अलहसनैन इस्लामी नेटवर्क

इस्लाम का सर्वोच्च अधिकारी (भाग 5)

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इमाम हसन(अ.) की शहादत के बाद इस्लाम धर्म के सर्वोच्च अधिकारी हुए उनके छोटे भाई हज़रत इमाम हुसैन(अ.)। हज़रत इमाम हुसैन(अ.) भी अहलेबैत में शामिल हैं और पंजतन पाक के पाँचवें अंतिम सितारे थे और इमाम हज़रत अली(अ.) व बीबी फातिमा(स.) के छोटे बेटे थे।

पंजतन पाक की पूरी जि़न्दगी का जायज़ा लेने के बाद यह पता चलता है कि इनकी ज़ात से कभी किसी को न तो तकलीफ़ पहुँची और न ही किसी तरह का कोई नुक़सान हुआ। यह हमेशा उसके दुश्मन रहे जो इन्सानियत का दुश्मन रहा। आपके घर से कभी भी कोई ज़रूरतमन्द खाली हाथ न गया। चाहे घर में फ़ाके़ की क्यों न हो रहे हों। इस दर पर आने वाला हमेशा झोली भर कर ही गया है। यह वह थे जो हर दर्दमन्द की तड़प और फ़रयाद पर तड़प जाते और इस दर्द को अपना दर्द समझते थे। जो भूखों के सामने भूख के आलम में भी अपने आगे रखा हुआ खाना देकर अपने अल्लाह का शुक्र अदा करते थे।


एक बार रोज़े में इफ़तार के वक़्त बड़ी मुश्किल से इफ़तार का कुछ इन्तेज़ाम हुआ और दस्तरख्वान लगाया ही गया था कि एक फ़क़ीर की आवाज़ आई मैं मिसकीन हूँ मेरी मदद करो। घर में सभी रोज़े से थे। सबने अपने आगे की रोटियाँ फकीर को दे दीं और खुद नमक और पानी से इ़फ़तार करके अपने ख़ालिक़ का शुक्र अदा किया। तीन दिन तक यही सिलसिला रहा और यह लोग अपने आगे का खाना मिसकीन, यतीम और असीर को देकर खुद नमक और पानी से इफ़तार कर लेते। अल्लाह ने उनके इस अमल को सूरए दहर में भी जि़क्र किया गया है। यह है इस घराने का बेमिस्ल किरदार।


इन्होंने अपने अल्लाह से कभी कोई शिकवा न किया सिवाय इसके कि शुक्रे खुदा करें। यह वह थे जिन्होंने अपने अमल से लोगों का दिल जीता और हमेशा दिलों पे राज किया। इन्हें पता था कि हमें अल्लाह ने किस लिये पैदा किया है और हमारा मक्सद इन्सानियत का तहफ्फ़ुज़ और अल्लाह की खुशनूदी है।


हज़रत इमाम हुसैन(अ.) के दिल में दुनिया की भलाई का जज़बा कूट कूट कर भरा हुआ था। बचपन जबकि किसी को अच्छे बुरे का ज्ञान नहीं होता उस उम्र में भी इमाम हुसैन(अ.) ने जब काम किया तो भलाई का काम ही किया।

जब इमाम हुसैन(अ.) करबला की जंग में शहीद हुए तो लोगों ने उनके जिस्म मुबारक की पीठ पर नीले निशान देखे। जब इमाम जैनुल आबिदीन से इस बारे में पूछा गया तो इमाम ने फरमाया कि उनके वालिद हमेशा रात के अँधेरे में रोटियों व ग़ल्ले का अंबार रखकर ले जाते थे और यतीमों, बेवाओं और मिस्कीनों के घर पर पहुंचाया करते थे।


रवायतों में है कि जब हज़रत इमाम हुसैन(अ.) की पैदाइश होने वाली थी तो जिब्रील पैगम्बर मोहम्मद(स.) के पास आये और बताया कि इस फरज़न्द को उनकी उम्मत बेदर्दी के साथ क़त्ल कर देगी। जब बीबी फातिमा(स.) ने यह खबर सुनी तो रोते हुए कहने लगीं कि खुदा से दुआ कीजिए कि मुझे ऐसा फरज़नद न अता करे। इसके जवाब में रसूल ने फरमाया कि अल्लाह पाक इस शहादत के बदले में हुसैन(स.) को वह दर्जा अता करेगा जो किसी का न होगा। और धर्म के सर्वोच्च अधिकारी का पद इन ही की नस्ल में बाक़ी रखेगा। और क़यामत के रोज़ उम्मत के बहुत से गुनाहगारों की शफाअत करेगा। यह सुनकर बीबी फातिमा(स.) अपने फरज़न्द की शहादत पर राज़ी हो गयीं।

 

बचपन से ही हसनैन (हसन व हुसैन) की फज़ीलतों के सैंकड़ों किस्से तारीख में दिखाई देते हैं। ईद के रोज़ जब मदीने के बच्चे नये कपड़े पहन रहे थे तो हसनैन ने भी नये कपड़े पहनने की जि़द की। लेकिन घर में फाक़ा शिकनी की नौबत थी, नये कपड़े बनाना तो दूर की बात थी। बीबी फातिमा(स.) ने बच्चों को दिलासा देते हुए कहा कि अभी दर्ज़ी तुम लोगों के कपड़े लेकर आता होगा। इसके कुछ ही देर बाद जन्नत का रिज़वान एक दर्ज़ी के भेस में उनके कपड़े लेकर हाजि़र हो चुका था।


एक बार एक शख्स रसूल(स.) की खिदमत में आया और कहा कि मैं बेऔलाद हूं । आप खुदा से मेरे लिये दुआ कर दीजिए। रसूल(स.) ने फरमाया कि तुम्हारी किस्मत में औलाद नहीं है। इतने में उनकी गोद में खेलते हुए हुसैन(अ.) ने कहा कि मैंने तुझे एक औलाद दी। रसूल(स.) ने इस छोटे से बच्चे को समझाया कि बेटा हुसैन इस शख्स की किस्मत में औलाद नहीं है। हुसैन(अ.) ने फिर कहा कि मैंने एक औलाद और दी। ग़र्ज़ ये कि रसूल(स.) मना करते जाते थे और हुसैन(अ.) तादाद बढ़ाते जाते थे। आखिर में नौ के बाद माँगने वाले ने हाथ जोड़कर कहा, बस मौला अब और नहीं। फिर बाद में उस शख्स की पूरी नौ औलादें हुर्इं।     
                 

इससे पहले भाग 4 में हमने बताया कि जंग व खूँ रेज़ी रोकने के लिये इमाम हसन(अ.) ने माविया से सुलह कर ली थी जिसमें उन्होंने अरब की सत्ता माविया के हाथ में दे दी थी और बदले में माविया ने उनसे अमन का वादा किया था। लेकिन माविया ने अपने इस वादे का पालन नहीं किया। सुलह की एक खास बात ये थी कि माविया को अपना उत्तराधिकारी चुनने का हक़ नहीं होगा। जबकि वह अपने बेटे यज़ीद को ख़लीफ़ा बनाना चाहता था। अपने इस मकसद की तकमील के लिये उसने धीरे धीरे अपने विरोधियों और अहले बैत के चाहने वालों को साजि़शें करके क़त्ल करवाना शुरू कर दिया।


फिर माविया ने बहुत बड़ा जलसा करके यज़ीद को अपना वली अहद मुक़र्रर कर दिया और फिर लोगों से यज़ीद के लिये बैअत लेना शुरू कर दी। जो भी बैअत लेता उसको वह इन्आम व इकराम से नवाज़ता। और जो भी यज़ीद की बैअत से इन्कार करता पहले तो उसे दौलत की लालच देता और अगर वह लालच में न आता तो उसको किसी न किसी झूठे इल्ज़ाम में फँसा कर सज़ा दिलवा देता।

हर तरफ़ यज़ीद की बैअत के चर्चे होने लगे। पबिलक में एक अजीब सी बेचैनी का माहौल था। क्योंकि हर शख्स यह जानता था कि यज़ीद शराबी, जुआरी और बदकिरदार है अगर वह तख्ते हुकूमत पर आ गया तो किसी की जान, माल, इज़ज़त, आबरू सलामत नहीं रहेगी।


माविया की मृत्यु के बाद यज़ीद ने अपने बाप का तख़्त संभाल लिया। हुकूमत संभालते ही उसने फ़ौरन हाकिमे मदीना वलीद को हुक्म दिया कि लोगों से ज़बरदस्ती मेरी बैयत ली जाये।  खासतौर पर हुसैन(अ.) इब्ने अली से बैअत तलब करो। और अगर यह लोग बैअत न करें तो उनके सर काट कर मेरे दरबार में पेश करो।

इमाम हुसैन अ0 ने वलीद से कहा ''तुम्हें मेरा जवाब मालूम है मुझ जैसा यज़ीद जैसे की बैअत नहीं कर सकता, हक़ कभी बातिल के सामने नहीं झुक सकता। यज़ीद फ़ासिक़ व फ़ाजिर है। वलीद ने कहा सोच लीजिए। इमाम ने फ़रमाया सोच लिया है। ये कहकर इमाम उठ खड़े हुए। हालात ये बन गये थे कि मदीने में ही इमाम हुसैन(अ.) के क़त्ल के मंसूबे बनने लगे थे। इमाम हुसैन(अ.) को एहसास हो गया था कि या तो उन्हें यज़ीद की ज़बरदस्ती बैअत करनी होगी या फिर शहादत का जाम नौश करना होगा। ऐसे वक्त में उनकी ज़बान से ये कलाम निकला, ''इज्ज़त की मौत जि़ल्लत की जिंदगी से बेहतर है। अब उन्होंने यज़ीद के विरोध  का निर्णय कर लिया था। और साथ ही अपने क़रीबियों के साथ मदीना छोड़कर मक्के की तरफ रुख किया।


इमाम हुसैन(अ.) ने धर्म को फिर से क़ायम करने के लिये बसरा व तमाम जगहों के लोगों को ज़ालिम हुकूमत के खिलाफ साथ देने के लिये खत लिखा लेकिन ज्यादातर लोग खामोश रहे। इस चुप्पी के पीछे कहीं हुकूमत का खौफ था तो कहीं लालच। अब मक्के में भी उनके क़त्ल की साजि़शें होने लगी थीं। इमाम नहीं चाहते थे कि मक्के की पाक सरज़मीन उनके खून से लाल हो इसलिए उन्होंने मक्के को खैरआबाद कह दिया और ईराक़ के रास्ते पर अपने क़ाफिले को डाल दिया।   


उधर कूफे वाले इमाम हुसैन(अ0) को ख़त लिख रहे थे कि हमारे सरों पर कोई इमाम नहीं है। आप यहाँ तशरीफ़ ले आइये हमारी तलवारें आपके साथ हैं। हालांकि इमाम हुसैन(अ.) ये जानते थे कि जिन कूफे वासियों ने उनके बाबा और भाई के साथ वफा न की वह उनके साथ भी विश्वासघात करेंगे। लेकिन उन्होंने आदर्श  धर्माधिकारी के उसूलों का पालन करते हुए कूफे जाने का निश्चय किया क्योंकि जब ज़ुल्म हद से आगे बढ़ जाये और धर्म विलुप्त होने लगे तो धर्माधिकारी  को सामने आकर विरोध करना ज़रूरी हो जाता है।

इससे पहले उन्होंने वहाँ मुस्लिम बिन अकील को अपना राजदूत बनाकर भेजा। मुस्लिम बिन अक़ील जब कूफ़ा पहुँचे तो कूफ़े वालों ने उनका ज़बरदस्त स्वागत किया। हज़ारों लोगों ने मुसिलम के हाथ पे हुसैन(अ.) के नाम की बैअत भी की।


जब यज़ीद को मालूम हुआ कि कूफे वासी उसके खिलाफ विद्रोह के लिये इकटठा हो रहे हैं तो उसने  उबैदुल्लाह इब्ने ज्याद को कूफे का गवर्नर बनाकर भेज दिया। इब्ने ज्याद को ये जि़म्मेदारी सौंपी गयी कि किसी भी तरह इमाम हुसैन(अ.) को कूफे के आसपास घेरकर या तो उनसे बैय्यत ले ली जाये या फिर क़त्ल कर दिया जाये।

उबैदुल्लाह इब्ने ज्याद अपने चेहरे को ढँककर कूफे में दाखिल हुआ। लोगों ने समझा कि इमाम हुसैन(अ.) तशरीफ लाये हैं। फिर उसने धोखे से इमाम हुसैन(अ.) के चाहने वालों को क़त्ल करवाना शुरू किया और बाकी कूफेवासियों को लालच व डर दिखाकर यज़ीद की तरफ पलटाने लगा। यहाँ तक कि वह वक्त आया जब हज़रत मुसिलम कूफे में तनहा इब्ने ज्याद की फौज से लड़ते लड़ते शहीद हो गये। उस समय वहाँ एक भी व्यकित उनका साथ देने के लिये नहीं था।


इमाम हुसैन(अ.) को हज़रत मुसिलम की शहादत की खबर मक्के से बाहर निकलने के बाद मिली। ये वो वक्त था जब हक़ का साथ देने के लिये चन्द लोगों के अलावा और कोई नहीं बचा था। ऐसे लोगों में से ज्यादातर लोग उनके क़ाफिले में शामिल थे और यह गिनती सौ तक भी नहीं पहुंचती थी। इस्लाम की सही तस्वीर मिट रही थी और ज़ालिम निहायत ताक़तवर हो चुका था।


अब इमाम हुसैन(अ.) के सामने दो रास्ते थे। या तो वह यज़ीद के सामने सरेण्डर कर देते। जिसका परिणाम यह होता कि इस्लाम के नाम पर यज़ीद की शरीयत लागू हो जाती। फिर नाजायज़ सम्बन्ध, शराबखोरी, जुआ, जि़ना आम हो जाते। इंसान व जानवर में कोई फर्क नहीं रह जाता। इस्लाम की शरीयत खत्म हो जाती और यज़ीद की शरीयत इस्लाम की आड़ लेकर लागू हो जाती और लोग समझते कि यही असली इस्लाम है, ठीक उसी तरह जैसे आजकल अक्सर लोग आतंकवाद को ही इस्लाम समझने लगे हैं।


लेकिन इमाम हुसैन (अ.) को यह मंज़ूर नहीं था कि इस्लाम का नामोनिशान इस तरह मिट जाये। उन्होंने दूसरा तरीका अखितयार किया। यह रास्ता मज़लूमाना शहादत का था। वो ये समझ चुके थे कि एक छोटा सा क़ाफिला जो उनके साथ है, इसके अलावा कोई भी उनका मददगार नहीं रह गया है। लेकिन अगर वह बेदर्दी के साथ क़त्ल कर दिये जाते हैं तो उसके बाद एक बड़ा रिवोल्ट ज़रूर पैदा होगा जो इस्लाम को फिर से जि़न्दा कर देगा।


इमाम हुसैन(अ.) ने क़ाफिले को आगे बढ़ने का हुक्म दिया। लेकिन उससे पहले एक हुक्म और दिया कि अपने साथ पानी का बड़ा ज़खीरा ले चलो। क़ाफिले की ज़रूरत से भी ज्यादा।

अब कूफा क़रीब आ चुका था कि एकाएक उनका सामना एक बड़े लश्कर से हुआ जिसके सेनापति का नाम हुर था। वह पूरा लश्कर प्यास से बेहाल था। बगैर यह पूछे कि तुम दोस्त हो या दुश्मन इमाम हुसैन(अ.) ने अपने साथियों से कहा कि उन्हें पानी से सैराब कर दिया जाये। उस पूरे लश्कर को जानवरों सहित पानी पिलाकर सैराब कर दिया गया।


पानी पिलाने के बाद इमाम हुसैन(अ.) ने पूछा कि तुम लोग दोस्त हो या दुश्मन? उस काफिले के सरदार हुर ने जवाब दिया कि हमें इब्ने ज्याद ने भेजा है कि आपको गिरफ्तार करके उसके सामने हाजि़र किया जाये। इमाम हुसैन(अ.) और उसके बीच तकरार हुर्इ और आखिरकार ये तय हुआ कि इमाम हुसैन(अ.) अपने क़ाफिले का रुख किसी और जानिब मोड़ दें। हुर इमाम हुसैन(अ.) और उनके खानदान की बुलन्दी को जानता था। वह उनसे जंग नहीं करना चाहता था। तय ये हुआ कि दोनों लश्कर साथ साथ चलते रहेंगे इस बीच हुर इब्ने ज्याद को खत लिखकर आगे की  कारवाई के बारे में मालूम करेगा। हालांकि इब्ने ज्याद के हुक्म के मुताबिक वह इमाम हुसैन(अ.) को मदीने की वापसी से रोक रहा था।


फिर इब्ने ज्याद का हरकारा भी आ गया उसने हुर को हुक्म दिया कि इमाम हुसैन(अ.) जहाँ भी हैं उन्हें वहीं सख्ती के साथ रोक लो। हुर ने हुक्म की तामील की। इमाम हुसैन(अ.) ने आगे बढ़ना चाहा लेकिन हुर के लश्कर ने सख्ती के साथ उन्हे रोक दिया। इमाम हुसैन(अ.) ने लोगों से उस ज़मीन का नाम पूछा। अलग अलग लोगों ने अलग अलग नाम बताये। फिर जैसे ही एक शख्स ने उस ज़मीन का नाम करबला बताया इमाम हुसैन(अ.) फौरन अपने घोड़े से उतर गये। क्योंकि यही उनकी शहादत की मंजि़ल थी।

इमाम हुसैन(अ.) ने उस ज़मीन के मालिक से मुलाकात की और उससे वह खरीद ली। साथ ही ये वसीयत फरमाई कि अगर वहाँ वह लड़ाई में शहीद हो गये तो उनके व उनके साथियों के लाशों को वहीं दफना दिया जाये।


उधर हुर हालांकि इमाम हुसैन(अ.) का रास्ता रोक रहा था लेकिन ये भी चाहता था कि इमाम हुसैन(अ.) से जंग न करनी पड़े। अत: उसने इब्ने ज्याद को फिर खत लिखा कि उसने इमाम हुसैन(अ.) को करबला में रोक लिया है लेकिन उसके अन्दर उनसे जंग करने की हिम्मत नहीं है। जब इब्ने ज्याद के पास ये खत पहुंचा तो उसने उमर बिन साद को नया सेनापति बनाकर भेज दिया।


उमर बिन साद ने करबला पहुंचने के बाद इमाम हुसैन(अ.) से पूछा कि वह कूफे क्यों जाना चाहते हैं? इमाम(अ.) ने जवाब दिया कि खुद कूफे वालों ने ही उन्हें खत लिखकर बुलाया है। अब अगर वो नहीं चाहते कि मैं वहाँ आऊं तो मैं वापस चला जाऊंगा। और अगर यज़ीद को मंजूर नहीं कि मैं उसकी हुकूमत में रहूं तो मैं इस्लामी हुकूमत की सरहदों से दूर किसी अंजान मुल्क को निकल जाऊंगा। रवायतों में है कि इमाम हुसैन(अ.) हिन्दुस्तान आने की बात की थी।


उमर बिन साद ने ये पैगाम जब इब्ने ज्याद तक पहुंचाया तो बदले में इब्ने ज्याद ने शिम्र नामी एक क्रूर शख्स को बड़ी फौज के साथ भेज दिया और कहलवाया कि अगर तुम हुसैन(अ.) से जंग नहीं करोगे तो शिम्र को तुम्हारी जगह सेनापति बना दिया जायेगा और रे की हुकूमत तुमसे ले ली जायेगी। ये सुनकर उमर बिन साद जंग पर पूरी तरह आमादा हो गया।

अब वहाँ से गुज़रने वाली नहर अलक़मा पर सख्त पहरा लगा दिया गया था और कुछ दिन पहले जिस लश्कर को इमाम हुसैन(अ.) ने पानी से सैराब किया था वही लश्कर इमाम के छोटे छोटे बच्चों को पानी के लिये तरसा रहा था। फिर नौ मोहर्रम को यज़ीद की फौज जंग शुरू करने पर पूरी तरह आमादा हो गयी लेकिन इमाम हुसैन(अ.) ने उनसे एक रात की मोहलत इबादत के लिये ले ली। उस रात इमाम हुसैन(अ.) ने अपने साथियों से फरमाया कि ये लोग मेरे खून के प्यासे हैं मैं तुम्हें आज़ाद करता हूं जहाँ चाहो चले जाओ।


उनके तमाम साथियों ने रो रोकर उनका साथ छोड़ने से इंकार कर दिया।


उधर इमाम हुसैन(अ.) को इस हालत में लाने वाला हुर सारी रात बेचैनी से टहलता रहा। और आखिर में सुबह होते होते वह अपने बेटे के साथ इमाम हुसैन(अ.) के खैमे में आया और उनके कदमों में गिरकर माफी माँगने लगा। इमाम हुसैन(अ.) ने उसे माफ करके गले से लगा लिया और फिर इस जंग में इमाम हुसैन(अ.) की तरफ से शहीद होने वाले हुर अव्वल साबित हुए।


दस मोहर्रम सन इकसठ हिजरी का मनहूस दिन शुरू हुआ और भूखे प्यासे इमाम हुसैन(अ.) के छोटे से लश्कर ने जिसकी तादाद सौ भी नहीं थी, लाखों के लश्कर का मुकाबला शुरू किया। इस लश्कर का सिपाहसालार इमाम हुसैन(अ.) ने अपने बहादुर भाई हज़रत अब्बास को बनाया। इस लश्कर में एक तरफ सत्तर साल के हबीब इब्ने मज़ाहिर थे तो दूसरी तरफ चार पाँच साल के कमसिन बच्चे।


उमर बिन साद ये सोच रहा था कि इस छोटे से लश्कर को वह मिनटों में तहस नहस कर देगा। लेकिन इमाम हुसैन(अ.) के साथियों ने बहादुरी की ऐसी मिसाल पेश की कि दुश्मन के छक्के छूट गये और उल्टे कदमो भागती फौज कई बार कूफे की दीवारों से टकरायी।


इस बीच ज़ोहर की नमाज़ का वक्त हो गया। तीरों की बारिश में इमाम हुसैन(अ.) ने अपने सहाबियों के साथ नमाज़ अदा की जबकि दो सहाबी सईद व जोहैर अपने सीनों पर आने वाले तीरों को रोक रहे थे।

फिर वह वक्त आया कि इमाम हुसैन(अ.) के सहाबी एक एक करके उनपर क़ुर्बान हो गये। और अब बारी थी अज़ीज़ों की। इमाम हुसैन(अ.) के कमसिन भतीजे क़ासिम मैदाने जंग में गये। उम्र इतनी कम थी कि चाचा ने गोद में लेकर सवार किया था। बहादुरी के साथ जंग की और फिर दौड़ते घोड़ों तले आकर शहीद हो गये। प्यारी बहन ज़ैनब(स.) के कमसिन बेटे औन व मोहम्मद भी पूरी बहादुरी का मुज़ाहिरा करते हुए शहीद हो गये।


अब इस छोटी सी फौज के सेनापति यानि इमाम हुसैन(अ.) के भाई हज़रत अब्बास ने जंग की इजाज़त माँगी।

उसी वक्त खैमे से प्यासे बच्चों के रोने की आवाज़ आयी जो पानी के लिये तड़प रहे थे। इमाम हुसैन(अ.) ने हज़रत अब्बास से कहा कि हो सके तो बच्चों के लिये पानी का इंतिज़ाम कर दो। हज़रत अब्बास ने अपनी प्यारी भतीजी इमाम हुसैन की चहेती चार साल की बच्ची बीबी सकीना से मश्क ली और नहर की तरफ बढ़े। हज़रत अब्बास के हमले से फौज भागी और नहर का किनारा खाली हो गया। हज़रत अब्बास ने मश्क पानी से भरी लेकिन खुद पानी नहीं पिया। जब मश्क भरकर वापस लौटने लगे तो फौज ने उन्हें चारों तरफ से घेर लिया। उनके दोनों बाज़ू काट दिये गये और मश्क पर तीर मारकर सारा पानी बहा दिया गया। हज़रत अब्बास शहीद हो गये। फिर इमाम हुसैन(अ.) के अटठारह साल के बेटे अली अकबर को भी यज़ीद की फौज ने शहीद कर दिया। अली अकबर पैगम्बर मोहम्मद(स.) के हमशक्ल थे।


अब इमाम हुसैन(अ.) का साथ देने के लिये कोई नहीं बचा था। इमाम हुसैन(अ.) के बड़े बेटे सय्यदे सज्जाद(अ.) बीमारी की हालत में बेहोश पड़े हुए थे। उसी वक्त खैमे के अन्दर से रोने की आवाज़ आयी। पता चला कि इमाम हुसैन(अ.) का छह महीने का बच्चा अली असगर प्यास से तड़पते हुए झूले से गिर गया था। उसकी माँ का दूध सूख चुका था। इमाम हुसैन(अ.) उसे लेकर मैदान में आये और सामने मौजूद फौज को मुखातिब करके कहा कि अगर तुम्हारी नज़र में मैं कुसूरवार हूं तो इस बच्चे ने क्या कुसूर किया है? तुम इसे पानी पिला दो।


इमाम हुसैन(अ.) के इस सवाल के जवाब में सामने से एक तीर आया और इमाम हुसैन(अ.) का छह माह का बच्चा उनके हाथ पर शहीद हो गया।


इमाम हुसैन(अ.) ने बच्चे को दफ्न किया और खुद मैदान में आये। तमाम ग़मों को सीने में उतारने के बाद ऐसी बहादुरी दिखायी कि दुश्मन के छक्के छूट गये और वे पनाह माँगने लगे। इस बीच अस्र का वक्त हो गया। अपने माबूद से मिलने की तलब ने इमाम हुसैन (अ.) के हाथ तलवार पर नर्म कर दिये। नतीजे में दुश्मन ने चारों तरफ से उन्हें घेर लिया। तीरों ने इमाम के जिस्म को इस तरह छुपा लिया था जैसे बादलों में सूरज छिप जाता है। आखिरकार शिम्र ने इमाम हुसैन (अ.) की गर्दन उस वक्त अलग कर दी जब वे अपने मालिक का सज्दा अदा कर रहे थे। इमाम हुसैन (अ.) का सर नैज़े पर बुलन्द हुआ और इसी के साथ डूबता हुआ इस्लाम का सितारा फिर से बुलन्द हो चुका था।


करबला की कहानी यहीं पर खत्म नहीं हुई । बल्कि अब इस्लाम की बागडोर अगले धर्माधिकारी यानि इमाम हुसैन(अ.) के एकमात्र बचे हुए बेटे सय्यदे सज्जाद(अ.) के हाथ में आ चुकी थी। जिन्होंने बीमारी की ही हालत में चौदह सौ मील का सफर तय करके इस ज़ुल्म की दास्तान को दुनिया के सामने पेश किया और यज़ीद व उसके साथियों के किरदार को दुनिया के सामने नंगा कर दिया।

इसपर बात करते हैं इस श्रृंख्ला की अगली कड़ी में।      

                                         
(...जारी है।)

 

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