जदीद फ़िक़ही मसाएल
- में प्रकाशित
-
- लेखक:
- मरजए आलीक़द्र हज़रत आयतुल्लाह अल उज़मा अलहाज आक़ाए सय्यद अली अल हुसैनी अल सीस्तानी
पहली फ़स्ल
———मसला नं0 1—-दीन और एहकामे दीन की तबलीग़ और नश्र व इशाअत की ग़रज़ से ग़ैर मुस्लिम मुमालिक की तरफ़ सफ़र करना एक मुस्तहसन अम्र है। बशर्ते के सफ़र पर जाने वाले शख़्स और उसके छोटे बच्चों के दीन को किसी क़िस्म का ख़तरा लाहक़ न हो। रसूले इस्लाम (स0) ने अमीरूल मोमेनीन (अ0) को मुख़ातिब करके फ़रमायाः ‘‘ऐ अली अलैहिस्सलाम! अगर ख़ुदा तेरे ज़रिये अपने बन्दों में से एक बन्दे की भी हिदायत फ़रमाए तो तेरे लिये दुनिया व माफ़ीहा से बेहतर है‘‘
नीज़ एक शख़्स ने रसूले इस्लाम (स0) से दरख़्वास्त की: या रसूल (स0) अल्लाह! मुझे कुछ नसीहत फ़रमाइये, आप (स0) ने फ़रमाया ‘‘मैं तुझे नसीहत करतता हूं के किसी को ख़ुदा का शरीक न ठहराओ, लोगों को इस्लाम की तरफ़ दावत दो, तुम्हें मालूम होना चाहिये के तुझे हर उस शख़्स के बदले जो तेरी दावत पर लब्बैक करता है, औलाद याक़ूब (अ0) में से एक ग़ुलाम आज़ाद करने का आज़ाद करने का अज्र व सवाब मिलेगा।’’
———मसला 2. मोमिन के लिये ग़ैर मुस्लिम मुमालिक की तरफ़ सफ़र करना जाएज़ है बशर्ते के इस सफ़र का, उसके और उससे मुताल्लिक़ दीगर अफ़रादे ख़ाना के दीन पर मनफ़ी असर न पड़ने का यक़ीन हो।
———मसला 3. मुसलमान के लिये ग़ैर मुस्लिम मुमालिक में क़याम करना जाएज़ है बशर्ते के फ़िलहाल और मुस्तक़बिल में उसके और उसके अहले ख़़ाना के शरई फ़राएज़ की अन्जामदेही में कोई रूकावट न बने।
———मसला 4. अगर ग़ैर मुस्लिम मुमालिक की तरफ़ सफ़र से मुसलमान के दीन को नुक़सान पहुंचता हो तो यह सफ़र हराम होगा चाहे यह सफ़र मशरिक़ का हो या मग़रिब का। सफ़र का मक़सद सेयाहत हो, तिजारत हो, या हुसूले इल्म नीज़ इन मुमालिक में क़याम आरेज़ी हो या दाएमी (सब का एक ही हुक्म है)।
———मसला 5. अगर बीवी को यक़ीन हो के शौहर के साथ सफ़र पर जाने से उसके दीन को नुक़सान पहुंचेगा तो उसके लिये शौहर के साथ सफ़र करना हराम है।
———मसला 6. अगर बालिग़ औलाद (चाहे लड़के हों या लड़कियां) को इस बात का यक़ीन हो के माँ-बाप, या दीगर दोस्तों के साथ सफ़र करने से उन्हें दीनी लेहाज़ से नुक़सान पहुंचेगा तो उनके साथ सफ़र करना हराम है।
———मसला 7. दीनी नुक़सान से फ़ोक़हा की मुराद यह है के इन्सान फ़ेले हराम, गुनाहे सग़ीरा व कबीरा का मुरतकिब हो जैसे शराब ख़ोरी, ज़िना, मुरदार का गोश्त खाना, नजिस मशरूब पीना या इस क़िस्म के दीगर हराम काम या वाजिब तर्क हो जाए जैसे नमाज़, रोज़ा, हज या दीगर वाजेबात हैं।
———मसला 8. अगर किसी मुसलमान के लिये ग़ैर मुस्लिम मुमालिक की तरफ़ सफ़र करना गुरेज़ हो जाए, मिसाल के तौर पर यक़ीनी मौत से बचने के लिये बैरूने मुल्क सफ़र करना पड़े और उसे यह भी यक़ीन हो के उस सफ़र से मुझे कोई दीनी नुक़सान पहुंचेगा ऐसी सूरत में उतना सफ़र जाएज़ है जिससे ज़रूरत पूरी हो मसलन इलाज मुकम्मल हो जाए।
———मसला 9. जिस मुसलमान ने अपने वतन को तर्क करके ग़ैर मुस्लिम मुमालिक में रेहाइश या शहरीयत इख़्तेयार की है, अगर उसे यक़ीन हो के उस मुल्क में मज़ीद क़याम से उसका या उसके बच्चों का दीनी नुक़सान होगा तो उसके लिये वाजिब है के वह अपने वतन वापस आ जाए बशर्ते के इससे मौत का ख़तरा न हो या इतनी मशक़्क़त न उठानी पड़े जिससे मुकल्लफ़ न रहे। जैसे वह उज़्रारी हालत जिसमें जान के ख़ौफ़ से मुरदार का गोश्त खाना पड़े। दीनी नुक़सान तब मुतहक़क़ होगा जब बैरूने मुल्क क़याम से, वाजिब तर्क या हराम का इरतेकाब हो जाए।
———मसला 10. जब मुसलमान पर (किसी वजह से) सफ़र हराम हो जाए तो उसका यह सफ़र, सफ़रे मासियत शुमार होगा और दौराने सफ़र चार रकअती नमाज़ पूरी पढ़नी पड़ेंगी और रोज़ा रखना पड़ेगा और जब तक सफ़र, सफ़रे मासियत होगा नमाज़ पूरी पढ़ेगा और रोज़ा रखेगा न तो नमाज़ को क़स्र कर सकता है और न ही रोज़ा छोड़ सकता है।
———मसला 11. अगर वालेदैन अपने बेटे को सफ़र से मना करें और उसकी वजह बेटे से शफ़क़त और हमदर्दी हो या बेटे के सफ़र और उसके फ़िराक़ और दूरी से वालेदैन को अज़ीयत होती हो और इस सफ़र करने से बेटे को कोई नुक़सान भी न पहुंचता हो तो इस सूरत में बेटे का सफ़र जाएज़ नहीं होगा।
———मसला 12. ज़िन्दगी के मुख़्तलिफ़ उमूर में सरकारी अदालतों से रूजू करना जाएज़ है जैसे मुसलमान की जान माल इज़्ज़त व आबरू या उनके जैसे उमूर में अगर उसी पर ज़्यादती हुई हो इस शर्त के साथ के जब इन्साफ़ और रफ़ए ज़ुल्म इसी पर मुन्हसिर हो।
ग़ैर मुस्लिम मुमालिक की तरफ़ हिजरत से मुताल्लिक़ इस्तेफ़ताअत
———मसला 13 सवाल- तअर्रूब बादअल हिज्रह जो मिन जुमला गुनाहाने कबीरा में से है, इससे क्या मुराद है?
जवाब-——— बाज़ फ़ोक़हा फ़रमाते हैं के आजकल के दौर में उन मुमालिक में क़याम करना तअर्रूब बादअल हिज्रत कहलाएगा जहां दीनी नुक़सान होता हो। ग़रज़ यह के इन्सान ऐसे मुल्क को तर्क करे जहां उन दीनी मालूमात और शरई एहकाम को हासिल कर सकता हो जिनका हुसूल ज़रूरी हो और शरीयते मुक़द्देसा के वाजेबात को अन्जाम दे सकता हो, हराम कामों को तर्क कर सकता हो और उस मुल्क में चला जाए जहां यह सारे या बाज़ फ़राएज़ अन्जाम न दिये जा सकें।
———मसला 14 सवाल- योरप, अमरीका और इस क़िस्म के दीगर ग़ैर इस्लामी मोमालिक में रेहाइश पज़ीद मुसलमान यह महसूस करता है के वह (रफ़्ता-रफ़्ता) इस दीनी माहौल से बेगाना और दूर होता जा रहा है जिसमें उसकी तरबीयत और नश्व व नुमां हुई है। मिसाल के तौर पर न अज़ान और क़ुरान की आवाज़ सुनता है और न मक़ामाते मुक़द्देसा की ज़ेयारत और उसकी रूह परवर फ़िज़ा उसे नसीब होती है। क्या इस दीनी माहौल को तर्क करके उससे दूर ज़िन्दगी बसर करना दीनी नुक़सान शुमार होगा?
जवाब——— यह वह दीनी नुक़सान नहीं जिससे इन मोमालिक में क़याम हराम हो जाता हो। अलबत्ता (ज़्यादा देर तक) दीनी माहौल से दूर रहने के नतीजे में वक़्त गुज़रने के साथ-साथ इन्सान का ईमानी पहलू (जज़्बए दीनी) कमज़ोर हो जाता है और उसकी नज़र में बाज़ वाजेबात तर्क करना या बाज़ हराम कामों का इरतेकाब मामूली बात लगती है। अगर इन्सान को ख़दशा हो के इन ग़ैर इस्लामी मोमालिक में तवील क़याम से इस क़िस्म का दीनी नुक़सान पहुंचेगा तो इस सूरत में इन मोमालिक में (मज़ीद) क़याम जाएज़ न होगा।
———मसला 15 सवाल-बाज़ औक़ात योरप अमरीका और इस क़िस्म के दीगर ग़ैर इस्लामी मोमालिक में मुक़ीम (मुसलमान) से ऐसे ऐसे हराम काम सरज़द होतेहैं के अगर यह शख़्स अपनी इस्लामी ममलेकत में होता तो यह हराम काम उससे सादर न होते। उन मोमालिक की मामूल की ज़िन्दगी ऐसे-ऐसे मनाज़िर पेश करती है जो हैजान आवर होते हैं और इन्सान हराम की तरफ़ राग़िब न भी हो फिर भी मामूल के मुताबिक़ हराम सरज़द हो ही जााता है। क्या यह वही नुक़सान शुमार होगा? जिसकी वजह से उन मोमालिक में क़याम हराम हो जाता है?
जवाब———: जी हाँ! यह दीनी नुक़सान है। अलबत्ता अगर यह फेले हराम गुनाहे सग़ीरा हो और बार-बार सादर न होता हो तो दीनी नुक़सान शुमार न होगा।
———मसला 16- तअरूब बाद-अल-हिज्रह की यह तारीफ़ की गई है के अपने वतन से ऐसे मुल्क में मुन्तक़िल हो जहां मुकल्लफ़ की दीनी मालूमात में कमी आती हो और दीन के हवाले से जेहालत में इज़ाफ़ा होता हो। क्या इसका मतलब यह है के इस क़िस्म के मोमालिक में मुकल्लिफ़ पर फ़रज़ है के वह मामूल से ज़्यादा अपने नफ़्स की निगरानी करता रहा है ताके वक़्त गुज़रने के साथ-साथ इसकी जेहालत में इज़ाफ़ा न हो।
जवाब- इस सूरत में निगरानी ज़रूरी होगी जब उसको तर्क करने से मज़कूरा बाला मानी में दीनी नुक़सान का ख़तरा हो।
———मसला 17- अगर दीन से दूर रखने वाले माहौल और मोआशरे की ख़ुसूसियात की वजह से किसी मुबल्लिग़े इस्लाम के फ़ेले हराम में पड़ने के मवाक़े बढ़ जाएं तो क्या ऐसे आलम और मुबल्लिग़े इस्लाम के लिये उन मोमालिक में (मज़ीद) क़याम करना हराम और तबलीग़ को तर्क करके वापस वतन लौट आना वाजिब होगा?
जवाब-——— अगर इत्तेफ़ाक़ी तौर पर बाज़ गुनाहाने सग़ीरा में मुब्तिला होने का ख़तरा हो और वसूक़ हो के मुआमला उससे आगे नहीं बढ़ेगा तो आलिमे दीन का मज़ीद क़याम हराम न होगा।
———मसला 18- अगर बेलादो कुफ्ऱ के मोहाजिर को अपनी औलाद के दीनी नुक़सान का ख़दशा हो तो क्या उन शहरों में क़याम हराम होगा?
जवाब ———- जी हाँ- यही हुक्म ख़ुद उस मोहाजिर के लिये भी होगा।
———मसला 19- क्या योरप और अमरीका में रहने वाले ज़िम्मेदार अफ़राद पर वाजिब है के वह अपनी औलाद को अरबी सिखाने की तरफ़ तवज्जो दें, क्योंके अरबी ज़बान क़ुरआन और शरीयत की ज़बान है और इस ज़बान से जेहालत के नतीजे में मुस्तक़बिल में शरीयत के बुनियादी मदारिफ़ से भी जाहिल रहेगा जो अरबी ज़बान में लिखी गई हैं इसी तरह उसकी दीनी मालूमात कम होंगी और उसका दीनी नुक़सान होगा।
जवाब-——— अपने बच्चों को इस हद तक अरबी ज़बान सिखाना लाज़िम है जिसके ज़रिये उन वाजेबात की अदायगी हो सके जिनका अरबी ज़बान में बजा लाना ज़रूरी है। जैसे सूरए फ़ातेहा और दूसरे सूरे की तिलावत और नमाज़ के वाजिब ज़िक्र हैं। इससे ज़्यादा अरबी सीखना वाजिब नहीं बशर्ते यह के किसी दूसरी ज़बान में दीनी मालूमात और शरई एहकाम का हुसूल मुमकिन हो। अलबत्ता क़ुराने मजीद बल्के मुकम्मल तरीक़े से अरबी ज़बान सिखाना मुस्तहेब है ताके एहकामे इस्लाम को अरबी ज़बान में उनके बुनियादी सरचश्मों से हासिल किया जा सके जिनमें सरे फ़ेहरिस्त क़ुरआने मजीद के बाद सुन्नते नबवी और कलामे अहलेबैते अतहार अ0स0 हैं।
———मसला 20- अगर किसी मोकल्लिफ़ को ऐसा इस्लामी मुल्क मयस्सर आए जहां यानी योरोपीय मोमालिक के मौजूदा हालात के मुक़ाबले में बाज़ एक़तेसादी मुश्किलात के साथ गुज़र औक़ात कर सकता है तो क्या ऐसी सूरत में मग़रिबी मुल्क को तर्क करके इस इस्लामी मुल्क की तरफ़ हिजरत करना वाजिब है?
जवाब-——— मज़कूरा सूरत में मग़रिबी मुल्क को तर्क करना वाजिब नहीं मगर यह के उस मुल्क में मज़ीद क़याम से गुज़िश्ता मआनी में दीनी नुक़सान का ख़तरा हो।
———मसला 21- अगर कोई मोक़ल्लिफ़ ग़ैर इस्लामी मोमालिक में ग़ैर मुसलमानों को इस्लाम की तरफ़ दावत दे सकता हो या मुसलमानों को दीनी तक़वीयत पहुंचा सकता हो और इस सिलसिले में किसी दीनी नुक़सान का भी ख़दशा न हो तो क्या ऐसी सूरत में ग़ैर इस्लामी मुल्क में जाकर तबलीग़ करना वाजिब होगा?
जवाब-——— जी हां तबलीग़ हर उस मुसलमान पर वाजिबे किफ़ाई है जो तबलीग़ की इस्तेताअत रखता हो।
———मसला 22- क्या एक मुसलमान मोकल्लिफ़ किसी दूसरे का पासपोर्ट ख़रीद सकता है? या उसमें लगा फ़ोटो तबदील कर सकता है। ताके जिस मुल्क में जाने का इरादा रखता है वहां यक़ीन के साथ जा सकता हो और बाद में उससे मरबूद हुक्काम को इसकी इत्तेला दे दे।?
जवाब ———- हम इस काम को करने की इजाज़त नहीं देते।
———मसला 23- क्या किसी ऐसे ग़ैर इस्लामी मुल्क में क़याम जायज़ है जहां सड़कों स्कूलों टेलीवीज़न और दीगर मराकेज़ में मुख़्तलिफ़ मुनकरात और बुराईयों से वास्ता पड़ता है जबके इस मुल्क से दूसरे इस्लामी मुल्क की तरफ़ मुन्तक़िल होना भी मुमकिन है लेकिन इस मुल्क को तर्क करने से नतीजे में रेहाइशी मुश्किलात के अलावा इक़्तेसादी नुक़सान उठाना पड़ता है और जाएज़ न होने की सूरत में क्या इसी मुल्क में मुसलमानों में तबलीग़े दीन और उन्हें वाजेबात और मोहर्रमात की तरफ़ मुतवज्जा करना इस अम्र का बाअस बनेगा के वहां इसका क़याम जायज़ हो जाए।
जवाब-——— अगर किसी ग़ैर इस्लामी मुल्क में क़याम फ़िलहाल या मुस्तक़बिल में मुसलमान और उसके अहले ख़ाना की शरई वाजेबात की अदायगी में रूकावट न बने तो वह हराम न होगा और अगर वह रूकावट बने तो जायज़ नहीं। अगरचे बाज़ तबलीग़ी फ़राएज़ को अन्जाम दे सकता हो।
दूसरी फ़स्ल (तक़लीद)
मुजतहिद जामेअ शराएत के फ़तवा के मुताबिक़ अमल का नाम है, अगरचे ऐने अमल के मौक़े पर फ़तवा का हवाला ना दिया जाए। इस तरह मुजतहिद की राय के मुताबिक़ जिस काम को अन्जाम देना जाएज़ हो उसको अन्जाम दे और जिसको तर्क करना चाहिये उसे तर्क करे। बग़ैर इसके के इस मसले में मज़ीद कोई जुस्तजू और तहक़ीक़ करे गोया उसने अपने अमल को हारी की तरफ़ मुजतहिद के गर्दन में डाल दिया है और ख़ुदा के नज़दीक उस मुजतहिद को अपने नामाए अमल का ज़िम्मेदार ठहराया है।
जिस मुजतहिद की तक़लीद की जाये उसमें शर्त है के वह अपने दौर के तमाम ओलमा से ज़्यादा इल्म रखता हो और शरई एहकाम को उनके मुक़र्ररा मदारिक व मआखि़ज़ से हासिल करने की ज़्यादा क़ुदरत व सलाहियत रखता हो। यहां पर बेहतर मालूम होता है के हम दर्जा ज़ैल शरई एहकाम की वज़ाहत करें।
———मसला 24- जो मुकल्लिफ़ शरई एहकाम का उनके मदारिक से इस्तेनबात करने की इस्तेताअत व क़ुदरत न रखता हो। इस क़िस्म के मोकल्लिफ़ का अमल जो न तक़लीद के मुताबिक़ हो और न एहतियात के मुताबिक़ हो बातिल है।
———मसला 25- मुजतहिदे आलम वह है जो तफ़सीली दलाएल की रोशनी में एहकामे शरीया के इस्तेनबात की दूसरों से ज़्यादा क़ुदरत रखता हो।
———मसला 26- मुजतहिदे आलम की तअय्युन के सिलसिले में अहले ख़बरा (माहिरीने फ़न) की तरफ़ रूजु करना वाजिब है। मुजतहिद की तअय्युन के सिलसिले में अहले ख़बरा के अलावा किसी और की तरफ़ रूजू करना जाएज़ नहीं है।
———मसला 27- मोकल्लिफ़ तीन तरीक़ों से अपने मरजए तक़लीद के फ़तवे को हासिल कर सकता है। अलिफ़—— ख़ुद मुजतहिद से दरपेश मसले का हुक्म सुन ले। बे—— दो आदिल गवाह या क़ाबिले वसोक़ आदमी जिनकी बात पर इत्मीनान हो मुजतहिद का फ़तवा नक़्ल करें। जीम—— अपने मरजे के तौज़ीहुल मसाएल को देखे अलबत्ता उसके सही होने का इल्म हो।
———मसला 28- अगर किसी दरपेश मसले में मरजए आलम का कोई फ़तवा न हो या मुक़ल्लिद बवक़्ते ज़रूरत फ़तवा हासिल न कर सके तो उस मुजतहिद की तरफ़ रूजू करना (उसके फ़तवे पर अमल करना) जाएज़ होगा जो बाक़ी मुजतहिदों में सबसे ज़्यादा इल्मम रखता हो।
———मसला 29- हम फ़ोकहाए कराम का यह फ़रमान पढ़ते हैं के तुम पर मुजतहिदे आलम की तक़लीद वाजिब है और जब हम अपने क़ुर्ब व जवार के ओलमाए दीन से यह पूछते हैं के मुजतहिदे आलम कौन है? तो हमको कोई वाज़ेह और दो टूक जवाब नहीं मिलता के किसी मुजतहिद की तक़लीद करें और सुकून हासिल करें और उनसे इसकी वजह दरयाफ़्त करते हैं (यानी और दो टूक जवाब क्यों नहीं देते) तो वह फ़रमाते हैं के हम अहले ख़बरा में से नहीं। मज़ीद यह फ़रमाते हैं के हमने बाज़ अहले ख़बरा से पूछा, जिसका उन्होंने यह जवाब दिया के
मुजतहिदे आलम की तअय्युन के लिये फ़ोक़हा व मुजतहिदीन की किताबों का दर्स व बहस ज़रूरी है ताके उनमें से मुजतहिदे आलम की तअय्युन और तश्ख़ीस हो सके और यह तूलानी पेचीदा और मुश्किल काम है (बेहतर है) किसी और से दरयाफ़्त करो। अगर दीनी मराकज़ में भी मुजतहिदे आलम की तअय्युन एक मुश्किल काम है तो मगरिब, अमरीका और इस क़िस्म के दीगर शहरों और मोमालिक में यह काम कितना मुश्किल होगा जो इन दीनी मराकिज़ से दूर वाक़ेअ हैं।
जब हम बड़ी मुश्किल और मेहनत से नौजवान लड़कों और लड़कियों को वाजेबात, पाबन्दी से बजा लाने और हराम कामों को तर्क करने का क़ायल कर लेते हैं और उन्हें इस सवाल तक ले आने में कामयाब हो जाते हैं के अब हम किसकी तक़लीद करें? वह पूछते हैं और उन्हें ख़ातिर ख़्वाह जवाब नहीं मिलता। क्या इस मुश्किल का कोई हल मौजूद है?
जवाब- अगर किसी वजह से बाज़ माहेरीन जो मुजतहिदे आलम से बाख़बर नहीं हैं आलम की तअय्युन से इन्कार करते हैं तो बाज़ अहले ख़बरा और माहेरीन ऐसे भी हैं जो इससे इन्कार नहीं करते हैं और उन माहेरीन की पहचान अहले इल्म और दूसरे क़ाबिले वसोक़ अफ़राद के ज़रिये हो सकती है जिनका हौज़ाए इल्मिया और दूसरे मोमालिक में फैले हुए ओलमा से राबेता है। पस मालूम हुआ अगरचे मुजतहिदे आलम की तश्ख़ीस और तअय्युन बाज़ मुश्किलात से ख़ाली नहीं मगर उसे एक पेचीदा और मुश्किल काम शुमार नहीं होना चाहिये।
———मसला 30- हम अहले ख़बरा को कैसे पहचानें? ताके उनसे मुजतहिदे आलम के बारे में सवाल कर सकें। हमारी उन तक रसाई कैसे हो सकती है ताके उनसे पूछ सकें, जबके हम हौज़हाए इल्मिया बल्कि पूरे मशरिक़ से दूर रहते हैं। क्या कोई ऐसा हल है जो हमारी मुश्किल को आसान करे और जिसके ज़रिये हम अपने मरजए तक़लीद का तअय्युन कर सकें?
जवाबः मुजतहिदे आलम की ख़बर वह ओलमा रख सकते हैं जो इल्मी लेहाज़ से मुजतहिद या क़रीब-अल-इजतेहाद हों और जिन महदूद अफ़राद में मुजतहिदे आलम मुनहसिर है। इज्तेहाद के ज़रूरी उलूम में उनकी सलाहियत से आगाही रखते हों और वह ज़रूरी उलूम तीन हैं।
अव्वल: वह इल्म जिससे यह साबित हो जाए के फ़लाँ रिवायत मासूम से सादर हुई है। इस इल्म में इल्मे रिजाल, इल्मे हदीस और उसके मुताल्लिक़ दीगर उमूर जैसे किताबों की शिनाख़्त, ख़ुदसाख़्ता और जाली रिवायात की पहचान और जाल साज़ी के मोहर्रकात से आगाही मुख़्तलिफ़ नुस्ख़ों की मारेफ़त सही रिवायत की मारेफ़त और मतन हदीस और मुसन्नेफ़ीन की इबारत में इल्तेबास और इस क़िस्म के दीगर उमूर दख़ालत रखते हैं। दोमः मुहावेरा के उमूमी क़वानीन की शिनाख़्त के ज़रिये रिवायत के मतलब को समझना ख़ुसूसन बयाने एहकाम के सिलसिले में आइम्माए ताहेरीन अलैहिस्सलाम की ख़ास रविश को जानना, इस इल्म में इल्मे उसूल, इल्मे अदबियात (सर्फ़-व-नहो वग़ैरह ) और में आइम्माए ताहेरीन अलैहिस्सलाम के हमअस्र अहले सुन्नत ओलमा के अक़वाल से आगाही को ख़ास और मुकम्मल दख़ल हासिल है।
सोमः फ़ुरूई एहकाम को फ़िक़ही और उसूली क़वायद और कुल्लियात पर मन्तबिक़ करने में साएब-अल-नज़र हो और इससे आगाही का ज़रिया यह है के उन फ़ोक़हा से बहस और तबादल-ए-ख़याल किया जाए या उनकी तालीफ़ात और उसूल व फ़िक़्ह के दूरूस का मजमुआ किताबों का मुतालेआ किया जाए। मुजतहिदे आलम का मुतलाशी मुकल्लफ़ अगर ख़ुद अहले ख़बरा से आगाह न हो सके तो आम तौर पर ऐसे ओलमाएदीन और दीगर बावसूक़ अफ़राद के ज़रिये भी अहले ख़बरा की शिनाख़्त की जा सकती है। जो अहले ख़बरा को समझते हैं। आज के आसान और तेज़ रफ़्तार ज़राए मवासेलात के दौर में मकान के फ़ासले अहले ख़बरा से राबते में रूकावट नहीं बन सकते।
———मसला 31- अगर मुजतहिदे आलम की तशख़ीस में अहले ख़बरा में इख़तेलाफ़ पाया जाए लेकिन नफ़्स और ज़ेहन को किसी एक मुजतहिद की आलमीयत का इतमीनान हासिल हो तो क्या तक़लीद के लिये इतना इतमीनान काफ़ी है?
जवाब- अगर आलम की तशख़ीस में अहले ख़बरा का इख़तेलाफ़ पाया जाए तो अहले ख़बरा में से उस आलम के क़ौल पर अमल किया जाए जिसका इल्मे आगाही ज़्यादा हो और यही हुक्म और कुल्लिया दीगर मवाक़े पर भी जारी होताहै जहां अहले ख़बरा में इख़तेलाफ़ पाया जाए।
———मसला 32-अगर अहले ख़बरा मुजतहिदे आलम की तश्ख़ीस में इख़तेलाफ़ करें या मुतअद्दद मुजतहेदीन की तक़लीद को काफ़ी और जाएज़ क़रार दे ंतो क्या ऐसी सूरत में मुकल्लिफ़ (बालिग़ व आक़िल इन्सान) को यह हक़ पहुंचता है के जब तक मुजतहिदे आलम वाज़ेह और साबित न हो वह एक मसले में किसी मुजतहिद की तक़लीद करे और उसके फ़तवा पर अमल करे और दूसरे मसले में किसी दूसरे मुजतहिद की तक़लीद उस वक़्त तक करे जब तक आलम की तश्ख़ीस न हो जाए?
जवाब- इस सवाल के तीन फ़र्ज़ हो सकते हैं-
फ़र्ज़े अव्वल- बाज़ अहले ख़बरा (नाम को मुअय्यन किये बग़ैर) किसी एक या मुजतहेदीन की एक जमाअत की तक़लीद को काफ़ी क़रार दें- उस पर किसी क़िस्म का असरे शरई मुरत्तब न होगा।
फ़र्ज़े दोम- अहले ख़बरा मुजतहेदीन में से दो या दो से ज़्यादा का इल्म और तक़वा में मसावी होने का एलान करें, यानी एहकामे शरई के इस्तेनबात में उनकी पुख़्तगी का एलान करें। ऐसी सूरत में मुकल्लिफ़ को इख़्तेयार है के वह अपने आमाल को उन मुजतहेदीन में से किसी एक के फ़तवे के मुताबिक़ अन्जाम दे लेकिन बाज़ मसाएल में एहतियाते वाजिब यह है के इमकानी सूरत में बयक वक़्त दोनों या तमाम मुज्तहेदीन के फ़तवा पर अमल करे। मिसाल के तौर पर अगर किसी मुसाफ़िर के बारे में एक मुज्तहिद पूरी और दूसरा क़स्र नमाज़ पढ़ने का फ़तवा दे तो मुकल्लिफ़ (नमाज़ गुज़ार) चार रकअती नमाज़ को एक दफ़ा क़स्र (दो रकअत) पढ़े और दूसरी दफ़ा पूरी (चार रकअत) पढ़े।
फ़र्ज़े सोम- बाज़ अहले ख़बरा एक मुजतहिद की आलमीयत और बाज़ अहले ख़बरा दूसरे मुजतहिद की आलमीयत का एलान करें और इसस फ़र्ज़ की भी दो सूरतें हो सकती हैं- पहली हालत यह है के मुकल्लिफ़ को इजमालन यह मालूम हो के दो मुजतहेदीन में एक आलम है? लेबिन इसका तअय्युन न हो। यह एक शाज़ व नादिर सूरत है इस सूरत का तफ़सीली हुक्म किताब ‘‘मिनहाजुल सॉलेहीन’’ के मसला नम्बर 9 में बयान किया गया है। दूसरी सूरत यह है के मुकल्लिफ़ को किसी एक की आलमीयत का इल्म न हो। इसका मतलब यह है के इल्म में दोनों के मसावी होने का एहतेमाल दे। इस सूरत में साबिक़ुजि़्ज़क्र दूसरे फ़र्ज़ का हुक्म जारी होगा।
———मसला 33- अगर मुकल्लिफ़ को एक नया मसला पेश आए जिसके बारे में अपने मरजए तक़लीद की राय मालूम न हो (ऐसी सूरत में) क्या मुकल्लिफ़ पर वाजिब है के वह तहक़ीक़ करके और वोकला से पूछकर अपने मरजए तक़लीद की राय मालूम करे जिसके लिये टेलीफ़ोनी राबते की भी ज़रूरत पड़ सकती है जो बहुत महंगा पड़ता है या जब तक अपने मरजए तक़लीद का फ़तवा हासिल न कर सके किसी दूसरे मुजतहिद की राय पर अमल कर सकता है जिसका फ़तवा आसानी से मालूम किया जा सकता है? और इन गुज़िश्ता आमाल का क्या हुक्म होगा जो मरजए तक़लीद के फ़तवे के खि़लाफ़ अन्जाम दिये गए हों?
जवाबः हर मुकल्लिफ़ पर वाजिब है के वह अपने मरजए तक़लीद का फ़तवा मालूम करे अगरचे इसके लिये उसे टेलीफ़ोन पर राबता करना पड़ेे। बशर्ते के यह ज़रिया उसके लिये नुक़सानदेह और मुज़िर न हो और अगर मरजए तक़लीद का फ़तवा मालूम करना मुमकिन न हो तो दरपेश मसले के लिये मरजए तक़लीद के अलावा किसी और मुजतहिद की तरफ़ रूजू किया जा सकता है। लेकिन इस बात का ख़याल रहे के जिस की तरफ़ रूजू करना चाहता है वह मरजए तक़लीद दूसरों से आलिम हो और अगर उसका फ़तवा भी न मिल सके तो जो तीसरे दर्जे का मुजतहिद होगा उसके फ़तवा पर अमल करे और उस तरतीब का ख़याल रखे और दूसरे मुजतहिद की राय के मुताबिक़ अन्जाम दिया गया अमल सही होगा अगरचे दरवाक़ेअ उसका फ़तवा मरजए तक़लीद के फ़तवा के खि़लाफ़ हो।
तीसरी फ़स्ल तहारत और निजासत
मुक़दमा (तहारत व नजासत के बाज़ अहकाम)
हर मुसलमान की यह ख़्वाहिश और आरज़ू होती है के उसका बदन, लिबास और रोज़ मर्रा की ज़रूरत की चीज़ें नजासत से पाक हों, जिनसे बदन वगै़रा नजिस होता है और इन नजासात के एज़ाले के बग़ैर बदन और लिबास पाक नहीं हो सकते लेकिन ग़ैर इस्लामी मोमालिक में मुसलमानों की ज़िन्दगी मुश्किलात से दो चार होती है। इसलिये के इस माहौल में नजासात से परहेज़ बहुत ही मुश्किल काम है क्योंके होटलों और रेस्टोरेन्ट्स में, नाई की दुकान पर, कपड़े धोने के मक़ामात, गीले रास्तों, ग़ुस्ल ख़ानों और उमूमी गुज़रगाहों में ग़ैर मुस्लिम रेहाइशगाहों से वास्ता पड़ता है (जिनसे बचना बहुत मुश्किल है) इसलिये बेहतर मालूम होता है के ज़ैल में क़ारेईन-ए-कराम की खि़दमत में तहारत व नजासत से मख़सूस बाज़ शरई एहकाम बयान किये जाएं।
———मसला 34: साबिक़-अज़-ज़िक्र शरई हुक्म ‘‘हर चीज़ उस वक़्त तक पाक समझी जाएगी जब तक उसकी नजासत का यक़ीन न हो’’ जो इस बात की तसरीह करता है के सब चीज़ें उस वक़्त तक पाक समझी जाएंगी जब तक आपको यक़ीन हासिल न हो के वह अब नजिस हो गई हैं और जब तक आपको यक़ीन हासिल न हो के कोई भी चीज़ अब नजिस हो गई है। लेहाज़ा उसे पाक क़रार दें और बग़ैर किसी तरद्ुद और तामिल के उस पर तहारत के तमाम आसार मुरत्तब कर सकते हैं।
———मसला 35: अहले किताब यानी यहूद व नसारा और मजूस पाक हैं जब तक किसी आरिज़ी नजासत की वजह से उनके नजिस हो जाने का यक़ीन हासिल न हो। अहले किताब के साथ उठते बैठते वक़्त और उनसे मस होते वक़्त भी इस कुल्लिया पर अमल कर सकते हैं।
———मसला 36: एक चीज़ की नजासत दूसरी चीज़ की तरफ़ उस सूरत में मुन्तक़िल होती है जब दोनों में से एक तर हो और नजासत, नजिस चीज़ से पाक चीज़ तक सरायत कर जाए और अगर दोनों चीज़ें ख़ुश्क हों और नजासत सरायत न करे तो नजासत मुन्तक़िल नहीं होगी। बिना बराँ अगर आप ख़ुश्क हाथ किसी ख़ुश्क नजिस चीज़ पर रखें तो आपका हाथ नजिस नहीं होगा।
———मसला 37: आप हर उस शख़्स पर तहारत का एहकाम जारी कर के उससे मुलाक़ात और मुसाफ़ेहा कर सकते हैं जब तक उसके अक़ाएद और दीन से आगाही न हो और उसके मुसलमान या अहले किताब होने का एतमाल हो, अगरचे हाथ पर तरी मौजूद हो। यह भी वाजिब नहीं कि आप मिलने वाले शख़्स से दरयाफ़्त करके उसके अक़ायद और दीन मालूम करें। अगरचे इस सवाल से आप और आपसे मिलने वाले को कोई मुश्किल पेश न आती हो।
———मसला 38: जब तक नजासत का यक़ीन न हो जिस्म और लिबास पर गिरने वाले पानी और दीगर मालेआत के क़तरे पाक समझे जाएंगे।
———मसला 39: अलकोहल की तमाम अनवाअ चाहे उन्हें लकड़ी से बनाया गया हो या किसी और चीज़ से पाक हैं। बिनाबराँ वह तमाम दवाएं, इत्र और माकूलात जिनमें अलकोहल शामिल है, पाक हैं और उनकी नजासत के हवाले से किसी तामिल के बग़ैर आप उनको इस्तेमाल कर सकते हैं और अगर उनमें अलकोहल की मिक़दार बहुत कम मसलन 2 फ़ीसद हो तो उन्हें खाया भी जा सकता है।
———मसला 40: घर का ज़रूरी और इस्तेमाल शुदा सामान चाहे वह जैसे भी इस्तेमाल हुआ हो, जब तक उसकी नजासत का यक़ीन न हो पाक है और उसे पाक किये बग़ैर दोबारा इस्तेमाल कर सकते हैं।
———मसला 41: घर का फ़र्श और कार्पेट वग़ैरह अगर नजासत के गिरने से नजिस हो जाए और नजासत का कोई मादह फ़र्श वग़ैरा पर पर बाक़ी न रहे तो उसे पाक किया जा सकता है। जिसका तरीक़ा यह है के किसी लोटे या प्याले वग़ैरह के ज़रिये उस पर आबे क़लील डाला जाए जब पाक पानी पूरी नजिस जगह को घेर ले तो उससे पानी को निकाला जाए। जिसके लिये कपड़े को निचोड़ा जाए या दबाया जाए या बर्क़ी मशीन के ज़रिये निकाला जाए। या उसे रगड़ा जाए या कपड़े के किसी टुकड़े के ज़रिये निकाला जाए इससे फ़र्श और कार्पेट वग़ैरह पाक हो जाएंगे और एहतियाते वाजिब के मुताबिक़ इस नजिस फ़र्श से निकाला हुआ पानी (धोवन) नजिस शुमार होगा। अगर पेशाब के अलावा किसी और नजासत के ज़रिये कपड़ा नजिस हो जाए तो उसको भी पाक करने का यही तरीक़ा है लेकिन अगर पेशाब की वजह से नजिस हो तो उसका हुक्म बाद में बयान किया जाएगा। जिस तरह शीर ख़्वार बच्चा और बच्ची का हुक्म भी मख़सूस है। जिसका ज़िक्र बाद में होगा।
———मसला 42: अगर गुज़िश्ता नजिस चीज़ों को नल के पानी से पाक करना चाहें जो कुर पानी से मिला हुआ हो तो निचोड़ने, दबाने या बर्क़ी मशीन के ज़रिये पानी को ख़ारिज करने की ज़रूरत नहीं बल्कि जैसे ही कुर का पानी नजिस फ़र्श तक पहुंचे वह पाक हो जाएगा।
मसला 43-अगर कपड़ा, फ़र्श और कारपेट वग़ैरह ऐसी नजासत की वजह से नजिस हो जाएं जो ठोस माद्दा रखती हो और कपड़े वग़ैरह पर उसका असर बाक़ी रह जाए जिस तरह ख़ून और मनी है तो उसे भी (मसला नम्बर 37-38) बयानशुदा तरीक़े से पाक किया जा सकता है बशर्ते के नजासत का माद्दा और असर ज़ाएल हो जाए। यह असर धोने से ज़ाएल हो जाए या किसी और चीज़ के ज़रिये से बर तरफ़ किया जाए। अलबत्ता इस मसले और गुज़िश्ता मसले में (जहां ऐने नजासत का असर बाक़ी न था) यह फ़र्क़ ज़रूर है के इस मसले में जिस पानी के ज़रिये ऐने नजासत बरतरफ़ की जाए वह एहतियाते वाजिब के तौर पर नहीं बल्कि उसकी नजासत का फ़तवा दिया जाता है।
———मसला 44- अगर फ़र्श, लिबास और कार्पेट वग़ैरह उस शीरख़्वार बच्चे या बच्ची के पेशाब की वजह से नजिस हो जाएं जो दूध के अलाावा शाज़ व नादर ही कोई दूसरी ग़िज़ा खाते हों तो उसको पाक करने का तरीक़ा यह है के इस पर एक ही दफ़ा उतना आबे क़लील डाला जाए (आबे कसीर डाला जाए तो बतरीक़ ऊला पाक होगा) जो पेशाब वाली जगह को घेर ले उसकी तहारत के बाद तहारत में इस्तेमाल शुदा पानी निचोड़ने और दबाने के ज़रिये निकालना ज़रूरी नहीं।
———मसला 45- पेशाब की वजह से नजिस कपड़ा पाक करने का तरीक़ा यह है के लोटे या प्याले के ज़रिये क़लील पानी नजिस कपड़े पर डाला जाए और जब पानी नजिस जगह को घेर ले तो कपड़े को निचोड़ कर उसका पानी निकाला जाए और फिर दूसरी दफ़ा भी इसी अमल को दोहराया जाए, इससे कपड़ा पाक हो जाएगा। बशर्ते के कपड़े पर ऐने पेशाब मौजूद न हो। कपड़े को धोते वक़्त दोनों दफ़ा जो पानी निकाला जाएगा वह एहतियाते वाजिब के तौर पर नजिस शुमार होगा और ऐने पेशाब मौजूद हो तो पहली दफ़ा निकलने वाले पानी की नजासत का फ़तवा दिया जाता है।
———मसला 46- अगर कुर से मुत्तसिल, नल के पानी से पेशाब की वजह से नजिस कपड़े को पाक करना चाहें तो उसे भी दो ही मरतबा धोना पड़ेगा लेकिन कपड़े को निचोड़ कर इस्तेमाल शुदा पानी को निकालना ज़रूरी नहीं। इसी तरह अगर बदन भी पेशाब की वजह से नजिस हो जाए तो उसे भी दो ही दफ़ा धोना पड़ेगा अगरचे कुर से मुत्तसिल पानी के ज़रिये धोया जाए।
———मसला 47- शराब की वजह से नजिस हाथ और कपड़े, एक दफ़ा पानी से धोने से पाक हो जाते हैं अलबत्ता अगर कपड़े को आबे क़लील से धोया जाए तो उसे निचोड़ने की ज़रूरत होगी।
———मसला 48- शराब वग़ैरह की वजह से नजिस बरतन और प्याले आबे क़लील से तीन मरतबा धोने से पाक हो जाएंगे और अगर कुर से मुत्तसिल नल के पानी से धोया जाए तो एहतियाते वाजिब के तौर पर तीन ही दफ़ा धोया जाए।
———मसला 49- कुत्ते के चाटने या मुंह लगाने से नजिस हाथ और कपड़े एक दफ़ा पानी से धोने से पाक हो जाएंगे और अगर उसी कपड़े को आबे क़लील से धोया जाए तो उसे निचोड़ने की ज़रूरत होगी।
———मसला 50- अगर कुत्ते के चाटने और उसके पानी पीने से बरतन नजिस हो जाए तो बरतन तीन दफ़ा धोने से पाक हो जाएगा अलबत्ता पहली दफ़ा मिट्टी से मांजा जाएगा और बाक़ी दफ़ा पानी से धोया जाएगा।
तहारत व नेजासत से मख़सूस इस्तेफ़ता‘आत और आयतुल्लाह सीस्तानी (मद ज़िल्लह) के जवाबात
———मसला 51- ज़मीन जो मुतह्हरात में से है क्या जूते की तरह गाड़ी के घूमने वाले पहियों को भी पाक कर सकती है?
जवाबः ज़मीन गाड़ी के पहियों को पाक नहीं कर सकती।
———मसला 52- मुतनज्जिस (जिसे नजासत लग जाए) अगर कोई बहने वाली चीज़ न हो तो उसका सिलसिल कहां तक जाकर रूकता है?
जवाब- मुतनज्जिस को जो चीज़ लगेगी वह भी मुतनज्जिस हो जाएगी। इसी तरह दूसरी मुतनज्जिस चीज़ को भी जो चीज़ लगेगी वह भी मुतनज्जिस हो जाएगी। लेकिन तीसने मुतनज्जिस चाहे वह कोई बहने वाली चीज़ हो या कोई और हो, जो चीज़ लगेगी वह नजिस न होगी।
———मसला 53-अगर कुत्ता मेरा जिस्म या कपड़ा चाटे या मुंह लगाए तो उसे कैसे पाक करूँ?
जवाब: ऐसे बदन और लिबास की तहारत के लिये एक दफ़ा पानी से धोना काफ़ी है अलबत्ता अगर क़लील पानी से इस नजिस चीज़ को धोना चाहें तो उसमें से पानी निकालना ज़रूरी है इसलिये कपड़ा वग़ैरा को धोते वक़्त निचोड़ना वाजिब है।
———मसला 54- क्या यहूद व नसारा की तरह सिख भी गुज़िश्ता आसमानी अदयान के पैरो शुमार होते हैं?
जवाब- सिख अहले किताब में शामिल नहीं हैं।
———मसला 55- क्या बुद्धिस्ट भी अहले किताब में शुमार होते हैं?
जवाब- बुद्धिस्ट अहले किताब में शामिल नहीं हैं।
———मसला 56- मग़रिबी मोमालिक में मुसलमान फ़र्श और दीगर सामान समेत मकान किराये पर लेते हैं तो क्या जब तक नजासत के आसार नज़र न आयें घर की हर चीज़ पाक समझी जाएगी? अगरचे उस घर में पहले रहने वाले अहले किताब मसीही या यहूदी हों। नीज़ अगर उस घर में पहले से रहने वाले बुद्धिस्ट या मुन्किरे ख़ुदा और रसूल (स0) हों तो क्या हुक्म होगा?
जवाब-जब तक घर में मौजूद चीज़ों की नजासत का यक़ीन या इत्मीनान न हो वह पाक समझी जाएंगी और सिर्फ़ नजासत के गुमान की कोई हैसियत नहीं।
———मसला 57- - मग़रिबी मोमालिक में किराये पर दिये जाने वाले घरों में पहले से कारपेट या दरी वग़ैरह बिछे हुए होते हैं, जो ज़मीन से चिपका दिये जाते हें और उन्हें उठाकर उनके नीचे बरतन रखना मुश्किल होता है अगर ऐसे कार्पेट पेशाब या ख़ून की वजह से नजिस हो जाएं और उनकी तहारत में क़लील या कसीर पानी इस्तेमाल हो तो उन्हें पाक करने के लिये कौन सा तरीक़ा अपनाया जाए?
जवाबः अगर किसी कपड़े या दूसरे औज़ार की मदद से भी तहारत में इस्तेमाल शुदा पानी निकालना मुमकिन हो तो आबे क़लील से धोना मुमकिन होगा जिसमें धोवन को निकालना ज़रूरी होता है और अगर मुमकिन न हो तो आबे कसीर से ही धुलना मुतअय्यन होगा।
———मसला 58- - मग़रिबी मोमालिक में ऐसी वाशिंग मशीनें आम हैं जिनमें मुसलान और ग़ैरे मुस्लिम अपने पाक और नजिस कपड़े धुलवाते हैं। क्या हम उन कपड़ों में नमाज़ पढ़ सकते हैं जो इन मशीनों में धोए गए हों, जबके हमें यह मालूम नहीं होता के तहारत के बाज़ मराहेल में कुर से मुत्तसिल इस्तेमाल होने वाला पानी सफ़ाई के दौरान कपड़ों को पाक करता है के नहीं?
जवाब-जो कपड़े इस पानी में धोए जाने से पहले पाक थे जब तक उनकी नजासत का यक़ीन न हो पाक उनमें नमाज़ पढ़ी जा सकती है। इसी तरह उन नजिस कपड़ों में भी नमाज़ पढ़ी जा सकती है जिनसे ऐने नजासत (अगर थी) के ज़ाएल होने और पेशाब की वजह से नजिस होने की सूरत में तमाम नजिस जगहों तक एहतियाते वाजिब के तौर पर दो दफ़ा पाक पानी के पहुंचने और फिर कपड़े से जुदा होने का इत्मीनान हासिल हो अगरचे कुर पानी से धोया जाए और अगर पेशाब के अलावा किसी नजिस की वजह से नजिस हो जाएं और आबे क़लील के ज़रिये धोए जाएं तो एक दफ़ा नजासत तक पाक पानी के पहुंचने और फिर कपड़े से जुदा होने का इत्मीनान हासिल हो। लेकिन अगर शरई तौर पर लाज़मी तहारत का हुसूल मशकूक हो तो उन कपड़ों पर नजिस का हुक्म जारी होगा और उनमें नमाज़ सही न होगी।
———मसला 59- क्या वह कपड़े पाक समझे जाएंगे जो ऐसी जगह कपड़े साफ़ करने वाले केमियाई मालेआत के ज़रिये धोए जाएं जिन के मालिक ग़ैर मुस्लिम हों और वहां मुसलमान और ग़ैर मुसलमान दोनों अपने कपड़े धोते हों?
जवाब- अगर नजासत से मिल जाने की वजह से लिबास नजिस हो जाने का यक़ीन न हो तो उस पर तहारत का हुक्म जारी होगा।
———मसला 60-साबन की बाज़ एक़साम पर यह लिखा हुआ होता है के यह खि़न्ज़ीर या ऐसे हैवानात के गोश्त से ली गई चर्बी पर मुश्तमिल है जिसका शरई तरीक़े से ज़िबह नहीं हुआ और हमें यह भी मालूम नही ंके आया इस चर्बी की हक़ीक़त किसी और चीज़ की हक़ीक़त में तबदील हुई है जिसे फ़िक़ में ‘‘इस्तेहाला’’ कहते हैं जो मिनजुमला मुतहहरात में से है। ऐसी सूरत में क्या यह साबन पाक समझा जाएगा?
जवाब- अगर यह साबित हो जाए के यह साबन उस चर्बी से बना हुआ है तो ऐसे साबन की तमाम एक़साम नजिस हैं मगर यह के इस चर्बी का इस्तेहाला मुतहक़्क़क़ और साबित हो। लेकिन साबन बनाते वक़्त चर्बी का इस्तेहाला सबित नहीं है।
———मसला 61: दांतों के ब्रश में मुस्तामल सुअर के बाल की ख़रीद फ़रोख़्त और उसका इस्तेमाल जायज़ है और क्या इसके इस्तेमाल से मुंह नजिस हो जाएगा?
जवाबः इसकी ख़रीद व फ़रोख़्त और इस्तेमाल जायज़ है अलबत्ता इसके इस्तेमाल से मुंह नजिस हो जाएगा उसको और टूथ पेस्ट के बाक़ी अजज़ा को निकाल बाहर करके मुंह को पाक किया जा सकता है।
———मसला 62: अगर अन्डे की ज़र्दी और सफ़ेदी में ख़ून होता है उससे अन्डा नजिस हो जाएगा और उसका खाना हराम होगा या उसका कोई हल मौजूद है?
जवाबः ——— अन्डे में बना हुआ ख़ून पाक है। लेकिन (उसका खाना) हराम है। अलबत्ता ख़ून को साफ़ करके अन्डा खाया जा सकता है बशर्ते के यह ख़ून थोड़ा न हो और पूरे अन्डे में घुल मिल गया तो खाना जाएज़ नहीं है।
———मसला 63: क्या शराब और बीयर (जौ की शराब) पाक हैं?
जवाबः ———शराब के नजिस होने में कोई शक नहीं अलबत्ता जौ की शराब एहतियात के तौर पर नजिस है अगरचे इसका पीना बिला इश्काल हराम है।
———मसला 64: योरप जहां मुख़्तलिफ़ अदयान के पैरूओं और मुख़्तलिफ़ रंग व नस्ल के अफ़राद साथ रहते हैं और हर क़िस्म की इजनास पाई जाती हैं अगर हम किसी एक दुकानदार से कोई चीज़ ख़रीदें जो तर खाने बेचता है और उन्हें हाथ भी लगाता है और हमें नहीं मालूम के यह किस दीन का पैरो है क्या हम उस खाने को पाक समझें?
जवाब: ———अगर इस बातका यक़ीन न हो के हाथ लगाने वाले का हाथ नजिस है तो इस खाने पर तहारत का हुक्म जारी होगा। यानी पाक समझा जाएगा।
———मसला 65: बाज़ योरपी मोमालिक में चमड़ा बनाया जाता है जिसके बारे यह मालूम नही ंके उसे कहां से दरआमद किया गया है और कहा यह जाता है के बाज़ योरपी मोमालिक इस्लामी मोमालिक से सस्ता चमड़ा दरआमद करके उससे चीज़ें बनाते हैं। क्या हम उन चीज़ों को पाक क़रार दे सकते हैं? और उन पर नमाज़ पढ़़ी जा सकती है? और क्या इस क़िस्म के ज़ईफ़ एहतेमाल की कोई अहमियत है?
जवाबः ———अगर ज़्यादा एहतेमाल यह हो के उन चीज़ों का ज़िबह शरई नहीं हुआ सिर्फ़ हल्का सा एहतेमाल मसलन 2 फ़ीसद दिया जाए के इनका ज़िबह शरई हुआ है तो उस पर नजासत के एहकाम जारी होंगे और उनमें नमाज़ सही नहीं होगी। और अगर इस बात का एहतेमाल क़वी हो के इनका ज़िबह शरई हुआ होगा तो उन्हें पाक समझा जाएगा और उनमें नमाज़ भी पढ़ी जा सकती है।
चौथी फ़स्ल
नमाज़
मुक़ददमा - नमाज़ से मुताल्लिक़ बाज़ एहकाम (नमाज़ से मख़सूस इस्तेफ़ताआत)
हदीस में हैः अस्सलात अमूदुद्दीन ‘‘नमाज़ दीन के सुतून की हैसियत रखती है’’ (वसाएलुश्शीया जि04 सफ़ा 35)
इब्ने मुल्जिम लानतुल्लाहे अलैहा की ज़रबत के बाद अमीरूल मोमेनीन अलैहिस्सलाम ने इमाम हसन और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को अपनी वसीयत में फ़रमायाः ‘‘नमाज़ के बारे में अल्लाह से डरना क्योंके वह तुम्हारे दीन का सुतून है, अपने परवरदिगार के घर के बारे में डरना उसे जीते जी ख़ाली न छोड़ना’’ (नहजुल बलाग़ा)
सकूनी ने इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम से रिवायत की हैः (तर्जुमा) ‘‘रसूलल्लाह (स0) ने फ़रमाया - जब तक मोमिन पांच वक़्त की नमाज़ों को पाबन्दीए वक़्त के साथ पढ़ता है शैतान उससे ख़ौफ़ज़दा रहता है और अगर वह नमाज़ों को ज़ाया करे यानी उन्हें बरवक़्त न पढ़े तो उसकी जराअत बढ़ती है और उसे बड़े बड़े गुनाहों में ढकेल देता है’’ (वसाएलुश्शीआ जि04स028) यज़ीद बिन ख़लफ़िया कहते हैं के मैंने इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ0) को फ़रमाते हुए सुना ‘‘(तर्जुमा) जब नमाज़ गुज़ार नमाज़ के लिये खड़ा होता है तो उस पर आसमान से रहमत नाज़िल होती है और फ़रिश्ते उसे घेर लेते हैं और एक फ़रिश्ता उसे पुकार कर कहता है अगर इस नमाज़गुज़ार को नमाज़ की फ़ज़ीलत मालूम होती तो कभी भी उससे जुदा न होता।’’ (वसाएलुश्शीआ जि04स032)
इन रिवायात से इस्लाम में नमाज़ की वाज़ेह और ग़ैर मामूली अहमियत सामने आती है। चूंके नमाज़ बारगाहे इलाही में हुज़ूरयाबी है और हदीस की रू से नमाज़ गुज़ार अपने रब के हुज़ूर खड़ा होता है इसलिये नमाज़गुज़ार को चाजिये के दौराने नमाज़ हमह तन और दिल व जान से ख़ुदा की तरफ़ मुतवज्जह रहे और दुनिया और उसके फ़ानी उमूर नमाज़ गुज़ार को अपपनी तरफ़ मुतवज्जह न करने पाएं।
अल्लाह तआला अपने कलामे पाक में फ़रमाता हैः (तर्जुमा) ‘‘रोज़े क़यामत वही मोमेनीन फ़लाह पाएंगे जो अपनी नमाज़ों में ख़ुशू व ख़ुज़ू का मुज़ाहेरा करें‘‘ (सूरए मोमेनून)
इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम जब नमाज़ के लिये खड़े होते: ‘‘(तर्जुमा) गोया दरख़्त का तना है जिसका वही हिस्सा हिलता है जिसे हवा हरकत दे’’ (मिनहाजुस्स्वालेहीन सै0 सीस्तानी दामज़िल्लह जि01 स0193)
इमाम मोहम्मद बाक़र और इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ0) जब नमाज़ के लिये खड़े होते तो उनका रंग मुतग़य्यर हो जाता था। कभी आपका रंग सुखऱ् होता और कभी ज़र्द, गोया आप किसी ज़ात से महवे गुफ़्तगू हैं जिसे आप देख रहे हैं। नमाज़ के मोतदिद एहकाम हैं जिनमें से बाज़ को दर्ज ज़ैल मसाएल में बयान करते हैं:
———मसला 66: फ़ोक़हा फ़रमाते हैं के नमाज़ किसी हालत में भी साक़ित नहीं होती इसका मतलब यह है के न सफ़र में साक़ित होती है और न ग़ैरे सफ़र में अगर नमाज़ का वक़्त तंग हो (और मन्ज़िले मक़सूद तक पहुंचने से पहले क़ज़ा होने का ख़दशा हो) तो मुसाफ़िर पर वाजिब है के वह चाहे जहाज़ में हो, किश्ती में हो, रेल गाड़ी में हो, रूका हुआ हो या हालते हरकत में हो, इन्तेज़ारगाह में हो या आम बाग़ीचे में रास्ते में या अपने काम और ड्यूटी की जगह, ग़रज़ जहां भी हो वाजिब है के नमाज़ को बरवक़्त बजा लाए।
———मसला 67: अगर मुसाफ़िर हवाई जहाज़ कार या रेलगाड़ी में खड़े होकर नमाज़ न पढ़ सके तो बैठ कर नमाज़ पढ़े। अगर क़िब्ला रूख़ होना मुमकिन न हो तो जिस तरफ़ सिम्ते क़िब्ला होने का गुमान हो उस तरफ़ रूख़ करके नमाज़ पढ़े और अगर किसी एक सिम्त को तरजीह न दे सके तो जिस तरफ़ चाहे रूख़ करके नमाज़ पढ़े। और अगर सिर्फ़ तकबीरतुल एहराम के दौरान रूख़ बक़िब्ला होना मुमकिन हो तो इसी पर इकतिफ़ा करे।
———मसला 68: सिम्ते क़िब्ला की तअय्युन के लिये फ़िज़ाई मेज़बान से पूछा जा सकता है जो पायलेट से पूछ कर मुसाफ़िर को बताए और अगर इसके बताने पर इतमीनान हासिल हो तो इस पर एतबार किया जा सकता है। अगरचे बताने वाला काफ़िर ही क्यों न हो। नीज़ सिम्ते क़िब्ला की तअय्युन के लिये आलात व औज़ार पर भी एतमाद किया जा सकता है जैसा क़िब्लानुमा है, बशर्तेके मुसलमान को उनके सही होने का इत्मीनान हो।
———मसला 69: अगर मुसलमान नमाज़ के लिये (किसी वजह से) वज़ू न कर सके तो वज़ू के बदले तयम्मुम कर ले।
———मसला 70: बाज़ शहरों के दिन और रात बाज़ दूसरे शहरों के शब व रोज़ से तूलानी होते हैं। अगर सूरज के तुलूअ व ग़ुरूब के ज़रिये शब व रोज़ वाज़ेह हों तो हर मुसलमान अपनी नमाज़ रोज़ा और दीगर इबादत के औक़ात की हदबन्दी के लिये इन शब व रोज़ पर एतमाद कर सकता है अगरचे दिनों के छोटे होने की वजह से नमाज़ें एक दूसरे के क़रीब हों या रातों के छोटे होने की वजह से इफ़तार की मुद्दत कम हो।
———मसला 71: बाज़ मख़सूस शहरों के मख़सूस मौसमों में कई कई दिन या कई कई महीने सूरज ग़ुरूब नहीं होता। ऐसी सूरत में बतौर एहतियात मुसलमान को चाहिये के अपने शहर के उस नज़दीक तरीन शहर पर एतमाद करे जहां चौबीस घन्टों में दिन और रात हैं। यानी उस शहर के शब व रोज़ को अपने शहर के शब व रोज़ समझे और अपने पांच वक़्त की नमाज़ों को हमसाया शहर के औक़ात के मुताबिक़ क़ुरबत मुतलक़ा की नीयत से पढ़े।
———मसला 72: अगर मुसलमान ख़ुद अपनी नमाज़ रोज़े के लिये फ़ज्र, ज़वाल (ज़ोहर) और मग़रिब की तअय्युन न कर सके अैर रसदगाह की तअय्युन पर उसका एतमाद हो तो अपने रोज़ों और नमाज़ों के लिये रसदगाह के मोअय्यन कर्दा औक़ाते नमाज़ पर भरोसा कर सकता है। अगरचे रसदगाह में काम करने वाले मुसलमान न हों बशर्ते के रसदगाह की तअय्युन औक़ात पर इतमीनाने कामिल हो।
———मसला 73: अगर कोई मुसाफ़िर अपनी रिहाइशगाह से 44 किलोमीटर या इससे ज़्यादा सफ़र करे तो उसकी नमाज़े ज़ोहर, अस्र और इशा क़स्र (दो रकअत) पढ़ी जाएगी। मुसाफ़त का आग़ाज़ अकसर औक़ाते शहर के आखि़री घरों से किया जाएगा। (अलबत्ता बड़े शहरों का हुक्म इससे मुख़्तलिफ़ है जहां एक मोहल्ले से दूसरे मोहल्ले की तरफ़ मुन्तक़िल होना सफ़र शुमार होता है)
दौराने सफ़र नमाज़ के क़स्र और पूरी पढ़े जाने के मख़सूस और मोफ़स्सिल एहकाम हैं जो रिसालए इल्मिया (तौज़ीहुल मसाएल वग़ैरा) में बयान किये गये हैं। जिनके ज़िक्र की यहां गुन्जाइश नहीं। इनमें से बाज़ इस फ़स्ल से मुताल्लिक़ इस्तेफ़ताआत में पढ़े जा सकते हैं।
———मसला 74: बाजमाअत नमाज़ फ़ुरादा (अकेले नमाज़ पढ़ने) से अफ़ज़ल है। नमाज़े सुबह, नमाज़े मग़रिब और नमाज़े इशा को बाजमाअत पढ़ने का इसतेहबाब ज़्यादा मोकद हैः हदीस में हैः ‘‘(तर्जुमा) आलिम की इक़्ितदा में नमाज़ हज़ार रकत के बराबर और (ग़ैर आलिम) सय्यद की इक़्ितदा में सौ रकत के बराबर है। नमाज़ियों की तादाद जितनी बढ़ेगी जमाअत का सवाब भी बढ़ता जाएगा।’’
नमाज़ से मुताल्लिक़ बाज़ इस्तेफ़ताआत और उनके जवाबात
———मसला 76: बाज़ अफ़राद एक अर्से तक ग़लत वज़ू और ग़ुस्ल करते हैं और कई साल इस तरह नमाज़, रोज़े और हज बजा लाने के बाद जब इन्केशाफ़ होता है के वज़ू और ग़ुस्ल बातिल थे और जब इन इबादात की शरई हैसियत पूछी जाती है तो जवाब दिया जाता है के नमाज़ और हज दोबारा बजा लाए जाएं। इतनी नमाज़ों और हजों की क़ज़ा एक मुश्किल और गरां काम है। क्या उस शख़्स के साथ कोई रिआयत बरती जा सकती है जो अपने वज़ू और ग़ुस्ल को सही क़रार पाएं और दोबारा न पढ़नी पड़ें जिससे इबादाते शरीया की बजा आवरी में एक तरह की सहूलत और छूट भी हो जाए। ख़ुसूसन उस शख़्स के बारे में जिसकी वाजेबात के बारे में बग़ावत का भी ख़तरा मौजूद हो और ऐसे मुल्क में रहता है जहां इस क़िस्म की सरकशी और बग़ावत पर बराबर उकसाया भी जाता है।
जवाबः अगर नमाज़ गुज़ार जाहिल क़ासिर हो और दौराने ग़ुस्ल या वज़ू ऐसा ख़लल पड़ जाए जिससे जाहिल क़ासिर का वज़ू या ग़ुस्ल बातिल नहीं होता। मिसाल के तौर पर ग़ुस्ल में सर व गर्दन से पहले बदन के हिस्सों को धो ले या वज़ू में (आबे वज़ू के अलावा) नए पानी से मसा कर ले तो ऐसे नमाज़ गुज़ार का वज़ू और ग़ुस्ल सही समझे जाएंगे और ला मुहाला इसकी नमाज़ें और हज सही क़रार पाएंगे।
और अगर वह एहकाम सीखने में जाहिल मोक़स्सिर (जाहिल क़ासिर उस ना आशना के कहते हैं जिसकी जेहालत का उज़्र क़ाबिले क़ुबूल हो। मिसाल के तौर पर किसी बाएतमाद आलिक से वह मसला दरयाफ़्त करे और बाद में मालूम हो के उसने ग़लत बताया था और जाहिले मुक़स्सिरा वह है के जिसकी जेहालत का उज़्र क़ाबिले क़ुबूल न हो।) रहा हो या वज़ू और ग़ुस्ल में ऐसा ख़लल पड़ जाए जिससे हर हालत में वज़ू या ग़ुस्ल मुतास्सिर हो सकता है। मिसाल के तौर पर वज़ू और ग़ुस्ल के दौरान जिन आज़ा का धोना वाजिब था उन्हें न धोए तो ऐसे शख़्स की नमाज़ और हज को सही क़रार देने की कोई राह नहीं। लेकिन अगर ऐसे शख़्स की बग़ावत और सरकशी का ख़तरा हो तो ऐसे शख़्स को इबादत की क़ज़ा बजा लाने का हुक्म देना कोई मुस्तहसन अमल न होगा। शायद अल्लाह तआला मुस्तक़बिल में राहे हल पैदा फ़रमाए।