अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क

इस्लाम का सर्वोच्च अधिकारी (भाग 4)

0 सारे वोट 00.0 / 5

इससे पहले भाग 2 में हमने बताया कि रसूल ने अपने बाद धर्म का सर्वोच्च अधिकारी अहलेबैत को बनाया था। इसमें पहले थे इमाम हज़रत अली (अ.)। फिर एक वक्त आया जब इब्ने मुल्जिम नामक बाग़ी ने उन्हें नमाज़ में सज्दे की हालत में शहीद कर दिया। उनकी शहादत के बाद धर्म के सर्वोच्च अधिकारी बने उनके बेटे इमाम हसन (अ.) जो कि अहलेबैत में शामिल हैं और पंजतन पाक के चौथे सितारे थे। इमाम हज़रत अली(अ.) व बीबी फातिमा(स.) के बड़े बेटे थे।


रसूल अल्लाह(स.) की ऐसी बेशुमार हदीसें हैं जिसमें उन्होंने इमाम हसन(अ.) व इमाम हुसैन(अ.) से मोहब्बत की ताक़ीद की है।

मसलन रसूल अल्लाह(स.) फरमाया, 'जो शख्स मुझ से मोहब्बत का दावेदार है उसपर लाजि़म है कि मेरे दोनों फरज़न्दों से मोहब्बत करे।

'जो शख्स हसन(अ.) व हुसैन(स.) से बुग्ज़ व दुश्मनी रखेगा वह क़यामत के दिन इस हाल में आयेगा कि उसके चेहरे पर गोश्त न होगा और मेरी शफाअत उसको नसीब न होगी।

'हसन(अ.) व हुसैन(स.) जवानाने जन्नत के सरदार हैं।

'जिसने हसन(अ.) व हुसैन(स.) से मोहब्बत की उसने मुझसे मोहब्बत की और जिसने इन दोनों से बुग्ज़ रखा उसने मुझसे बुग्ज़ रखा।  


इमाम हसन(अ.) बहादुरी में अपने वालिद हज़रत अली(अ.) की ही तरह थे और जमल, सिफ्फीन व नहरवान की जंगों में बराबर से लड़े थे। साथ ही वो इल्म (ज्ञान) में भी सर्वोच्च थे।


इमाम हसन(अ.) की सखावत के अनगिनत किस्से तारीख में दर्ज हैं। एक शख्स ने आकर अपनी ग़रीबी का रोना रोया तो इमाम हसन(अ.) ने अपनी तिजारत में उस दिन तक जो भी मुनाफा हुआ था वह तमाम उसे सौंप दिया। एक और किस्सा ये है कि उनकी एक कनीज़ ने उन्हें फूलों का गुलदस्ता भेंट किया तो उसके बदले में उन्होंने उसे आज़ाद कर दिया।

       
इमाम हसन (अ.) एहसान का बदला एहसान से देना जानते थे। एक बार वो अपने छोटे भार्इ इमाम हुसैन (अ.) और अब्दुल्लाह इब्ने जाफर के साथ हज के लिये रवाना हुए। रास्ते में उन्हें वीराने में भूख प्यास की शिददत के बीच एक झोंपड़ी दिखाई दी। जिसमें एक औरत रहती थी। उसने उनकी मेहमाननवाज़ी में अपनी एकमात्र बकरी पकाकर खिला दी। उसके कुछ साल बाद वहाँ अकाल पड़ गया और वह औरत व उसका शौहर सख्त मुसीबतों में पड़कर भीख माँगते हुए मदीने जा पहुंचे। वहाँ इमाम हसन(अ.) ने उसे देखा तो उसे बकरी वाला वाकिया याद दिलाया और बदले में उसे एक हज़ार बकरियाँ व हज़ार अशर्फियाँ इनायत फ़रमाईं और उन्हें इमाम हुसैन (अ.) के पास भेज दिया। इमाम हुसैन(अ.) ने भी हज़ार बकरियाँ व हज़ार अशर्फियाँ इनायत फ़रमाईं और उन्हें अब्दुल्लाह इब्ने जाफर के पास भेज दिया। उन्होंने भी इसी के लगभग दिया और वह औरत मालामाल होकर वापस गयी।


इमाम हसन(अ.) व इमाम हुसैन(अ.) दीन की तबलीग़ निहायत मेहरबानी के साथ करते थे। अपने बचपन में उन्होंने देखा कि एक बुज़ुर्ग गलत वज़ू कर रहे हैं। बजाय ये कि वे उन बुज़ुर्ग को टोकते, आपस में एक दूसरे से कहने लगे कि तुम वज़ू गलत करते हो और मैं सही करता हूं। फिर उन्होंने बुज़ुर्ग से कहा कि आप हमारा फैसला कर दीजिए कि हममें किसका वज़ू सही है और किसका गलत।

जब बुज़ुर्ग ने उन्हें वज़ू करते देखा तो बोले कि शहज़ादों तुम दोनों का वज़ू सही है, मुझ बूढ़े जाहिल का वज़ू गलत था। अब मैंने आप हज़रात से वज़ू का तरीका सीख लिया है और आप हज़रात के सामने तौबा करता हूं।

इमाम हसन (अ.) ने हमेशा पैदल हज किया और अक्सर नंगे पैर हज के लिये तशरीफ ले जाते थे। जब नमाज़ के लिये मुसल्ले पर खड़े होते थे तो सारा बदन काँप रहा होता था।

   
जब माविया ने आपको जंग बन्दी और सुलह के लिये खत लिखा तो उसमें यह था कि वह आपकी हर शर्त को क़ुबूल कर लेगा। फिर सुलहनामे में इमाम हसन (अ.) ने निम्न शर्तें रखी थीं,

1. वह किताबे खुदा और सुन्नते रसूल (स.) पर अमल करेगा।

2. उसे अपने बाद अमीर के इंतेखाब का हक़ नहीं होगा।

3. वह हज़रत अली (अ.) पर अपशब्दों का इस्तेमाल तर्क कर देगा।

4. वह अली (अ.) के शीयों को अमन से रहने देगा और उन्हें परेशान नहीं करेगा।

5. वह साहबे हक़ का हक़ उस तक पहुंचायेगा।

6. वह हसन इब्ने अली(अ.), उनके भाई हुसैन(अ.) और खानदाने रसूल में से किसी को मारने या नुकसान पहुंचाने की कोशिश नहीं करेगा।

 

माविया ने तमाम शर्तों को कुबूल कर लिया और इस तरह यह सुलह हो गयी। हालांकि वह बाद में बहुत सी शर्तों से फिर गया। यहाँ तक कि उसने इमाम हसन(अ.) की एक बीवी को अपने बेटे यज़ीद से शादी करने का लालच देकर उसके हाथों इमाम को ज़हर दिला दिया और इस तरह इमाम हसन(अ.) की शहादत हुई ।

माविया ने हज़रत अली (अ.) के कुछ ऐसे सरदारों को दौलत का लालच देकर अपनी तरफ मिला लिया था जो हज़रत अली(अ.) के तमाम चाहने वालों को अच्छी तरह जानते थे। उसने ऐसे लोगों को चुपचाप क़त्ल कराना शुरू कर दिया। ये सब यज़ीद के लिये खिलाफत की ज़मीन तैयार करने का मंसूबा था।

 

  इमाम हसन (अ.) ने सुलह इसलिए की थी क्योंकि वह देख रहे थे कि बहुत थोड़े लोग हैं जो उनके साथ जंग के लिये दिल से तैयार हैं। उनके कुछ सरदार तो चुपचाप उनकी गिरफ्तारी का मंसूबा बना चुके थे। इसीलिए उन्होंने अपने खुत्बे में फरमाया,  
मैं अहले शाम के साथ जंग से इसलिए नहीं कतरा रहा हूं कि मैं दब गया हूं या मेरी फौज छोटी है बल्कि इसलिए कि पहले हम लोग इत्तेहाद, इत्तेफाक, और सब्र के साथ जंग करते थे। मगर वह इत्तेहाद आपस की जंग में बदल गया है, सब्र की जगह बेसब्री आ गयी है। पहले तुम लोग हमारे साथ चलते थे तो तुम्हारी दुनिया के आगे तुम्हारा दीन होता था और अब तुम्हारा ये हाल है कि तुम्हारे दीन के आगे तुम्हारी दुनिया है।

 

सुलह के बाद माविया को यह खुशफहमी हो गयी थी कि वह इस्लाम का खलीफा यानि धर्माधिकारी बन चुका है। इमाम हसन (अ.) ने उसकी खुशफहमी इन शब्दों के साथ दूर की, ''सुनो खलीफा तो वही होता है जो किताबे खुदा और सुन्नते रसूले खुदा पर अमल पैरा हो। खलीफा वह नहीं जो ज़ुल्म व जोर की राह अखितयार करे और सुन्नत को छोड़ दे। और दुनिया को अपना माँ बाप समझने लगे। अच्छा बादशाहत कर लो और उससे चन्द दिन फायदा उठा लो। फिर उसकी लज़ज़तें  खत्म हो जायेंगी और खमियाज़ा बाक़ी रह जायेगा।

इसे उस ज़माने के मुसलमानों की बदकिस्मती ही कही जायेगी कि उन्होंने इमाम हसन(अ.) जैसे योग्य का दामन छोड़कर दूसरों को अपना हाकिम कुबूल कर लिया था।  

(...जारी है।)

 

आपका कमेंन्टस

यूज़र कमेंन्टस

कमेन्ट्स नही है
*
*

अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क