके विरूद्ध हिन्दू समाज न जिन लोगों को नीच बना दिया है उनको कुएं की जगत पर भी नहीं चढने देता, उन्हें मंदिरों में घुसने नहीं देता।’’ पृष्ठ 14
स्नेह और सहिष्णुता के प्रचारक स्वामी विवेकानन्द कहते हैं ‘‘पैग़म्बर मुहम्मद सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम संसार मे समानता के संदेशवाहक थे। वे मानवजाति में स्नेह और सहिष्णुता के प्रचारक थे। उनके धर्म में जाति-बिरादरी, समूह, नस्ल आदि का कोई स्थान नहीं है।’’
स्वामी विवेकानन्द इस्लाम के बड़े प्रशंसक और इसके भाईचारा के सिद्धांत से अभिभूत थे। वेदान्ती मस्तिष्क और इस्लामी शरीर को वह भारत की मुक्ति का मार्ग मानते थे। अल्मोड़ा से दिनांक 10 जून 1898 को अपने एक मित्र नैनीताल के मुहम्मद सरफ़राज़ हुसैन को भेजे पत्र में उन्होंने लिखा कि
‘‘अपने अनुभव से हमने यह जाना है कि व्यावहारिक दैनिक जीवन के स्तर पर यदि किसी धर्म के अनुयायियों ने समानता के सिद्धांत को प्रशंसनीय मात्र में अपनाया है तो वह केवल इस्लाम है। इस्लाम समस्त मनुष्य जाति को एक समान देखता और बर्ताव करता है। यही अद्वैत है। इसलिए हमारा यह विश्वास है कि व्यावहारिक इस्लाम की सहायता के बिना, अद्वैत का सिद्धांत चाहे वह कितना ही उत्तम और चमत्कारी हो विशाल मानव-समाज के लए बिल्कुल अर्थहीन है।’’विवेकानन्द साहित्य, जिल्द 5, पेज 415
स्वामी जी ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि
‘‘भारत में इस्लाम की ओर धर्म परिवर्तन तलवार (बल प्रयोग) या धोखाधड़ी या भौतिक साधन देकर नहीं हुआ था।’’विवेकानन्द साहित्य, जिल्द 8, पेज 330
सी एस श्रीनिवास ‘‘हिस्ट्री आफ़ इंडिया’’ में, जो मद्रास से 1937 मे प्रकाशित हुई थी, लिखते हैं
‘‘इस्लाम के पैग़बर ने जब एक शासक का स्थान प्राप्त किया तो भी आपका जीवन पूर्व की भांति सादा रहा। आप सुधारक भी थे और विजेता भी। आपने लोगों के अख़्लाकष् को बुलंद किया। प्रतिशोध लेने को अनुचित ठहराया और खोज-बीन के बिना रक्तपात से रोका, विखंडित कष्बीलों को एक कषैम बना दिया और एक ऐसा रिश्ता दिया जो ख़ानदानी रिश्तों से ज़्यादा टिकाऊ था।आपने लोगों को पस्ती, द्वेष और पक्षपात में ग़र्क पाया, लेकिन उनको सदाकत का संदेश देकर बुलंद कर दिया। उनको आपसी ख़ानदानी झगड़े में लिप्त पाया, मगर सहिष्णुता और भ्रातृत्व के रिश्ते में जोड़ दिया। आप एक फ़रिश्ता-ए-रहमत बनकर दुनिया में तशरीफ़ लाए।’’भारतीय सभ्यता पर मुसलमानों के उपकार, पृष्ठ 31
आदर्श जीवनजगत महर्षि पै़ग़म्बरे-इस्लाम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम के विषय में महात्मा गांधी के विचार इस तरह हैं
‘‘मैं पैग़म्बरे-इस्लाम की जीवनी का अध्ययन कर रहा था। जब मैंने किताब का दूसरा भाग भी ख़त्म कर लिया तो मुझे दुख हुआ कि इस महान प्रतिभाशाली जीवन का अध्ययन करने के लिए अब मेरे पास कोई और किताब बाकी नहीं। अब मुझे पहले से भी ज़्यादा विश्वास हो गया है कि यह तलवार की शक्ति न थी जिसने इस्लाम के लिए विश्व क्षेत्रा में विजय प्राप्त की, बल्कि यह इस्लाम के पैग़म्बर का अत्यन्त सादा जीवन, आपकी निःस्वार्थता, प्रतिज्ञा-पालन और निर्भयता थी, आपका अपने मित्रों और अनुयायियों से प्रेम करना और ईश्वर पर भरोसा रखना था। यह तलवार की शक्ति नहीं थी, बल्कि ये सब विशेषताएं और गुण थे जिनसे सारी बाधाएं दूर हो गयीं और आपने समस्त कठिनाइयों पर विजय प्राप्त कर ली।मुझसे किसी ने कहा था कि दक्षिण अफ्ऱीकष में जो यूरोपियन आबाद हैं, इस्लाम के प्रचार से कांप रहे हैं, उसी इस्लाम से जिसने मोरक्को में रौशनी फैलायी और संसार-निवासियों को भाई-भाई बन जाने का सुखद संवाद सुनाया। निःसन्देह दक्षिण अफ्ऱीका के यूरोपियन इस्लाम से नहीं डरते हैं, लेकिन वास्तव में वह इस बात से डरते हैं कि अगर इस्लाम कुबूल कर लिया तो वह श्वेत जातियों से बराबरी का अधिकार मांगने लगेंगे।आप उनको डरने दीजिए। अगर भाइ-भाई बनना पाप है, यदि वे इस बात से परेशान हैं कि उनका नस्ली बड़प्पन कायम न रह सके तो उनका डरना उचित है, क्योंकि मैंने देखा है कि अगर एक जूलो ईसाई हो जाता है तो वह सफ़ेद रंग के ईसाइयों के बराबर नहीं हो सकता। किन्तु जैसे ही वह इस्लाम ग्रहण करता है, बिल्कुल उसी वक्त वह उसी प्याले में पानी पीता है और उसी तश्तरी में खाना खाता है जिसमें कोई और मुसलमान पानी पीता और खाना खाता है, तो वास्तविक बात यह है जिससे यूरोपियन कांप रहे हैं।’’जगत महर्षि, पृष्ठ 2इन्सानियत फिर ज़िन्दा हुई
स्वामी लक्ष्मण प्रसाद लिखते हैं‘‘आस्था, विश्वास, पूजा-अर्चना, नैतिकता, सामाजिकता के सम्पूर्ण आवाहक हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम के आगमन से पहले दुनिया में कहीं कोई आशा की किरन दिखाई नहीं देती थी, विश्वव्यापी गुमराहियों और भयंकर अंधकार में कहीं सभ्यता और संस्कृति की रौशनी नज़र नहीं आती थी। जब शराफ़त का नामो-निशान मिट चुका था, जब प्रकृति का वास्तविक सौंदर्य और आध्यात्मिकता की सुन्दरता ईश्वर के इन्कार मिथ्याकर्म के अंधकारों में छिप गई थी, इन्सान ख़ुदा की कष्द्र और महत्ता को भूलकर अपने गले में कुकर्म और मूर्तिपूजा की लानत की ज़ंजीर पहन चुका था, एक बार इन्सानियत मरकर फिर ज़िन्दा हुई। एशिया महाद्वीप के दक्षिण-पश्चिम में एक बड़ा प्रायद्वीप है जो अरब के नाम से मशहूर है। इसी अज्ञानता और बुराई के केन्द्र अरब के फ़ारान पर्वत की चोटियों से एक नूर चमका जिसने दुनिया के हालात को आमूल रूप से बदल दिया। गोशा-गोशा नूरे-हिदायत से जगमगा दिया।आज से तेरह सौ सदियां पहले इसी गुमराह देश मक्का की गलियों से एक क्रान्तिकारी आवाज़ उठी जिसने जुल्म-सितम के वातावरण में तहलका मचा दिया। यहीं से मार्गदर्शन का वह स्रोत फूटा जिसने दिलों की मुरझाई हुई खेतियां सरसब्ज़ कर दीं। इसी रेगिस्तानी, चमनिस्तान में रूहानियत का वह फूल खिला जिसकी रूहपर्वर महक ने नास्तिकता की दुर्गन्ध से घिरे इन्सानों के दिल व दिमाग़ों को सुगन्धित कर दिया।’’अरब का चाँद, पुस्तक से एकेश्वरवाद का सदुपयोग
हिन्दी के वरिष्ठतम साहित्यकार भारतेन्दु हरिश्चन्द्र लिखते हैं‘‘जिस समय अरब देशवाले बहुदेवोपासना के घोर अंधकार में फंस रहे थे, उस समय महात्मा मुहम्मद सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने जन्म लेकर उनको एकेश्वरवाद का सदुपयोग दिया। अरब के पश्चिम में ईसा मसीह का भक्तिपथ प्रकाश पा चुका था, किन्तु वह मत अरब, फ़ारस इत्यादि देशों में प्रबल नहीं था और अरब जैसे कट्टर देश में महात्मा मुहम्मद सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम के अतिरिक्त और किसी का काम न था कि वहां कोई नया मत प्रकाश करता। उस काल के अरब के लोग मूर्ख, स्वार्थ-तत्पर, निर्दय और वन्य-पशुओं की भांति कट्टर थे। यद्यपि उनमें से अनेक लोग अपने को इब्राहीम अ़लैहिस्सलाम के वंश का बतलाते और मूर्ति पूजा बुरी जानते किन्तु समाज परवश होकर सब बहुदेव उपासक बने हुए थे। इसी घोर समय में मक्के से मुहम्मद चन्द्र उदय हुआ और एक ईश्वर का पथ परिष्कार रूप से सबको दिखाई पड़ने लगा।’’
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र समग्रसमस्त मानवजाति के मार्गदर्शकलाला काशीराम चावला ‘ऐ मुस्लिम भाई’ में लिखते हैं
‘‘समस्त धर्मों के प्रणेता और संस्थापक, बड़े-बड़े घरानों में पैदा हुए और उनकी पैदाइश पर बड़ी धूम-धाम मची, बड़े हर्ष वाद्य बजे। उदाहरणतः हज़रत ईसा अ़लैहिस्सलाम, बुद्व-भगवान, हज़रत मूसा अ़लैहिस्सलाम, भगवान कृष्ण, भगवान महावीर, गुरू नानक सबका बचपन नितांत लाड-प्यार और शानो-शौकत से गुज़रा। लेकिन आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम के कष्टों का आरंभ जन्म से पहले ही हो चुका था।अभी आप माता के गर्भ ही में थे कि पिता का देहांत हो गया। छः वर्ष की अवस्था में मातृ-प्रेम से भी वंचित हो गये। दो साल दादा की गोद में खेले और आठवें वर्ष वे भी स्वर्ग सिधार गये और फिर आपके चाचा ने संभाला। इस प्रकार बचपन में शिक्षा-दीक्षा और सुख- शान्ति के समस्त साधन लुप्त हो गये। क्या वह ईश्वरीय चमत्कार नहीं कि ऐसी दशा में पला हुआ व्यक्ति आज मानवजाति के एक विशाल समूह का पथप्रदर्शक और नेता स्वीकार किया जा रहा है और उसने अरब जैसे बर्बर देश से निराश्रित अवस्था में संसार- निवासियों को मानवता का सन्देश दिया।किसे पता था कि ऐसा अप्रसिद्ध परिवार में जन्म लेने वाला अनपढ़ और अनाथ बालक अरब से अज्ञानता का नामो-निशान मिटाने वाला सुधारक बनेगा? समूचे संसार में इस्लामी पताका लहराने वाला रसूल होगा। कुरआन शरीफ़ का सन्देश पहुंचाने वाला नबी होगा? मूर्खों में महत्वपूर्ण क्रान्ति उत्पन्न करने वाला सुधारक होगा और एक बिल्कुल अनोखे नवीन धर्म का प्रकाश दिखाएगा? नितांत अल्प समय में स्वयं अशिक्षित होते हुए भी अपने बौद्विक ज्ञान से समस्त संसार के एक बहुत बड़े भाग को शिक्षा और ज्ञान से परिपूर्ण कर देगा? ऐसे ज्ञान से जो विश्व के समस्त मनुष्यों के लिए एक अनुकरणीय आदर्श है।आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने उदारता और समता, सत्य और न्याय एवं पड़ौसियों के स्वतत्वों का जो आदर्श संसार में स्थापित किया है, उसे देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम के सुव्यवहार और समता-भाव का यह हाल था कि आपने अपने संपूर्ण जीवन में कभी किसी दास या बालक या पशू तक को न मारा, न किसी को अपशब्द कहा, एक बार बिल्ली को प्यासा देखा तो वुजू के लोटे से पानी पिलाया। इसी तरह एक बार एक बिल्ली आपके बिस्तर पर सोई हुई थी, आपने उसे उस सुख से वंचित न किया, चिड़ियों और चींटियों के मारने के विरूद्ध आदेश दिया, कुत्तों को पानी पिलाने वालों के अपराध क्षमा किये। युद्ध के बन्दियों का सम्मान किया। नितांत महत्वपूर्ण युद्ध-नियम निर्माण किये, जिसमें स्त्री, बालक, वृद्ध, सोये हुए और निहत्थे पर अस्त्रा चलाने की मनाही की। फ़सलों और मकानों को हानि पहुंचाने से रोका।आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम अन्य जातियों के सरदारों का आदर-सत्कार करते थे। अन्य धर्मों के विद्वानों और प्रतिष्ठित जनों से सम्मानपूर्वक मिलते थे। जहां अपने प्रिय अनुयायियों के लिए दिन-रात ईश्वर से प्रार्थना करते रहते थे, वहीं विरोधियों और शत्रुओं के लिए भी प्रार्थना करते थे। जब उहुद के युद्ध में आपके मुख पर पत्थर मारे गये और आपके दांत शहीद हो गये तो आपने फ़रमायाः ‘‘हे मेरे ईश्वर! तू मेरी जाति के इन लोगों को क्षमा प्रदान कर, क्योंकि निस्सन्देह वे नहीं जानते (कि वे क्या कर रहे हैं)।’’आपकी दानशीलता और उदार हृदयता अद्वितीय थी। प्रार्थी किसी धर्म या सम्प्रदाय का हो आपके द्वार से निराश न लौट सकता था। आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम का यह आदेश था कि सृष्टि के प्राणियों पर दया करो, ईश्वर से डरो। आप कष्र्ज़ लेकर भी लोगों की ज़रूरतें पूरी किया करते थे। आपकी आज्ञा थी कि (युद्ध में) दुश्मन की लाश नष्ट न की जाए, औरतों और बच्चों की हत्या न की जाए, शरीर के अंगो को काट-काटकर प्राण-वध न किया जाए, न शरीर के किसी भाग को जलाया जाए।आपकी सत्यप्रियता, शुद्ध हृदयता, ईमानदारी और न्यायशीलता की प्रशंसा न केवल मुसलमान, बल्कि अबू जहल और अबू सुफ़यान जैसे ख़ून के प्यासे दुश्मनों ने भी की, और इन्सान की वास्तविक प्रशंसा वही है जो विरोधी को भी मान्य हो और सच्ची बुराई वह होती है जिसे मित्रा भी निःसंकोच कह दे।
क्या वह आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम का चमत्कार नहीं है कि अरब के जाहिल, अक्खड़, लड़ाके, झगड़ालू, अंधविश्वासी, जुआरी, शराबी, डाकू, व्यभिचारी, प्रतिज्ञा-भंग, कन्यावध, सौतेली माताओं से विवाह करने वाले लोग आज सीधे-सादे यात्रियों और अतिथियों का आदर-सत्कार करने वाले, मेहनती, ईमानदार, सहायक, आज्ञापालक, समतावादी और ईश्वर पूजक दिखायी देते हैं। यह आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम की शिक्षा का अलौकिक चमत्कार है कि इतने अल्प समय में इन लोगों के आचार-व्यवहार, स्वभाव, प्रकृति में एक असाधारण क्रान्ति उत्पन्न कर दी।आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने इतने अधिक प्रभाव और अधिकार के बाद भी कभी अपने स्वभाव में परिवर्तन न होने दिया। एक यात्रा में भोजन तैयार न था। आपके साथियों ने मिलकर भोजन बनाने का निश्चय किया, लोगों ने एक-एक काम बांट लिया। साथियों के रोकने के बावजूद जंगल से लकड़ी लाने का काम आपने स्वंय लिया और फ़रमायाः ‘‘कोई कारण नहीं कि मैं अपने आपको श्रेष्ठ समझूं।’’बद्र की लड़ाई में सवारियों की संख्या कम थी। बारी-बारी लोग सवार होते थे, आप भी इसी प्रकार अपनी बारी पर चढ़ते और पैदल चलते।आपकी सादा ज़िन्दगी कहावत की सीमा तक पहुंच चुकी है। यह पहले लिखा जा चुका है कि आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम अपने घर का काम-काज अपने हाथ से स्वयं करते थे, कपड़ों में पेवंद लगाना, फटे जूते गांठना, झाडू देना, दूध दुहना, बाज़ार से सौदा-सुल्फ़ लाना आदि, यह सब काम हज़रत की दिनचर्या में सम्मिलित थे। दिखावे और आडमब्र को बिल्कुल पसन्द न फ़रमाते थे। मोटे, फटे कपड़े पहनते, कुर्ते का तुक्मा खुला होता था, बनाव-सिंगार को नापसंद करते थे। एक बार आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम अपनी प्रिय सुपुत्री फ़ातिमा ज़ोहरा रज़ियल्लाहु अ़न्हा के घर गये। लेकिन दीवारों पर पर्दे लटके हुए देखकर वापस चले आये। कारण पूछने पर आपने फ़रमायाः‘‘जिस घर में बनावट-सजावट में दिल लगा रहता हो, वहां मैं नहीं जा सकता।’’ऐसा क्यों था? इसलिए कि उनके पास वह ईश्वरीय आदेश पहुंच चुका था कि ईश्वरीय प्रेम के सम्मुख सांसारिक प्रेम तुच्छ है।कुरआन में एक जगह कहा गया हैः‘‘ऐ (ईश्वर पर) विश्वास रखने वालो! तुम्हें तुम्हारे (सांसारिक) धन और संतान ईश्वर उपासना से ग़ाफ़िल न कर दें, और जो ऐसा करेगा वह हानि उठाने वालों में है।’’आप सारी-सारी रात ईश्वर की उपासना में लीन रहते थे। जब घर के लोग सो जाते तो आप चुपचाप बिस्तर से उठकर ईश्वर-स्मरण में लग जाते। आपकी सुपत्नी हज़रत आइशा सिद्दीक रज़ियल्लाहु अ़न्हा फ़रमाती हैं कि एक रात मेरी आँख खुली तो आपको बिस्तर पर न पाया, मैं समझी आप किसी और हरम (पत्नी) के हुज्रे (कमरे) में तशरीफ़ ले गये हैं, किन्तु अंधेरे में टटोला तो मालूम हुआ कि आपका पवित्रा मस्तक धरती पर है और आप ईश्वर-प्रार्थना में लीन हैं। यह देखकर आप बहुत लज्जित हुईं कि आपका विचार क्या था और आप किस दशा में हैं। इसी का नाम इस्लाम है। इस्लाम का अर्थ हैः ईश्वर के आगे नतमस्तक हो जाना। आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम मानो हर समय ईश्वर के सम्मुख उपस्थित रहते थे। आपने युद्ध-क्षेत्र में भी कभी नमाज़ नहीं छोड़ी।ईश्वर पर आपका अटूट विश्वास था। आपका कथन है कि अगर जूती का तसमा भी टूटे तो ईश्वर ही से मांगो। एक बार आपकी प्रिय सुपुत्राी हज़रत फ़ातिमा रजिष्यल्लाहु अ़न्हा घरेलू कामों की अधिकता के कारण आपकी सेवा में उपस्थित हुई और बहुत डरते-डरते एक सेविका के लिए प्रार्थना की, तो आपने फ़रमायाः‘‘ऐ प्यारी बेटी! तू ईश्वर पर भरोसा रख और उसका हकष् अदा (स्वत्वपूर्ति) कर। अपने घर वालों की सेवा स्वयं कर। अगर तू किसी समय थकन अनुभव करे तो ‘सुब्हान अल्लाह’ (ईश्वर पवित्रा है) 33 बार, ‘अल्हम्दुलिल्लाह’ (सारी प्रशंसा ईश्वर के लिए है) 33 बार, ‘अल्लाहु अक्बर’ (ईश्वर ही सबसे बड़ा है) 34 बार पढ़ लिया कर, तेरी सारी थकन दूर हो जाया करेगी।’’इसका नाम है सच्ची भक्ति! इसका नाम है सच्ची ईश्वर-उपासना! इसका नाम है ईश्वर-प्रेम!आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम फ़रमाया करते थे, ‘‘मुसलमान की सबसे पहली निशानी यह है कि वह ईश्वर और किष्यामत के दिन के हिसाब- किताब से डरे।’’ ‘ऐ मुस्लिम भाई’, पृष्ठ 252 से
दयानिधि श्री देवदास गांधी, जो दिवंगत महात्मा गांधी के पुत्र हैं, अपने एक निबंध में लिखते हैं‘‘एक महान शक्तिशाली सूर्य के समान ईश्वर-दूत हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने अरब की मरूभूमि को उस समय रौशन किया, जब मानव-संसार घोर अंधकार में लीन था और जब आप इस दुनिया से विदा हुए तो आप अपना सब काम पूर्ण रूप से पूरा कर चुके थे, वह पवित्रतम काम जिससे दुनिया को स्थायी लाभ पहुंचने वाला था। दुनिया के सच्चे पथ-प्रदर्शक बहुत थोड़े हुए हैं और उनके युगों में एक-दूसरे से बहुत अन्तर रहा है और वे लोग कि जिन्होंने मुहम्मद साहब के जीवन-चरित्र का अध्ययन उसी श्रद्धा के साथ किया है, जिसके वे अधिकारी हैं, इस बात के मानने पर बाध्य हैं कि आप महान धर्म-उपदेशकों में से एक थे। आपकी महानता और गुरूता में उस समय और भी वृद्धि हो जाती है, जबकि आपका चित्रा खींचते वक्त हम उस नितांत आध्यात्मिक और नैतिक ह्नास की पृष्ठभूमि पर भी दृष्टि रखें जो आपके जन्म के समय अरब में विद्यमान थी। मुहम्मद साहब एक सभ्य और उन्नतशील वातावरण की पैदावार न थे। आपके समय में एक आदमी भी ऐसा नहीं था जिससे आप ब्रहम्वाद की शिक्षा ग्रहण करते, उस काल में ईश्वरीय धर्म के लिए तो अरब में जगह ही न थी, वह देश अपने अंधकारमय काल से गुज़र रहा था। जब ख़राबी और पतन अपनी सीमा को पहुंच गया तो उस समय आप ईश्वरीय अनुकंपा बनकर उदित हुए। ऐसी दशा में यदि उन्हें ‘रहमतुल लिल् आलमीन’ (संसार के लिए दयानिधी) की पद्वी दी जाती है, तो इसमें आश्चर्य ही क्या है?आपकी अदर्श जीवनी हमें बताती है कि आपने अपने उपदेश और प्रचार का जीवन भर यही नियम रखा कि जो कुछ अपने अनुयायियों को सिखाना चाहते थे, पहले वह सब स्वयं करके दिखा दिया और कभी किसी ऐसे कार्य की शिक्षा न दी जिसका उदाहरण आपने उपस्थित न कर दिया हो।आपके पवित्रा जीवन में उस समय भी किसी प्रकार का कोई अन्तर नहीं आया, जबकि आप पैग़म्बर के पद पर शोभायमान हो गये। आपने सम्पूर्ण जीवन उसी सरलता और सादगी से व्यतीत किया। सांसारिक सुख और जीवन के भोग-विलास उस समय भी आपको अपनी ओर आकर्षित न कर सके जब एक से अधिक साम्राज्यों का धन आपके चरणों में अर्पित हो रहा था। आपका भोजन बहुत ही सादा और थोड़ा होता था और उसे भी केवल इसलिए खाते थे कि जीवित रह सकें। चटाइयां और टाट आपके बिस्तर थे और इसी तरह पहनने के कपड़े भी बहुत साधारण होते थे। आपने कभी किसी को कटुवचन नहीं कहा, यहां तक कि लड़ाई के अवसर पर भी दुश्मनों के साथ आपका स्वर कोमल होता था। सत्य यह है कि आपको अपनी इच्छाओं और मनोभावों पर पूरा-पूरा संयम प्राप्त था। गीता में कर्मयोगी के जो गुण बताये गये हैं, वह सबके सब आपमें पूर्णतया मौजूद थे।आप अपने अप्रिय कर्तव्यों को भी सच्चे ईमान और सच्ची वीरता के साथ पूर्ण किया करते थे और इच्छाएं या घमंड कभी आपके पगों में कम्पन उत्पन्न नहीं कर सकता था। कर्मयोगी उस व्यक्ति को कहते हैं जो अपने उत्तम विचारों को भी कार्य रूप में परिणत कर दे, और मुहम्मद साहब एक ऐसे ही व्यक्ति थे। एक नश्वर मनुष्य होते हुए भी आप अलौकिक गुण रखते थे। सुख- दुख, हर्ष, क्षोभ, जिनके प्रभावों के अन्तर्गत हम साधारण मनुष्यों के जीवन व्यतीत होते हैं और जो वास्तव में हमारे जीवन में क्रान्ति उत्पन्न कर देते हैं, उनसे यह पवित्रा और महान आत्मा कभी प्रभावित न होती थी।जो लोग समाज की वर्तमान व्यवस्था और प्रणाली को परिवर्तित करने में लगे हुए हैं और चाहते हैं कि इससे अच्छे समाज को जन्म दें, उनके दिलों पर जिस बात का गहरा प्रभाव पड़ेगा वह पैग़म्बर साहब का वह उच्च आदर्श है जिसे उन्होंने मेहनत-मज़दूरी के संबंध में कषयम किया। इस ईशदूत ने ऐसे बहुत से अनुकरणीय उदाहरण उपस्थित किये हैं, जिन्हें लोगों ने भुला दिया है। उनमें से एक यह है कि आप अपने कपड़ों की स्वयं मरम्मत करते थे। यही नहीं बल्कि अपने जूते भी ख़ुद ही टांकते थे। आप घर के काम-काज में प्रायः अपने सेवकों की सहायता करते थे। मस्जिद के निर्माण में आपने मज़दूरों के साथ बराबर काम किया है। मज़दूरों के साथ काम करते वक्त आप उनमें इस प्रकार घूल-मिल जाते थे कि कोई उन्हें पहचान न सकता था।बच्चों से आपको विशेष लगाव था और उनके साथ आप बहुत प्रसन्न रहते थे। वे सौभाग्यशाली बच्चे जो आपके जीवनकाल में थे और जिन्हें आपका प्रेम प्राप्त रहा, अपने घरों में इतने प्रसन्न नहीं रहते थे जितना आपके साथ। बच्चों के साहचर्य में उठना-बैठना आपके लिए कोई इत्तिफ़ाकी बात न थी, बल्कि यह आपका नियम और कार्यक्रम था कि बच्चों को ढूंढ़कर उनके साथ हो जाते और अपने उत्तम विचार उनके मस्तिष्क में अर्पित कर देते। क्या शिक्षा और उपदेश का इससे अधिक स्वाभाविक और सरल ढंग कोई हो सकता है?
मासिक ‘पेशवा’, दिल्ली, जुलाई 1931 ई.