ख़ानदाने नुबुव्वत का चाँद हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस सलाम
ख़ानदाने नुबुव्वत का यह चाँद अगर एक तरफ़ आबाई फ़ज़ायल व कमालात का मालिक होने की बेना पर फ़ख्रे अरब है तो दूसरी तरफ़ माँ की अज़मत व जलालत की बेना पर अजम के जाह व हशम का मालिक है।
आप की वालिद ए माजिदा ईरान के बादशाह यज़्दजुर्द बिन शहरयार बिन कसरा की बेटी थीं। मुवर्रेख़ीन लिखते है कि आप ख़िलाफ़ते सानिया के ज़माने में फ़तहे मदायन की ग़नीमत में अपनी दूसरी बहनों के साथ तशरीफ़ लायीं और हज़रत अमीर (अलैहिस सलाम) ने ख़रीद कर इमाम हुसैन (अलैहिस सलाम) की ज़ौजियत में दे दिया। दूसरी रिवायत में है कि आप हज़रत अमीर (अ) की ज़ाहिरी हुकूमत में आयीं और आप की अक़्द इमाम हुसैन (अ) के साथ कर दिया।
15 जमादिल अव्वल 38 हिजरी को आप के बतने अतहर से इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस सलाम की विलादत हुई। जिस की ख़बर सुन कर अमीरुल मोमिनीन (अ) ने सजद ए शुक़्र अदा किया और आप का नाम अली (अ) रखा। आप की वालिदा का इंतेक़ाल आप की विलादत के बाद दस दिन के अंदर ही हो गया था। आप की शख़्सियत के बारे में मशहूर रावी ज़ोहरी का बयान है कि अहले बैत (अ) में उस दौर में अली बिन हुसैन से अफ़ज़ल कोई न था। बाज़ दीगर मुवर्रेख़ीन ने आप को ज़माने का सब से बड़ा फ़क़ीह शुमार किया है।
यूँ तो हर इमाम, परवरदिगारे आलम से एक ख़ास ताअल्लुक़ रखता है जिस की बेना पर उसे ओहद ए इमामत अता किया जाता है लेकिन आप के इम्तेयाज़ के लिये यही काफ़ी है कि आप को रसूले ख़ुदा (स) ने ज़ैनुल आबेदीन कह कर याद किया है और फ़रमाया है कि रोज़े क़यामत जब जै़नुल आबेदीन को आवाज़ दी जायेगी तो मेरा एक फ़रज़ंद अली बिन हुसैन (अ) लब्बैक कहता हुआ बारगाहे इलाही में हाज़िर होगा।
इस की ताईद इस वाक़ेया से भी होती है जिसे साहिबे मनाक़िब और साहिबे शवाहिदुन नुबुव्वह ने नक़्ल किया है कि आप नमाजे शब में मशग़ूल थे कि शैतान आप को अज़ीयत देना शुरु करता है और पैर के अंगूठे को चबाना शुरु कर देता है लेकिन जब आप ने कोई तवज्जो न दी और वह शिकस्त खा कर चला गया तो एक आवाज़े ग़ैबी आई कि अन्ता ज़ैनुल आबेदीन। ज़ाहिर है कि इस आवाज़ का ताअल्लुक़ अजहदे या इबलीस से न था बल्कि यह एक निदा ए क़ुदरत थी जो उस फ़तहे मुबीन के मौक़े पर बुलंद हुई थी।
रिवायतों में मिलता है कि आप एक एक दिन में हज़ार हज़ार रकअत नमाज़ अदा करते थे और मामूली से मामूली नेमत पाने या मुसीबत के दूर होने पर सजद ए शुक्र करते थे। आप इतना ज़्यादा सजदा करते थे कि आप के आज़ा ए सजदा पर इतने ऊचे घट्टे पड़ जाते थे कि साल में दो बार तराशे जाते थे और हर मर्तबा पाच तह निकलती थी। जिस की वजह से आप को ज़ुस सफ़नात कहते थे।
आप की ज़िन्दगी में जितनी अहमियत आप की नमाज़ों और इबादतों को हासिल है उतनी ही अहमियत आप की दुआओं को भी हासिल है और शायद किसी मासूम से भी इस तरह की दुआएँ नक़्ल नही हुई है जिस तरह की अज़ीम दुआएँ इमाम सज्जाद अलैहिस सलाम से नक़्ल की गई हैं। सहीफ़ ए कामिला जो कि 54 दुआओं पर मुशतमिल है आप की दुआओं का एक बे मसील व बे नज़ीर मजमूआ है। जिस का एक एक फ़िक़रा मारेफ़ते इलाही से पुर है और जिस में बे शुमार मआनी व मफ़ाहीम का बहरे बे कराँ और उलूम व फ़ुनून के जवाहिर मौजूद हैं। उसे उलाम ए इस्लाम ने ज़बूरे आले मुहम्मद और इंजीले अहले बैत (अ) का दर्जा दिया है और उस की फ़साहत व बलाग़त को देख कर उसे कुतुबे समाविया व अरशिया का रुतबा दिया गया है। आप की दुआओं में एक नुक्ता यह भी पाया जाता है कि आप ने दुआ को साहिबाने ईमान के लिये तामीरे किरदार और ज़ालिमों के ख़िलाफ़ ऐहतेजाज का बेहतरीन ज़रिया क़रार दिया है और अपनी दुआओं के ज़रिये उन हक़ायक़ का ऐलान कर दिया जिन का ऐलान दूसरे अंदाज़ में मुमकिन न था। उस दौर में सब से बड़ा मसला यह था कि ज़ुल्म के ख़िलाफ़ किसी तरह का क़याम मुनासिब नही था
लेकिन इमाम (अ) के लिये ख़ामोश बैठना भी मुमकिन न था लिहाज़ा इस हादी ए उम्मत ने तबलीग़ व हिदायत के दूसरे रास्ते को इख़्तियार किया और अपनी दुआओं के ज़रिये तमाम मराहिल तबलीग़ व तरबीज मुकम्मल कर दिये। इस मैदान नें जिस क़द्र रहनुमाई व हिदायत आप ने की है और जिस क़द्र दुआ को तबलीग़ का ज़रिया आप ने बनाया है दीगर मासूमीन (अ) के यहाँ उस की मिसालें कम मिलती हैं। दुआओं के सिलसिले में आप के अल्फ़ाज़ व कलेमात की तारीफ़ करना सूरज को चिराग़ दिखाने के मुतरादिफ़ है। आप की दुआ इस क़दर जामे और मुताबिक़े मक़सद हुआ करती थी कि आप के शागिर्द ने आप की एक दुआ के बारे में यहाँ तक कह दिया कि अगर इस दुआ के ज़रिये मुद्दआ हासिल न हो तो दुआ करने वाला मुझ पर लानत कर सकता है लेकिन यह मक़ासिद सिर्फ़ दुआओं के अल्फ़ाज़ दोहराने से हासिल नही हो सकते। तब तक कि उन के मआनी व मफ़ाहीम पर नज़र न रखी जाये और उस के साथ साथ दुआ के शरायत मसलन दुआ में जोश व वलवला और दिल में क़स्द व इरादा भी ज़रुरी है और इसी तरह ज़रुरी है कि उन पाकीज़ा अल्फ़ाज़ के लिये पाकीज़ा क़ल्ब फ़राहम करे ता कि उसके नतायज से बहरामंद व मुसतफ़ीज़ हो सके।
हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस सलाम ने अपने इस जदीद तरज़े तबलीग़ के ज़रिये लोगों के ज़मीर को झिंझोड़ दिया
और मुआशरे में इंक़ेलाब के आसार नुमायाँ हो गये। कल जो समाज अहले बैत (अ) रास्ता रोक रहा था आज वही समाज हज़रत के लिये सहने हरम में रास्ता बना रहा है और अमवी दरबार का शायर अपने शाहज़ादे के सामने अमवीयत की हजव और अहले बैत (अ) की मदह ख़्वानी कर रहा है। कल जो लोग नैज़ा व शमशीर लिये तैयार रहते थे आज वही लोग क़लम व क़ाग़ज़ ले कर इमाम (अ) के इरशादात को नक़्ल करने के लिये जमा हो रहे हैं।
इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ) का यह अंदाज़े हिदायत आवाज़ देता है कि ज़माने की मुश्किलात और बिगड़े हुए हालात के मुक़ाबले में थक कर बैठ जाना एक इलाही रहनुमा के लिये शायाने शान नही है। इलाही रहनुमा हालात के ताबे नही हुआ करते बल्कि हालात को अपना ताबे बना कर फ़रीज़ ए हिदायत की अदायगी के लिये नई राह निकाल लेते हैं और उम्मते इस्लाम को ज़लालत व गुमराही के अंधेरों से निकाल कर रुश्द व हिदायत की पूर नूर वादी में पहुचा देते हैं।
ख़ुदाया, हमें इस पैकरे हिदायत की पूर नूर तालीमात से इस्तेफ़ादा करने की तौफ़ीक़ अता फ़रमा।