मरने के बाद के अहकाम
547. मुस्तहब है कि मरने के बाद मैयित की आँखें और होंट बन्द कर दिये जायें और उसकी ठोडी को बाँध दिया जाए और उसके हाथ,पाँव सीधे कर दिये जायें। अगर मौत रात को हुई हो तो जहाँ मौत हुई हो वहाँ चिराग़ जलाए (रोशनी कर दे) और जनाज़े में शिरकत के लिए मोमिनीन को ख़बर दे और मैयित दफ़्न करने में जल्दी करे। लेकिन अगर उस इंसान के मरने का यक़ीन न हो तो इन्तेज़ार करे ताकि सूरते हाल वाज़ेह हो जाए। इसके अलावा अगर मैयित हामिलः हो और बच्चा उसके पेट में ज़िन्दा हो तो ज़रूरी है कि दफ़्न करने में इतनी देर करें कि उसका पहलू चाक करके बच्चा बाहर निकाल लें और फिर उस पहलू को सी दें।
ग़ुस्ल, कफ़न, नमाज़ और दफ़्न का वुजूब
548. किसी मुसलमान मैयित का ग़ुस्ल, हुनूत, कफ़न, नमाज़ और दफ़्न चाहे वह शिया इसना अशरी भी न हो उसके वली पर वाजिब है। ज़रूरी है की वली खुद इन कामों को अंजाम दे या किसी दूसरे को इन कामों के लिए मुअय्यन करे और कोई इंसान इन कामों को वली की इजाज़त से अंजाम दे तो वली पर से वुजूब साक़ित हो जाता है। बल्कि अगर दफ़्न और उसकी मानिन्द दूसरे कामों को कोई इंसान वली की इजाज़त के बग़ैर अंजाम दे तब भी वली से वुजूब साक़ित हो जाता है और इन कामों को दोबारा अंजाम देने की ज़रूरत नहीं है। अगर मैयित का कोई वली न हो या वली उन कामों को अंजाम देने से मना करे तो बाक़ी मुकल्लफ़ लोगों पर वाजिबे किफ़ाई है कि मैयित के इन कामों को अंजाम दे और अगर कुछ मुकल्लफ़ लोग अंजाम दे दें तो दूसरों पर से वुजूब साक़ित हो जाता है। चुनांचे अगर कोई भी अंजाम न दे तो तमाम मुकल्लफ़ लोग गुनाहगार होंगे और वली के मना करने की सूरत में उससे इजाज़त लेने की शर्त खत्म हो जाती है।
549. अगर कोई इंसान तज्हीज़ व तक्फीन के कामों में मश्ग़ूल हो जाए तो दूसरों के लिए इस बारे में कोई इक़्दाम करना वाजिब नहीं है, लेकिन अगर वह इन कामों को अधूरा छोड दे तो ज़रूरी है कि दूसरे उन्हें पूरा करें।
550. किसी इंसान को इत्मिनान हो कि कोई दूसरा मैयित को (नहलाने, कफ़्नाने और दफ़्नाने) के कामों में मशग़ूल है तो उस पर वाजिब नहीं है कि मैयित के कामों के बारे में इक़्दाम करे, लेकिन अगर उसे (इन कामों के न होने का) मह्ज़ शक या गुमान हो तो ज़रूरी है, इक़्दाम करे।
551. अगर किसी इंसान को मालूम हो कि मैयित का ग़ुस्ल या कफ़न या नमाज़ या दफ़्न ग़लत तरीक़े से हुआ है तो ज़रूरी है कि इन कामों को दोबारा अंजाम दे। लेकिन अगर उसे बातिल होने का गुमान हो (यानी यक़ीन न हो) या शक हो कि दुरूस्त था कि नहीं तो फिर इस बारे में कोई इक़्दाम करना ज़रूरी नहीं।
552. औरत का वली उसका शौहर है और औरत के अलावा वह इंसान जिनको मैयित से मिरास मिलती है उसी तरतीब से जिसका ज़िक्र मीरास के मुख़्तलिफ तब्क़ों में आयेगा, दूसरों पर मुक़द्दम है। मैयित का बाप, मैयित के बेटे पर और मैयित का दादा उसके भाई पर, और मैयित का पदरी व मादरी भाई उसके सिर्फ़ पदरी भाई या मादरी भाई पर और उसका पदरी भाई उसके मादरी भाई पर और उसके चचा के उसके मामूं पर मुक़द्दम होनें पर इश्काल है। चुनांचे इस सिलसिले में एहतियात के (तमाम) तक़ाज़ो को पेशे नज़र रखना चाहिए।
553. नाबालिग़ बच्चा और दीवाना मैयित के कामों को अंजाम देने के लिए वली नहीं बन सकते और बिल्कुल इसी तरह वह ग़ैर हाज़िर इंसान भी वली नहीं बन सकता जो खुद या किसी को मामूर करके मैयित से मुतअल्लिक कामों को अंजाम न दे सकता हो।
554. अगर कोई इंसान कहे कि मैं मैयित का वली हूँ या मैयित के वली ने मुझे इजाज़त दी है कि मैयित के ग़ुस्ल, कफ़न और दफ़्न को अंजाम दूँ, या कहे कि मैं मैयित के दफ़्न से मुताल्लिक़ कामों में मैयित का वली हूँ और उसके कहने से इत्मिनान हासिल हो जाये या मैयित उसके कब्ज़े में हो या दो आदिल इंसान गवाही दें तो उसकी बात को क़बूल कर लेना चाहिए।
555. अगर मरने वाला अपने ग़ुस्ल, कफ़न, दफ़न और नमाज़ में अपने वली के अलावा किसी और को मुऐयन करे तो उन कामों की विलायत उसी इंसान के हाथ में रहेगी और ज़रूरी नही है कि जिस इंसान को मैयित ने वसीयत की हो वह खुद उन कामों को अंजाम देने का ज़िम्मेदार बने और उस वसीयत को क़बूल करे, लेकिन अगर क़बूल करले तो ज़रूरी है कि उस पर अमल करे।